मनाली से शिमला 250 km है। रात शिमला स्टे हुआ। मनाली से शिमला जाने के दो रास्ते हैं। एक रास्ता नालदेहरा तातापानी सतुलुज नदी के किनारे होते हुये जाता है। तातापानी बहुत रमणीक जगह है। कटकटी ठंड में भी आप गर्म पानी के श्रोत आप यहां पा सकते हैं। राफ्टिगं का आनंद भी उठा सकते हैं। ये रास्ता कुल्लू निकलने के कुछ समय बाद ही अलग हो जाता है जबकि दूसरा मंडी सुदंरनगर विलासपुर होते हुये है। हालांकि मैंने विलासपुर को कट कर सोर्ट ले लिया था पर हमें तातापानी बाला रास्ता पकडना चाहिये था क्यूं कि हमें मशोबरा पहुंचना था जो उसी रूट पर पडता है।
पहाडों में तीस की स्पीड से ज्यादा निकाल ही नहीं पाता। मनाली से सुवह ही निकल लिये फिर भी शिमला पहुंचते पहुंचते शाम हो गयी। सुंदरनगर शहर पार करते समय एक बस ड्राईवर द्वारा जाम लगा दिये जाने पर जैसे ही मैंने उसे अनुशाषित तरीके से गाडी निकालने की सलाह दी, बस कन्डक्टर की निगाह तुरंत मेरी बाइक की नंबर प्लैट पर गयी और तपाक से बोला, " अभी हमारे इतने भी बुरे दिन नहीं आये हैं कि यूपी बाले हमें अनुशाषन सिखायें। यूपी में तो डिसिप्लिन नाम की कोई चीज ही नहीं है। " निसंदेह पूरे यूपी की खराब छवि बनाये जाने से मुझे झटका सा लगा था पर कहता भी क्या ?उसकी बात में सच्चाई जो थी। लेकिन एक दिन पहले ही रोहतांग से लौटते समय मेरे सहयात्री का कार में मोबाईल खो जाने पर हुये झगडे के दौरान हिमाचली ड्राईवर द्वारा बार बार उसे " साले बिहारी , साले बिहारी " की गाली देना भी हजम नहीं हुआ। जिस बिहार ने देश को इतने IAS IPS एवं बडी बडी राजनीतिक हस्तियां दीं हैं, उसकी छवि आज भी पूरे देश में सिर्फ दिहाडी मजदूर के रूप में बनी हुयी है। सिर्फ बढी हुयी दाढी, सांवले रंग के आधार पर किसी भी व्यक्ति को बिहारी कहकर गाली देना निसंदेह मुझे चुभा था। मेरे शांत करने की लाख कोशिषों के वावजूद वो बार बार उसे कह रहा था,
" साले बिहारी, रोटी तक कमाने की हैसियत नहीं तुम्हारी जो हमारे यहां मजदूरी करने चले आते हो" कुल मिलाकर यूपी बिहार की इतनी गलत छबि पाकर दुख तो हुआ पर करते भी क्या, बात में कुछ तो सच्चाई थी।
हमारी कोशिष रही थी कि अंधेरा होने से पहले शिमला पहुंच जाय। अंधेरे में पहाडों में गाडी चलाने में कोई समझदारी नहीं है। बगल में ही गहरी गहरी खाई हैं पता भी न चलेगा। रोहतांग की ठंडी हवा ने सर दर्द और एसीडिटी बढा दी थी। रात पूरी नींद ली तब जाकर कुछ आराम मेहसूस हुआ। मनाली से निकलते समय ठंड इतनी थी कि नहाने की हिम्मत ही नहीं हुयी। दस बजे तक मंडी तक आ पहुंचा। धूप तेज होने लगी, गरमी लगने लगी तभी बगल से बहती हुयी नदी का सुंदर नजारा देख नहाने का भी मन कर आया। बगल ही पंजाबी ढाबा था। बस फिर क्या कूद पडा नदी में। शहरी बनाबट की दृष्टि से शिमला मनाली की अपेच्छा ज्यादा अच्छा लगा। पूरा शहर पहाड पर बसा हुआ है। ट्रैफिक व्यव्स्था भी बहुत ही शानदार तरीके से मैनेज की हुई है।
