बुजुर्ग कहते हैं , "समय बडा बलबान है बेटा, अच्छे अच्छों को लाईन पर ला देता है। "
जबकि मेरे हिसाब से समय अच्छा या बुरा नहीं होता बल्कि जो कुछ भी होती हैं, परिस्थितियां होती हैं। इंसान खुद व खुद परिस्थितियों के हिसाब से ढल जाता है और वही बन जाता है जैसा उसे परिस्थितियां बनाती हैं।
आप लाख चिल्लाओ, " जल बचाओ जल बचाओ" पर यदि घर में ढेर सारा पानी उपलब्ध है तो तीन बाल्टी में तो नहाना होगा और शाम को घर के सामने रोड पर भी छिडकाव किया जायेगा ताकि कुर्सी डाल कर बैठ सकें। और यदि तीन दिन नल न आयें तो पूरा घर एक बाल्टी से ही नहा लेता है। गीले रूमाल से शरीर पोंछ कर ही काम चल जाता है। स्टूडेन्ट लाईफ में जब हम जयपुर रूम लेकर रहते थे, खुद ही खाना बनाते और खुद ही अपने कपडे धोते लेकिन शादी के बाद तो एकदम आलसी हो गये। खाना कपडे सब तैयार मिलने लगे। परिस्थितियों ने निकम्मा बना दिया।
अब बीस दिन से बच्चे अपनी ननिहाल में है।आलस में गंदे कपडों का ढेर लगा दिया पर जैसे ही कल जबलपुर निकलने का विचार बना तो फिर परिस्थितियों ने निकम्मे से कर्मठ बनने को प्रेरित किया। दिन भर का हारा थका आगरा से लौटा हूं फिर भी कपडे धोने लग पडा। सुवह जल्दी जो निकलना है। पता ही नहीं चला कब कपडे धुल गये। अब बाबूजी को कौन समझाये कि भविष्य की अति चितां छोड दो, जैसी परिस्थितियां आयेंगी, सत्यपाल बैसे ही ढल जायेगा। खैर पिता को तो चितां रहती ही है आखिर जन्म जो दिया है। मैं बाबूजी की उम्र पर आ जाऊगां तब शायद मैं भी विकी को भविष्य के लिये बचत करने की सलाह दिया करूगां।
हहहह ये तो चलता रहेगा , रोज की कहानी है।
फिलहाल हमारी घुमक्कडी बरकरार है। ग्वालियर टेकनपुर दतिया झांसी टीकमगढ होते हुये जबलपुर निकल रहा था बाइक से इस बार।
एक फौजी भाई की बात सुनकर लगा, काश ! मैं भी नेवी में होता तो सारी दुनियां घूम लेता। पर ऐसा कम ही होता है। कोई कार्य जो किसी एक के लिये व्यवसाय होता है किसी अन्य की हौवी हो सकती है। जैसे पढाना कलाम साहव की रूचि हुआ करती थी बैसे ही घुमक्कडी मेरी हौवी है।
लोग इसे मेरा पागलपन बताते हैं लेकिन जिंदगी में कुछ पागलपंती भी होनी चाहिये क्यूं कि जीवन की दौड का तो कोई अतं ही नहीं। बस दौडे जा रहे हैं। घर भी हो गया , शादी बच्चे भी हो गये, एक अच्छा सम्मानीय सामाजिक स्तर भी प्राप्त कर लिया। अब और क्या करें ? बस जोडते जाओ जोडते जाओ ? दुनियां से प्रतिस्पर्धा जो करनी है।
लेकिन इस अंधी दौड में उस मन की खुशी का क्या , उस कार्य का क्या जो हमारा दिल चाहता है ? हर दिन खबर सुनता हूं, फलाने आइ ए एस अधिकारी ने सुसाईड कर लिया या फलाना बिजनेसमैन ने अपने सारे बीबी बच्चों को गोली मार दी तो मन बडा बिचलित हो जाता है, सोचता हूं आखिर इस जीवन का उद्देश्य क्या है , सिर्फ खाना कमाना कैरियर रैपूटेशन आलीशान दिखावे बाली जिन्दगी ? या फिर वो खुशी जो हमें बिना किसी संसाधन के भी मिल सकती है। अपनों से मिलने मिलाने की खुशी । नये दोस्त बनाने की खुशी । दोस्तों के गम हरने की खुशी । अपने दिल की सुनने की खुशी। बस मन खुश होना चाहिये ।
