Sunday, January 29, 2017

नबाबों का शहर लखनऊ : ताबिश सिद्दिकी भाई के साथ

मेरे इस टूर का उद्देश्य घूमना नहीं बल्कि दोस्तों से मिलना था, एक दो साल पहले ही आभाषी दुनियां में कुछ ""इंसानों"" से नयी दोस्ती हुयी थी, तो तीव्र इच्छा थी कि उन मानव धर्मावलम्बियों को शीघ्रातिशीघ्र अपनी रीयल दुनियां में शामिल कर लिया जाये बैसे भी भरोषा नहीं है कि नफरत के इस दौर में आगे जाकर कोई मानव मिल भी पायेगा कि नहीं। फेसबुक मित्रों के अलावा मेरे पुराने दोस्तों जो आगरा में मेरे साथ बी एड किये थे और मेरे सुख दुख के हिस्सेदार बने थे, से मिले भी दस साल बीत गये थे। देखना था कि कौन कैसा चल रहा है। देखना था कि समय की कठिन परीक्षाओं एवं राजनीतिक भेदभाव की कडवाहट कहीं विचारों में तो नहीं घुस गयी। ये तीनों पंडत जब मेरे पास ही रूम लेकर रह रहे थे तब एक भी पन्डित नहीं था, हम एक ही थाली में खाते थे और शाम को मेरी सीडी कैसेट की दुकान पर खूब मस्ती करते थे। बैसे ये तीनों पंडे थे तो बडे दिमागदार , पूरे कालेज में बस एक ही दोस्त बनाया, जाट और वो भी लोकल । मेरे होते किसी की मजाल नहीं थी कि इनकी तरफ कोई नजर उठा के भी देख सके पर यार मुझे भी तो दिमाग बालों की जरूरत थी न, क्यूं कि अपने पास था नहीं, शायद यही कारण था कि पहले राजा क्षत्रिय होता था और प्रधानमंत्री कोई महान ज्ञानी पंडित। हहह क्या दिन थे वो भी यार ! हम चारों एक ही बाइक पर बैठ कर पूरा आगरा क्रौस कर जाते और पुलिस बाला हमारे कालेज तक हमारा पीछा करता पर टैशंन नहीं था , मेरा पूरा खानदान पुलिस बाला है और नहीं होता तो पचास का नोट काफी था पर आज उन बातों को याद करता हूं तो ये लडकन या छिछोरपन नजर आता है जो शिक्षक बनने की निशानी बिल्कुल नहीं थी पर कोई नहीं , समय सब सिखा देता है, बैसे भी हम रोज कुछ नया सीखते हैं।
आशा करता हूं कि नये पुराने रिश्तों को गरमाहट देने की यह कोशिष जीवन में नये रंग जरूर भरेगी।
रात को प्रमोद तिवारी के पास फैजाबाद ही रुका था और सुवह ही लखनऊ के लिये शियाल्दा एक्सप्रैस पकड ली जिसने मुझे लगभग दस बजे तक लखनऊ पहुंचा दिया। इस बीच ताबिश भाई का बहुत बार फौन आ चुका था। खैर कुल मिलाकर मैं तवी भाई के घर पहुंच ही गया। घर पर ही मित्र रोहित गुप्ता जी से भी मुलाकात हुई। घंटे दो घंटे तक भाभी और बच्चों के साथ बतियाते रहे और फिर हम तीनों निकल पडे नबाबों की नगरी लखनऊ की सैर पर।सबसे पहले तवी भाई के औफिस पहुंचे और फिर बहां से गार्डन। दरअसल हमारा घूमने का कम और चर्चा का ज्यादा मन था। अत: हरे भरे बगीचे में बैठकर गप्पे लगाते रहे। क्रिसमस का त्यौहार था। लखनऊ के सबसे फेमस हजरतगंज बाजार में भीड उमडी पडी थी। बडे शहरों में व्यावसायिकता के चलते हर त्यौहार पर लोग टूट पडते हैं। अब धर्म बाला मामला तो बिल्कुल नहीं बचा। क्रिसमस पर भीड हिदुंओं की ही थी। हिंदुओं को तो बस सैलीव्रेट करने का बहाना चाहिये। तुरंत शुरू हो जाते हैं। और होना भी चाहिये। आखिर जीवन का उद्देश्य खुशी के अलावा और है ही क्या ? 