इसका मुख्य आकर्षण माल रोड रिज है जहां हजारों लोग सुवह शाम आपको टहलते नजर आयेंगे। यहां वाहन ऐलाऊ नहीं हैं। नीचे पार्किगं में खडी करनी पडेगी वाईक या कार। दिन तो गर्म था कितुं शाम छ बजे ठंडक हो गयी थी जो रात होते होते काफी सर्दी में बदल गयी। रजाई में सोना पडा। सुवह अभी बाहर देखा तो सामने कोहरे में लिपटी पहाडियां ही नजर आयीं। काफी देर से वारिष हो रही है इसलिये सर्दी भी है। रात को शहर की जलती हुई रोशनियां बहुत गजब होतीं हैं । ऐसा लगता है जैसे टिमटिमाते तारों बाला आसमान नीचे आ गया हो। एक कटोरे में जलते हुये बहुत सारे दीपक। यदि आप सुकून भरे कुछ पल बिताना चाहते हैं तो शहर से हटकर थोडी दूर कमरा लीजिये। यहां से ट्रैन की भी सुविधा है। शिमला से कालका तक जाने बाली खिलौना गाडी ( टौय ट्रैन ) अपने आप में एक अलग ही आकर्षण है।
इतिहास सबक सिखाने के लिये ही पढाया जाता है ताकि उन दुखद घटनाओं की पुनरावृति न हो। उत्तराखंड घटना के वक्त कुछ धार्मिक अंधों ने मीडिया में हल्ला मचाया था कि हनीमून पर जाने बाले लोगों के कारण ये विपदा आयी है। पापी बढ गये हैं तो ईश्वर दंड दे रहा है। धर्म की अंधी बहस में हम उस मूल कारण तक पहुंच ही नहीं पाये और न ही कोई सबक ले पाये। दिन रात पेडों की अंधाधुंध कटाई और रास्ता बनाने को पहाडों में किये जा रहे वारुदी विस्फोट किस कदर पहाडों को खोखला किये दे रहे हैं। पहाडों में फैलते प्रदूषण और बढते हुए वैश्विक तापमान से अमरनाथ के शिवजी पिघल जाते हैं तो फिर ग्लेशियर क्या चीज हैं। मैदानी भागों में बढती गर्मी से क्षणिक राहत पाने के लिये गाडियों का विशाल काफिला आज पहाडों की तरफ दौड रहा है और वर्फ है कि हर साल कुछ ऊपर तक खिसकती जा रही है। एक समय था जब पर्यटकों को केवल शिमला में ही वर्फ मिल जाती थी लेकिन अब कुल्लू मनाली से आगे रोहतांग पर भी मुट्ठीभर वर्फ मिल पाती है। प्रकृति ही साक्षात ईश्वर है और इंसान अपनी शक्ति के मद में उस पर विजय प्राप्त करने का असफल प्रयास कर रहा है। पता नहीं वो कब पलट कर तमाचा मार दे कि सारा विकाश धरा का धरा रह जाय। पहाडी जीवन कठिन है, मगर फिर भी मैं वहीं जाना चाहता हूँ। मेट्रो सिटीज़ की चका-चौंध में सिवाय खोखलेपन के और कुछ भी नहीं, हर आदमी मन में डर और शक लिये आप से मिलता है। सम्वेदनशीलता और प्रेम जैसी बातें शहरों में हास्यास्पद हैं। शहरों में सुख सिर्फ भौतिक है और शरीर के लिये है। मन के सुख शहरों में सिर्फ प्रतीत होते हैं, हैं नहीं। और अगर मन