टेकनपुर से निकलते ही डबरा पार किया ही था कि सिंध नदी की हरी भरी बादियों ने मन मोह लिया। उसमें नहाते बच्चों को देखकर मन करा कि मैं भी कूद जाऊं पर अभी झांसी दूर था। थोडा ही दूर चला था कि सौनगिर गांव आ गया जहां के जैन मंदिर विश्वविख्यात हैं। रोड से करीब आठ किमी चलकर सोनगिर पहुंचा तो देखा कि एक बडी सी पहाडी की तलहटी में सैकडों मदिर बने हुये हैं। पूरा गांव ही मंदिरों से भरा पडा था। बाइक से ही एक एक गली छान मारी। मंदिर तो बहुत थे पर पानी की कमी से जूझ रहा है गांव। सोनगिर का चक्कर लगाकर निकल पडा आगे की यात्रा पर। दतिया में पीताम्बरा माता की चौखट पर नतमस्तक होने के बाद झांसी का वो रूट पकडा जिसमें उनाव का बालाजी सूर्य मंदिर आता था।
दतिया से करीब 18 किमी. दूर मध्य प्रदेश की सीमा पर स्थित उनाव बालाजी में एक विशेष सूर्य मंदिर है। इस मंदिर में सूर्य भगवान की मूर्ति पर जंत्र भी है, जो इसे अन्य मंदिरों से अलग करता है और दुर्लभ बनाता है। इस जंत्र पर सूर्य की पहली किरण पड़ती है, जो इसे खास बनाती है।
उनाव बालाजी को सूर्य मंदिर के कारण सूर्य नगरी भी कहते हैं। कोणार्क, ग्वालियर सहित देश के अन्य हिस्सों में सूर्य मंदिर तो कई हैं, लेकिन सूर्य जंत्र बेहद कम जगहों पर है। सूर्य मंदिर में अंदर एक दीया है, जो पिछले कई सालों से जल रहा है।
पहुंज नदी में स्नान कर तरोताजा हो बालाजी के दर्शन कर हम झांसी की ओर निकल लिये जो वहां से मात्र 15 किमी था।
झांसी को बुंदेलखंड का प्रवेशद्वार कहा जाता है। चंदेलवंश के शासन के दौरान इसका वैभव अधिक था, परंतु झांसी को मुख्य रूप से रानी लक्ष्मीबाई के नाम से जाना जाता है, जिन्होंने स्वतंत्रता के लिए 1857 में अंग्रेज़ों के विरुद्ध पहली लड़ाई लड़ी थी। उन्हें भारत के ‘जॉन ऑफ आर्क’ के नाम से भी जाना जाता है। झांसी में प्रवेश करते ही रानी महल पहुंचे जो आजकल प्राचीन मूर्तियों का संगृहालय बना हुआ है। दीवारों पर चित्रकला का उत्कृष्ट नमूना देखने को मिलता है। रानी महल के तुरंत बाद हम सीधे किले पहुंचे जहां हमने एक गाईड के साथ पूरे किला का भ्रमण किया।
झांसी के किले का निर्माण ओरछा के राजा बीर सिंह देव ने 1613 में पहाड़ी की चोटी पर करवाया था।इस किले में चांद द्वार, दतिया दरवाज़ा, झरना द्वार, लक्ष्मी द्वार, ओरछा द्वार, सागर द्वार, उन्नाव द्वार, खंडेराव द्वार और सैनयार द्वार जैसे खूबसूरत दरवाजे हैं। किले की दीवारों पर बने चित्र झांसी की रानी द्वारा अंग्रेज़ों के विरुद्ध लड़ी गई लड़ाई का चित्रण करते हैं। किले में एक संग्रहालय है जिसमें विभिन्न प्रदर्शनों के अलावा ‘करक’ बिजली नाम की तोप भी है जिसकी प्राणघातक आग ने ब्रिटिश सेना को डरा दिया था।
रानी महल दो मंजिला इमारत है जिसकी छत सपाट है तथा इसे चौकोर आंगन के सामने बनाया गया है। आंगन के एक ओर कुआं और दूसरी ओर फ़व्वारा है। इस महल में छह कक्ष हैं जिसमें प्रसिद्ध दरबार कक्ष भी शामिल है।
