Sunday, December 23, 2018

South India Tour : Dholpur to Chennai.

हम दो और हमारे दो, घुमक्कड़ी के कीडे के मामले में फिफ्टी फिफ्टी हैं। विकी और उसकी मां को कोई खास लगाव नहीं है लेकिन मेरी बेटी मुझ पर गयी है पूरी तरह से। धन से फक्कड और मन से घुमक्कड। उसने जब से चेन्नई एक्सप्रेस मूवी देखी है, साऊथ इंडिया घूमने की इच्छा पाल बैठी है। मैं एक बार तमिलनाडु और केरल घूम कर आ चुका हूँ। दक्षिण भारतीय संस्कृति ने मुझे काफी प्रभावित किया था, सोचता रहा कि जब भी मौका मिला, बच्चों को भी मूल भारत से परिचित कराऊंगा। विकी को साथ ले जाने के लिये मुझे सोचना नहीं पडा कभी, जब भी उसकी इच्छा हुई, साथ हो लिया। मगर सीबू के लिए उसकी मां के साथ साथ उसके अम्मा बाबा की अनुमति लेनी पड़ती है। लडकी होने का यही सबसे बड़ा नुकसान है कि आत्मनिर्भर बनने के लिए संघर्ष करना पड़ता है, पहले घरवालों से और फिर बाहर वालों से। सीबू की विशेष इच्छा को देखते हुये इस बार उसकी माँ भी तैयार हो गयी घूमने को।

ऐसे तो मैं हमेशा जनरल बोगी में ही सफर करता हूं, भले कितना ही अंग्रेजी का सफर करना पड़े, मगर इस बार साथ में बेटी थी, जिसे मैं सफर के सफर से बचाते हुए उसके ख्वाव को पूरा करने को प्रतिबद्ध था। 22 दिसंवर शनिवार था, 25 से विंटर वैकेशन होनी थी। इसलिए 22 को ही रिजर्वेशन करा लिया। मोबाइल से रिजर्वेशन कराने का यह मेरा पहला मौका था इसलिये मैं वेटिंग को ही रि,जर्वेशन समझता रहा। ट्रेन छूटने से दो तीन घंटे पहले आगरा के घुमक्कड मित्र पवन कुमार जी ने समझाया कि किस प्रकार मुझे अपना PNR number डालकर पता करना है, सीट कनफर्म हुई या नहीं। अगर सीट कनफर्म नहीं होती तो मेरे रुपये बापस हो जाते और हम विदाऊट सीट की श्रेणी में आते मगर सुखद संयोग से सीट कनफर्म हो गयी और हम निर्धारित समय से घंटे भर पहले धौलपुर स्टेशन पहुंच गये ताकि मुरैना या ग्वालियर से अंडमान एक्सप्रेस को पकड सकें। चेन्नई अंडमान एक्सप्रेस मुरैना रात 7:30 और ग्वालियर 8:00 बजे पहुंचती है। इंतजार करते करते शाम के 6:30 हो चले तब थोडी चिंता हुई क्यूं कि सारी ट्रेन लेट थीं, ग्वालियर जाने वाली झेलम एक्सप्रेस अभी आगरा खडी थी। संयोग से उसी समय फेसबुक पर ट्रेन का इंतजार करते हुये सीबू का एक फोटो पोस्ट कर दिया तो फेसबुक मित्र प्रबल प्रताप जी ने तुरंत फोन लगाकर सुझाव दिया कि तुरंत टैक्सी करके मुरैना पहुंचो, फिलहाल कोई ट्रेन नहीं है। उस समय तक नेटवर्क प्राब्लम की बजह से मैं अंडमान एक्सप्रेस की राईट लोकेशन भी नहीं देख पा रहा था। इसलिए 700 रुपये में टैक्सी की और सीधे ग्वालियर। 
कभी कभी कुछ दुर्योग या संयोग बनते ही हैं, आपको पता नहीं होता कि ये सब क्यूं हुआ। चाहता तो आगरा से हम अपनी ट्रेन पकड सकते थे, तीन ट्रेन आगरा की तरफ चली गयीं मगर खतरा था कि कहीं हमारी ट्रेन तब तक निकल न पडे वहां से। नैटवर्क की गडबडी की बजह से हम उसके राईट टाईम पर ही फोकस करके चल रहे थे। टैक्सी में ग्वालियर की तरफ दौडते हुये प्रबल प्रताप जी से सूचना मिली कि हमारी गाडी 2 घंटे लेट है, टैंशन की कोई बात नहीं है। जब जाकिर सीबू के थोडी जान में जान आयी। बेचारी बहुत दिनों से इंतज़ार करे बैठी थी। उसके भैया विकी ने गुजरात से लौटकर समुद्र की विशालता और भव्यता के गीत गाये थे, तभी से उस पर समुद्र की लहरों में खेलने का भूत सवार था। चेन्नई में उसकी एक बुआ भी रहती है जो कि बहुत दिनों से उसे बुला रही थी। कृष्णा मेरे गांव की ही लडकी, मेरी मुँहबोली बहन है जो मद्रास ब्याही है।हमारे मद्रास आने की खबर पाकर वह भी काफी उत्साहित और रोमांचित है। उसकी इस अति प्रसन्नता का मूल कारण ये भी है कि उसका ससुराल इतनी दूर है कि मायके (धौलपुर) से बहुत कम लोग वहां पहुंच पाते हैं। 
भौगोलिक दूरियां प्रेम बढाती हैं और वैचारिक दूरियां प्रेम की दुश्मन होती हैं। अजीब संयोग ये भी है कि अत्यधिक प्रेम दूरियां पैदा करता है।
1440 में दो सीट आगरा से चेन्नई बुक करायी थीं। सीबू की टिकट जनरल 415 रू में चलते समय ली थी। ग्वालियर समय पर पहुंच गये भले हमारे 700- 800 रुपये अतिरिक्त खर्च हो गये। सर्दी बढती जा रही थी। भूख भी जोरों की लगी थी। घर से घी की पूडियां लेकर चले थे। वेटिंग रुम में बैठकर खाना खाने लगे। इधर ट्रेन और लेट हो गयी। सीबू को नींद आने लगी थी इसलिए बैग से पल्ली निकाल चादर बिछायी और मां बेटी दोनों को सुला दिया। मेरा मोबाइल चार्ज हो चुका था, मैं फेसबुक खोलकर बैठ गया। ट्रेन लेट होते होते आखिरकार दो बजे तक पहुंच गयी। इससे पहले सैकड़ों ट्रेन निकल गई, मैं रिजर्वेशन को कोस रहा था। रिजर्वेशन न होता तो अब तक किसी भी ट्रेन से निकल लिये होते। मगर गाडी आयी और खाली सीट पर चद्दर बिछाकर रजाई ओढकर जो गहरी नींद सोये तो रिजर्वेशन की सार्थकता नजर आने लगी। हालांकि स्लीपर में देहसुख रहता है मगर घुमक्कड़ी का असली मकसद पूरा नहीं हो पाता। स्लीपर कोच के अधिकांश यात्री संपन्न घरों से आते हैं जो अपनी अपनी सीट पर पहरे अपने अपने मोबाइल में खोकर रह जाते हैं, इसलिए घुमक्कड़ी का असल मक़सद जनरल बोगी में ही होता है, जहां असली भारत के दर्शन होते हैं लेकिन जनरल बोगी की यात्रा मेरे जैसा घुमक्कड़ी के लिए पागल इंसान ही कर सकता है।


Saturday, December 15, 2018

उत्तराखंड चार धाम बाइक यात्रा से बापसी ।।

satyapalchahar023@gmail.com
इस यात्रा में पंजाबियों ने दिल जीत लिया मेरा। पिंडारी नदी ने जैसे ही कर्णप्रयाग में अलकनंदा से मेल मिलाप किया और मैं बद्रीनाथ की राह पर दौडने लगा तो देखा कि खालसा झंडा लगाये पचास पंजाबी बाइकर्स मेरे आगे और पीछे भी पचास बाइकर्स दौडे जा रहे थे। जगह जगह लंगर चल रहे । पकड पकड कर खिलाये जा रहे। पेट ओवरफुल होता। मैं हाथ जोडकर वाहे गुरू बोल देता तो वह भी हाथ जोडकर बोल देते कि पुत्तर जी चाह ही पी लै और कुछ नहीं तो एक कटोरी खीर ही खा लै। ऐसी प्रेम की विनती कौन ठुकरा सकता है ? भले ही कुछ न खाता । वर्तन साफ करने की सेवा करके ही संतुष्टि पा लेता पर रुकता जरूर। पूरी यात्रा में अब तक गुरुद्वारों में ही तो रुका था मैं। हेमकुंड साहिब एवं फूलों की घाटी भी बद्रीनाथ जी के बगल ही हैं। शायद ही कोई पंजाबी हो जो बद्रीनाथ में मुझे न मिला हो। चार पहिया वाहनों की भी लाईन लगी पडी थी। गुरू के बताये मार्गों पर चलने की चाह बहुत प्रबल थी। मैं बीस किमी पैदल चलने के डर से हेमकुंड साहब को दूर से ही नमन कर आया था पर अगली बार मैं केवल हेमकुंड साहिब ही जाऊंगा और परिवार सहित जाऊंगा। गुरूनानक साहब ने एक ईश्वर और गुरूओं की पवित्र वाणी का मार्ग दिखाया था और पंजाबियों ने उसे बखूवी निभाया भी लेकिन उनके मन में किसी अन्य के प्रति कोई हीन भावना नहीं आयी। भले ही पांडित्य कर्मकांड और तमाम तरह की धार्मिक औपचारिकताओं से अलग शुद्ध एकेश्वरवाद का उन्हौने रास्ता बताया हो लेकिन कभी किसी को नफरत करने को नहीं बोला। जो भी जैसे भी जिस रुप में भी उस परमपिता परमेश्वर को माने उसका सम्मान करो।  भारतीय संस्कृति और प्रकृति के उपहारों के प्रति प्रेम बना ही रहा। नाचना गाना मौज मस्ती संगीत घुमना फिरना तीर्थ यात्रायें करना लंगर लगाकर भूखे लोगों का पेट भरना, बेसहारा लोगों को रात में ठहराना आदि कार्यों ने उन्हें मानव धर्म के उच्चतम पायदान पर लाकर बिठा दिया। लौटते समय ऋषिकेश में दो बेटे अपने पिता के साथ प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद लेते और पारिवारिक बातें करते नजर आये। उनकी खुली जीप मुझे पंसद थी। मैं रुककर देखने लगा। उत्सुकतापूर्वक सरदारजी ने मुझसे कहा," ओये पुत्तर राजस्थान से ?" 
" हंज्जी सरदार जी, मुझे ऐसी ही गाडी चाहिये घुमक्कडी के लिये। सच पूछो तो मुझे पंजाब की हर चीज पंसद है। पंजाब की मिट्टी नदियों खानापीना से लेकर गुरूओं तक। पंजाब के लोग मेरे दिल में बसते हैं।" बस इतना कहने की देर थी कि ऋषिकेश स्थित अपने घर ले जाने की जिद करने लगे। बोले ," चल घर चल चाह पीते हैं। मैं बोला," नहीं जी मुझे चाय नहीं लस्सी पंसद है।"  कोई बात नहीं तुझे चाय नहीं लस्सी पंसद है तो चल तुझे लस्सी ही पिलाऊंगा। आज मेरे घर रुक । सुवह निकल जाना। धौलपुर बहुत दूर है। मैं रुका तो नहीं लेकिन उनकी भावनाओं ने मुझे मालामाल कर दिया । मैं रास्ते भर बस यही कहता रहा " सिंह इज किंग "