में सुख न हो तो बाहर के सुख दो कौड़ी के भी नहीं। अतः मैं कठिन जीवन जीना ही पसंद करूँगा । पहाडों में मानसिक सुकून मिलता है लेकिन उन्ही को मिलता है जिनके पास जीने के पर्याप्त संसाधन हैं। पहाडों की हर वो चीज जो बाहर से मंगानी पडती है, दस गुना कीमत पर खरीदनी पडती है। भाडा और लेवर मार जाता है। एक ईंट पचास रुपये की पडती है वहां जबकि मेरे यहां पांच रुपये की है। ऐसे ही बिजली पानी गेहूं चावल आदि राशन भी कई गुना अधिक कीमतों पर खरीदना पडता है। बच्चों को रोजगार हेतु ना जाने कहां कहां भटकना पडता है। और रही बात सुकून की तो मैदानी लोगों की भीड और दौडती कारों ने वो शांति भी छीन ली है। शिमला मनाली जैसे हिल सिटीज ट्रैफिक जाम की फंसाफंसी में अपना मूल खो चुके हैं। मैं शिमला के जिस गांव में रुका था, उसके घरबाले मुझे रिसीव करने दो किमी की ऊंची नीची पहाडी चड कर मुझे लेने आये थे। वहीं रोड पर ही मेरी गाडी इस तरह से पार्क करवाई कि अन्य को रास्ता मिल सके। फिर उसके बाद रात के अंधेरे में मोबाईल की टार्च के से मुझे रास्ता दिखाते हुये अपने घर ले गये। दो किमी तक मैं फिसलन भरी कच्ची पहाडी ढलान की पगडंडियों पर फिसलता रहा । मेरा भारी बैग भी उन्हौने ही अपने सर लाद रखा था। मैं बिल्कुल खाली हाथ था फिर भी फिसलने से बाल बाल बचा। थोडी सी भी चूक जान ले लेती है वहां जबकि ये उनके लिये रोज का काम है। दिन में बीस बार चडते हैं वो इन रास्तों को। बहुत सारे लोग तो दस दस बीस बीस किमी की चडाई चड कर बाजार से राशन खरीद कर लाते हैं रोज।
हिमाचल प्रदेश के विलासपुर जिले के वो गांव जो आनंदपुर साहिव पंजाब के सीमावर्ती हैं, पहाडी होते हुये भी पंजाबी संस्कृति लिये हुये हैं।
विलासपुर से थोडा पहले ही घाघस गांव से शिमला के लिये एक रोड जाता है। हालांकि आप विलासपुर होकर भी जा सकते हैं।
मैं उस रोड से शिमला के रास्ते पर गुजर रहा था कि मैंने देखा कि कोटलू गांव में एक क्षेत्रीय कुस्ती दंगल लगा हुआ है। सबसे पहले महिलाओं के द्वारा गीत गाते हुये पूरे दंगल का चक्कर लगा कर पूजा पाठ किया गया। फिर उसके बाद पंजाबी पोशाक में आये आठ दस ढोलची बंदों ने वो भांगडा ढोल बजाया कि मैं गाडी पर भांगडा पा लिया। गिद्दा भी कर डाला।
अब तक सिर्फ फिल्मों में देखा था। रीयल में देखकर मजा आ गया।
मानव की महत्वाकांक्षा ने पहाडों को भी नहीं छोडा। हर रोज जेसीबी और डायनामाईट लगा कर पहाड काट काट कर नये रोड बनाये जा रहे हैं। रोड पर रोड फिर भी ट्रैफिक जाम । शांति है कहां ? सुकून तो जैसे अब गायब ही हो गया है पहाडों से। हर जगह व्यावसायिकता ने अपने पैर पसार लिये हैं।