बेतवा नदी के किनारे स्थित बरुआ सागर झील भी दर्शनीय है लेकिन हमें ओरछा के किले और महलों ने बहुत आकर्षित किया। राजाराम के मंदिर के अलावा अनेक प्राचीन मंदिरों का समूह है।
बेतवा नदी के किनारे इस सुंदर प्राकृतिक स्थल पर रूकने का बहुत मन हो रहा था शाम के चार बज आये थे और मुझे रात होने से पहले ओरछा का घना जंगल पार कर 120 किमी दूर ललितपुर पहुंचना था। सुनसान और डरावना जंगल पार कर टीकमगढ पहुंचते पहुंचते रात हो चली थी। अभी पचास किमी और बाकी था कि मौसम बिगड गया और वारिष होने लगी। रात का समय , सुनसान रोड और ऊपर से हल्की हल्की फुहार , पर मैं बढे जा रहा था ललितपुर की ओर। बडे भैया खाने को इंतजार कर रहे थे। ये पचास किमी मेरे लिये सौ किमी से ऊपर पडे।
बेतवा नदी के किनारे बने महलों एवं मंदिरों की खूवसूरती में हम इस कदर समा गये कि ध्यान ही नहीं रहा कि अभी मुझे 120 किमी दूर ललितपुर पहुंचना है। आदित्य को तो झांसी ही लौटना था तो पट्ठे को नदी किनारे स्नान करती परियों को कैमरे में कैद करने में समय का होश ही नहीं रहा।शाम के चार बजे थे। मौसम और मासूक का कोई भरोषा नहीं रहता कि कब बदल जाय। अचानक से आसमान में अंधकार छा गया। बदली उमड घुमड अंगडाई लेने लगी। काली घटा छाने लगी और मेरा जीयरा घबराने लगा। घबराने का कारण था ओरछा का घना जंगल जिसमें दूर दूर तक सिर्फ सांय सांय की आवाजें आ रही थी। तुरंत आदित्य को टाटा वाई वाई बोल कर गाडी उठाई और तेजी से जंगल पार करने लगा। उसी जंगल में बेतवा नदी के अलावा एक और बडी नदी थी जो एकदम सूखी पडी थी। जंगल एक दम पत्ते रहित सूखा बेजान। रोड के किनारे बंदर ऐसे बैठे हुये थे मानो पंगत में खाना परोषे जाने का इंतजार कर रहे हों। उन्हें वहां से निकलने बाली गाडियों का ही इंतजार था। गाडी बाले कुछ न कुछ फेंक जाते और वो सैकडों बंदर उन पर ऐसे झपट कर पडते थे जैसे अकाल पीडित क्षेत्र में सरकारी सहायता पर गरीब किसान । बहुत सारे बंदर तो बेचारे पापी पेट के चक्कर में पीछे आने बाली गाडियों से कुचल भी गये थे। पृथ्वीपुर पार करते ही तेज गाडी दौडा दी और रात होने से पहले ही टीकमगढ पार कर ललितपुर के लिये मुड गया। लेकिन टीकमगढ से ललितपुर का 50 किमी सफर मुझे मंहगा साबित हुआ। ऐसे समय में बडे से बडे नास्तिकों को मैंने हनुमान चालीसा गाते देखा है। हालांकि मैं पूरी तरह आस्तिक हूं पर मूर्तियों में भगवान होने को नहीं मानता लेकिन मूर्तिकार की कला को जरूर निहारता हूं। उसने अपनी जान झोंक दी है मूर्ति में तो हम क्यूं न देखें ? पर जब रात के घने अंधकार में सुनसान अनजान सडक पर अचानक से डरावनी बिजली कडकने लगे और वारिष होने लगे तो डर के मारे हनुमान चालीसा अपने आप शुरू हो जाती है। एक समय ऐसा आया कि वर्षा बहुत तेज हो गयी और मुझे सुनसान अंधेरे जंगल में एक गुफा में शरण लेनी पडी। दूर दूर तक कोई रोशनी नहीं। तभी मेरे जैसा एक और घुमक्कड पागल वहां आकर रूका।
मैंने पूछा , भाई आप कैसे ?
बोला " मुझे घूमने का शौक है । "
मुझे जोर की हंसी आयी। मेरा अट्हास सुनकर वो अजनवी सकपका गया और पूछने लगा,
भाई मैंने कोई जोक बोला क्या ?
