Wednesday, January 18, 2017

ललितपुर से तालबेहट , माताटीला डैम।।






ललितपुर थाने पर भैया को तीन साल हो गये पर मैं पहली बार उनके पास पहुंचा था। जिन्दगी में बहुत कुछ पाने को की गयी भागदौड किस कदर हमें अपनों से दूर कर देती है, ये इस बात से साबित हो जाती है कि हमें आपस में मिले महीनों बीत जाते हैं। खैर भैया मेरा इंतजार ऐसे कर रहे थे मानो ओवामा भारत आ रहे हों । स्टाफ का कोई भी अधिकारी ऐसा न था जिससे मेरा परिचय न कराया हो। खाना बनाने बाले लेवर से लेकर इंस्पैक्टर तक सब से मिलाया। सभी लोगों ने इतना प्यार और अपनापन दिया कि कुछ शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता। होतम भाई विकाश भाई पुष्पेन्द्र भाई जैसे अनेक युवक साथी मिले तो पांडेय जी जैसे भावुक और ज्ञानी वुजुर्ग भी मिले।  विकाश के साथ मैं पारिवारिक बातें करते करते आध्यात्मिक बातें करने लगा। बैरक के दूसरे छोर पर बैठे पांडेय जी मेरी धार्मिक और आध्यात्मिक रूचि को तुरंत महसूस कर लिया। हालांकि उन्हें ड्यूटी पर ट्रैन लेकर जाना था लेकिन गाडी आने तक आध्यात्मिक गहराईयों में मुझे ले जाते रहे। मन कर रहा था उनको सुनता ही रहूं पर कर्तव्य का धर्म भी तो निभाना था। दूसरे दिन सुवह पांच बजे कानों में ट्रैन के हार्न की बजाय मंदिर की घंटी और मधुर भजन की आबाज सुनायी पडी। कमरे से बाहर देखा तो बडा ही धार्मिक दृश्य था। ये परिसर थाने की बजाय कोई धार्मिक स्थल नजर आ रहा था। मैं भी जल्दी से नहा धोकर भक्ति की धारा में बहने पहुंच गया। सभी के साथ परिसर में बने मंदिर में पूजा अर्चना कर आरती में शामिल हो गया। शांत एवं स्वच्छ थाना परिसर , पेडों की हरियाली एवं धीमी धीमी आबाज में आने बाले भजनों से  मन को मोह रहा था। दिन की शुरूआत ईश्वर की आराधना से हो तो पूरे दिन मन में जोश, उमंग एवं स्फूर्ति रहती है।
भैया की बुलैट लेकर NH-26 पर स्थित तालबेहट और माताटीला नामक सुंदर प्राकृतिक एवं ऐतिहासिक स्थलों को देखने निकल पडा। उस दिन घूमने की इतनी खुशी नहीं थी जितनी भैया को पीछे बिठाकर बुलैट चलाने की थी। मैंने पहली बार बुलैट चलायी थी इसलिये बार बार गियर की बजाय ब्रेक पर पैर जा रहा था, परेशानी थी पर साथ में कोई अपना बडा हो तो परेशानी से लडने की हिम्मत आ ही जाती है। और दूसरी बात ये थी कि ऐसा बहुत कम ही होता है कि मैं और भैया सबसे अलग एकदम फ्री होकर साथ घूमे हों। ऐसा मौका मिले कई साल बीत गये। शादी के बाद तो जैसे हम दोनों ही अपनी अपनी अलग दुनियां बसा बैठे हों। वो दिन बहुत याद आता है जब किसी लडके ने मेरी गेंद चुरा ली थी और मैंने उसका कनपट्टा लाल कर दिया था। उसने भैया से रोते हुये अपना दर्द सुना डाला। उसका गाल ताजा ताजा गरम लाल था। उसका बंदर के पिछबाडे जैसा लाल गाल देख भैया भी लाल हो गये और बस फिर क्या था। मेरी मइय्यो के इस लाल ने तुरंत एक मोटा सा डंडा उठाया और तब तक मारता रहा तब तक कि मेरा पिछबाडा लाल न हो गया। पर अपन भी शुद्ध देशी घी का माल है साला डंडा ही टूट गया पर पिछबाडे का कुछ न बिगडा।
खैर घूमते घामते सुख दुख एवं भूत भविष्य की बतियाते हम लोग तालबेहट के खंडहर बन चुके किले , तालाब और मंदिर घूमते रहे। उसके बाद दस किमी दूर माताटीला बांध, पार्क , जंगल और मंदिर भ्रमण करते रहे।
