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ऐसे तो जोशीमठ से बद्रीनाथ तक का पूरा रास्ता ही बहुत रोमांचक है। एक तरफ गहरी खाई तो दूसरी तरफ ऊंचे ऊंचे पहाड। अलकनंदा के सहारे सहारे सिंगल रोड पर चलना खतरे से खाली नहीं है। बहुत बार ऐसी स्थिति ऐसी आती है कि हमें अपनी गाडी रोक कर सामने वाले वाहन को जगह देनी पडती है। कर्णप्रयाग से ही अलकनंदा की तलहटी में चलना मजेदार होता है लेऐकिन गोविंद घाट पर जाकर और भी मजेदार हो जाता है। पहाडों की ऊंचाई बढती ही जाती है।आसपास का नजारा देखने लायक होता है। मन ही नहीं करता आगे बढने को। खैर रात होती जा रही थी इसलिये आगे बढना मजबूरी थी इसलिये शाम सात बजे तक बद्रीनाथ पहुंच लिये। मंदिर के सामने तक बाइक पहुंच गयी पर सबसे पहले मुझे रुकने का प्रबंध करना था। भीड बहुत ज्यादा थी। एक भी धर्मशाला खाली नहीं मिली। होटल और लौज भी फुल। काफी देर तक इधर उधर भटकने के बाद एक धर्मशाला में रसोई में रात बिताने को मिली। उसके भी उसने चार सौ रुपये लिये। सर्दी भी काफी थी इसलिये नहाने की हिम्मत तो नहीं हुई बस पौलिस कर डाली और धर्मशाला में सामान रख कर पैदल ही निकल पडा मंदिर की तरफ। दस कदम की दूरी पर ही मंदिर था। भारत सीमा के अतिंम गांव माणा की तरफ से आती हुई अलकनंदा नदी अपने पूरे उफान पर थी। मंदिर के ठीक सामने नदी और उस पर बना हुआ पुल । पुल के दोनों ओर सजा हुआ बाजार। बाजार में घूमते हुये दूर दूर से आये हुये भक्त। नजारा देखने लायक था। भारत की विविधता ऐसी ही जगहों पर दिखाई पडती है। मंदिर के ठीक बगल ही गर्म पानी का तप्त कुंड और गर्मजल से उठता हुआ धुंआ। ऐसी ठंड में भी लोग उस कुंड में स्नान कर रहे थे। मेरी हिम्मत नहीं पडी क्यूं कि कुंड से निकलने के बाद हालत खराब होनी थी। रात को दर्शनार्थियों की भीड इतनी ज्यादा नहीं थी। यहां कैमरे की मनाही नहीं थी। अंदर भी मोबाइल मेरे साथ ही था किसी ने नहीं मना किया। लेकिन चूंकि कपाट बंद होने का समय हो चुका था अत: धक्कामुक्की हो गयी और दर्शन भी जल्दवाजी में ही हो पाये। बदरीनाथ की मूर्ति शालग्राम शिला से बनी हुई, चतुर्भुज ध्यानमुद्रा में है। मन्दिर में नर-नारायण विग्रह की पूजा होती है और अखण्ड दीप जलता है, जो कि अचल ज्ञानज्योति का प्रतीक है। यह भारत के चार धामों में प्रमुख तीर्थ-स्थल है। यहाँ वनतुलसी की माला, चने की कच्ची दाल, गिरी का गोला और मिश्री आदि का प्रसाद चढ़ाया जाता है। मंदिर में बदरीनाथ की दाहिनी ओर कुबेर की मूर्ति भी है। उनके सामने उद्धवजी हैं तथा उत्सव मूर्ति है। उत्सवमूर्ति शीतकाल में बरफ जमने पर जोशीमठ में ले जाई जाती है। उद्धवजी के पास ही चरणपादुका है। बायीं ओर नर-नारायण की मूर्ति है। इनके समीप ही श्रीदेवी और भूदेवी है। सनातन के प्राचीन गृंथों के अनुसार भगवान विष्णु आकाशीय देवता है लेकिन पुराणों ने ईश्वर के त्रिगुण रक्षक पालक और और विनाशक के आधार पर इनका मानवीयकरण किया है। पौराणिक कथा के अनुसार विष्णु