इस सृष्टि को चलाने वाली एक परम सत्ता है, ऐसा मेरा अटूट विश्वास है। मेरा भरोषा है उस पर इसलिये मेरी अक्सर उससे बात और मुलाकात होती ही रहती है। बद्रीनाथ जी से चमोली तुंगनाथ होते हुये गुप्तकाशी केदारनाथ जी की तरफ बढ रहा था कि रोड पर एक गरम शाल दिखाई दी। आसपास कोई न दिखा तो उठाकर गाडी पर रख ली। आगे जा रही बस की खिडकी पर बैठी सवारियों से भी पूछा लेकिन उत्तर ना में ही मिला। चूंकि मेरे पास पहले से ही गरम जैकेट और शाल आदि कपडे थे तो ये तो तय था कि ईश्वर ने वह शाल मेरे लिये नहीं बल्कि मेरे माध्यम से किसी अन्य जरूरतमंद के लिये ही भेजी थी। अत: मेरी निगाहें केदारनाथ मंदिर तक उस जरूरतमंद इंसान को ढूंडती रहीं, सैकडों गरीब फकीर संत आदि मिले भी लेकिन मैंने भी सोच रखा था जब तक मेरे दिल की गहराईयों से आवाज न आयेगी , मैं यह शाल किसी को न दूंगा। मौसम खराब होने के कारण एक दिन मुझे नीचे सोनप्रयाग में ही रुकना पडा तो दूसरे दिन ऊपर मंदिर के बगल सरकारी टैंट में। दोनों ही रात उस शाल ने मेरी जान बचायी। लौटते समय आधा रास्ता कटने के बाद एक टीनसेड के नीचे रिलैक्स ले रहा था कि अचानक से घनघोर वर्षा शुरू हो गयी। तेज हवाएं चलना शुरू। भयंकर सर्दी । ठंड में कांपने लगा। रेनकोट की बजह से भीगा तो नहीं ठंड खूब लग रही थी। धीरे धीरे भीड हो चली थी इसलिये काफी लोग खडे हुये ही थे कि तभी एक टोकरी में एक अस्सी वर्षीय बुजुर्ग को बिठाकर लाने बाला पिट्ठू बहां रुका। बुजुर्ग ठंड से कांप रहे थे। खडा भी नहीं हुआ जा रहा। मैं तुरंत अपनी कुर्सी से खडा हो गया और उन्हें बिठा दिया। थोडी ही देर की बातों में पता चल गया कि कृष्णामूर्ति नाम के वो सज्जन विशाखापट्टनम के जाने माने बकील हैं, हिंदी बोलने में कठिनाई मेहसूस कर रहे थे तो हमारा वार्तालाप अंग्रेजी में ही हुआ। पत्नी स्वर्गवासी हो चुकी थी। बेटा बेटी कनाडा में किसी कंपनी में हैं। विशाखापट्टनम के एक बडे बंगले में अकेले रहने बाले कृष्णमूर्ति हैं। गुप्तकाशी के होटल में रुके थे । अन्य साथियों के साथ हैलीकौप्टर से ही आये थे लेकिन मौसम खराब होने से उडान रद्द हो गयी और मजबूरन टोकरी पिट्ठू लेना पडा। एक तो उम्र का तकाजा और दूसरे उनके गरम कपडे भी रूम पर छूट गये थे, ठंड में बुरी तरह कांप रहे थे कि तभी मेरे दिल से आवाज आयी कि यही है वो आदमी जिसको तू ढूंड रहा था। मैंने तुरंत शाल निकाली और उन्हें उढा दिया। तब भी उनका कांपना बंद न हुआ। मैंने तुरंत अपने रेनकोट के नीचे पहनी हुई गरम जैकेट उतारी जो मैंने मनाली से अपनी रोहतांग यात्रा में खरीदी थी और वह भी उन्हें पहना दिया। गरमा गरम चाय पिलाई । अब धीरे धीरे वर्षा भी कम होने लगी। वर्फीली हवाएं भी थम गयीं। वह सज्जन भी अब नौर्मल स्थिति में आने लगे। अब चूंकि शाम होने लगी थी और मुझे पैदल ही उतरना था। सोनप्रयाग पहुंचने में कम से कम चार घंटे तो लगने ही थे। हल्की हल्की वर्षा में भी चलने का मूड बना चुका था। गरम शाल तो भोले बाबा ने मेरे माध्यम से उनके लिये ही भेजी थी पर अब ठंड में कांपते बुजुर्ग से अपनी जैकेट कैसे मांगू ? बडी अनिश्चय की स्थिति थी । मैं बिना जैकेट लिये चलने लगा तो वे तुरंत मुझे शाल और जैकट देने लगे। मेरे दिल ने स्वीकार नहीं किया। बार बार दिल में बस यही खयाल आये कि इस बुजुर्ग की जगह आज मेरे बाबूजी होते तो क्या मैं उनसे ये कपडे बापस लेता ? क्या मैं उन्हें ठिठुरता छोड देता ? लेकिन वह भी लौटाने की जिद पर अड गये। काफी देर की जद्दोजहद के बाद उन्हौने जैकट रखना स्वीकार कर लिया और गरम शाल लौटा दी। 
अरे ये क्या ! शाल तो फिर बापस आ गयी मेरे पास ! तो फिर भोले ने ये किसके लिये भेजी थी ? बस यही सोचता हुआ नीचे सोनप्रयाग आ पहुंचा। रात को जैकेट के बिना ठिठुरता हुआ सोया। ठंड में नींद किसे आती है। जैसे तैसे सुवह के पांच बजाये। पांच बजते ही बाइक लेकर घर की तरफ निकल पडा। गुप्तकाशी में ही नहाना धोना हुआ और साथ में उन सज्जन से मिलने की कोशिष भी हुई पर एक बार बात होने के बाद दूसरी बार नेटवर्क प्रोब्लम की बजह से बात न हो पायी। काशी विश्वनाथ में मत्था टेक कर सीधे घर की तरफ रवाना हो लिया लेकिन एक प्रश्न अब भी दिमाग में था कि आखिर ये शाल किसके लिये भिजवाई है भोले ने ? खैर जल्द ही वो इंसान भी मिल गया। नदी के किनारे अर्धनग्न अवस्था में पैदल चला आ रहा एक भक्त अपनी धुन में खोया ऊपर चढा आ रहा था कि मेरे दिल से आवाज आयी कि यही है वो आदमी। मैंने उससे पूछा ,
" बाबा किसके पास जा रहे हो ?"
बडा सा छोटा जवाब मिला ," भोले के पास " और यह कर वह अर्ध नग्न फकीर चलता बना। तभी मेरा हाथ गरम शाल पर गया और एक मिनट में वह शाल मैंने उसके नंगे ठिठुरते शरीर पर डाल दिया। सामान्यत: कोई भी आदमी मेरी इस प्रतिक्रिया पर आश्चर्य व्यक्त करता पर उसने कोई प्रतिक्रिया न दी मानो कि वह मानसिक तौर पर इसके लिये तैयार था। मानो वह मेरा ही इंतजार कर रहा था। उसने एक बार भी मुडकर मेरी और न देखा । बस अपनी धुन में आगे बढता ही रहा। इधर मैं भी अब गियर पर गियर डाले जा रही थी और मेरी गाडी अब जोश में दौडे जा रही थी अब मुझे लग रहा था कि मैं भोले का डाकिया बन कर लौट रहा हूं। विशाखापट्टनम बाले सज्जन का अब तक दस बार फोन आ चुका है। पहले वो मुझे Mr. Chahar कह कर संबोधन कर रहे थे लेकिन अब मुझे सत्यपाल बेटा बोलते हैं।

उत्तराखंड चार धाम बाइक यात्रा : भारतीय सीमा का अतिंम गांव माणा (बद्रीनाथ)।

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बद्रीनाथ जी के सुवह ही दर्शन के पश्चात यहां की खूबसूरती देखने को निकल पडा। यहां के अन्य धार्मिक स्थल और भी हैं जैसे अलकनंदा के तट पर स्थित अद्भुत गर्म झरना जिसे 'तप्त कुंड' कहा जाता है। एक समतल चबूतरा जिसे 'ब्रह्म कपाल' कहा जाता है। पौराणिक कथाओं में उल्लेखित एक 'सांप' शिला है। शेषनाग की कथित छाप वाला एक शिलाखंड 'शेषनेत्र' है। भगवान विष्णु के पैरों के निशान हैं- 'चरणपादुका' । बद्रीनाथ से नजर आने वाला बर्फ़ से ढंका ऊंचा शिखर नीलकंठ, जो 'गढ़वाल क्वीन' के नाम से जाना जाता है। माता मूर्ति मंदिर जिन्हें बदरीनाथ भगवान जी की माता के रूप में पूजा जाता है। और इस सब से अलग देखने लायक है मात्र तीन किमी दूर माणा गाँव जिसे भारत का अंतिम गाँव भी कहा जाता है क्यूं कि यहां से आगे रिहाइस नहीं है, चीन की सीमा शुरू हो जाती है। इस गांव की खास बात है ऊंचे पहाडों की तलहटी में होना। इसके नीचे से ही अलकनंदा बहती हुई बद्रीनाथ पहुंच रही है। अलकनंदा का उदगम स्थल इन्ही पहाडों के ऊपर संतोपथ ग्लेशियर है। यहां से आगे सेना का कब्जा है। सेना की अनुमति लेकर ही ऊपर जा सकते हैं । हालांकि यही रोड चीन सीमा तक जा रही है पर केवल सैनिक ही जा सकते हैं। ट्रेकर्स को जोशीमठ से अनुमति पत्र लाना पढेगा। माणा गांव के निवासी अधिकांशत: राजपूत जाति से है जो यहां गरम कपडों के बेचने के अलावा खेती भी करते हैं। अक्टूवर नबंवर में वर्फवारी होते ही ये सभी लोग जोशीमठ की तरफ पलायन कर जाते हैं।
मेरी बाइक गांव के प्रवेश द्वार तक पहुंच जाती है जहां दो तीन चाय नास्ते की दुकानें हैं। सुवह की ठंड में भारत की अतिंम चाय की दुकान पर नास्ता करना सुखद ही लगा। वहीं बाइक खडी करके पैदल ही गांव में प्रवेश करता हूं। मुश्किल से पचास घर होंगे। गांव के अंत में ऊंचा पहाड है जिसमें से सरस्वती नदी फूट पडी है। पत्थर के अंदर से फूटती धारा और उस पर रखी एक बडी भीमकाय शिला गजब का नजारा दिखाती है। बताया जाता है कि भीम ने सरस्वती नदी को पार करने हेतु एक भारी चट्टान को नदी के ऊपर रखा था जिसे भीम पुल के नाम से जाना जाता है। वो बात अलग है कि पंडों ने इसे भीमकाय की बजाय भीम शिला बना दिया है। पांडूपुत्र भीम निसंदेह बलशाली था पर पंडो ने अपने अविवेकपूर्ण विवरण से उसे कोई राक्षस बनाने में कसर नहीं छोडी। उस भीमकाय पत्थर पर जिसे आज की कोई बहुत बडी क्रेन भी उठाने में दिक्कत मेहसूस करेगी, पंडो ने चौक से लिख दिया है," भीम के पैरों के निशान " । ऐसी ही बेतुकी बातों ने सनातन का मजाक उडवाया है। गांव में ही वेद व्यास गुफा और गणेश गुफा भी हैं जहां वेदों और उपनिषदों का लेखन कार्य हुआ बताया जाता है। इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है। वेदव्यास जी गद्दी पर बैठने वाले सभी उनके शिष्य भी ऐसी ही एकांत प्राकृतिक गुफाओं में बैठकर अध्ययन अध्यापन किया करते थे।वसु धारा नामक स्थान पर  अष्ट-वसुओं ने तपस्या की थी। ये जगह माणा से आठ किलोमीटर दूर है।लक्ष्मी वन लक्ष्मी माता के वन के नाम से प्रसिद्ध है। सतोपंथ (स्वर्गारोहिणी) के बारे में कहा जाता है कि इसी स्थान से राजा युधिष्ठिर ने सदेह स्वर्ग को प्रस्थान किया था। अलकापुरी अलकनंदा नदी का उद्गम स्थान। इसे धन के देवता कुबेर का भी निवास स्थान माना जाता है।
करीब दो घंटे तक गांव वासियों से बतियाने और गांव में घूमने के बाद मैं निकल पडा बापस जोशीमठ होते हुये चमोली गोपेश्वर की तरफ जहां से मुझे तुंगनाथ चौपता होते हुये उखीमठ और केदारनाथ पहुंचना था। 



