Tuesday, February 28, 2017

पचमढी से घर बापसी

धूपगढ की ऊंची पहाडी से सांझ के डूबते सूरज की लालिमा को निहारने का दृश्य शायद ही कभी भूल सकें। प्रियदर्शिनी प्वाइंट से सूर्यास्त का दृश्य लुभावन लगता है। तीन पहाड़ी शिखर की बाईं तरफ चौरादेव, बीच में महादेव तथा दाईं ओर धूपगढ़ दिखाई देते हैं। इनमें धूपगढ़ सबसे ऊंची चोटी है। पचमढ़ी से प्रियदर्शिनी प्वाइंट के रास्ते में आपको नागफनी पहाड़ मिलता है जिसका आकार कैक्टस की तरह है और यहां कैक्टस के पौधे बहुतायत में हैं। पचमढ़ी प्राकृतिक जड़ी-बूटियों से संपन्न क्षेत्र है। सतपुडा के घने जंगल जहां है कुदरत की वह जीवंतता, जो हर मौसम के साथ इठलाती है, उल्लास भरी अंगडाईयां लेती है और आमंत्रण देती है आपको अपनी मनोरम दृश्यावली से सजी हुई गलियों में विचरने का। जीवंतता से भरे हुए इन विशाल जंगलों के बीच ही है सतपुडा की रानी। जंगलों के बीच खोजी गई पचमढी को प्राकृतिक सुन्दरता और झरनों के उन्मुक्त प्रवाह के कारण नाम दिया गया प्रकृति की अल्हड संतान का। कहते हैं कि सतपुडा के जंगल और पहाडी वादियां हिमालयी क्षेत्रों से भी 15 करोड साल पुरानी हैं और उसकी लाक्षणिकता से बिल्कुल अलग भी। सतपुडा के जंगल पूरी दुनिया में बाघों का सबसे बडा घर भी है और पचमढी वह जगह है जहां से आप सतपुडा नेशनल पार्क और बोरी सेंचुरी जैसे इन घरों तक आसानी से पहुंच सकते हैं। कान्हा और पेंच जैसे राष्ट्रीय उद्यान भी यहां से ज्यादा दूर नहीं हैं। इसके अलावा यहाँ कैथोलिक चर्च और क्राइस्ट चर्च भी हैं।रजत प्रपात: यह अप्सरा विहार से आधा किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। 350 फुट की ऊँचाई से गिरता इसका जल इसका जल एकदम दूधिया चाँदी की तरह दिखाई पड़ता है। बी फॉल जमुना प्रपात के नाम से भी जाना जाता है। यह नगर से 3 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। पिकनिक मनाने के लिए यह एक आदर्श जगह है।
हांडी खोह नामक खाई पचमढ़ी की सबसे गहरी खाई है जो 300 फीट गहरी है। यह घने जंगलों से ढँकी है और यहाँ कल-कल बहते पानी की आवाज सुनना बहुत ही सुकूनदायक लगता है। वनों के घनेपन के कारण जल दिखाई नहीं देता; पौराणिक संदर्भ कहते हैं कि भगवान शिव ने यहाँ एक बड़े राक्षस रूपी सर्प को चट्टान के नीचे दबाकर रखा था। स्थानीय लोग इसे अंधी खोह भी कहते हैं जो अपने नाम को सार्थक करती है; यहाँ बने रेलिंग प्लेटफार्म से घाटी का नजारा बहुत सुंदर दिखता है।
जटाशंकर गुफा एक पवित्र गुफा है जो पचमढ़ी कस्बे से 1.5 किलोमीटर दूरी पर है। यहाँ तक पहुँचने के लिए कुछ दूर तक पैदल चलना पड़ता है। मंदिर में शिवलिंग प्राकृतिक रूप से बना हुआ है। यहाँ एक ही चट्टान पर बनी हनुमानजी की मूर्ति भी एक मंदिर में स्थित है। पास ही में हार्पर की गुफा भी है।
हांडी खोह, महादेव और गुप्तेश्वर के बाद हम बापस पचमढी लौट आये थे। चौरागढ नहीं जा पाये। अगली ट्रिप में देखेंगे ढंग से। लौटते हुये गोल्फ मैदान और स्पोर्ट्स पौईंट भी हो आये। लेकिन चार्जेज इतने अधिक कि हिम्मत ही नहीं पडी पैराग्राइडिगं करने की। बैसे भी हमारे लौटने का वक्त भी हो चला था। 
मेरी पचमढी की एक दिनी यात्रा के बाद वापस पिपरिया स्टेशन से धौलपुर श्री धाम सुपरफास्ट से रवाना हो लिये जिसने हमें सुवह पांच बजे धौलपुर पहुंचा दिया था। 
इस बार की मालवा और सतपुडा की यात्रा बहुत ही जानदार रही। विकी को भी बहुत मजे आये।

