जाने कितने महल और किले बने देख रहा हूं मैं। इन्हें जिन्हौने भी बनाया होगा अपनी पूरी जिन्दगी खफा दी होगी । अपने बच्चों के सुरक्षित भविष्य की खातिर चैन से सोये भी नहीं होंगे । बच्चों का भविष्य बनाना कौन नहीं चाहता ? सब चाहते हैं। बस खुद को पूरी तरह खर्च कर संसाधन जुटाना उचित नहीं लगता। पता लगे कि हमें बुढापे में पानी देने बाला भी कोई नहीं है। जिसके लिये जिन्दगी खपा दी , वो अमेरिका में बैठा है।
मैं अपने सारे दायित्व पूरा करूगां पर खुद का जीवन भी जीऊगां। बुढापे में कोई दर्द न रहे। कभी कभी मन में खयाल आता है कि आखिर हम इस दुनियां में आये क्यूं है ? क्या केवल खाने कमाने और अपनी आने बाली पीढियों के लिये संचय करने में ही ये जीवन गुजार दिया जाय ? बडी गाडी , बडा घर मेरा लक्ष्य नहीं है। मेरा उद्देश्य है मन की खुशी । अपनों का प्रेम । वो चाहे सगों से मिले या गैरों से। बस अपनापन मिलना चाहिये।
अब इसे पागलपन कहो या शौक पर घुमक्कडी मुझे शुरू से ही बहुत पंसद है। पिछले बीस बर्षों में अधिकांश भारत घूम लिया हूं। हालांकि जबलपुर की मेरी यात्रा मेरे लिये खास इसलिये भी है कि मैंने इतनी लम्बी दूरी की यात्रा पहली बार वाईक से की थी। पूरे 1600 किमी की यात्रा कर सात दिन बाद बापस घर लौटा था।
मेरी इस यात्रा का उद्देश्य केवल आत्म संतुष्टि ही नहीं था बल्कि जगह जगह की कल्चर खानपान रहन सहन बोली भाषा और स्थापत्य कला को नजदीक से जानने की चाह थी। इस बीच जो भी दोस्त राह में मिले, उनके सुख दुख के किस्सों को सुनना और उसमें शरीक होना भी एक अहम कार्य है।
पहला पडाव टेकनपुर ।
आठ मई रविवार सुवह चार बजे ही जगकर बैग पैक किया। नहा धोकर मम्मी बाबूजी के पैर छूकर निकल लिया ग्वालियर की तरफ । धौलपुर में ही टंकी फुल करा ली थी। गाडी की सर्विस भी करा ली थी। सोचा था कि दोपहर होने से पहले झांसी पहुंच जाऊगां । दोपहर में आराम कर शाम को झांसी घूम लुगां पर ग्वालियर निकलते ही टेकनपुर की बीएसएफ कैंप आ गयी जहां रहता है अपना यार नरेन्द्र फौजी। जिद पर अड गया आज नहीं जाने दुगां। रोक लिया भाई ने। आजकल अकेला रह रहा है। बच्चे अपनी ननिहाल गये हुये हैं। खाली क्वार्टर , मैं और नरेन्द्र , कई सारे क्वार्टर खाली करने की योजना बना ही रहे थे कि एक और आवारा पागल दीबाना आदित्य अपने साथी लम्बी चुटियाधारी स्वामी जी को लेकर आ धमका। आदित्य भी बाइक से उज्जैन की यात्रा कर लौट रहा था। मैं चुटियाधारी स्वामीजी को देख थोडा सकपकाया। पूछने पर पता चला कि प्रकृति के अनुसार चलने बाले हैं। आगे जो भी आ जाय छोडते नहीं। सर्वाहारी हैं। वेज हो या नौनवेज। सब हजम। सोमरस हो, जौ का पानी हो या नीबूं पानी सब चलता है। वो बात अलग है कि दो घूंट जिन्दगी की, लेने के तुरंत बाद तुलसीदास की चौपाई निकलनी शुरू हो जाती हैं।