उत्तराखंड चार धाम बाइक यात्रा : बद्री/बेर नाथ

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ऐसे तो जोशीमठ से बद्रीनाथ तक का पूरा रास्ता ही बहुत रोमांचक है। एक तरफ गहरी खाई तो दूसरी तरफ ऊंचे ऊंचे पहाड। अलकनंदा के सहारे सहारे सिंगल रोड पर चलना खतरे से खाली नहीं है। बहुत बार ऐसी स्थिति ऐसी आती है कि हमें अपनी गाडी रोक कर सामने वाले वाहन को जगह देनी पडती है। कर्णप्रयाग से ही अलकनंदा की तलहटी में चलना मजेदार होता है लेऐकिन गोविंद घाट पर जाकर और भी मजेदार हो जाता है। पहाडों की ऊंचाई बढती ही जाती है।आसपास का नजारा देखने लायक होता है। मन ही नहीं करता आगे बढने को। खैर रात होती जा रही थी इसलिये आगे बढना मजबूरी थी इसलिये शाम सात बजे तक बद्रीनाथ पहुंच लिये। मंदिर के सामने तक बाइक पहुंच गयी पर सबसे पहले मुझे रुकने का प्रबंध करना था। भीड बहुत ज्यादा थी। एक भी धर्मशाला खाली नहीं मिली। होटल और लौज भी फुल। काफी देर तक इधर उधर भटकने के बाद एक धर्मशाला में रसोई में रात बिताने को मिली। उसके भी उसने चार सौ रुपये लिये। सर्दी भी काफी थी इसलिये नहाने की हिम्मत तो नहीं हुई बस पौलिस कर डाली और धर्मशाला में सामान रख कर पैदल ही निकल पडा मंदिर की तरफ। दस कदम की दूरी पर ही मंदिर था। भारत सीमा के अतिंम गांव माणा की तरफ से आती हुई अलकनंदा नदी अपने पूरे उफान पर थी। मंदिर के ठीक सामने नदी और उस पर बना हुआ पुल । पुल के दोनों ओर सजा हुआ बाजार। बाजार में घूमते हुये दूर दूर से आये हुये भक्त। नजारा देखने लायक था। भारत की विविधता ऐसी ही जगहों पर दिखाई पडती है। मंदिर के ठीक बगल ही गर्म पानी का तप्त कुंड और गर्मजल से उठता हुआ धुंआ। ऐसी ठंड में भी लोग उस कुंड में स्नान कर रहे थे। मेरी हिम्मत नहीं पडी क्यूं कि कुंड से निकलने के बाद हालत खराब होनी थी। रात को दर्शनार्थियों की भीड इतनी ज्यादा नहीं थी। यहां कैमरे की मनाही नहीं थी। अंदर भी मोबाइल मेरे साथ ही था किसी ने नहीं मना किया। लेकिन चूंकि कपाट बंद होने का समय हो चुका था अत: धक्कामुक्की हो गयी और दर्शन भी जल्दवाजी में ही हो पाये। बदरीनाथ की मूर्ति शालग्राम शिला से बनी हुई, चतुर्भुज ध्यानमुद्रा में है। मन्दिर में नर-नारायण विग्रह की पूजा होती है और अखण्ड दीप जलता है, जो कि अचल ज्ञानज्योति का प्रतीक है। यह भारत के चार धामों में प्रमुख तीर्थ-स्थल है। यहाँ वनतुलसी की माला, चने की कच्ची दाल, गिरी का गोला और मिश्री आदि का प्रसाद चढ़ाया जाता है। मंदिर में बदरीनाथ की दाहिनी ओर कुबेर की मूर्ति भी है। उनके सामने उद्धवजी हैं तथा उत्सव मूर्ति है। उत्सवमूर्ति शीतकाल में बरफ जमने पर जोशीमठ में ले जाई जाती है। उद्धवजी के पास ही चरणपादुका है। बायीं ओर नर-नारायण की मूर्ति है। इनके समीप ही श्रीदेवी और भूदेवी है। सनातन के प्राचीन गृंथों के अनुसार भगवान विष्णु आकाशीय देवता है लेकिन पुराणों ने ईश्वर के त्रिगुण रक्षक पालक और और विनाशक के आधार पर इनका मानवीयकरण किया है। पौराणिक कथा के अनुसार विष्णु तप्त कुंड नामक स्थान पर तपस्या करने बैठे तो शीतकाल में वर्फवारी से उन्हें एक बेर /बदरी के पेड ने बचाया था अत: उन्हें बद्रीनाथ के नाम से जाना गया। पुराणों से थोडा हटकर इतिहास की बात करें तो यहां कभी बौद्धों का निवास हुआ करता था और बौद्ध लोग इस मूरत की पूजा किया करते थे लेकिन आठवीं शताब्दी में वैष्णव धर्म के संस्थापक आदि शंकराचार्य जी ने वैष्णव धर्म के प्रचार प्रसार के दौरान यहां बद्रीनाथ मंदिर की स्थापना की और जोशीमठ में अध्ययन अध्यापन ज्ञानार्जन की परंपरा को चलाने हेतु मठ की स्थापना की थी। इसी प्रक्रिया में बौद्धों से संघर्ष भी हुआ और उन्हौने बद्रीनाथ की मूरत को तोडकर अलकनंदा में फेंक दिया। शंकराचार्य जी ने इसे पुन: स्थापित करवाया। हालांकि बौद्ध विद्धानों का कहना है कि शंकराचार्य ने बौद्ध मंदिरों पर ही कब्जा करके वैष्णव धर्म का प्रचार प्रसार किया है। सत्य इतिहास के गर्त में छुपा है जिसे खोजना बहुत जरूरी भी है। इस मंदिर का एक व्यापक सीढ़ीनुमा लंबा धनुषाकार मुख्य प्रवेश द्वार है। वास्तुकला के हिसाब से भी ये एक बौद्ध विहार (मंदिर) जैसा दिखता है। मंदिर के मंडप के अंदर, एक बड़े स्तंभों वाला हॉल है जो गर्भगृह या मुख्य मंदिर क्षेत्र की ओर ले जाता है।
पौराणिक कहानियों से अलग हटकर बात करें तो यह मंदिर अलकनंदा नदी के बाएं तट पर नर और नारायण नामक दो पर्वत श्रेणियों के बीच स्थित है। और यहां प्रचुर मात्रा में पाई जाने वाली जंगली बेरी बद्री के कारण ही इस धाम का नाम बद्री पड़ा है।
सुवह जल्दी ही जग कर तप्तकुंड की तरफ चल दिया। ये भी प्रकृति का ही एक चमत्कार ही है कि सामने वर्फ का पहाड हो और नीचे गर्म पानी निकल रहा हो। ऐसे चमत्कार और भी बहुत जगह मिले हैं पहाडों में। गरम पानी के कुंड में नहाने के बाद एक बार फिर मंदिर गया। सुवह सर्दी भी खूब थी और भीड भी बहुत थी। लेकिन नजारा आनंददायक था। भारत के हर कौने से आये हुये लोगों को देखकर रहा था। सिख सरदारों, बंगालियों और मद्रासियों की खूब भीड दिखी यहां। हेमकुंड साहिब आने वाले सभी सिख यहां भी आते हैं। भारत की हर संस्कृति यहां मौजूद थी और शायद यही उद्देश्य था शंकराचार्य का। चार धामों के माध्यम से भारत की विविधता को एकता में बदलना जो यहां साकार भी नजर आ रही थी। मंदिर के ठीक सामने उफनता अलकनंदा का सफेद जल और उसके ठीक ऊपर वर्फीली केदारनाथ । बताते हैं कि किसी जमाने में केदारनाथ और बद्रीनाथ का एक ही पुजारी हुआ करता था जो सुवह यहां पूजा करता और शाम को वहां। पूरा पहाड पार करने में उसे मात्र दो तीन घंटे ही लगते थे। बाद में भूगर्भीय हलचलों से रास्ता बंद हो गया। 
दृश्य इतना मनमोहक था कि जगह छोडने का मन ही नहीं कर रहा था पर अभी मुझे भारतीय सीमा के अतिंम गांव माणा की तरफ भी जाना था और फिर वहां से केदारनाथ की तरफ भी निकलना था अत: बद्रीनाथ जी को प्रणाम करते हुये माणा गांव की तरफ बढ लिया।

