हिमाच्छादित पर्वतमालाओं, सघन वनों वाला कुमाऊँ' का तराई-भावर क्षेत्र एक विषम वन था जहां जंगली जानवरों का राज था किन्तु उसके उपरान्त जब जंगलों की कटाई-छटाई की गई तो यहाँ की उर्वरक धरती ने कई पर्वतीय लोगों को आकर्षित किया, जिन्होंने गर्मी और सर्दी के मौसम में वहां खेती की और वर्षा के मौसम में वापस पर्वतों में चले गए। तराई-भाबर के अलावा अन्य पूर्ण क्षेत्र पर्वतीय है। यहाँ चीड़, देवदारु, भोज-वृक्ष, सरो, बाँझ इत्यादि पर्वतीय वृक्षों की बहुतायत है। यहाँ की मुख्य नदियाँ गोरी, काली, सरयू, कोसी, रामगंगा इत्यादि हैं। काली (शारदा) नदी भारत तथा नेपाल के मध्य प्राकृतिक सीमा है। कैलाश-मानसरोवर का मार्ग इसी नदी के साथ जाता है और लिपू लेख दर्रे से तिब्बत को जाता है।यहाँ की धरती प्रायः चूना-पत्थर, बलुआ-पत्थर, स्लेट, सीसा, ग्रेनाइट से भरी है। यहाँ लौह, ताम्र, सीसा, खड़िया, अदह इत्यादि की खानें हैं। तराई-भाबर के अलावा संपूर्ण कुमाऊँ का मौसम सुहावना होता है।
जोशीमठ से लौटते हुये केदारनाथ जाने के लिये मुझे रुद्रप्रयाग तक जाने की जरूरत नहीं पडी। चमोली गोपेश्वर से ही तुंगनाथ चौपता होते हुये उखीमठ के लिये एक रास्ता निकलता है। गोपेश्वर से उखीमठ तक की यह छोटी सी यात्रा मेरे जीवन की सबसे रोमांचक यात्रा बन गयी। हालांकि मुझे तुंगनाथ भी जाना था कितुं ये नहीं पता था कि मैं इस प्रकार संयोगवश पहुंच जाऊंगा। गोपेश्वर से चलते समय दोपहर के बारह बजे थे । धूप बहुत तेज थी। गरमी लग रही थी। स्नान करने की भी इच्छा हो रही थी। लगता है ऊपर वाले ने सुन ली। थोडा ही आगे बढा था कि बादल घिर आये और बारिस होना शुरू हो गया। मेरे पास रेनकोट था इसलिये रुका नहीं चलता ही रहा। बारिस में भीगते हुये करीब पांच किमी चलने के बाद एहसास हुआ कि मैं एक घने जंगल से गुजर रहा था और यहां दूर दूर तक बस्ती नहीं थी। उखीमठ तक जंगल ही पार करना था। बीच में तुंगनाथ महादेव का ही सहारा था जहां रात को आसरा मिल सकता था। इतना घना जंगल और मैं अकेला यात्री। दो चार अन्य वाहन मिले भी तो वो सामने से आने वाले थे । मेरे साथ चलने वाला एक भी वाहन न मिला। दर असल मैंने ही गलत रास्ता चुना था। ज्यादातर लोग पहले केदारनाथ जाते हैं और उसके बाद बद्रीनाथ जाते हैं जबकि मैंने इसके उलट रास्ता चुना था। मैं पूरब दिशा नैनीताल से घुस कर यमुनोत्री के बाद उत्तराखंड के उस कौने पर निकलने का इच्छुक था। धारा के विपरीत चलने पर कुछ कीमत तो चुकानी ही पडती है। तुंगनाथ तक की बयालीस किमी की यात्रा में मुझे पांच घंटे लग गये। पांच घंटे तक लगातार भीगता रहा। ठंड में कंपकंपी छूट रही थी। शाम को पांच बजे बनियाकुंड तुंगनाथ तिराहे पर पहुंचा जहां चार पांच लौज एवं होटल थे। ऐसे समय में बार्गेनिगं नहीं की जाती। बारह सौ रुपये में कमरा मिल गया। सारे कपडे उतारे और होटल की भट्टी के सामने सूखने को डाल दिये। होटल से एक दो आमलेट लेकर रूम में ही चला गया जहां मुझे सर्दी से निजात पाने को रम के दो पैक लेना जरूरी हो गया था। दो पैक लेकर आमलेट खायी और रजाई में घुस गया। बाहर अभी भी तेज बारिस थी। यहां ज्यादातर भीड ट्रैकर्स की थी। तुंगनाथ महादेव का ट्रैक चार किमी का ही था। ट्रैकर्स के लिये ये जगह बहुत शानदार है । इस बार तुंगनाथ महादेव के इतने करीब होते हुये भी न जा पाया । सुवह जल्दी जगा तो बारिस नहीं थी।