महेश्वर से ऊंकारेश्वर

महेश्वर से सुवह ही तीनों मैं , विक्की और नितिन भाई डिस्कवर से ऊंकारेश्वर की तरफ बढ चले। 75-80 किमी चलने में हमें दो घंटे लगे क्यूं कि हम आराम से रुकते रुकाते धीमे धीमे बढ रहे थे। रास्ते में काली मिट्टी के खेतों, कपास गन्ना जैसी फसलों को देखना भी विकी के लिये एक नया अनुभव ही था। ऊंकारेश्वर के नजदीक पहुंचते ही हमें एहसास हो गया कि महाकुंभ की तैयारियां चल रही हैं। सिहंस्थ में इस बार वास्तव में बहुत ज्यादा भीड उमड पडी थी। सडकों का निर्माण चल रहा था ताकि भक्त लोग उज्जैन ऊंकारेश्वर महेश्वर त्रिकोण पूरा कर सकें। ऊंकारेश्वर में प्रवेश करते ही एक नया संगमरमर का बना मंदिर नजर आता है। शहर की भीडभाड से दूर यह मंदिर संस्था की तरफ से था जिसमें ध्यान योग पर जोर ज्यादा था।
आगे चलते हैं नर्मदा नदी के तट पर पहुंचते हैं और ममलेश्वर के दर्शन करते हैं। नर्मदा और गंगा दोनों के ही घाट भक्तिमय नजर आते हैं। हर कंकर यहां शंकर का रूप ले लेता है। हजारों लाखों छोटे बडे मंदिरों का निर्माण हुआ होगा इनके तट पर। ओंकारेश्वर तीर्थ क्षेत्र में चौबीस अवतार, माता घाट (सेलानी), सीता वाटिका, धावड़ी कुंड, मार्कण्डेय शिला, मार्कण्डेय संन्यास आश्रम, अन्नपूर्णाश्रम, विज्ञान शाला, बड़े हनुमान, खेड़ापति हनुमान, ओंकार मठ, माता आनंदमयी आश्रम, ऋणमुक्तेश्वर महादेव, गायत्री माता मंदिर, सिद्धनाथ गौरी सोमनाथ, आड़े हनुमान, माता वैष्णोदेवी मंदिर, चाँद-सूरज दरवाजे, वीरखला, विष्णु मंदिर, ब्रह्मेश्वर मंदिर, सेगाँव के गजानन महाराज का मंदिर, काशी विश्वनाथ, नरसिंह टेकरी, कुबेरेश्वर महादेव, चन्द्रमोलेश्वर महादेव जैसे अनेकों मंदिर हैं।
हम पहुंचे सबसे पहले ममलेश्वर मंदिर जहां कि सुवह की आरती चल रही थी। अलग अलग कोनों में बैठे पंडित जी अपने यजमानों के धार्मिक क्रियाकलापों की रस्म पूरी करा रहे थे। मेरे जैसे घुमक्कड लोग कम ही होते हैं ऐसी जगहों पर । अधिकांशत: श्रद्धालु भक्त लोग ही आते हैं। शायद ही कोई ऐसा मानव हो जिसके जीवन में कोई कष्ट न हो और ये स्थान मनोवैज्ञानिक