उत्तराखंड चार धाम बाइक यात्रा : संस्कृति ।।

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शिव और शक्ति अर्धनारीश्वर आदिदेव हैं। भारत में शुरू से ही शिव की उपासना होती रही है। सिंधु घाटी सभ्यता की खुदाई में भी पशुपतिनाथ योगी की मूर्ति मिली है। शिव को भारत के पशुपालकों, आदिवासियों, किसानों के साथ साथ प्रकृतिपूजक सभी मनुष्यों का ईष्ट देव माना जा सकता है। भले ही शिव को त्रिगुण त्रिदेव के रूप में या लिगं रुप में पहली दूसरी सदी में शामिल किया गया है, लेकिन पशुपतिनाथ या रुद्र देव के रूप में इनकी पूजा बहुत प्राचीन काल से हो रही है। भारत में आने वाली जातियों ने भी इन्हें अपने देवताओं में शरीक कर लिया। शिव न केवल भारत बल्कि विश्व के अन्य कई देशों में भी अलग अलग रुपों में पूजे जाते रहे हैं। यही कारण रहा कि भारत में गुप्तकाल एवं बाद के राजपूत काल में वैष्णव पंथ के उत्थान काल में भी शिव मंदिरों का निर्माण जारी रहा। इसी प्रक्रिया में देश भर में बारह ज्योतिरालिगं मंदिरों की स्थापना हुई। 
पहला सोमनाथ गुजरात दूसरा शैलपर्वत मलिक्कार्जुन तमिलनाडु तीसरा महाकाल उज्जैन
चौथा ऊंकारेश्वर पांचवां बैधनाथ परली हैदराबाद
छठवां भीमाशंकर पुणे सातवां रामेश्वरम तमिलनाडु
आठवां जागेश्वर अल्मोडा नौवां काशी विश्वनाथ
दसवां त्रयंबकेशर नासिक ग्यारहवां केदारनाथ
और बारहवां घुश्मेश्वर महाराष्ट्र। 
पौराणिक कहानियां भले ही सुनने में बहुत अटपटी एवं बे सिर पैर की लगती हों लेकिन उनसे हमें काफी हद तक प्रतीकात्मक रूप में देवों के स्वरुपों का भान हो जाता है। पौराणिक कहानी के अनुसार भगवान शंकर बैल की पीठ की आकृति-पिंड के रूप में श्री केदारनाथ में पूजे जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि जब भगवान शंकर बैल के रूप में अंतर्ध्यान हुए, तो उनके धड़ से ऊपर का भाग काठमाण्डू में प्रकट हुआ। अब वहां पशुपतिनाथ का प्रसिद्ध मंदिर है। शिव की भुजाएं तुंगनाथ में, मुख रुद्रनाथ में, नाभि मदमदेश्वर में और जटा कल्पेश्वर में प्रकट हुए। इसलिए इन चार स्थानों सहित श्री केदारनाथ को पंचकेदार कहा जाता है। यहां शिवजी के भव्य मंदिर बने हुए हैं। इस कहानी से शिव जी के पशुपालकों के देव होने की पुष्टि होती है। 
उत्तराखण्ड की संस्कृति इस प्रदेश के मौसम और जलवायु के अनुरूप ही है। उत्तराखण्ड एक पहाड़ी प्रदेश है और इसलिए यहाँ ठण्ड बहुत होती है। इसी ठण्डी जलवायु के आसपास ही उत्तराखण्ड की संस्कृति के सभी पहलू जैसे रहन-सहन, वेशभूषा, लोक कलाएँ इत्यादि घूमते हैं। उत्तराखण्ड एक पहाड़ी प्रदेश है। यहाँ ठण्ड बहुत होती है इसलिए यहाँ लोगों के मकान पक्के होते हैं। दीवारें पत्थरों की होती है। पुराने घरों के ऊपर से पत्थर बिछाए जाते हैं। वर्तमान में लोग सीमेन्ट का उपयोग करने लग गए है। अधिकतर घरों में रात को रोटी तथा दिन में भात (चावल) खाने का प्रचलन है। लगभग हर महीने कोई न कोई त्योहार मनाया जाता है। त्योहार के बहाने अधिकतर घरों में समय-समय पर पकवान बनते हैं। स्थानीय स्तर पर उगाई जाने वाली गहत, रैंस, भट्ट आदि दालों का प्रयोग होता है। प्राचीन समय में मण्डुवा व झुंगोरा स्थानीय मोटा अनाज होता था। अब इनका उत्पादन बहुत कम होता है। अब लोग बाजार से गेहूं व चावल खरीदते हैं। कृषि के साथ पशुपालन लगभग सभी घरों में होता है। घर में उत्पादित अनाज कुछ ही महीनों के लिए पर्याप्त होता है। कस्बों के समीप के लोग दूध का व्यवसाय भी करते हैं। पहाड़ के लोग बहुत परिश्रमी होते है। पहाड़ों को काट-काटकर सीढ़ीदार खेत बनाने का काम इनके परिश्रम को प्रदर्शित भी करता है। पहाड़ में अधिकतर श्रमिक भी पढ़े-लिखे है, चाहे कम ही पढ़े हों।
भारत के प्रमुख उत्सवों जैसे दीपावली, होली, दशहरा इत्यादि के अतिरिक्त यहाँ के कुछ स्थानीय त्योहार हैं जैसे देवीधुरा मेला, पूर्णागिरि मेला (चम्पावत) नंदा देवी मेला (अल्मोड़ा) उत्तरायणी मेला (बागेश्वर) गौचर मेला (चमोली) वैशाखी (उत्तरकाशी) माघ मेला (उत्तरकाशी) विशु मेला (जौनसार बावर) गंगा दशहरा (नौला, अल्मोड़ा) आदि ।
यहाँ के कुछ विशिष्ट खानपान है जैसे आलू टमाटर का झोल, चैंसू, झोई, कापिलू, मंडुए की रोटी, पीनालू की सब्जी, बथुए का परांठा, बाल मिठाई, सिसौंण का साग और गौहोत की दाल आदि ।
पारम्परिक रूप से उत्तराखण्ड की महिलाएं घाघरा तथा आंगड़ी, तथा पूरूष चूड़ीदार पजामा व कुर्ता पहनते थे। अब इनका स्थान पेटीकोट, ब्लाउज व साड़ी ने ले लिया है। जाड़ों (सर्दियों) में ऊनी कपड़ों का उपयोग होता है। विवाह आदि शुभ कार्यो के अवसर पर कई क्षेत्रों में अभी भी सनील का घाघरा पहनने की परम्परा है। गले में गलोबन्द, चर्यो, जै माला, नाक में नथ, कानों में कर्णफूल, कुण्डल पहनने की परम्परा है। सिर में शीषफूल, हाथों में सोने या चाँदी के पौंजी तथा पैरों में बिछुए, पायजब, पौंटा पहने जाते हैं। घर परिवार के समारोहों में ही आभूषण पहनने की परम्परा है। विवाहित औरत की पहचान गले में चरेऊ पहनने से होती है। विवाह इत्यादि शुभ अवसरों पर पिछौड़ा पहनने का भी यहाँ चलन आम है।
लोक कला की दृष्टि से उत्तराखण्ड बहुत समृद्ध है। घर की सजावट में ही लोक कला सबसे पहले देखने को मिलती है। दशहरा, दीपावली, नामकरण, जनेऊ आदि शुभ अवसरों पर महिलाएँ घर में ऐंपण (अल्पना) बनाती है। इसके लिए घर, ऑंगन या सीढ़ियों को गेरू से लीपा जाता है। चावल को भिगोकर उसे पीसा जाता है। उसके लेप से आकर्षक चित्र बनाए जाते हैं। विभिन्न अवसरों पर नामकरण चौकी, सूर्य चौकी, स्नान चौकी, जन्मदिन चौकी, यज्ञोपवीत चौकी, विवाह चौकी, धूमिलअर्ध्य चौकी, वर चौकी, आचार्य चौकी, अष्टदल कमल, स्वास्तिक पीठ, विष्णु पीठ, शिव पीठ, शिव शक्ति पीठ, सरस्वती पीठ आदि परम्परागत गाँव की महिलाएँ स्वयं बनाती है। इनका कहीं प्रशिक्षण नहीं दिया जाता है। हरेले आदि पर्वों पर मिट्टी के डिकारे बनाए जाते है। ये डिकारे भगवान के प्रतीक माने जाते है। इनकी पूजा की जाती है। कुछ लोग मिट्टी की अच्छी-अच्छी मूर्तियाँ (डिकारे) बना लेते हैं। यहाँ के घरों को बनाते समय भी लोक कला प्रदर्षित होती है। पुराने समय के घरों के दरवाजों व खिड़कियों को लकड़ी की सजावट के साथ बनाया जाता रहा है। दरवाजों के चौखट पर देवी-देवताओं, हाथी, शेर, मोर आदि के चित्र नक्काशी करके बनाए जाते है। पुराने समय के बने घरों की छत पर चिड़ियों के घोंसलें बनाने के लिए भी स्थान छोड़ा जाता था। नक्काशी व चित्रकारी पारम्परिक रूप से आज भी होती है। इसमें समय काफी लगता है। वैश्वीकरण के दौर में आधुनिकता ने पुरानी कला को अलविदा कहना प्रारम्भ कर दिया। अल्मोड़ा सहित कई स्थानों में आज भी काष्ठ कला देखने को मिलती है। उत्तराखण्ड के प्राचीन मन्दिरों, नौलों में पत्थरों को तराश कर (काटकर) विभिन्न देवी-देवताओं के चित्र बनाए गए है। प्राचीन गुफाओं तथा उड्यारों में भी शैल चित्र देखने को मिलते हैं।
उत्तराखण्ड की लोक धुनें भी अन्य प्रदेशों से भिन्न है। यहाँ के बाद्य यन्त्रों में नगाड़ा, ढोल, दमुआ, रणसिंग, भेरी, हुड़का, बीन, डौंरा, कुरूली, अलगाजा प्रमुख है। यहाँ के लोक गीतों में न्योली, जोड़, झोड़ा, छपेली, बैर व फाग प्रमुख होते हैं। इन गीतों की रचना आम जनता द्वारा की जाती है। इसलिए इनका कोई एक लेखक नहीं होता है। यहां प्रचलित लोक कथाएँ भी स्थानीय परिवेश पर आधारित है। लोक कथाओं में लोक विश्वासों का चित्रण, लोक जीवन के दुःख दर्द का समावेश होता है। भारतीय साहित्य में लोक साहित्य सर्वमान्य है। लोक साहित्य मौखिक साहित्य होता है। इस प्रकार का मौखिक साहित्य उत्तराखण्ड में लोक गाथा के रूप में काफी है। प्राचीन समय में मनोरंजन के साधन नहीं थे। लाकगायक रात भर ग्रामवासियों को लोक गाथाएं सुनाते थे। इसमें मालसाई, रमैल, जागर आदि प्रचलित है। अभी गांवों में रात्रि में लगने वाले जागर में लोक गाथाएं सुनने को मिलती है। यहां के लोक साहित्य में लोकोक्तियां, मुहावरे तथा पहेलियां (आंण) आज भी प्रचलन में है। उत्तराखण्ड का छोलिया नृत्य काफी प्रसिद्ध है। इस नृत्य में नृतक लबी-लम्बी तलवारें व गेंडे की खाल से बनी ढाल लिए युद्ध करते है। यह युद्ध नगाड़े की चोट व रणसिंह के साथ होता है। इससे लगता है यह राजाओं के ऐतिहासिक युद्ध का प्रतीक है। कुछ क्षेत्रों में छोलिया नृत्य ढोल के साथ श्रृंगारिक रूप से होता है। छोलिया नृत्य में पुरूष भागीदारी होती है। कुमाऊँ तथा गढ़वाल में झुमैला तथा झोड़ा नृत्य होता है। झौड़ा नृत्य में महिलाएँ व पुरूष बहुत बड़े समूह में गोल घेरे में हाथ पकड़कर गाते हुए नृत्य करते है। विभिन्न अंचलों में झोड़ें में लय व ताल में अन्तर देखने को मिलता है। नृत्यों में सर्प नृत्य, पाण्डव नृत्य, जौनसारी, चांचरी भी प्रमुख हैं।