मैंने जबाब दिया ," नहीं यार , मुझे अपने बाबूजी की बात याद आ गयी। चलते समय बाबूजी मुझसे नाराज थे और बोल रहे थे कि तेरे जैसा मूर्ख इस दुनियां में दूसरा होगा नहीं। "
भाई तुझे देखकर दिल को तसल्ली हुई कि मैं अकेला नहीं हूं। मेरे जैसे तूचिये और भी हैं।
खैर बाबूजी भले ही मेरे इस निर्णय से खुश न हों पर बाद में लौटने पर मेरी बहन ने बताया कि वो पूरे साथ दिन भगवान से तेरे शकुशल लौट आने की प्रार्थना करते रहे थे। उस रात उनकी दुआ काम आयी कि कोई जंगली जानवर मुझसे हाय हैलो करने नहीं आया वरना वो मेरा व्रेकफास्ट कर रहा होता। घुमक्कड साथी ने बताया कि पास में ही प्रसिद्ध कुंडेश्वर महादेव मंदिर है जहां रूकने खाने पीने की बहुत अच्छी व्यवस्था है। उस समय मेरी समझ में आयी कि लोग मंदिर मस्जिद गुरूद्वारे क्यूं बनाते हैं ? नाम भले भगवान का हो पर होते वो जनता की सुविधा के लिये ही हैं। सामाजिक जीवन का आधार हैं ये आराध्य स्थल।
मैं भीगता हुआ कुंडेश्वर महादेव पहुंचा ही था कि वारिष बंद हो गयी। एक दो कार भी दिखाई दीं तो महादेव को दूर से ही राम राम कर निकल लिया कार के पीछे पीछे। मनुष्य की फितरत भी यही है । भगवान केवल तब याद आते हैं तब वो संकट में हो वरना अच्छे दिनों में तो हम अपने बाप को भी घास नहीं डालते , ये भोले बाबा किस खेत की मूली है। महादेव बाबा ने मुझे एक आत्मविश्वास दिया था और डर भी निकाल दिया । बस फिर क्या उस अनजानी कार के आगे तेज रोशनी में वाईक दौडात गया। अब पता नहीं उस कार बारे को भी मेरी जरूरत थी या वो भोलेबाबा की ही कार थी, ललितपुर तक समान स्पीड में मेरे पीछे पीछे चलती रही और मैं उसकी तेज रोशनी में गाडी दडाता रहा। आधा घंटा की कशमकश के बाद ललितपुर सागर हाईवे आ गया । मेरे जान में जान आयी। मैं उस कार बाले को थैंकू बोलने को पीछे मुडा तो देखा कार गायब थी। पता नहीं अचानक से कहां गायब हो गयी वो कार ?
खैर ललितपुर शहर की तेज रोशनी देख मैं दौडा चला गया और सीधे भैया के पास RPF थाने पर जाकर रूका।
जारी ..
दतिया से करीब 18 किमी. दूर मध्य प्रदेश की सीमा पर स्थित उनाव बालाजी में एक विशेष सूर्य मंदिर है। इस मंदिर में सूर्य भगवान की मूर्ति पर जंत्र भी है, जो इसे अन्य मंदिरों से अलग करता है और दुर्लभ बनाता है। इस जंत्र पर सूर्य की पहली किरण पड़ती है, जो इसे खास बनाती है।
उनाव बालाजी को सूर्य मंदिर के कारण सूर्य नगरी भी कहते हैं। कोणार्क, ग्वालियर सहित देश के अन्य हिस्सों में सूर्य मंदिर तो कई हैं, लेकिन सूर्य जंत्र बेहद कम जगहों पर है। सूर्य मंदिर में अंदर एक दीया है, जो पिछले कई सालों से जल रहा है।
पहुंज नदी में स्नान कर तरोताजा हो बालाजी के दर्शन कर हम झांसी की ओर निकल लिये जो वहां से मात्र 15 किमी था।
झांसी को बुंदेलखंड का प्रवेशद्वार कहा जाता है। चंदेलवंश के शासन के दौरान इसका वैभव अधिक था, परंतु झांसी को मुख्य रूप से रानी लक्ष्मीबाई के नाम से जाना जाता है, जिन्होंने स्वतंत्रता के लिए 1857 में अंग्रेज़ों के विरुद्ध पहली लड़ाई लड़ी थी। उन्हें भारत के ‘जॉन ऑफ आर्क’ के नाम से भी जाना जाता है। झांसी में प्रवेश करते ही रानी महल पहुंचे जो आजकल प्राचीन मूर्तियों का संगृहालय बना हुआ है। दीवारों पर चित्रकला का उत्कृष्ट नमूना देखने को मिलता है। रानी महल के तुरंत बाद हम सीधे किले पहुंचे जहां हमने एक गाईड के साथ पूरे किला का भ्रमण किया।