रुप से उनकी परेशानियों को हरने का या उन्हें आगामी जीवन के लिये आत्मविश्वास दिलाने का एक प्रमुख स्थान होता है। ममलेश्वर मंदिर से नर्मदा की ओर उतरते जाते हैं दोनों ओर दुकानें सजी हुयी हैं। पहाडों से अतंप्रवाही जल की एक धारा भी यहां निकलती है जिसके मुख पर गोमुख बना दिया है। यहीं पर ढेर सारी नावें लगा दी गयीं हैं जिनसे आप दूसरी ओर स्थित एंकारेश्वर तक जा सकते हैं। लेकिन हमें अपनी बाइक लेने बापस आना पडता इसलिये पुल से ही जाना उचित लगा। पुल से थोडी ही दूरी पर बैराज का सायरन आवाज लगा कर पानी छोडने की चेतावनी दे रहा था। हम तो पुल पर थे इसलिये चिंता की कोई बात नहीं थी। पुल से होते हुये ऊंकारेश्वर के पहाड पर बनी टीन सैड गलियारे से होते हुये मंदिर तक पहुंच गये। कोई ज्यादा भीड भी नहीं थी। तुरंत दर्शन हो गये। लोग जल चढा रहे थे इसलिये फर्श गीला हो रहा था। हम तो शिव के प्राकृतिक रुप के उपासक हैं इसलिये ज्यादा रूचि नहीं थी उस धार्मिक क्रियाकलाप में। निकल लिये पहाडों के बीच रेंगती नर्मदा की तरफ जो मुझे सबसे ज्यादा आत्मिक सुख दे सकती थी। नरमदा के तट पर जल क्रिडा करते लोगों को देखते हुये बापस पुल पर आये जहां कि हमारी बाइक खडी थी। बाइक लेकर चल दिये बैराज की तरफ लेकिन गेट में अदंर घुसना मना था। बगल से ही एक रास्ता जा रहा था जो हमें सीधे ऊंचे पहाड की ओर ले जाता था। काफी कठिन चडाई थी लेकिन डिस्कवर चडा ले गयी । ऊपर से पूरा शहर और वैराज दिखाई देता है। थोडी देर घूम फिर कर बापस आ गये। भूख लग आयी थी। खाना खाकर लौटना भी था। नितिन जी से अलग होना बहुत भावुक क्षण था मेरे लिये। ऊंकारेश्वर से थोडा आगे चलने के बाद हमारे रास्ते अलग होते थे। नितिन जी को महेश्वर निकलना था और मुझे इंदौर । इंदौर बाले मार्ग पर घाट को पार करना तो जैसे दिल को भा गया। गजब का रास्ता है। ऊंची नीची रास्तों से चलते हुये पहाड और जंगल को पार करना अलग ही अनुभव था। घर पर भैया नहीं थे। पचमढी की ट्रैन शाम को ही थी। भैया की गाडी घर पर रखी और निकल लिया पचमढी की ओर। 


