उत्तराखंड चार धाम बाइक यात्रा : अल्मोडा से जोशीमठ।।

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अल्मोडा शहर से कौसानी की तरफ रोड पर करीब दस किमी आगे निकलने के बाद मुझे नदी के किनारे ही एक सस्ता सा लौज मिल गया। यहीं पर ITBP सेंटर भी है और थोडा आगे चलकर कटारमल मंदिर भी। चूंकि मुझे रात होने से पहले ही बद्रीनाथ पहुंचना था अत: जल्दी सो गया ताकि सुवह दिन निकलते ही यात्रा प्रारंभ कर सकूं। मुझे अभी किमी और चलना था।
मैं थोडा नास्तिक टाइप का सा घुमक्कड हूं। हालांकि खुद को नास्तिक भी नहीं कह सकता क्यूं कि ईश्वर को हरदम अपने पास महसूस करता हूं। भारत भर के धार्मिक स्थलों में जाता रहता हूं इसलिये नास्तिक तो नहीं लेकिन बस सोच थोडी अलग है। मंदिरों में विराजमान मूर्तियों में ईश्वर को ढूंढने की बजाय उसके बाहर फैली हुई अथाह प्राकृतिक खूबसूरती में अपने शिव को तलाशता रहता हूं। मेरी घुमक्कडी का उद्देश्य कभी ईश्वर को पाना नहीं रहा, मैं घर से निकलता हूं अपने भारत को जानने । अपने सनातन को जानने। अपने सनातन की विशालता को जानने। इसके विविध रंगो रूपों को जानने। भारत के कौनों में फैले हुये लोगों की संस्कृति में ही सनातन बसता है। लोगों को जान लो तो सनातन भी समझ आने लगता है। हमारी कूपमंडूकता भी दूर हो जाती है। घर से बाहर निकलने पर पता चलता है कि सनातन तंग गलियों से निकलते वाहनों की किचाहट की तरह नहीं है। इसके हजार रंग है हजार रुप हैं। हर रंग बेमिशाल है। यदि मेरा लक्ष्य केवल बद्रीनाथ मूरत के दर्शन करना ही होता तो मैं हवाई यात्रा से बहुत कम समय में ये काम कर सकता था किंतु मुझे उत्तराखंड को जानना था अत: मैंने रास्ता भी चुना तो ऐसा जिसमें एक तरफ से घुसकर दूसरी तरफ निकल सकता था। अल्मोडा से कौसानी रोड पर सोमेश्वर ग्वालदम थराली बैजनाथ कर्णप्रयाग तक रास्ता अधिकांशत: खराब ही है, इतना खराब कि इससे अच्छा होता कि पैदल चला जाता मैं फिर मुझे आनंद आ रहा था क्यूं कि रोड के अलावा बाकी सब कुछ खूबसूरत था वहां।
सुवह सुवह बैग लटकाये बच्चे, पशुओं को खेतों की तरफ हांकते लोग, मासूम बच्चों को पीठ पर लटकाये महिलायें । देवदार के पेडों की सुंदर घाटी।कौसानी में चाय के बागान।सब कुछ मोहित करने वाला।बैजनाथ में गोमती नदी दो बार रास्ता काटती है तो थराली से पिंडार नदी के सहारे सहारे रोड कर्णप्रयाग में अलकनंदा से संगम करने को व्याकुल हो उठती है। पिंडार नदी के मिलते ही रास्ता भी खूबसूरत हो उठता है। हर पल गाडी रोकने को मन करता है।
अल्मोडा से आगे चलते ही कौसानी जो भारत का स्वीट्जरलैंड बोला जाता है, एक खूबसूरत पर्वतीय पर्यटक स्थल है। विशाल हिमालय के अलावा यहां से नंदाकोट,त्रिशूल और नंदा देवी पर्वत का भव्य नजारा देखने को मिलता है। यह पर्वतीय शहर चीड़ के घने पेड़ों के बीच एक पहाड़ी की चोटी पर स्थित है और यहां से सोमेश्वर, गरुड़ और बैजनाथ कत्यूरी की सुंदर घाटियों का अद्भुत नजारा देखने को मिलता है। काफी समय पहले कौसानी अल्मोड़ा जिले का हिस्सा था और वलना के नाम से जाना जाता था। उस समय अल्मोड़ा जिला कत्यूरी के राजा बैचलदेव के क्षेत्रधिकार में आता था। बाद में राजा ने इसका काफी बड़ा हिस्सा एक गुजराती ब्राह्मण श्री चंद तिवारी को दे दिया। महात्मा गांधी ने यहां की भव्यता से प्रभावित हो कर इस जगह को ‘भारत का स्वीट्जरलैंड’ कहा था। खूबसूरत पहाड़ियों और पर्वतों के अलावा कौसानी आश्रमों, मंदिरों और चाय के बगानों के लिए भी जाना जाता है। अनाशक्ति आश्रम यहां का एक प्रसिद्ध आश्रम है, जहां महात्मा गांधी कुछ दिन के लिए रुके थे। अब यह एक अध्ययन और शोध केंद्र के रूप में विकसित हो गया है, जहां रहने और खाने की भी व्यवस्था है। एक और जाना माना आश्रम है लक्ष्मी आश्रम। इसे सरला आश्रम के नाम से भी जाना जाता है। इस आश्रम का निर्माण 1948 में महात्मा गांधी की एक अनुयायी कैथरीन हिलमन ने करवाया था।पिन्नाथ मंदिर, शिव मंदिर, रुद्रहरि महादेव मंदिर, कोट भ्रामरी मंदिर और बैजनाथ मंदिर कौसानी के कुछ प्रमुख धार्मिक स्थल हैं। समुद्र तल से 2750 मीटर की ऊंचाई पर स्थित पिन्नाथ मंदिर हिन्दू देवता भैरों को समर्पित है। शिव मंदिर सोमेश्वर शहर में पड़ता है, जो कौसानी से 11 किमी दूर है। भगवान शिव के इस मंदिर का निर्माण चंद वंश के संस्थापक सोमचंद ने करवाया था।
इसके अलावा कौसानी प्रसिद्ध हिंदी कवि सुमित्रानंदन पंत की जन्मभूमि भी है। यहां एक संग्राहलय भी है, जिसे सुमित्रानंदन पंथ गैलरी के नाम से जाना जाता है। इसमें इस महान कवि की कविताओं की पांडुलिपि, विभिन्न कृतियां और उन्हें दिए गए पुरस्कारों का संग्रह है। संग्राहल में हर वर्ष उनका जन्मदिन मनाया जाता है और उनके सम्मान में एक सम्मेलन का भी आयोजन किया जाता है।
जोखिम को पसंद करने वाले पर्यटक यहां ट्रेकिंग (लंबी पैदल यात्रा) और रॉक क्लाइंबिंग (चट्टानों की चढ़ाई) का आनंद ले सकते हैं। सुंदर धुंगा ट्रेक, पिण्डारी ग्लेशियर ट्रेक और मिलम ग्लेशियर ट्रेक का शुमार भारत के सबसे अच्छे ट्रेकिंग रूट में होता है। यह जगह हिंदू धर्म के एक त्योहार मकर संक्रांति को मनाने के लिए भी जाना जाता है, जिसे यहां उत्तरायनी कहते हैं। यहां का सबसे नजदीकी एयरपोर्ट पंतनगर है। सबसे निकटतम रेलवे स्टेशन काठगोदाम है। सोमेश्वर घाटी, उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले में स्थित बेहद ही खूबसरूत घाटी है जो कि कोसी और सेई नदी के तट पर बसी है। पर्याप्त मात्रा में पानी होने के कारण यह घाटी खेती के लिये अच्छी मानी जाती है और बारह महीने कोई न कोई फसल खेतों में लगी ही रहती है। दूर-दूर तलक फैले खेत और हिमालय की ओर से आती ठंडी हवायें इसे जन्नत बना देती हैं तो इन फैले हुए खेतों के बीच में छिटके हुए छोटे-छोटे से गाँव इस जगह से आंखें हटने नहीं देते।
कौसानी से 16 किमी दूर बैजनाथ शहर में स्थित बैजनाथ मंदिर धार्मिक आस्था का महत्वपूर्ण केन्द्र है। 12वीं शताब्दी में निर्मित इस मंदिर का हिन्दू धर्म में खास धार्मिक एंव ऐतिहासिक महत्व है। बैजनाथ शहर को पहले कार्तिकेयपुर के नाम से जाना जाता था, जो 12वीं और 13वीं शताब्दी में कत्यूरी वंश की राजधानी हुआ करती थी।
ग्वालदम गढवाल और कुमांयु पहाडियों की सीमा पर स्थित है। हरे भरे जंगलों और सेब के बगीचों से भरपूर है। कौसानी से चालीस किमी दूर ग्वालदम
हिमालयन चोटी Nanda Devi (7817 mt), Trishul (7120 mt) and Nanda Ghuti (6309 mt) का सुंदर दृश्य प्रस्तुत करता है।
थराली के बाद जैसे ही पिंडार नदी की घाटी में आगे बढा गाडी दौडाने का मजा ही आ गया। दोपहर का एक बजा था। भूख भी लगी थी और नहाना भी था मगर मैंने सोचा कि अलकनंदा के संगम में ही नहाऊंगा इसलिये गाडी दौडा दी। अल्मोडा से 160 किमी गाडी चलाने के बाद कर्णप्रयाग आते ही शहर का कोलाहल वाहनों की चिल्लपों मारामारी, सारा आनंद ही छू मंतर हो गया। हरिद्वार से आने वाला बडा हाईवे आ गया था और हेमकुंड साहिब एवं बद्रीनाथ जी की यात्रा चल रही थी इसलिये पूरी रोड पर पंजाबियों ने कब्जा कर रखा था। बाइकर्स बहुत सारे थे। सारे के सारे खालसा का झंडा लगाये बुलैट दौडाये जा रहे। मैं संगम को भूल गया। शहर की धूल से बाहर निकलना चाहता था। शहर से बाहर निकल कर एक नेचुरल झरना देखा। दो तीन सरदार नहाते दिखे। बस फिर क्या मैं भी शुरू हो गया। जम कर नहाया । कपडे भी धोये और नजदीक ही एक छोटे से होटल पर दो रोटी भी खेंच ली और फिर दौड पडा बद्रीनाथ जी की तरफ। अभी तो कुछ ही किमी ही बढ पाया हुंगा कि बूंदाबांदी शुरू हो गया। मौसम बिगडने लगा। अंधेरा छा गया। जोशीमठ भी अभी अस्सी किमी दूर था। रुकने का बिल्कुल भी मन नहीं था। गाडी चलाने में मजा जो आ रहा था। चमोली गोपेश्वर में केदारनाथ जी वाले तीर्थ यात्री भी जुड गये। अब तो नजारा देखने लायक था। एक तो रोड शानदार और फिर ऊपर से सरदार युवकों की दौडती बुलेट्स से भी पंगा लेने था। कम कैसे पड जाऊं। हम भी जट्ट हैं भाई कोई आंडू पांडू थोडे ना हैं। टक्कर बराबर की होगी। अब तो रात बद्रीनाथ जी में ही होगी , सोच कर गाडी दौडा दी जोशीमठ की तरफ। जोशीमठ से आगे तो यात्रा क्या थी भाई , जन्नत है जन्नत । गजब का नजारा। आगे के ब्लाग में बताता हूं।

उत्तराखंड चार धाम बाइक यात्रा : तुंगनाथ से गौरीकुंड

हिमाच्छादित पर्वतमालाओं, सघन वनों वाला कुमाऊँ' का तराई-भावर क्षेत्र एक विषम वन था जहां जंगली जानवरों का राज था किन्तु उसके उपरान्त जब जंगलों की कटाई-छटाई की गई तो यहाँ की उर्वरक धरती ने कई पर्वतीय लोगों को आकर्षित किया, जिन्होंने गर्मी और सर्दी के मौसम में वहां खेती की और वर्षा के मौसम में वापस पर्वतों में चले गए। तराई-भाबर के अलावा अन्य पूर्ण क्षेत्र पर्वतीय है। यहाँ चीड़, देवदारु, भोज-वृक्ष, सरो, बाँझ इत्यादि पर्वतीय वृक्षों की बहुतायत है। यहाँ की मुख्य नदियाँ गोरी, काली, सरयू, कोसी, रामगंगा इत्यादि हैं। काली (शारदा) नदी भारत तथा नेपाल के मध्य प्राकृतिक सीमा है। कैलाश-मानसरोवर का मार्ग इसी नदी के साथ जाता है और लिपू लेख दर्रे से तिब्बत को जाता है।यहाँ की धरती प्रायः चूना-पत्थर, बलुआ-पत्थर, स्लेट, सीसा, ग्रेनाइट से भरी है। यहाँ लौह, ताम्र, सीसा, खड़िया, अदह इत्यादि की खानें हैं। तराई-भाबर के अलावा संपूर्ण कुमाऊँ का मौसम सुहावना होता है।
जोशीमठ से लौटते हुये केदारनाथ जाने के लिये मुझे रुद्रप्रयाग तक जाने की जरूरत नहीं पडी। चमोली गोपेश्वर से ही तुंगनाथ चौपता होते हुये उखीमठ के लिये एक रास्ता निकलता है। गोपेश्वर से उखीमठ तक की यह छोटी सी यात्रा मेरे जीवन की सबसे रोमांचक यात्रा बन गयी। हालांकि मुझे तुंगनाथ भी जाना था कितुं ये नहीं पता था कि मैं इस प्रकार संयोगवश पहुंच जाऊंगा। गोपेश्वर से चलते समय दोपहर के बारह बजे थे । धूप बहुत तेज थी। गरमी लग रही थी। स्नान करने की भी इच्छा हो रही थी। लगता है ऊपर वाले ने सुन ली। थोडा ही आगे बढा था कि बादल घिर आये और बारिस होना शुरू हो गया। मेरे पास रेनकोट था इसलिये रुका नहीं चलता ही रहा। बारिस में भीगते हुये करीब पांच किमी चलने के बाद एहसास हुआ कि मैं एक घने जंगल से गुजर रहा था और यहां दूर दूर तक बस्ती नहीं थी। उखीमठ तक जंगल ही पार करना था। बीच में तुंगनाथ महादेव का ही सहारा था जहां रात को आसरा मिल सकता था। इतना घना जंगल और मैं अकेला यात्री। दो चार अन्य वाहन मिले भी तो वो सामने से आने वाले थे । मेरे साथ चलने वाला एक भी वाहन न मिला। दर असल मैंने ही गलत रास्ता चुना था। ज्यादातर लोग पहले केदारनाथ जाते हैं और उसके बाद बद्रीनाथ जाते हैं जबकि मैंने इसके उलट रास्ता चुना था। मैं पूरब दिशा नैनीताल से घुस कर यमुनोत्री के बाद उत्तराखंड के उस कौने पर निकलने का इच्छुक था। धारा के विपरीत चलने पर कुछ कीमत तो चुकानी ही पडती है। तुंगनाथ तक की बयालीस किमी की यात्रा में मुझे पांच घंटे लग गये। पांच घंटे तक लगातार भीगता रहा। ठंड में कंपकंपी छूट रही थी। शाम को पांच बजे बनियाकुंड तुंगनाथ तिराहे पर पहुंचा जहां चार पांच लौज एवं होटल थे। ऐसे समय में बार्गेनिगं नहीं की जाती। बारह सौ रुपये में कमरा मिल गया। सारे कपडे उतारे और होटल की भट्टी के सामने सूखने को डाल दिये। होटल से एक दो आमलेट लेकर रूम में ही चला गया जहां मुझे सर्दी से निजात पाने को रम के दो पैक लेना जरूरी हो गया था। दो पैक लेकर आमलेट खायी और रजाई में घुस गया। बाहर अभी भी तेज बारिस थी। यहां ज्यादातर भीड ट्रैकर्स की थी। तुंगनाथ महादेव का ट्रैक चार किमी का ही था। ट्रैकर्स के लिये ये जगह बहुत शानदार है । इस बार तुंगनाथ महादेव के इतने करीब होते हुये भी न जा पाया । सुवह जल्दी जगा तो बारिस नहीं थी।हल्की हल्की धूप निकल आयी थी। ऐसे में निकलना ही उचित लगा मुझे। बनियाकुंड तुंगनाथ से उखीमठ देवरिया ताल और फिर मंदाकिनी पार कर गुप्तकाशी तक रास्ता अपने आप में एक आकर्षण है। स्वर्ग है स्वर्ग। साथ में दो चार दोस्त होने चाहिये । अकेले तो डर लग आता है। घना जंगल और सुनसान रास्ता। चमोली गोपेश्वर से तुंगनाथ तक का रोड खराब भी था पर अब आगे का रोड बहुत शानदार मिला। कुल मिलाकर दोपहर बारह बजे तक मंदाकिनी नदी के तट पर पहूंच गया। धूप तेज थी। स्नान करना था। यहीं पर सरकार ने अस्थाई सुलभ शौचालय की व्यवस्था कर रखी है। पुल के नजदीक ही नीचे उतरने का रास्ता था। खुद भी स्नान किया और बाइक को भी कराया। नहाते ही भूख लग आयी थी। गुप्तकाशी में खा खाकर केदारनाथ जी की आगे बढा। मात्रा पच्चीस किमी बाद सोनप्रयाग पर हमें रोक लिया गया। यहीं पर मैंने बाइक खडी कर दी। तभी अनाउंस हुआ कि केदारनाथ में मौसम खराब हो जाने के कारण यात्रा रद्द की जाती है। सुवह छ बजे यात्रा पुन: प्रारंभ होगी। सरकारी धर्मशालाओं में रुकने की व्यवस्था है। नयी बनी हैं। फर्श बहुत अच्छा है। अपने कपडे लाओ और सो जाओ। फर्श पर धूल मिट्टी थी। मैंने बीस रुपये का एक झाडू खरीदा और न केवल अपना हौल साफ किया बल्कि आसपास के दो चार हौल और भी साफ कर डाले। मुझे देखकर दो चार लोग और भी आगे आये और मेरा झाडू उठा ले गये बाकी के हौल भी साफ कर आये। धर्मशाला के बगल ही सहायता काउंटर है जहां हम मोबाइल चार्ज करने, फ्री बाईफाई पाने और भी कई तरह की सरकारी सहायता प्राप्त कर सकते हैं। यहीं पर तीर्थ यात्री रजिस्ट्रेशन काऊंटर है। यात्रा से पहले अपना रजिस्ट्रेशन कराना पडता है। रास्ते में भीगने का डर रहता है इसलिये बरसाती / रैनकोट होना बहुत जरूरी है। हाथ में डंडा भी जरूरी है फिसलने से बचाता है। गौरीकुंड से चढाई शुरू होती है लेकिन सोनप्रयाग में ही रोक लिया गया हमें ताकि अव्यवस्था न फैले। रात सोनप्रयाग की सरकारी धर्मशाला में काटने के बाद अगली सुवह जल्दी ही हमने पैदल यात्रा शुरू कर दी। आधा किमी चलते ही हमें नदी के पुल पर जीप मिल गयीं जिसने हमें गौरी कुंड छोड दिया। गौरी कुंड से हमारी सोलह किमी की पैदल यात्रा शुरू हुई। इस पूरे रास्ते में सरकार ने सुलभ शौचालयों और जल की व्यवस्था कर रखी है। बीच बीच में दुकानें भी आती रहती हैं। किमी बोर्ड भी हमें शेष यात्रा के बारे में बताते रहते हैं। केदारनाथ तक की यात्रा में मेरे साथ सैकडों पैदल यात्री थे और सभी भारत के अलग अलग प्रांतों से थे। केदारनाथ जी ने भारत की विविधता को एक जगह लाकर खडा कर दिया था और शायद यही शंकराचार्य जी की सोच रही होगी। satyapalchahar023@gmail.com