खैर ये सब तो जुडने जुडाने का एक बहाना था क्यूं कि दो बूंद जिन्दगी की, लेने के बाद ही जिन्दगी की बातें गहराई तक हो पातीं हैं।
नरेन्द भाई के साथ BSF कमान्डो ट्रैनिगं सेंटर भी गया। जहां मुझे बीस फुट ऊंची रस्सी पर चलने की ट्रैनिगं देने के चक्कर खुद घायल हो गया मेरा शेर । खैर बाद में ड्रैसिगं करा ली पर अभी सात दिन लगेंगे घाव को भरने में। सफेद नेकर और टीशर्ट में सैकडों प्रशिक्षु इस्पैक्टर्स को घास छीलते, झाडू लगाते और पीटी परेड करते देख उनके प्रति इज्जत में और इजाफा हुआ। इतनी कठोर ट्रैनिगं में मैंने अच्छे अच्छों को ट्रैनिगं छोड घर भागते देखा है। सजा के तौर पर पीठ पर पचास किलो का बजन रख दस किमी दौडाया जाता है।
कमान्डो स्थल बहुत ही रमणीक स्थान है। घने जंगल के बीच इक बडी झील के किनारे शानदार बंगला। सिर्फ पक्षियों की आबाज सुनाई दे रही थी। ना धूल धक्कड और न किसी प्रकार का कोई प्रदूषण । मन कर रहा और रूक जाऊं। रात को काफी देर रात तक वार्ताओं के दौर चले।हमखयाल तो पहले से ही थे अब हमराज भी हो गये। बहुत कुछ जाना समझा और सीखा।
अगली सुवह जल्दी ही सोनागिर जैन मंदिर, पीताम्बरा देवी दतिया, सूर्यमंदिर बालाजी और झांसी के लिये निकलना था इसलिये दिमाग में 4:35 का अलार्म भर लिया। घडी का अलार्म एक बार को फेल हो सकता है पर दिमाग का नहीं। 4:35 का मतलब 4:35 । अपने आप नींद खुल गयी। न एक मिनट लेट और न पहले। सुवह ही जल्दी नहा धोकर आदित्य और औंधे पडे स्वामीजी को उठाया । तैयार भी हो गये पर स्वामी जी ने नरेन्दर की चाबी आदित्य की गाडी में तोड दी। मुझे देरी हो रही थी। मैं तो टाटा वाई वाई कह कर निकल पडा। फौजी भी इमोशनल होता है पहली बार देखा।
सुवह ही झांसी के लिये विदा करते समय पहली बार एक फौजी को इमोशनल होते हुये देखा मैंने। संगीत के सुरों के बेताज बादशाह है ये फौजी नरेन्द्र। एक नंबर का दिबाना है भाई। एक फेसबुकिया से इतना दिल लगा बैठा कि अपनी जिदंगी के सारे पन्ने खोल के रख दिये। एक दिन की इस छोटी सी मुलाकात में आसूं , हंसी और संगीत के संगम के साथ साथ फौज की कमांडो ट्रैनिगं भी शामिल हो गयी। टेकनपुर की सुहावनी शाम। सुंदर सी झील के किनारे हरे भरे पेडों से घिरा बी एस एफ का कमांडेट आफिस जहां नरेन्द्र भाई अपने म्यूजिशियन साथियों के साथ अपने सुर के तार छेडते हैं तो आबाज झील के उस पार तक गूंज जाती है। एक बार तो भाई को ऐसा शुरूर चडा कि गाडी पर ही गाना शुरू कर दिये।