महेश्वर भ्रमण

महेश्वर मध्य प्रदेश के खरगौन ज़िले में स्थित एक ऐतिहासिक नगर तथा प्रसिद्ध पर्यटन स्थल है जो इंदौर से 90 किमी दूर है।  शहर का नाम 'महेश्वर' भगवान शिव के ही एक अन्य नाम 'महेश' के आधार पर पड़ा है। 


तः महेश्वर का शाब्दिक अर्थ है- "भगवान शिव का घर"।
यह नर्मदा नदी के किनारे पर बसा है। नितिन जोशी जी नर्मदीय ब्राम्हण हैं और शहर में ही उनका एक प्राचीन वटैक्षाणी मंदिर है जहां कि उनके परिवारीजन बालाजी की सेवा करते हैं। शहर से एक किमी दूर हरे भरे खेतों के बीच स्थित एक बगीचे में बहुत ही शांतिप्रिय माहौल में हमने बालाजी के दर्शन किये और फिर शहर स्थित निवास की ओर चल दिये। माता पिता से मिलने के बाद नजदीकी ही घाट की ओर चल दिये। चलते समय एक बात गौर की, घरों में पार्किगं व्यवस्था नहीं थी। सडकों पर ही गाडियां खडी करते हैं यहां। चोरियां न के बराबर ही होती होंगी। घर से अभी थोडा ही चले थे कि गोबर गणेश आ गये। गोबर गणेश मंदिर भी गये जहां गोबर से गणेश जी को आकार दिया जाता है और उनकी पूजा की जाती है। शहर के बीचोंबीच स्थित यह गोबर गणेश मंदिर दूरदराज क्षेत्रों से आने वाले श्रृद्धालुओं की आस्था का केंद्र है। मंदिर में विराजित दक्षिण मुखी भगवान गणेश जी की प्रतिमा करीब 900 साल पुरानी है। 250 साल पहले अहिल्याबाई होल्कर ने मंदिर का जीर्णोद्घार कराया था। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार गाय के गोबर से बनी गणेश की प्रतिमा धर्म, लाभ और सिद्धि प्राप्ति के लिए श्रेष्ठ मानी जाती है। गोबर गणेश से थोडा आगे चलते ही महेश्वर किला शुरू हो जाता है। एक तरफ किले का विशाल गेट है तो दूसरी तरफ घाट के लिये उतार। विशाल गेट से अंदर प्रवेश करते ही महारानी अहिल्यावाई की विशाल प्रतिमा नजर आती है। अहिल्यावाई मातृशक्ति की जीती जागती प्रतीक रहीं हैं। उन्हौने सिद्ध कर दिखाया था कि चाहे तो एक महिला क्या नहीं कर सकती। सामने ही निगाह पडती है एक पालकी पर और अदंर महल में घुसते ही नजर आते हैं एक बडे से हौल में बिछे हुये सफेद गद्दे और तकिये जहां कि सभा हुआ करती थी। दूसरी तरफ प्राचीन हथियार और अन्य उपकरण तो कुछ मूर्तियां भी।राजगद्दी और रजवाड़ा - महेश्वर किले के अंदर रानी अहिल्याबाई की राजगद्दी पर बैठी पर एक प्रतिमा रखी गई है। किले के ऊपरी दीवार से पीछे देखते हुये गजब का नजारा दिखाई देता है। नर्मदा के सुंदर घाट और उन पर विचरण करते हुये पर्यटक एवं भक्त। दूर दूर तक फैली हरियाली। किले को घूमते हुये नीचे उतर पडते हैं। एक तरफ महेश्वरी साडियां और गलीचे बनाने बाले कारखाने तो दूसरी तरफ प्राचीन मंदिर। घाट पर मंदिरों की कतार लगी पडी है। लम्बा-चौड़ा नर्मदा तट एवं उस पर बने अनेको सुन्दर घाट एवं पाषाण कला का सुन्दर चित्र दिखने वाला "किला" इस शहर का प्रमुख पर्यटन आकर्षण है। समय-समय पर इस शहर की गोद में मनाये जाने वाले तीज-त्यौहार, उत्सव-पर्व इस शहर की रंगत में चार चाँद लगाते है, जिनमे शिवरात्रि स्नान, निमाड़ उत्सव, लोकपर्व गणगौर, नवरात्री, गंगादशमी, नर्मदा जयंती, अहिल्या जयंती एवं श्रावण माह के अंतिम सोमवार को भगवान काशी विश्वनाथ के नगर भ्रमण की "शाही सवारी" प्रमुख है।  महेश्वर में घाट के आसपास कालेश्वर, राजराजेश्वर, विठ्ठलेश्वर और अहिलेश्वर मंदिर हैं। प्राचीन समय में यह शहर होल्कर राज्य की राजधानी था। महेश्वर धार्मिक महत्त्व का शहर है तथा वर्ष भर लोग यहाँ घूमने आते रहते हैं। यह शहर अपनी 'महेश्वरी साड़ियों' के लिए भी विशेष रूप से प्रसिद्ध रहा है। महेश्वर को 'महिष्मति' नाम से भी जाना जाता है। महेश्वर का हिन्दू धार्मिक ग्रंथों 'रामायण' तथा 'महाभारत' में भी उल्लेख मिलता है। देवी अहिल्याबाई होल्कर के कालखंड में बनाये गए यहाँ के घाट बहुत सुन्दर हैं और इनका प्रतिबिम्ब नर्मदा नदी के जल में बहुत ख़ूबसूरत दिखाई देता है।