मैं भले ही लेह लद्दाख न जा सका कितुं रोहतांग तक के इस सफर में बहुत सारे बाइकर्स से मुलाकात जान पहचान हो गयी जो जम्मू से चल कर श्रीनगर लेह मनाली होते हुये दिल्ली जा रहे थे। काफी सारे बाइकर्स विदेशी भी मिले। बैसे ज्यादातर पंजाब और हिमाचल के ही थे जिन्हौने दिल्ली से , चंडीगढ से या मनाली से बुलेट किराये पर ली थी। जम्मू या श्रीनगर से भी बाइक किराये पर मिल जातीं हैं। बाइक के साथ साथ पूरी किट भी देते हैं वो । इनमें से एक ग्रुप के साथ काफी देर चर्चा भी हुयी । अपने अनुभव भी शेयर किये। उन्हौने अपने हाथों की उघडी हुयी खाल दिखाई और फटे हुये होंठ बताये। बढी हुयी दाडी और दस दिन से पहने हुये गंदे कपडे जो कालर पर काले पड चुके थे। कारगिल से ऊपर जाकर नहाना और कपडे बदलना तो जैसे व्यर्थ ही है। नहाने का मतलब अपनी मौत को दाबत देना। दो बार गाडी पंचर हुयी उनकी जो उन्हौने खुद ही जोडी। दूर दूर तक कोई दुकान मकान नजर नहीं आता। लेह से केलांग के बीच में केवल एक जगह सरचू जगह पडेगी जहां रात बिताने को सिर्फ टैंट मिलेंगे । सरचू जगह इस मार्ग का मध्य बिदुं है जहां आप रात बिता सकते हैं। उसके बाद तो फिर सीधे लेह ही पहुंचना पडेगा जो लगभग तीन सौ किमी है। हालांकि मेरे हौसले में और वृद्धि हुयी। जो भी होता है अच्छे के लिये ही होता है। मेरी इस बार लेह की पूरी तैयारी नहीं थी। यदि जाता तो मुसीबत में पड जाता। अगली जून में पूरी तैयारी के साथ जाउगां और पूरी टीम के साथ जाऊगां।
कुल मिलाकर रोहतांग की यात्रा का यह अतिंम दिन था। यहां से अब लौटना ही था। पहली बाइक हिल ट्रिप के हिसाव से देखूं तो ये एक यादगार टूर है जिसकी खट्टी मीठी यादें अब भी मेरे दिलो दिमाग पर राज किये हुये हैं।
पहाडों में तीस की स्पीड से ज्यादा निकाल ही नहीं पाता। मनाली से सुवह ही निकल लिये फिर भी शिमला पहुंचते पहुंचते शाम हो गयी। सुंदरनगर शहर पार करते समय एक बस ड्राईवर द्वारा जाम लगा दिये जाने पर जैसे ही मैंने उसे अनुशाषित तरीके से गाडी निकालने की सलाह दी, बस कन्डक्टर की निगाह तुरंत मेरी बाइक की नंबर प्लैट पर गयी और तपाक से बोला, " अभी हमारे इतने भी बुरे दिन नहीं आये हैं कि यूपी बाले हमें अनुशाषन सिखायें। यूपी में तो डिसिप्लिन नाम की कोई चीज ही नहीं है। " निसंदेह पूरे यूपी की खराब छवि बनाये जाने से मुझे झटका सा लगा था पर कहता भी क्या ?उसकी बात में सच्चाई जो थी। लेकिन एक दिन पहले ही रोहतांग से लौटते समय मेरे सहयात्री का कार में मोबाईल खो जाने पर हुये झगडे के दौरान हिमाचली ड्राईवर द्वारा बार बार उसे " साले बिहारी , साले बिहारी " की गाली देना भी हजम नहीं हुआ। जिस बिहार ने देश को इतने IAS IPS एवं बडी बडी राजनीतिक हस्तियां दीं हैं, उसकी छवि आज भी पूरे देश में सिर्फ दिहाडी मजदूर के रूप में बनी हुयी है। सिर्फ बढी हुयी दाढी, सांवले रंग के आधार पर किसी भी व्यक्ति को बिहारी कहकर गाली देना निसंदेह मुझे चुभा था। मेरे शांत करने की लाख कोशिषों के वावजूद वो बार बार उसे कह रहा था,