उत्तराखंड चार धाम बाइक यात्रा : देवभूमि ?

उत्तराखंड को देवभूमि क्यूं कहा जाता है ? क्या यहां के लोग देवता थे ? या फिर यहां की जमीन पर देवताओं मतलब देव जाति के योद्धाओं ने कब्जा किया था ? गुप्तकाल से पहले यहां किसी भी विष्णु मंदिर की उपस्थिति नहीं मिलती। या तो शिव मंदिर हैं या फिर आदिवासियों के लोक देवता। शंकराचार्य जी के वैष्णव मंदिर स्थापना के समय बौद्धों से संघर्ष और उनसे पहले बद्रीनाथ में बौद्ध लोगों द्वारा की जाने वाली पूजा पाठ से ये भी निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि बद्रीनाथ पहले एक बौद्ध मंदिर रहा होगा। शिव मंदिर और बौद्व मंदिर का साथ होना प्राचीन परंपरा को ही सिद्ध करता है। नेपाल के काठमांडू में भी पशुपतिनाथ के अलावा श्यंभू नाथ जी का बौद्ध मंदिर है। जगन्नाथ जी का मंदिर भी उसके बौद्ध मंदिर होने की ओर इशारा करता है। पहाडों में बुद्ध का प्रचार प्रसार ज्यादा हुआ था। लेह लद्दाख नेपाल भूटान चीन आदि में बुद्धों का होना इसका जीता जागता प्रमाण भी है। बात ये आती है कि उत्तराखंड के मूल निवासी कौन थे और उनकी धार्मिक परंपरा क्या थी ? 
किरात जाति के अलावा कुमाऊँ क्षेत्र में हिमालय के उत्तरांचल में निवास करने वाली भोटिया जाति का भी प्रभुत्व रहा था। भोटिया शब्द मूलतः बोट या भोट है। तिब्बत को भोट देश या भूटान भी कहा जाता है तथा उस देश से संबंधित होने के कारण वहाँ के निवासियों को भोटिया कहा गया। भोटियों की भाषा तिब्बती कही गई। यह तिब्बती से निकटता रखती है। जोहार दारमा, ब्याँस तथा चौदाँस की भाषा में स्थानगत विभेद पाए जाते हैं। भोटियों की बोली जोहारी पर कुमाऊँनी का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि आर्यों के आगमन से पहले यहाँ मुंडा तथा तिब्बती परिवार की भाषा बोलने वाले लोग निवास करते रहे होंगे। कुमाऊँ में शक संवत् के प्रचलन एवं अल्मोड़ा में कोसी के समीप स्थित कटारमल सूर्य मंदिर के अस्तित्व से इस संभावना की पुष्टि होती है कि किरात, राजी, नाग इत्यादि आदिम जातियों के पश्चात यहाँ शक जाति का अस्तित्व रहा है। गडनाथ, जागनाथ, भोलानाथ आदि लोक देवताओं के मंदिरों तथा गणनाथ आदि नामों के आधार पर यहाँ नाथ जाति के अस्तित्व की भी संभावना व्यक्त की जा सकती है। इतना निर्विवाद है कि कुमाऊँ के आदि निवासी कोल, किरात, राजी नाग, हूण, शक, बौर, थारु, बोक्सा, भोटिया और खस जाति के लोग हैं। इनमें सबसे सशक्त जाति खस थी, जो अन्य जातियों के बाद कुमाऊँ में आई। यहां भाषा और संस्कृति की आधार भूमि के निर्माण में भी खसों का योगदान रहा है। मूलतः आर्य जाति से संबंधित होते हुए भी खस ऋग्वेद के निर्माण से पूर्व अपने मूल आर्य भाइयों से अलग होकर पृथक-पृथक दलों में मध्य एशिया से पूर्व दिशा में की ओर चले होंगे। यही कारण है कि वे अवैदिक आर्य भी कहलाते हैं। अनुमान है कि वे ई.पू. द्वितीय सहस्राब्दी के लगभग पश्चिम से पूर्व की ओर भारत के विभिन्न भागों में फैल गए। कुमाऊँ में खसों के प्रवेश का निश्चित समय बताना दुष्कर कार्य है, तो भी इतना निश्चित है कि यहाँ राजपूतों के आगमन से पूर्व खसों का प्रभुत्व था।
आर्यों के धार्मिक गृंथों से इतना अनुमान लगाया जा सकता है कि पहाडों में देव जाति का निवास रहा होगा। निसंदेह यह जाति सुंदर गोरी रही होगी। सुरा और सुंदरी दोनों का ही आकर्षण रहा होगा। अब बात आती है कि आर्य का मतलब श्रेष्ठ होता है । न केवल बौद्धिक मानसिक रूप से श्रेष्ठ बल्कि शारीरिक रूप से भी श्रेष्ठ । पहाडों में रह रहे आदिवासियों को सिर्फ शारीरिक रूप से ही श्रेष्ठ माना जा सकता है बौद्धिक रूप से आज भी इतने सक्षम दिखाई नहीं देते हैं । निश्चित ही यहां के मूल निवासियों पर बाहरी योद्धाओं द्वारा आक्रमण किया गया था और अपने साथ लायी हुई संस्कृति में ही इन्हें रचने बसने का मौका दिया गया था। सत्य की खोज जारी है पर इतना तो साफ हो चुका है कि शंकराचार्य जी से पहले यहां राम कृष्ण या विष्णु ब्म्हा का नामोनिशान नहीं था। थे तो सिर्फ शिव या फिर बौद्ध या फिर पहाडी लोक देवी देवता। सत्य की खोज जारी है ।  



उत्तराखंड चार धाम बाइक यात्रा : देवभूमि

उत्तराखंड को देवभूमि क्यूं कहा जाता है ये मेरी समझ में आज तक नहीं आया। पुराणों में जिन देवताओं का वर्णन किया जाता है, उनका यहां नामोनिशान तक नहीं मिलता। सुरा सुंदरी के साथ खेलता इन्द्र और उसकी अप्सरायें भी नहीं मिलीं। गणेश कार्तिकेय भी नहीं मिले। ब्रम्हा और विष्णु भी नहीं मिले। देव परिवार का एक भी सदस्य नहीं मिला सिवाय शिव के। शिव तो आदि देव हैं, पशुपतिनाथ हैं, पहाडों जंगलों नदियों और प्रकृति में निवास करने वाले हैं, उनको तो मिलना ही था। पहाडों के लोग या तो शिवपूजक हैं या फिर अपने अपने निजी लोक देवों को मानने वाले हैं। 
अभी तक के लेखबद्ध इतिहास में सबसे पहला धर्म जिसने मोनोथिज़्म को अपनाया वो तिब्ब्त के बॉन लोगो का है , जिसमे शिव को सर्वशक्तिमान देवता बतलाया है । बॉन लोग कई देवताओ को पूजते थे परंतु शिव उनमे सबसे महान थे । कालांतर में बुद्ध धर्म के प्रादुर्भाव और उसको राजकीय प्रश्रय मिलने से बॉन धर्म सिमट गया और आज की तारीख में तिब्ब्त में उसके 264 मठ है ।
जनजातीय धर्म में बहुदेववाद एक साधारण लक्षण हुआ करता था और एक कबीला किसी एक देवता की उपासना करने के बाद किसी दुसरे कबीले के देवता का अनादर नहीं किया करता था । सामान्यतः ये हुआ करता था की जब एक कबीला दुसरे कबीले को विजित कर लेता था तो पराजित कबीले के देवी देवताओ को भी आत्मसात कर लेता था । ऐसी परिस्थिति में में युद्ध के पीछे धर्म प्रेरणा नहीं हुआ करता था ।
आधुनिक नृविज्ञान और मानवविज्ञानियो ने यह धारणा प्रस्तुत की है की है की कालान्तर में जब कबीले राज्यो का रूप लेने लगे और उनके क्षेत्राधिकार के अंदर बहुत सारे मिश्रित विश्वासो के लोग रहने लगे तो एकेश्वरवाद धार्मिक जरूरत से ज्यादा एक राजनितिक जरूरत हो गया । इसके फलस्वरूप राजाओ या अधिपतियों को धार्मिक वैधता के लिए धर्म के ठेकेदारो की जरूरत पड़ने लगी और जिस मत के सबसे ज्यादा या सबसे ताकतवर मतानुयायी होते थे  उस मत के लोग शासक को राजनीतिक वैधता प्रदान कर देते थे । यही से धर्मो में प्रतिस्पर्धा का भाव जागृत हुआ और मजहबो की ब्रांडिंग उसको ज्यादा से ज्यादा दैवीय आवरण दे कर की जाने लगी जिसकी परिणीति एकाधिकारवादी एकेश्वरवाद में हुई जिसने इस बात पर बल दिया की उसके देवता ने खुद कहलवाया है की "देवता एक ही है और वो सर्वश्रेष्ठ है , उसके अलावा और कोई देवता नहीं है "
ऐसा नहीं है की एकेश्वरवाद के विरोधी अवधारणाओं ने संघर्ष नहीं किया , मिश्रा , यूनान , रोम , नॉर्स और भारत में हमेशा इस सर्वाधिकारवादी एकेश्वरवाद के विरुद्ध संघर्ष हुआ परंतु सिर्फ भारत में ही इस अधिनायकवादी एकेश्वरवाद को चुनौती मिली जो आज भी जारी है।