हजरतगंज के मार्केट में घूमते घामते तवी भाई को भूख लग आयी थी। जबकि मैं घर पर ही खाने का इच्छुक था पर भाई तो घुस गये एक शानदार से होटल में। गजब की डैकोरेशन कर रखी थी भाई होटल बालों ने। एकदम शानदार। एकदम वी आई पी व्यवस्था। खैर खाना पीना करके हम शहर की गलियां घूमते घामते घर पहुंच गये। 
जब मैंने सुवह आते समय चीकू ( तवी भाई का छोटा बेटा ) की तरफ दोस्ती का हाथ बढाया था तो साफ इंकार करते हुये हम से दूर चले गये, जो कि एक टीचर के लिये सबसे बडी चुनौती होती है, और जो बंदा बच्चे को अपने करीब लाना नहीं सीख पाया , मेरी निगाह में उसे टीचर बनने का हक भी नहीं है। मैं सुवह तो छोटू से बिना हाथ मिलाये तवी भाई के साथ बाहर चला गया था पर मुझे पता था कि मेरा नन्हा उस्ताद शाम तक मेरा दोस्त बन ही जायेगा। हहह मेरा काम ही यही है। यही मेरी जिंदगी है। दिन भर ऐसे बाल गोपालों में ही तो रहता हूं मैं। दरअसल किसी बच्चे का दोस्त बनने के लिये आपको उसके लेवल पर आना पडता है। बच्चे को तो सिर्फ प्रेम और अपनापन चाहिये। बडे बेटे जुबिन से तो सुवह पहली मुलाकात में ही दोस्ती हो गयी थी। सही बताऊं तो तवी भाई से ज्यादा तो मुझे इन दोनों से मिलने की चाह थी। जुबिन की बड्डे पर मैंने गिफ्ट का जो वायदा जो किया था वो भी तो निभाना था न । शाम को अपनी पैटिगं लेकर आ गये दोनों दोस्त। काफी देर मस्ती करते रहे। खूब खुलकर बातें करने लगे। सच पूछो तो यहां आकर बहुत कुछ मिला। खूब सारी बातें, ढेर सारा ज्ञान और खूब सारी मस्ती। मुझे एहसास ही नहीं हुआ कि हम पहली बार मिल रहे हैं। तवी भैया के परिवार से जो अपनापन मिला , शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता , बस इंतजार है कि ये परिवार जल्द मेरे गरीब खाने पर पधारे जिससे मैं प्यार के बदले प्यार दे सकूं। और हमें चाहिये ही क्या ? मैं तो प्रेम पुजारी हूं । मिलने मिलाने और अपना बनाने की ये मुहिम मेरे लिये कोई नयी नहीं है। यही काम मैं पिछले बीस पच्चीस वर्ष से कर रहा हूं । चूंकि पच्चीस वर्ष में लगभग पूरा भारत घूम चुका हूं तो जाहिर सी बात है कि राह में सैकडों साथी बने होंगे।इसके अलावा मेरे ऐसे होने की मूल बजह है कि मेरे पापा पूरे तीस साल जगह जगह नौकरी करते रहे। हमें जगह जगह रहने का मौका मिला। तरह तरह के लोगों के साथ उठना बैठना और फिर विपरीत परिस्थितियों में उन्ही परायों का विपत्ति में साथ खडे होना। बस ऐसे ही जाति धर्म ऊंच नीच अमीरी गरीबी जैसी संकीर्ण सोच से ऊपर उठकर मानवतावादी विचारों का जन्म हुआ होगा।