तप्त कुंड नामक स्थान पर तपस्या करने बैठे तो शीतकाल में वर्फवारी से उन्हें एक बेर /बदरी के पेड ने बचाया था अत: उन्हें बद्रीनाथ के नाम से जाना गया। पुराणों से थोडा हटकर इतिहास की बात करें तो यहां कभी बौद्धों का निवास हुआ करता था और बौद्ध लोग इस मूरत की पूजा किया करते थे लेकिन आठवीं शताब्दी में वैष्णव धर्म के संस्थापक आदि शंकराचार्य जी ने वैष्णव धर्म के प्रचार प्रसार के दौरान यहां बद्रीनाथ मंदिर की स्थापना की और जोशीमठ में अध्ययन अध्यापन ज्ञानार्जन की परंपरा को चलाने हेतु मठ की स्थापना की थी। इसी प्रक्रिया में बौद्धों से संघर्ष भी हुआ और उन्हौने बद्रीनाथ की मूरत को तोडकर अलकनंदा में फेंक दिया। शंकराचार्य जी ने इसे पुन: स्थापित करवाया। हालांकि बौद्ध विद्धानों का कहना है कि शंकराचार्य ने बौद्ध मंदिरों पर ही कब्जा करके वैष्णव धर्म का प्रचार प्रसार किया है। सत्य इतिहास के गर्त में छुपा है जिसे खोजना बहुत जरूरी भी है। इस मंदिर का एक व्यापक सीढ़ीनुमा लंबा धनुषाकार मुख्य प्रवेश द्वार है। वास्तुकला के हिसाब से भी ये एक बौद्ध विहार (मंदिर) जैसा दिखता है। मंदिर के मंडप के अंदर, एक बड़े स्तंभों वाला हॉल है जो गर्भगृह या मुख्य मंदिर क्षेत्र की ओर ले जाता है।
पौराणिक कहानियों से अलग हटकर बात करें तो यह मंदिर अलकनंदा नदी के बाएं तट पर नर और नारायण नामक दो पर्वत श्रेणियों के बीच स्थित है। और यहां प्रचुर मात्रा में पाई जाने वाली जंगली बेरी बद्री के कारण ही इस धाम का नाम बद्री पड़ा है।
सुवह जल्दी ही जग कर तप्तकुंड की तरफ चल दिया। ये भी प्रकृति का ही एक चमत्कार ही है कि सामने वर्फ का पहाड हो और नीचे गर्म पानी निकल रहा हो। ऐसे चमत्कार और भी बहुत जगह मिले हैं पहाडों में। गरम पानी के कुंड में नहाने के बाद एक बार फिर मंदिर गया। सुवह सर्दी भी खूब थी और भीड भी बहुत थी। लेकिन नजारा आनंददायक था। भारत के हर कौने से आये हुये लोगों को देखकर रहा था। सिख सरदारों, बंगालियों और मद्रासियों की खूब भीड दिखी यहां। हेमकुंड साहिब आने वाले सभी सिख यहां भी आते हैं। भारत की हर संस्कृति यहां मौजूद थी और शायद यही उद्देश्य था शंकराचार्य का। चार धामों के माध्यम से भारत की विविधता को एकता में बदलना जो यहां साकार भी नजर आ रही थी। मंदिर के ठीक सामने उफनता अलकनंदा का सफेद जल और उसके ठीक ऊपर वर्फीली केदारनाथ । बताते हैं कि किसी जमाने में केदारनाथ और बद्रीनाथ का एक ही पुजारी हुआ करता था जो सुवह यहां पूजा करता और शाम को वहां। पूरा पहाड पार करने में उसे मात्र दो तीन घंटे ही लगते थे। बाद में भूगर्भीय हलचलों से रास्ता बंद हो गया।
दृश्य इतना मनमोहक था कि जगह छोडने का मन ही नहीं कर रहा था पर अभी मुझे भारतीय सीमा के अतिंम गांव माणा की तरफ भी जाना था और फिर वहां से केदारनाथ की तरफ भी निकलना था अत: बद्रीनाथ जी को प्रणाम करते हुये माणा गांव की तरफ बढ लिया।
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