" साले बिहारी, रोटी तक कमाने की हैसियत नहीं तुम्हारी जो हमारे यहां मजदूरी करने चले आते हो" कुल मिलाकर यूपी बिहार की इतनी गलत छबि पाकर दुख तो हुआ पर करते भी क्या, बात में कुछ तो सच्चाई थी।
हमारी कोशिष रही थी कि अंधेरा होने से पहले शिमला पहुंच जाय। अंधेरे में पहाडों में गाडी चलाने में कोई समझदारी नहीं है। बगल में ही गहरी गहरी खाई हैं पता भी न चलेगा। रोहतांग की ठंडी हवा ने सर दर्द और एसीडिटी बढा दी थी। रात पूरी नींद ली तब जाकर कुछ आराम मेहसूस हुआ। मनाली से निकलते समय ठंड इतनी थी कि नहाने की हिम्मत ही नहीं हुयी। दस बजे तक मंडी तक आ पहुंचा। धूप तेज होने लगी, गरमी लगने लगी तभी बगल से बहती हुयी नदी का सुंदर नजारा देख नहाने का भी मन कर आया। बगल ही पंजाबी ढाबा था। बस फिर क्या कूद पडा नदी में। शहरी बनाबट की दृष्टि से शिमला मनाली की अपेच्छा ज्यादा अच्छा लगा। पूरा शहर पहाड पर बसा हुआ है। ट्रैफिक व्यव्स्था भी बहुत ही शानदार तरीके से मैनेज की हुई है।
इसका मुख्य आकर्षण माल रोड रिज है जहां हजारों लोग सुवह शाम आपको टहलते नजर आयेंगे। यहां वाहन ऐलाऊ नहीं हैं। नीचे पार्किगं में खडी करनी पडेगी वाईक या कार। दिन तो गर्म था कितुं शाम छ बजे ठंडक हो गयी थी जो रात होते होते काफी सर्दी में बदल गयी। रजाई में सोना पडा। सुवह अभी बाहर देखा तो सामने कोहरे में लिपटी पहाडियां ही नजर आयीं। काफी देर से वारिष हो रही है इसलिये सर्दी भी है। रात को शहर की जलती हुई रोशनियां बहुत गजब होतीं हैं । ऐसा लगता है जैसे टिमटिमाते तारों बाला आसमान नीचे आ गया हो। एक कटोरे में जलते हुये बहुत सारे दीपक। यदि आप सुकून भरे कुछ पल बिताना चाहते हैं तो शहर से हटकर थोडी दूर कमरा लीजिये। यहां से ट्रैन की भी सुविधा है। शिमला से कालका तक जाने बाली खिलौना गाडी ( टौय ट्रैन ) अपने आप में एक अलग ही आकर्षण है।
इतिहास सबक सिखाने के लिये ही पढाया जाता है ताकि उन दुखद घटनाओं की पुनरावृति न हो। उत्तराखंड घटना के वक्त कुछ धार्मिक अंधों ने मीडिया में हल्ला मचाया था कि हनीमून पर जाने बाले लोगों के कारण ये विपदा आयी है। पापी बढ गये हैं तो ईश्वर दंड दे रहा है। धर्म की अंधी बहस में हम उस मूल कारण तक पहुंच ही नहीं पाये और न ही कोई सबक ले पाये। दिन रात पेडों की अंधाधुंध कटाई और रास्ता बनाने को पहाडों में किये जा रहे वारुदी विस्फोट किस कदर पहाडों को खोखला किये दे रहे हैं। पहाडों में फैलते प्रदूषण और बढते हुए वैश्विक तापमान से अमरनाथ के शिवजी