" नैन लड जईये तो मनमा वा कसक हौइवै करी।"
जबकि मेरे हिसाब से समय अच्छा या बुरा नहीं होता बल्कि जो कुछ भी होती हैं, परिस्थितियां होती हैं। इंसान खुद व खुद परिस्थितियों के हिसाब से ढल जाता है और वही बन जाता है जैसा उसे परिस्थितियां बनाती हैं।
आप लाख चिल्लाओ, " जल बचाओ जल बचाओ" पर यदि घर में ढेर सारा पानी उपलब्ध है तो तीन बाल्टी में तो नहाना होगा और शाम को घर के सामने रोड पर भी छिडकाव किया जायेगा ताकि कुर्सी डाल कर बैठ सकें। और यदि तीन दिन नल न आयें तो पूरा घर एक बाल्टी से ही नहा लेता है। गीले रूमाल से शरीर पोंछ कर ही काम चल जाता है। स्टूडेन्ट लाईफ में जब हम जयपुर रूम लेकर रहते थे, खुद ही खाना बनाते और खुद ही अपने कपडे धोते लेकिन शादी के बाद तो एकदम आलसी हो गये। खाना कपडे सब तैयार मिलने लगे। परिस्थितियों ने निकम्मा बना दिया।
अब बीस दिन से बच्चे अपनी ननिहाल में है।आलस में गंदे कपडों का ढेर लगा दिया पर जैसे ही कल जबलपुर निकलने का विचार बना तो फिर परिस्थितियों ने निकम्मे से कर्मठ बनने को प्रेरित किया। दिन भर का हारा थका आगरा से लौटा हूं फिर भी कपडे धोने लग पडा। सुवह जल्दी जो निकलना है। पता ही नहीं चला कब कपडे धुल गये। अब बाबूजी को कौन समझाये कि भविष्य की अति चितां छोड दो, जैसी परिस्थितियां आयेंगी, सत्यपाल बैसे ही ढल जायेगा। खैर पिता को तो चितां रहती ही है आखिर जन्म जो दिया है। मैं बाबूजी की उम्र पर आ जाऊगां तब शायद मैं भी विकी को भविष्य के लिये बचत करने की सलाह दिया करूगां।
हहहह ये तो चलता रहेगा , रोज की कहानी है।
फिलहाल हमारी घुमक्कडी बरकरार है। ग्वालियर टेकनपुर दतिया झांसी टीकमगढ होते हुये जबलपुर निकल रहा था बाइक से इस बार।
एक फौजी भाई की बात सुनकर लगा, काश ! मैं भी नेवी में होता तो सारी दुनियां घूम लेता। पर ऐसा कम ही होता है। कोई कार्य जो किसी एक के लिये व्यवसाय होता है किसी अन्य की हौवी हो सकती है। जैसे पढाना कलाम साहव की रूचि हुआ करती थी बैसे ही घुमक्कडी मेरी हौवी है।
लोग इसे मेरा पागलपन बताते हैं लेकिन जिंदगी में कुछ पागलपंती भी होनी चाहिये क्यूं कि जीवन की दौड का तो कोई अतं ही नहीं। बस दौडे जा रहे हैं। घर भी हो गया , शादी बच्चे भी हो गये, एक अच्छा सम्मानीय सामाजिक स्तर भी प्राप्त कर लिया। अब और क्या करें ? बस जोडते जाओ जोडते जाओ ? दुनियां से प्रतिस्पर्धा जो करनी है।
लेकिन इस अंधी दौड में उस मन की खुशी का क्या , उस कार्य का क्या जो हमारा दिल चाहता है ? हर दिन खबर सुनता हूं, फलाने आइ ए एस अधिकारी ने सुसाईड कर लिया या फलाना बिजनेसमैन ने अपने सारे बीबी बच्चों को गोली मार दी तो मन बडा बिचलित हो जाता है, सोचता हूं आखिर इस जीवन का उद्देश्य क्या है , सिर्फ खाना कमाना कैरियर रैपूटेशन आलीशान दिखावे बाली जिन्दगी ? या फिर वो खुशी जो हमें बिना किसी संसाधन के भी मिल सकती है। अपनों से मिलने मिलाने की खुशी । नये दोस्त बनाने की खुशी । दोस्तों के गम हरने की खुशी । अपने दिल की सुनने की खुशी। बस मन खुश होना चाहिये ।