हल्की हल्की धूप निकल आयी थी। ऐसे में निकलना ही उचित लगा मुझे। बनियाकुंड तुंगनाथ से उखीमठ देवरिया ताल और फिर मंदाकिनी पार कर गुप्तकाशी तक रास्ता अपने आप में एक आकर्षण है। स्वर्ग है स्वर्ग। साथ में दो चार दोस्त होने चाहिये । अकेले तो डर लग आता है। घना जंगल और सुनसान रास्ता। चमोली गोपेश्वर से तुंगनाथ तक का रोड खराब भी था पर अब आगे का रोड बहुत शानदार मिला। कुल मिलाकर दोपहर बारह बजे तक मंदाकिनी नदी के तट पर पहूंच गया। धूप तेज थी। स्नान करना था। यहीं पर सरकार ने अस्थाई सुलभ शौचालय की व्यवस्था कर रखी है। पुल के नजदीक ही नीचे उतरने का रास्ता था। खुद भी स्नान किया और बाइक को भी कराया। नहाते ही भूख लग आयी थी। गुप्तकाशी में खा खाकर केदारनाथ जी की आगे बढा। मात्रा पच्चीस किमी बाद सोनप्रयाग पर हमें रोक लिया गया। यहीं पर मैंने बाइक खडी कर दी। तभी अनाउंस हुआ कि केदारनाथ में मौसम खराब हो जाने के कारण यात्रा रद्द की जाती है। सुवह छ बजे यात्रा पुन: प्रारंभ होगी। सरकारी धर्मशालाओं में रुकने की व्यवस्था है। नयी बनी हैं। फर्श बहुत अच्छा है। अपने कपडे लाओ और सो जाओ। फर्श पर धूल मिट्टी थी। मैंने बीस रुपये का एक झाडू खरीदा और न केवल अपना हौल साफ किया बल्कि आसपास के दो चार हौल और भी साफ कर डाले। मुझे देखकर दो चार लोग और भी आगे आये और मेरा झाडू उठा ले गये बाकी के हौल भी साफ कर आये। धर्मशाला के बगल ही सहायता काउंटर है जहां हम मोबाइल चार्ज करने, फ्री बाईफाई पाने और भी कई तरह की सरकारी सहायता प्राप्त कर सकते हैं। यहीं पर तीर्थ यात्री रजिस्ट्रेशन काऊंटर है। यात्रा से पहले अपना रजिस्ट्रेशन कराना पडता है। रास्ते में भीगने का डर रहता है इसलिये बरसाती / रैनकोट होना बहुत जरूरी है। हाथ में डंडा भी जरूरी है फिसलने से बचाता है। गौरीकुंड से चढाई शुरू होती है लेकिन सोनप्रयाग में ही रोक लिया गया हमें ताकि अव्यवस्था न फैले। रात सोनप्रयाग की सरकारी धर्मशाला में काटने के बाद अगली सुवह जल्दी ही हमने पैदल यात्रा शुरू कर दी। आधा किमी चलते ही हमें नदी के पुल पर जीप मिल गयीं जिसने हमें गौरी कुंड छोड दिया। गौरी कुंड से हमारी सोलह किमी की पैदल यात्रा शुरू हुई। इस पूरे रास्ते में सरकार ने सुलभ शौचालयों और जल की व्यवस्था कर रखी है। बीच बीच में दुकानें भी आती रहती हैं। किमी बोर्ड भी हमें शेष यात्रा के बारे में बताते रहते हैं। केदारनाथ तक की यात्रा में मेरे साथ सैकडों पैदल यात्री थे और सभी भारत के अलग अलग प्रांतों से थे। केदारनाथ जी ने भारत की विविधता को एक जगह लाकर खडा कर दिया था और शायद यही शंकराचार्य जी की सोच रही होगी। satyapalchahar023@gmail.com
No comments:
Post a Comment