मेरे लिये आज भी ये रहस्य का बिंदु बना हुआ है कि पुराणों में वर्णित देवी देवता असल में रहते कहां थे ? क्या वो किसी अन्य देश की माइथौलौजी से उठाये गये या फिर पूरी तरह काल्पनिक ? मेरे लिये ये भी एक कौतुहल का प्रश्न है कि शिव और शंकर एक ही हैं ? शिव जी भी क्या कोई मानव रुप में थे या फिर वह भी त्रिगुण त्रिदेव एक कल्पना ही है ? शिव यदि कल्पना हैं तो फिर सैंधव सभ्यता की खुदाई में मिली वो योगी की मूर्ति किसकी है ? वो पशुपतिनाथ कौन है ? रुद्र कौन है ? त्रिदेव की कल्पना तो पहली सदी की है। वह योगी वह रुद्र तो उससे तीन हजार पहले के हैं। कुछ तो है जो हमसे छूट रहा है । सत्य की खोज जारी है। 

उत्तराखंड चार धाम बाइक यात्रा : केदारनाथ दर्शन

3 मई को केदारनाथ मंदिर के कपाट खुलते ही मोदी जी ने दर्शन किये थे और हम जैसे घुमक्कडों के लिये इस प्रकार के अवसर उकसाऊ होते हैं। बैसे भी कभी हरिद्वार ऋषिकेश से ऊपर नहीं जा पाया था। बाइक से पहाडों में दौडना चाहता था और साथ ही पहाडों में रहने वाले लोगों की जीवन शैली को जानना भी चाहता था। साथ ही यह भी जानने की उत्कंठा थी कि क्या वाकई उत्तराखंड देवभूमि रही होगी ?
शिव के 12 ज्योतिलिंगों में से 11वां ज्योतिर्लिंग केदारनाथ मंदिर में ही है। 15-16 जून 2013 की रात मंदाकिनी नदी के जलप्रलय में केदारनाथ मंदिर के नीचे गौरीकुंड और रामबाड़ा तक सब कुछ तबाह हो गया था। चार साल में सरकार ने आईटीबीपी और सेना की सहायता से अपना पूरा दमखम लगाकर यात्रियों के लिए नया रास्ता तैयार किया है। 2013 के बाद केदारनाथ जाने के लिए दो पैदल रास्ते बना दिए गए हैं। पहला पैदल रास्ता त्रियुगीनारायण से सीधे केदारनाथ मंदिर तक है, जो 15 किलोमीटर लंबा है। वहीं दूसरा रास्ता चौमासी से रामबाड़ा के दूसरी ओर से होते हुए लिनचोली के पास केदारनाथ पैदल मार्ग से मिल जाता है। केदारनाथ रास्ते से गौरीकुंड-रामबाड़ा 2 से 3 किलोमीटर लंबे हैं। यानि पहले 16 किलोमीटर पैदल चलकर केदारनाथ पहुंचा जा सकता था, इसके साथ ही अब बाबा के धाम तक जाने के लिए यात्रियों को पहले के रास्ते के मुकाबले दो किलोमीटर पहले से चढ़ाई शुरू करनी होगी। 
सौनप्रयाग में एक रात इंतजार करने के बाद अगली सुवह जल्दी ही गौरीकुंड से पैदल यात्रा प्रारंभ की। गौरीकुंड में स्नान करने का प्रावधान है। इसके अलावा मार्ग के प्रारंभ में ही नदी किनारे सुलभ शौचालयों की व्यवस्था है और नदी के ठंडे जल में स्नान करने की किसी की हिम्मत हो तो कर सकता है। फिलहाल हम तो बिना स्नान ही आगे बढ लिये। ठंड बहुत थी। हिम्मत ही नहीं पडी। 
गौरीकुंड से जंगलचट्टी चार किलोमीटर है। उसके बाद रामबाड़ा जगह पड़ती है। फिर अगला पड़ाव पड़ता है लिनचौली। गौरीकुण्ड से यह जगह 11 किलोमीटर दूर है। एक बात गौर करने की है कि चढाई के लिये मानसिक ताकत की बहुत जरूरत है। चढते समय एक हाथ में पानी की बोतल हो और मन आसपास की खूबसूरती को निहारने, लोकल लोगों की जीवन शैली को जानने एवं बाहर से आये दर्शनार्थियों की विविधता को जानने में लगा हो तो रास्ता का पता ही नहीं चलता। हालांकि रास्ता कठिन है। क्यूं कि बहुत सी जगह रोड बहुत संकरा है और घोडे बाले धकियाते हुये आगे बढ जाते हैं, पैदल यात्री गिरने से बाल बाल बचते हैं। ऐसी यात्रा में बहुत आराम से आनंद लेते हुये चलना चाहिये। बहुत से लोग भागमभाग में जाते हैं दर्शन करते और फिर भाग लेते हैं। ऐसा लगता है कि आज ही मोक्ष प्राप्त कर लेंगे। मेरी समझ कहती है कि मंदिर में रखी वो मूरत भोले का प्रतीक मात्र है असली शिव तो मंदिर के बाहर है। ये सफेद पहाड , हरे भरे पेड और पहाडों से निकलती अनंत धारायें। ये है शिव । मैं तो इसी शिव को देखने निकलता हूं। मंदिर में तो मुझे धक्कामुक्की के अलावा कुछ मिलता ही नहीं।
गौरीकुंड से थोडा सा आगे निकलते ही खच्चर काउंटर है। हर खच्चर का रजिस्ट्रेशन होता है। फीस वहीं पर जमा की जाती है। पर मुझे तो पैदल ही चलना था इसलिये आगे बढ गया। करीब पांच सौ मीटर बाद गणेश मंदिर आता है। थोडी थोडी दूर पर रोड के सहारे चाय पानी नास्ता की दुकानें लगी हैं। रूक कर आप आराम कर सकते हैं पर मैं सलाह यही दुंगा कि पसीना सूखना नहीं चाहिये । यदि एक ही स्थान पर आप ज्यादा बैठ गये तो पैर दर्द करने लगेंगे जबकि चलते रहने से शरीर गर्म रहेगा। भले धीमे चलें पर चलते रहें । बीच बीच में पानी के घूंट मारते चलें। सांस फूले तो रुक जायें और नोर्मल होने पर फिर चल दें। थोडा आगे चलने पर भीम मंदिर मिलता है। इस पूरी यात्रा के दो मुख्य आकर्षण हैं एक तो खूबसूरत पहाड और मंदाकिनी नदी और दूसरे दूर दूर से आये विभिन्न संस्कृतियों भाषाओं वाले लोग। ऐसी यात्रा में मैं जानबूझ कर लोगों से बात करता हूं। बुजुर्गों का हाथ पकड उन्हें सहारा देता हूं। बच्चों से मस्ती करता हूं। हां बच्च्चों की मम्मियों से दूर ही रहता हूं क्यूं कि कोई भरोषा नहीं अभी मामा बोल कर गोद वाला बच्चा मेरे कंधे पर ही न बैठ जाये। गोद वाले बच्चे के मांता पिता की हालत तो देखने लायक होती है खासकर पापा की । बच्चे की मम्मी उसके पापा को खच्चर बना देती है । ऐसा लगता है जैसे औलाद पैदा करने का ब्याज समेत शुल्क बसूल रही हो। पानी मांग जाता है बेचारा पापा। बच्चे को लाद लाद कर इतना परेशान हो जाता है कि बगल चल रहे राहगीरों की तरफ देखता है मानो कह रहा हो थोडी देर के लिये इसके पापा बन जाओ यारों । पर राहगीर क्या कम चालू हैं ? ऐसे टाईम पर कौन बनना चाहेगा भला ?
और इस प्रकार हंसते मस्ती करते बतियाते उछलते कूदते जोश ही जोश में हम रामबाडा पहुंच जाते हैं जो इस यात्रा का मध्यबिंदु है।
रामबाडा में खाने पीने रुकने दवाई दारू सबकी व्यवस्था है। नहीं दारू की नहीं है सिर्फ दवा की है। जैसे जैसे ऊपर चढते हैं चाय दस से पन्द्रह और बीस की होती जाती है। पराठा चालीस पर पहूंच जाता है। आलू के पकौडे भी तीस चालीस तक पहुंच जाते हैं। बिस्कुट भी बीस का हो जाता है। पानी फ्री में है। खूब पीयो । नहाओ धोओ लुटाओ । भोले की कृपा से मंदाकिनी में खूब पानी है। हर दस कदम पर आपको रोड साफ करने वाले मिलेंगे। ये सफाई कर्मचारी हैं। मैं आपसे विनती करूंगा कि आप चाहे पांच रुपये ही दें पर इनको जरूर दें। आपके रुपये किसी की जान बचा सकते हैं और किसी को रोजगार भी दे सकते हैं। जान कैसे बचेगी ? वो ऐसे कि कुछ मूर्ख यात्री केले खाकर गंदगी रोड पर फेंक जाते हैं। खच्चर मलमूत्र की गंदगी से रोड को रपटना कर जाते हैं । अगर ये सफाई कर्मी नियमित झाडू न फेरें तो कभी भी हादसा हो सकता है और फिर सुलभ शौचालय में पानी भरना साफ करना नियमित रुप से ये लोग इसी आशा में करते रहते हैं। तो इनको जरूर दीजिये।
रामबाडा निकलते ही केदार पर्वत के दर्शन होते हैं। एकदम सफेद । हालांकि बद्रीनाथ जी से भी थोडी सी झलक देख ली थी पर यहां तो साक्षात खडा था सामने। इसी केदार के नाथ हैं शिव और शक्ति । शिव ही सत्य है और सत्य ही सुंदर है इसलिये मेरे सामने सबकुछ सुंदर ही सुंदर नजर आ रहा था।
यहां के बाद थकावट बढती जाती है। ऊंचाई के साथ साथ औक्सीजन भी कम होती जाती है। रोड भी संकरा होता जाता है। कुछ जगह रोड इतना संकरा होता है कि खच्चरों से टकराने का भय बना रहता है।ऐसे समय में खडे हो जाओ और इंतजार करो। ज्यादा जल्दी नहीं । निकल जा भाई तू पहले। तू ही मोक्ष प्राप्त कर ले । हम तो कीडे मकौडे का जन्म ले लेंगे । ये दुनियां बहुत खूबसूरत है फिर आ जायेंगे । तू जा पहले । भोले ने तेरे लिये भांग घोंटकर तैयार कर रखी है चल निकल। कुल मिलाकर उतरते चढते मंदिर के नजदीक आ चले । सेना के तंबू नजर आने लगते हैं। एक तंबू चार सौ रुपये में एक आदमी के लिये। खाना थाली साठ रुपये लेकिन अभी जाकर तुरंत लौटे कौन ? चार किमी बाकी है अभी तो । मंदिर पर ही रुकेंगे हम तो । सोच कर बढ लिये। दिन ढल चुका था। सूरज डूबने को था। ठंड और बढ आयी थी। हल्की हल्की बारिस ने मौसम और मजेदार बना दिया था। कपडे भीग चुके थे। फिर भी डंडे का सहारा लेते जय भोले जय भोले करते बढ चले हम तो। ग्लेशियर पार कर पहुंच गये खच्चर स्टैंड । सोचा मंदिर आ गया पर अभी दो किमी और था हालांकि समतल था। इतना चढ लिया तो ये क्या है। मेडीकल कैंप से दो टैबलेट लीं। भोले का मंदिर था वरना दो टैबलेट की जगह दो पैग लेता और सारी थकान दूर । खैर भोले दारु नहीं पीते इसलिये नाराज होने का खतरा था। मंदिर के नजदीक पहुंचे तो लाईन लगी पडी थी। हिंदुस्तान लाईन का बहुत तगडा लफडा है । मरने जाओ तो वहां भी लंबी लाईन मिलेगी ये तो भोले से मिलने का मौका था। खैर हमने लाईन में लगने की बजाय टैंट ढूंडा। धर्मशालायें फुल मिलीं। जो खाली थीं वो फैमिली वालों को दे रहे थे हम ठहरे फुकडंड । भगा दिया । जा बच्चों के साथ आना। बात भी कायदा की थी। बजरंगबली होते तो एक बार को चल भी जाती पर ये तो भोले थे घरवाली को साथ लेकर चलते हैं। खैर हमने तुरंत टैंट की जुगाड की । फौजी टैंट मिल गया। सैनिकों वाला। एकदम फ्री में । सामान पटका। हाथ मुंह पर पानी मारा और सीधे मंदिर । तभी पट बंद होने की घोषणा हुई और अफरातफरी मच गयी। उसी का फायदा उठाकर सीधे अंदर । भोले के यहां भी जुगाड चलती है। भीड इतनी कि पता ही नहीं चले कि अंदर कौनसे कौने में तो भोले बैठे हैं और कौनसे में पांडव । पूरा एक चक्कर लगा कर भोले के सामने पहुंच गये। अभी ठीक से देख भी न पाये कि पंडे ने धकिया दिया।आगे बढो । क्यूं बढें भाई ? भोले के क्या तेरे पापा के हैं ? आराम से मिलने तो दे ? सुखदुख की बात तो करने दे ? पर पंडा नहीं माना । बोला दाम हो तो ही दामोदर से बात आगे बढेगी वरना तू आगे बढ। बैसे भी हमें कौनसा अपना ब्याह कराना था हम तो आगे बढ गये। दाम देकर भोले से मिले तो क्या मिले । उसके बाद तो पूरे दो घंटे मंदिर के आस पास चक्कर लगाने और लोगों से बतियाने में बीते । हल्की हल्की ठंड । रोशनी में नहाता मंदिर परिसर। अपनी अपनी दुकान सजाये साधु संत और पंडे। भोले ने भी न जाने कितनों को रोजगार दे रखा है। खैर थके हारे हम तो टैंट में पसर गये। रात में जमकर बारिस हुई । खोपडी पर टपाटप होती रही पर हम न जगे। सुवह ही नींद खुली। सुवह ही एक पंडे से यारी हो गयी। नहा धोकर तैयार हुये । थकान भी गायब। पंडे की यारी काम आयी और फिर घुस गये अंदर जुगाड से। इस बार ढंग से बताया कर आये भोले से। मजा आ गया। अंदर जाकर हमने एक बात जरूर पूछी आपको ठंड काहे नहीं लगती हमारी तो एक ही रात में झाम बन गयी प्रभू ? वो भी जानते थे कि नादां बच्चा है जो पंडो के वहकावे में आकर मुझे भी मानव समझ बैठा है। पूरी कायनात का रचियेता तो सर्दी गर्मी बरसात का मालिक है तो ये उसका क्या बिगाड लेंगी। प्रकृति ही शिव है। यही सत्य है। तभी तो सुंदर है। 
जय केदारनाथ ।