झांसी के किले का निर्माण ओरछा के राजा बीर सिंह देव ने 1613 में पहाड़ी की चोटी पर करवाया था।इस किले में चांद द्वार, दतिया दरवाज़ा, झरना द्वार, लक्ष्मी द्वार, ओरछा द्वार, सागर द्वार, उन्नाव द्वार, खंडेराव द्वार और सैनयार द्वार जैसे खूबसूरत दरवाजे हैं। किले की दीवारों पर बने चित्र झांसी की रानी द्वारा अंग्रेज़ों के विरुद्ध लड़ी गई लड़ाई का चित्रण करते हैं। किले में एक संग्रहालय है जिसमें विभिन्न प्रदर्शनों के अलावा ‘करक’ बिजली नाम की तोप भी है जिसकी प्राणघातक आग ने ब्रिटिश सेना को डरा दिया था।
रानी महल दो मंजिला इमारत है जिसकी छत सपाट है तथा इसे चौकोर आंगन के सामने बनाया गया है। आंगन के एक ओर कुआं और दूसरी ओर फ़व्वारा है। इस महल में छह कक्ष हैं जिसमें प्रसिद्ध दरबार कक्ष भी शामिल है।
बेतवा नदी के किनारे स्थित बरुआ सागर झील भी दर्शनीय है लेकिन हमें ओरछा के किले और महलों ने बहुत आकर्षित किया। राजाराम के मंदिर के अलावा अनेक प्राचीन मंदिरों का समूह है।
बेतवा नदी के किनारे इस सुंदर प्राकृतिक स्थल पर रूकने का बहुत मन हो रहा था शाम के चार बज आये थे और मुझे रात होने से पहले ओरछा का घना जंगल पार कर 120 किमी दूर ललितपुर पहुंचना था। सुनसान और डरावना जंगल पार कर टीकमगढ पहुंचते पहुंचते रात हो चली थी। अभी पचास किमी और बाकी था कि मौसम बिगड गया और वारिष होने लगी। रात का समय , सुनसान रोड और ऊपर से हल्की हल्की फुहार , पर मैं बढे जा रहा था ललितपुर की ओर। बडे भैया खाने को इंतजार कर रहे थे। ये पचास किमी मेरे लिये सौ किमी से ऊपर पडे।
बेतवा नदी के किनारे बने महलों एवं मंदिरों की खूवसूरती में हम इस कदर समा गये कि ध्यान ही नहीं रहा कि अभी मुझे 120 किमी दूर ललितपुर पहुंचना है। आदित्य को तो झांसी ही लौटना था तो पट्ठे को नदी किनारे स्नान करती परियों को कैमरे में कैद करने में समय का होश ही नहीं रहा।शाम के चार बजे थे। मौसम और मासूक का कोई भरोषा नहीं रहता कि कब बदल जाय। अचानक से आसमान में अंधकार छा गया। बदली उमड घुमड अंगडाई लेने लगी। काली घटा छाने लगी और मेरा जीयरा घबराने लगा। घबराने का कारण था ओरछा का घना जंगल जिसमें दूर दूर तक सिर्फ सांय सांय की आवाजें आ रही थी। तुरंत आदित्य को टाटा वाई वाई बोल कर गाडी उठाई और तेजी से जंगल पार करने लगा। उसी जंगल में बेतवा नदी के अलावा एक और बडी नदी थी जो एकदम सूखी पडी थी। जंगल एक दम पत्ते रहित सूखा बेजान। रोड के किनारे बंदर ऐसे बैठे हुये थे मानो पंगत में खाना परोषे जाने का इंतजार कर रहे हों। उन्हें वहां से निकलने बाली गाडियों का ही इंतजार था। गाडी बाले कुछ न कुछ फेंक जाते और वो सैकडों बंदर उन पर ऐसे झपट कर पडते थे जैसे अकाल पीडित क्षेत्र में सरकारी सहायता पर गरीब किसान । बहुत सारे बंदर तो बेचारे पापी पेट के चक्कर में पीछे आने बाली गाडियों से कुचल भी गये थे। पृथ्वीपुर पार करते ही तेज गाडी दौडा दी और रात होने से पहले ही टीकमगढ पार कर ललितपुर के लिये मुड गया। लेकिन टीकमगढ से ललितपुर का 50 किमी सफर मुझे मंहगा साबित हुआ। ऐसे समय में बडे से बडे नास्तिकों को मैंने हनुमान चालीसा गाते देखा है। हालांकि मैं पूरी तरह आस्तिक हूं पर मूर्तियों में भगवान होने को नहीं मानता लेकिन मूर्तिकार की कला को जरूर निहारता हूं। उसने अपनी जान झोंक दी है मूर्ति में तो हम क्यूं न देखें ? पर जब रात के घने अंधकार में सुनसान अनजान सडक पर अचानक से डरावनी बिजली कडकने लगे और वारिष होने लगे तो डर के मारे हनुमान चालीसा अपने आप शुरू हो जाती है। एक समय ऐसा आया कि वर्षा बहुत तेज हो गयी और मुझे सुनसान अंधेरे जंगल में एक गुफा में शरण लेनी पडी। दूर दूर तक कोई रोशनी नहीं। तभी मेरे जैसा एक और घुमक्कड पागल वहां आकर रूका।
मैंने पूछा , भाई आप कैसे ?