पिघल जाते हैं तो फिर ग्लेशियर क्या चीज हैं। मैदानी भागों में बढती गर्मी से क्षणिक राहत पाने के लिये गाडियों का विशाल काफिला आज पहाडों की तरफ दौड रहा है और वर्फ है कि हर साल कुछ ऊपर तक खिसकती जा रही है। एक समय था जब पर्यटकों को केवल शिमला में ही वर्फ मिल जाती थी लेकिन अब कुल्लू मनाली से आगे रोहतांग पर भी मुट्ठीभर वर्फ मिल पाती है। प्रकृति ही साक्षात ईश्वर है और इंसान अपनी शक्ति के मद में उस पर विजय प्राप्त करने का असफल प्रयास कर रहा है। पता नहीं वो कब पलट कर तमाचा मार दे कि सारा विकाश धरा का धरा रह जाय। पहाडी जीवन कठिन है, मगर फिर भी मैं वहीं जाना चाहता हूँ। मेट्रो सिटीज़ की चका-चौंध में सिवाय खोखलेपन के और कुछ भी नहीं, हर आदमी मन में डर और शक लिये आप से मिलता है। सम्वेदनशीलता और प्रेम जैसी बातें शहरों में हास्यास्पद हैं। शहरों में सुख सिर्फ भौतिक है और शरीर के लिये है। मन के सुख शहरों में सिर्फ प्रतीत होते हैं, हैं नहीं। और अगर मन में सुख न हो तो बाहर के सुख दो कौड़ी के भी नहीं। अतः मैं कठिन जीवन जीना ही पसंद करूँगा । पहाडों में मानसिक सुकून मिलता है लेकिन उन्ही को मिलता है जिनके पास जीने के पर्याप्त संसाधन हैं। पहाडों की हर वो चीज जो बाहर से मंगानी पडती है, दस गुना कीमत पर खरीदनी पडती है। भाडा और लेवर मार जाता है। एक ईंट पचास रुपये की पडती है वहां जबकि मेरे यहां पांच रुपये की है। ऐसे ही बिजली पानी गेहूं चावल आदि राशन भी कई गुना अधिक कीमतों पर खरीदना पडता है। बच्चों को रोजगार हेतु ना जाने कहां कहां भटकना पडता है। और रही बात सुकून की तो मैदानी लोगों की भीड और दौडती कारों ने वो शांति भी छीन ली है। शिमला मनाली जैसे हिल सिटीज ट्रैफिक जाम की फंसाफंसी में अपना मूल खो चुके हैं। मैं शिमला के जिस गांव में रुका था, उसके घरबाले मुझे रिसीव करने दो किमी की ऊंची नीची पहाडी चड कर मुझे लेने आये थे। वहीं रोड पर ही मेरी गाडी इस तरह से पार्क करवाई कि अन्य को रास्ता मिल सके। फिर उसके बाद रात के अंधेरे में मोबाईल की टार्च के से मुझे रास्ता दिखाते हुये अपने घर ले गये। दो किमी तक मैं फिसलन भरी कच्ची पहाडी ढलान की पगडंडियों पर फिसलता रहा । मेरा भारी बैग भी उन्हौने ही अपने सर लाद रखा था। मैं बिल्कुल खाली हाथ था फिर भी फिसलने से बाल बाल बचा। थोडी सी भी चूक जान ले लेती है वहां जबकि ये उनके लिये रोज का काम है। दिन में बीस बार चडते हैं वो इन रास्तों को। बहुत सारे लोग तो दस दस बीस बीस किमी की चडाई चड कर बाजार से राशन खरीद कर लाते हैं रोज।
हिमाचल प्रदेश के विलासपुर जिले के वो गांव जो आनंदपुर साहिव पंजाब के सीमावर्ती हैं, पहाडी होते हुये भी पंजाबी संस्कृति लिये हुये हैं।