ललितपुर से चालीस किमी दूर झांसी हाईवे पर तालबेहट के किले में मेरी भूत से मुलाकात हो गयी। दोपहर के दो बजे । टीकाटीक दुपहरी। विशाल किला और खंडहर पडे महल। तालाब के किनारे लेकिन बहुत ऊंचाई पर ।
भैया का घूमने घामने में थोडा कम ही इन्टरेस्ट रहता है और इतनी तेज धूप में तो बिल्कुल भी नहीं। तेज धूप में चालीस किमी चलकर मेरे कहने पर आ तो गये पर सौ दो सौ सीढियां चढकर ऊपर किले में घूमने लायक श्रद्धा न बची थी सो तालाब किनारे पेडों की छांव में बैठ गये और फरमान सुना दिया,
" जा , जी ले अपनी जिदंगी ।  जा घूम कर आ  किला। और सुन पूरा घूम कर आना। "
एक तो पहले ही मेरी हिम्मत जबाब दे रही थी और ऊपर से वहीं बैठे एक क्षेत्रिय लडके ने और डरा दिया।
बोला,
" भाई अकेले न जाओ। ये किला बहुत खतरनाक है। अब तक कई बलि ले चुका है। जो भी अकेले जाता है , उसे कुछ न कुछ हो ही जाता है।"
अब मुझे काटो तो खून नहीं। भैया की तरफ रहम की निगाह डाली तो बस उपहास बाली मुस्कुराहट फेंक दिये और बोले,
" जा बेटा घूम आ अकेले ही। "
भले ही अदंर से मेरी धुकुर पुकुर हो रही थी पर चेहरे पर ऐसे दिखा रहा था मानो राणाप्रताप मेरा ही चेला था। पर चुनौती तो निभानी थी। हिम्मत करके चल दिया। बैसे भी मैं भूतों के अस्तित्व को नहीं मानता पर ये जरूर मानता हूं कि भय का भूत होता है। सीढियां चढते और किले में घूमते समय कोई डर न लगा। बिदांस होकर एक एक महल देख आया। अतं में एक मंदिर दिखाई दिया। भगवान की मूर्ति तक पहुंचने के लिये एक लम्बा वरामदा पार करना था जिसके दोनों तरफ अंधकारमयी गहरी गहरी गुफायें थीं जिनमें कबूतर बैठे गुटर गूं गुटर गूं करके माहौल को और डरावना बना रहे थे।
मुझे उस मूर्ति के दर्शन करने में कोई खास रूचि न थी क्यूं कि मैंने आज तक मैंने माना ही नहीं कि इनमें भगवान रहता है। मैं हमेशा प्राचीन मूर्तियों की कला का प्रशंषक हूं जो मंदिर मंदिर भटकता रहता हूं। लेकिन इस बार मामला चुनौती का था। उस डर पर विजय पाने की चुनौती का। मैं उस डरावनी गुफानुमा मंदिर में घुस गया। एकदम अकेला। कबूतर भी अदृश्य ही थे । बैकग्राउंड म्यूजिक दे रहे थे। थोडा ही आगे बढा तो निगाह सामने मंदिर पर नहीं बल्कि साईड की अंधेरी गुफाओं में थी जिसमें मुझे हर गुफा में एक भूत नजर आ रहा था। भय का भूत मन में पूरी तरह घर कर चुका था। अदंर मंदिर तक पहुंचते पहुंचते पसीना पसीना हो गया। कुछ तो तेज गर्मी का और कुछ अदंर बैठे डर का पसीना। भले ही मैं मूर्तियों में भगवान न मानूं पर जब डर लगता है तो वही पत्थर साक्षात भगवान बन जाता है और हमें वही आत्मशक्ति दे जाता है। यकीं मानो सामने लिपे पुते पत्थर के बजरंगबली ही मेरे लिये सबसे बडे सहारा थे। पता नहीं कैसे मन का डर दूर हो गया। और वेधडक पूरी गुफा घूम आया। भय का भूत भाग गया। मैं जब किले से जब सीढियां उतर रहा था तो सीना ऐसे चौडा रखा था मानो कि ऐवरेस्ट फतेह करके लौट रहा हूं।
आखिरकार शाम तक बापस अपने बैरक में आ गये। भैया का अपना क्वार्टर भी है। साफ सुथरा सुंदर एवं सुसज्जित लेकिन भाभी बच्चों के बिना वो सुंदर भवन मुझे आकर्षित न कर सका। मैं बैरक में ही सोया। दूसरे दिन सुवह ही चार बजे NH-26 पर सागर की तरफ चड पडा। इस बार मेरा लक्ष्य जबलपुर था।






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