Wednesday, April 11, 2018

उत्तराखंड चार धाम बाइक यात्रा : जागेश्वर धाम से अल्मोडा ।।


अल्मोडा से थोडा आगे चितई गांव के गोलू देवता का मंदिर जिनके यहां लोग लिखित में प्रार्थना पत्र या अर्जियां देकर जाते हैं, घंटियों से भरा पडा है। लोग इतनी घंटियां चढाते हैं कि मंदिर में दीवार तो नजर ही नहीं आती सिर्फ घंटियां ही नजर आती हैं। दरअसल गोलू देवता यहां के लोग देवता हैं।पहाडी लोगों की अपनी एक अलग संस्कृति और अपने लोक देवी देवता होते हैं। पहाडी लोग मुख्यता प्रकृति पूजक होते हैं। पशु पक्षी पेड पानी और प्रकृति ही इनका परम पिता परमेश्वर है। बाकी जितने भी पहाडों में मंदिर दिखाई पडते हैं, सारे के सारे गुप्तकालीन या राजपूत कालीन राजाओं द्वारा बनवाये गये हैं। पहाडों में रहने वाले आदिवासियों की आस्था शिव जी या पशुपतिनाथ में मैंने खूब देखी है क्यूं कि शिव आदि देव हैं और वह प्रकृति के प्रतीक भी हैं। महात्मा बुद्ध भी यहां विराजमान हैं। छठवीं शताब्दी तक बुद्ध और शिव ही पूरे देश में छाये रहे।अतिंम बौद्ध सम्राट हर्षवर्धन के बाद जैसे ही राजपूत काल आया, पूरे देश में बौद्ध संस्कृति विलुप्त होने लगी और शिव एवं बौद्ध मंदिरों के स्थान पर वैष्णव मंदिर बनने लगे।हालांकि पहाडों में आज भी शैव मत एवं बुद्ध मत का अच्छा खासा प्रभाव है।
उत्तराखण्ड को मुख्यतया दो  मण्डलों में विभाजित किया जा सकता है। कुमाऊँ और गढ़वाल।
अल्मोड़ा बागेश्वर चंपावत नैनीताल पिथौरागढ़ उधमसिंह नगर। कुमाऊँ के उत्तर में तिब्बत, पूर्व में नेपाल, दक्षिण में उत्तर प्रदेश तथा पश्चिम में गढ़वाल मंडल हैं।रानीखेत में भारतीय सेना की प्रसिद्ध कुमाऊँ रेजिमेंट का केन्द्र स्थित है I कुमाऊँ के मुख्य नगर हल्द्वानी, नैनीताल, अल्मोड़ा, रानीखेत, पिथौरागढ़, रुद्रपुर, काशीपुर, पंतनगर तथा मुक्तेश्वर हैं I कुमाऊँ मण्डल का शासनिक केंद्र नैनीताल है और यहीं उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय भी स्थित है I
गोलू देवता के मंदिर से थोडा आगे बढा ही था कि बूंदाबांदी शुरू हो गयी। टेंशन नहीं था रेनकोट था मेरे पास। कोई आधे घंटे में ही जागेश्वर पहुंच गया। जागेश्वर से थोडा पहले ही एक वृद्ध जागेश्वर भी हैं। मंदिर एकदम एकांत स्थान पर बने हैं। ना तो कोई भक्तों की भीड और न घंटों की कानफोडू आवाज। दूर दूर तक हरे भरे पेड और सुंदर पहाड।नदी का कलकल करता जल तो पहाडों में पशु चराते सीधे साधे पहाडी लोग। मैंने तो हमेशा मंदिर से बाहर इन्ही प्राकृतिक तत्वों में ही शिव को देखा है, मंदिर तो बस समाज को इक्ट्ठा करने का एक स्थान है। शिवलिंग या शिवमूरत को मैं बाहर फैली कुदरत की अपार खूबसूरती का एक प्रतीक मात्र ही मानता आया हूं। चमत्कारों में मैंने आज तक विश्वास नहीं किया। चमत्कार जैसे शब्द पंडों के गढे हुये शब्द हैं जो उनकी दुकानदारी के हिसाब से जरूरी भी हैं।जितना बडा चमत्कार उतना बडा धंधा। जहां तक इन मंदिरों की बात है पहाडों में बना शायद ही कोई मंदिर हजार साल से पुराना होगा।
उत्तर भारत में गुप्त साम्राज्य के दौरान हिमालय की पहाडियों के कुमाऊं क्षेत्र में कत्यूरीराजा थे। जागेश्वर मंदिरों का निर्माण भी उसी काल में हुआ। इसी कारण मंदिरों में गुप्त साम्राज्य की झलक भी दिखलाई पडती है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अनुसार इन मंदिरों के निर्माण की अवधि को तीन कालों में बांटा गया है। कत्यरीकाल, उत्तर कत्यूरीकाल एवं चंद्र काल। बर्फानी आंचल पर बसे हुए कुमाऊं के इन साहसी राजाओं ने अपनी अनूठी कृतियों से देवदार के घने जंगल के मध्य बसे जागेश्वर में ही नहीं वरन् पूरे अल्मोडा जिले में चार सौ से अधिक मंदिरों का निर्माण किया जिसमें से जागेश्वर में ही लगभग 250 छोटे-बडे मंदिर हैं। मंदिरों का निर्माण लकडी तथा सीमेंट की जगह पत्थर की बडी-बडी शिलाओं से किया गया है। दरवाजों की चौखटें देवी देवताओं की प्रतिमाओं से अलंकृत हैं। मंदिरों के निर्माण में तांबे की चादरों और देवदार की लकडी का भी प्रयोग किया गया है।
जागेश्वर को पुराणों में हाटकेश्वर और भू-राजस्व लेखा में पट्टी पारूण के नाम से जाना जाता है। पतित पावन जटागंगा के तट पर समुद्रतल से लगभग पांच हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित पवित्र जागेश्वर की नैसर्गिक सुंदरता अतुलनीय है। कुदरत ने इस स्थल पर अपने अनमोल खजाने से खूबसूरती जी भर कर लुटाई है।
जागेश्वर मंदिर समूह वाला रास्ता घने पेडों से घिरा इतना एकांत है कि अकेले आदमी को डर भी लग आता है। काफी दूर तक कोई घनी रिहाइस बस्ती नहीं है। हालांकि मंदिर के ठीक सामने एक दो लौज हैं जहां आप रात को रुक सकते हैं। लेकिन मैंने तो अल्मोडा में रुकने का विचार पहले ही बना लिया था।मात्र पैंतीस किमी था।भले हल्की हल्की बूंदाबांदी हो रही थी लेकिन रात होने से पहले अल्मोडा पहुंच कर रुकने का ठिकाना ढूंड सकता था। मैं सामान्यत: गुरूद्वारों में ही रुकता हूं। यह भी एक विडंबना ही है कि मंदिर घूमने वाले इंसान को शरण गुरु के घर में लेनी पडती है क्यूं कि भगवान का घर तो पंडो ने घेर रखा है और सिर्फ कमाई का साधन बना रखा है। जिस भक्त की बजह से कमाई हो रही है उसके रुकने खाने पीने के लिये कोई इंतजाम नहीं है। धर्मशालाओं वाले भी बहुत नालायक होते हैं जानबूझ कर धर्मशाला को भरा हुआ बतायेंगे ताकि भक्तों को होटल में रुकना पडे। इस तरह की लूट मुझे अंदर तक चोट पहुंचाती है। खैर हम तो बारिस में भीगते ठिठुरते अल्मोडा चले आये, रास्ते में गुरूद्वारा मिला नहीं, हमने ढूंडा नहीं,बस चलते रहे और शहर पार कर कौसानी वाले रोड पर कटारमल मंदिर के नजदीक नदी के किनारे एक सस्ते से लौज में मात्र तीन सौ रुपये में टिक गये। सुवह चार बजे यात्रा पुन: प्रारंभ करनी थी , कौसानी ग्वालदम थराली कर्णप्रयाग होते हुये बद्रीनाथ पहुंचना था, इसलिये जल्दी ही सो गये।