बोला " मुझे घूमने का शौक है । "
मुझे जोर की हंसी आयी। मेरा अट्हास सुनकर वो अजनवी सकपका गया और पूछने लगा,
भाई मैंने कोई जोक बोला क्या ?
मैंने जबाब दिया ," नहीं यार , मुझे अपने बाबूजी की बात याद आ गयी। चलते समय बाबूजी मुझसे नाराज थे और बोल रहे थे कि तेरे जैसा मूर्ख इस दुनियां में दूसरा होगा नहीं। "
भाई तुझे देखकर दिल को तसल्ली हुई कि मैं अकेला नहीं हूं। मेरे जैसे तूचिये और भी हैं।
खैर बाबूजी भले ही मेरे इस निर्णय से खुश न हों पर बाद में लौटने पर मेरी बहन ने बताया कि वो पूरे साथ दिन भगवान से तेरे शकुशल लौट आने की प्रार्थना करते रहे थे। उस रात उनकी दुआ काम आयी कि कोई जंगली जानवर मुझसे हाय हैलो करने नहीं आया वरना वो मेरा व्रेकफास्ट कर रहा होता। घुमक्कड साथी ने बताया कि पास में ही प्रसिद्ध कुंडेश्वर महादेव मंदिर है जहां रूकने खाने पीने की बहुत अच्छी व्यवस्था है। उस समय मेरी समझ में आयी कि लोग मंदिर मस्जिद गुरूद्वारे क्यूं बनाते हैं ? नाम भले भगवान का हो पर होते वो जनता की सुविधा के लिये ही हैं। सामाजिक जीवन का आधार हैं ये आराध्य स्थल।
मैं भीगता हुआ कुंडेश्वर महादेव पहुंचा ही था कि वारिष बंद हो गयी। एक दो कार भी दिखाई दीं तो महादेव को दूर से ही राम राम कर निकल लिया कार के पीछे पीछे। मनुष्य की फितरत भी यही है । भगवान केवल तब याद आते हैं तब वो संकट में हो वरना अच्छे दिनों में तो हम अपने बाप को भी घास नहीं डालते , ये भोले बाबा किस खेत की मूली है। महादेव बाबा ने मुझे एक आत्मविश्वास दिया था और डर भी निकाल दिया । बस फिर क्या उस अनजानी कार के आगे तेज रोशनी में वाईक दौडात गया। अब पता नहीं उस कार बारे को भी मेरी जरूरत थी या वो भोलेबाबा की ही कार थी, ललितपुर तक समान स्पीड में मेरे पीछे पीछे चलती रही और मैं उसकी तेज रोशनी में गाडी दडाता रहा। आधा घंटा की कशमकश के बाद ललितपुर सागर हाईवे आ गया । मेरे जान में जान आयी। मैं उस कार बाले को थैंकू बोलने को पीछे मुडा तो देखा कार गायब थी। पता नहीं अचानक से कहां गायब हो गयी वो कार ?
खैर ललितपुर शहर की तेज रोशनी देख मैं दौडा चला गया और सीधे भैया के पास RPF थाने पर जाकर रूका।
जारी ..
आप ओरछा से सीधे हाईवे पकड़ लेते तो कबके ललितपुर पहुँच गये होते ।मेरी एक बात समझ नही आई ,कि टीकमगढ़ और कुंडेश्वर के बीच घना जंगल कब उग आया जिसमे गुफा भी है ! 3 साल पहले जब मैं टीकमगढ़ में पदस्थ था, तब मॉर्निंग वॉक पर पापोरा चौराहा, टीकमगढ़ से कुंडेश्वर तक जाता था । तब कही ऐसा जंगल और गुफा नही मिली ।
ReplyDeleteआप ओरछा से सीधे हाईवे पकड़ लेते तो कबके ललितपुर पहुँच गये होते ।मेरी एक बात समझ नही आई ,कि टीकमगढ़ और कुंडेश्वर के बीच घना जंगल कब उग आया जिसमे गुफा भी है ! 3 साल पहले जब मैं टीकमगढ़ में पदस्थ था, तब मॉर्निंग वॉक पर पापोरा चौराहा, टीकमगढ़ से कुंडेश्वर तक जाता था । तब कही ऐसा जंगल और गुफा नही मिली ।
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