उत्तराखंड को देवभूमि क्यूं कहा जाता है ? क्या यहां के लोग देवता थे ? या फिर यहां की जमीन पर देवताओं मतलब देव जाति के योद्धाओं ने कब्जा किया था ? गुप्तकाल से पहले यहां किसी भी विष्णु मंदिर की उपस्थिति नहीं मिलती। या तो शिव मंदिर हैं या फिर आदिवासियों के लोक देवता। शंकराचार्य जी के वैष्णव मंदिर स्थापना के समय बौद्धों से संघर्ष और उनसे पहले बद्रीनाथ में बौद्ध लोगों द्वारा की जाने वाली पूजा पाठ से ये भी निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि बद्रीनाथ पहले एक बौद्ध मंदिर रहा होगा। शिव मंदिर और बौद्व मंदिर का साथ होना प्राचीन परंपरा को ही सिद्ध करता है। नेपाल के काठमांडू में भी पशुपतिनाथ के अलावा श्यंभू नाथ जी का बौद्ध मंदिर है। जगन्नाथ जी का मंदिर भी उसके बौद्ध मंदिर होने की ओर इशारा करता है। पहाडों में बुद्ध का प्रचार प्रसार ज्यादा हुआ था। लेह लद्दाख नेपाल भूटान चीन आदि में बुद्धों का होना इसका जीता जागता प्रमाण भी है। बात ये आती है कि उत्तराखंड के मूल निवासी कौन थे और उनकी धार्मिक परंपरा क्या थी ?
किरात जाति के अलावा कुमाऊँ क्षेत्र में हिमालय के उत्तरांचल में निवास करने वाली भोटिया जाति का भी प्रभुत्व रहा था। भोटिया शब्द मूलतः बोट या भोट है। तिब्बत को भोट देश या भूटान भी कहा जाता है तथा उस देश से संबंधित होने के कारण वहाँ के निवासियों को भोटिया कहा गया। भोटियों की भाषा तिब्बती कही गई। यह तिब्बती से निकटता रखती है। जोहार दारमा, ब्याँस तथा चौदाँस की भाषा में स्थानगत विभेद पाए जाते हैं। भोटियों की बोली जोहारी पर कुमाऊँनी का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि आर्यों के आगमन से पहले यहाँ मुंडा तथा तिब्बती परिवार की भाषा बोलने वाले लोग निवास करते रहे होंगे। कुमाऊँ में शक संवत् के प्रचलन एवं अल्मोड़ा में कोसी के समीप स्थित कटारमल सूर्य मंदिर के अस्तित्व से इस संभावना की पुष्टि होती है कि किरात, राजी, नाग इत्यादि आदिम जातियों के पश्चात यहाँ शक जाति का अस्तित्व रहा है। गडनाथ, जागनाथ, भोलानाथ आदि लोक देवताओं के मंदिरों तथा गणनाथ आदि नामों के आधार पर यहाँ नाथ जाति के अस्तित्व की भी संभावना व्यक्त की जा सकती है। इतना निर्विवाद है कि कुमाऊँ के आदि निवासी कोल, किरात, राजी नाग, हूण, शक, बौर, थारु, बोक्सा, भोटिया और खस जाति के लोग हैं। इनमें सबसे सशक्त जाति खस थी, जो अन्य जातियों के बाद कुमाऊँ में आई। यहां भाषा और संस्कृति की आधार भूमि के निर्माण में भी खसों का योगदान रहा है। मूलतः आर्य जाति से संबंधित होते हुए भी खस ऋग्वेद के निर्माण से पूर्व अपने मूल आर्य भाइयों से अलग होकर पृथक-पृथक दलों में मध्य एशिया से पूर्व दिशा में की ओर चले होंगे। यही कारण है कि वे अवैदिक आर्य भी कहलाते हैं। अनुमान है कि वे ई.पू. द्वितीय सहस्राब्दी के लगभग पश्चिम से पूर्व की ओर भारत के विभिन्न भागों में फैल गए। कुमाऊँ में खसों के प्रवेश का निश्चित समय बताना दुष्कर कार्य है, तो भी इतना निश्चित है कि यहाँ राजपूतों के आगमन से पूर्व खसों का प्रभुत्व था।
आर्यों के धार्मिक गृंथों से इतना अनुमान लगाया जा सकता है कि पहाडों में देव जाति का निवास रहा होगा। निसंदेह यह जाति सुंदर गोरी रही होगी। सुरा और सुंदरी दोनों का ही आकर्षण रहा होगा। अब बात आती है कि आर्य का मतलब श्रेष्ठ होता है । न केवल बौद्धिक मानसिक रूप से श्रेष्ठ बल्कि शारीरिक रूप से भी श्रेष्ठ । पहाडों में रह रहे आदिवासियों को सिर्फ शारीरिक रूप से ही श्रेष्ठ माना जा सकता है बौद्धिक रूप से आज भी इतने सक्षम दिखाई नहीं देते हैं । निश्चित ही यहां के मूल निवासियों पर बाहरी योद्धाओं द्वारा आक्रमण किया गया था और अपने साथ लायी हुई संस्कृति में ही इन्हें रचने बसने का मौका दिया गया था। सत्य की खोज जारी है पर इतना तो साफ हो चुका है कि शंकराचार्य जी से पहले यहां राम कृष्ण या विष्णु ब्म्हा का नामोनिशान नहीं था। थे तो सिर्फ शिव या फिर बौद्ध या फिर पहाडी लोक देवी देवता। सत्य की खोज जारी है ।
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