विलासपुर से थोडा पहले ही घाघस गांव से शिमला के लिये एक रोड जाता है। हालांकि आप विलासपुर होकर भी जा सकते हैं।
मैं उस रोड से शिमला के रास्ते पर गुजर रहा था कि मैंने देखा कि कोटलू गांव में एक क्षेत्रीय कुस्ती दंगल लगा हुआ है। सबसे पहले महिलाओं के द्वारा गीत गाते हुये पूरे दंगल का चक्कर लगा कर पूजा पाठ किया गया। फिर उसके बाद पंजाबी पोशाक में आये आठ दस ढोलची बंदों ने वो भांगडा ढोल बजाया कि मैं गाडी पर भांगडा पा लिया। गिद्दा भी कर डाला।
अब तक सिर्फ फिल्मों में देखा था। रीयल में देखकर मजा आ गया।
मानव की महत्वाकांक्षा ने पहाडों को भी नहीं छोडा। हर रोज जेसीबी और डायनामाईट लगा कर पहाड काट काट कर नये रोड बनाये जा रहे हैं। रोड पर रोड फिर भी ट्रैफिक जाम । शांति है कहां ? सुकून तो जैसे अब गायब ही हो गया है पहाडों से। हर जगह व्यावसायिकता ने अपने पैर पसार लिये हैं।
मैं भले ही लेह लद्दाख न जा सका कितुं रोहतांग तक के इस सफर में बहुत सारे बाइकर्स से मुलाकात जान पहचान हो गयी जो जम्मू से चल कर श्रीनगर लेह मनाली होते हुये दिल्ली जा रहे थे। काफी सारे बाइकर्स विदेशी भी मिले। बैसे ज्यादातर पंजाब और हिमाचल के ही थे जिन्हौने दिल्ली से , चंडीगढ से या मनाली से बुलेट किराये पर ली थी। जम्मू या श्रीनगर से भी बाइक किराये पर मिल जातीं हैं। बाइक के साथ साथ पूरी किट भी देते हैं वो । इनमें से एक ग्रुप के साथ काफी देर चर्चा भी हुयी । अपने अनुभव भी शेयर किये। उन्हौने अपने हाथों की उघडी हुयी खाल दिखाई और फटे हुये होंठ बताये। बढी हुयी दाडी और दस दिन से पहने हुये गंदे कपडे जो कालर पर काले पड चुके थे। कारगिल से ऊपर जाकर नहाना और कपडे बदलना तो जैसे व्यर्थ ही है। नहाने का मतलब अपनी मौत को दाबत देना। दो बार गाडी पंचर हुयी उनकी जो उन्हौने खुद ही जोडी। दूर दूर तक कोई दुकान मकान नजर नहीं आता। लेह से केलांग के बीच में केवल एक जगह सरचू जगह पडेगी जहां रात बिताने को सिर्फ टैंट मिलेंगे । सरचू जगह इस मार्ग का मध्य बिदुं है जहां आप रात बिता सकते हैं। उसके बाद तो फिर सीधे लेह ही पहुंचना पडेगा जो लगभग तीन सौ किमी है। हालांकि मेरे हौसले में और वृद्धि हुयी। जो भी होता है अच्छे के लिये ही होता है। मेरी इस बार लेह की पूरी तैयारी नहीं थी। यदि जाता तो मुसीबत में पड जाता। अगली जून में पूरी तैयारी के साथ जाउगां और पूरी टीम के साथ जाऊगां।
कुल मिलाकर रोहतांग की यात्रा का यह अतिंम दिन था। यहां से अब लौटना ही था। पहली बाइक हिल ट्रिप के हिसाव से देखूं तो ये एक यादगार टूर है जिसकी खट्टी मीठी यादें अब भी मेरे दिलो दिमाग पर राज किये हुये हैं।
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