लेकिन फेसबुक ने मौका दिया कि मैं उन विचारों को अमली जामा पहना सकूं । सर्दियों की छुट्टियों में मेरी इस यात्रा का असली उद्देश्य भी मानव धर्म का प्रचार प्रसार ही था। मुहब्बत की ये मशाल अब बुझने न दी जायेगी।
शाम को तवी भाई ने बहुत ही शानदार खाना बनवाया। हालांकि मैं नौनवैजीटेरियन हूं पर अब धीरे धीरे शाकाहारी हो चला हूं। मिर्च मसाले बाली सब्जियां या नौनवेज पचता नहीं है अब । इसलिये तवी भाई ने बहुत ही सात्विक भोजन करवाया। मटर मशरुम जिसका मैंने नाम तक न सुना था और तवी भाई की फेवरेट सब्जी है, मुझे खिलायी। पहली वार खायी। आनंद आ गया। परिवार के साथ बैठ कर खाओ तो इंसान दो रोटी और ज्यादा खा जाता है। 
भोजन के बाद काफी देर धर्म और मजहब पर चर्चा चलती रही। दर असल ये टोपिक हम दोनों का ही फेवरेट है।मेरी जिंदगी के ये पहले मुसलमान थे जिनको मैंने नबी और कुरान पर उंगली उठाते और सनातन की तारीफों के पुल बांधते देखा था। और इधर मैं था कि देवी देवताओं की धज्जियां उडाये जा रहा था।इस्लाम के एकेश्वरवाद से प्रभावित था। दोनों का एकदम उलट मामला फिर भी लगाव बढता ही गया। पता नहीं क्यूं ? 
सच बताऊं तो मैं तवी भाई को पढ पढ कर ही सीखा हूं। फेसबुक पर पहले मठाधीश ये ही थे जिनसे मैं प्रभावित हुआ था। हालत ये थी कि इंतजार करता रहता था कि इनकी अगली पोस्ट कब आयेगी। उन दिनों ये दिल्ली में रहा करते थे और एक बार मैं बुक फेयर के बहाने इनसे मिलने दिल्ली भी चला गया था पर मुलाकात न हो सकी थी। हजरतगंज में घूमते हुये मैंने तवी भाई से पूछा था कि भाई फेसबुक पर लोग मुझे वामपंथी कहते हैं । ये बताओ कि ये वामपंथी कौन होते हैं और इनकी क्या सोच होती है ? मैंने तो सुना है कि वामपंथी ऐसे नास्तिक होते हैं जो अपने बीबी बच्चों तक से प्यार नहीं करते। खून की खोली खेलने में शान समझते हैं ? तब उस दिन उन्हौने मुझे वामपंथ की सही परिभाषा समझायी थी और मतलब भी समझाया था। हालांकि मैं तो वामपंथी नहीं रहा । बदल गया मैं। नास्तिक से आस्तिक बन गया। 
उस दिन देर रात तक हम लोग धर्म और मजहब की अन सुलझी पहेलियों को सुलझाते सुलझाते कब सो गये पता ही नहीं चला। तवी भाई ने रात को ही बनारस के लिये मेरा ऐसी टिकट करवा दिया था और पैसे भी नहीं लिये थे। बाद में भी नहीं लिये। ये उनका उधार है मेरे ऊपर । जिंदगी रही तो कर्ज जरूर चुकाऊंगा लेकिन उस मुहब्बत को कैसे चुका पाऊंगा जो इस परिवार ने मुझे दी थी। सुवह ही जल्दी नहा धोकर बिना तवी भाई को जगाये इलाहावाद के लिये निकल लिया। इलाहाबाद और फिर बनारस की कहानी आगे सुनाऊंगा लेकिन तवी भाई से एक बार और मिलना लिखा था किस्मत में।












No comments:

Post a Comment