जाने कितने महल और किले बने देख रहा हूं मैं। इन्हें जिन्हौने भी बनाया होगा अपनी पूरी जिन्दगी खफा दी होगी । अपने बच्चों के सुरक्षित भविष्य की खातिर चैन से सोये भी नहीं होंगे । बच्चों का भविष्य बनाना कौन नहीं चाहता ? सब चाहते हैं। बस खुद को पूरी तरह खर्च कर संसाधन जुटाना उचित नहीं लगता। पता लगे कि हमें बुढापे में पानी देने बाला भी कोई नहीं है। जिसके लिये जिन्दगी खपा दी , वो अमेरिका में बैठा है।
मैं अपने सारे दायित्व पूरा करूगां पर खुद का जीवन भी जीऊगां। बुढापे में कोई दर्द न रहे। कभी कभी मन में खयाल आता है कि आखिर हम इस दुनियां में आये क्यूं है ? क्या केवल खाने कमाने और अपनी आने बाली पीढियों के लिये संचय करने में ही ये जीवन गुजार दिया जाय ? बडी गाडी , बडा घर मेरा लक्ष्य नहीं है। मेरा उद्देश्य है मन की खुशी । अपनों का प्रेम । वो चाहे सगों से मिले या गैरों से। बस अपनापन मिलना चाहिये।
अब इसे पागलपन कहो या शौक पर घुमक्कडी मुझे शुरू से ही बहुत पंसद है। पिछले बीस बर्षों में अधिकांश भारत घूम लिया हूं। हालांकि जबलपुर की मेरी यात्रा मेरे लिये खास इसलिये भी है कि मैंने इतनी लम्बी दूरी की यात्रा पहली बार वाईक से की थी। पूरे 1600 किमी की यात्रा कर सात दिन बाद बापस घर लौटा था।
मेरी इस यात्रा का उद्देश्य केवल आत्म संतुष्टि ही नहीं था बल्कि जगह जगह की कल्चर खानपान रहन सहन बोली भाषा और स्थापत्य कला को नजदीक से जानने की चाह थी। इस बीच जो भी दोस्त राह में मिले, उनके सुख दुख के किस्सों को सुनना और उसमें शरीक होना भी एक अहम कार्य है।
पहला पडाव टेकनपुर ।
आठ मई रविवार सुवह चार बजे ही जगकर बैग पैक किया। नहा धोकर मम्मी बाबूजी के पैर छूकर निकल लिया ग्वालियर की तरफ । धौलपुर में ही टंकी फुल करा ली थी। गाडी की सर्विस भी करा ली थी। सोचा था कि दोपहर होने से पहले झांसी पहुंच जाऊगां । दोपहर में आराम कर शाम को झांसी घूम लुगां पर ग्वालियर निकलते ही टेकनपुर की बीएसएफ कैंप आ गयी जहां रहता है अपना यार नरेन्द्र फौजी। जिद पर अड गया आज नहीं जाने दुगां। रोक लिया भाई ने। आजकल अकेला रह रहा है। बच्चे अपनी ननिहाल गये हुये हैं। खाली क्वार्टर , मैं और नरेन्द्र , कई सारे क्वार्टर खाली करने की योजना बना ही रहे थे कि एक और आवारा पागल दीबाना आदित्य अपने साथी लम्बी चुटियाधारी स्वामी जी को लेकर आ धमका। आदित्य भी बाइक से उज्जैन की यात्रा कर लौट रहा था। मैं चुटियाधारी स्वामीजी को देख थोडा सकपकाया। पूछने पर पता चला कि प्रकृति के अनुसार चलने बाले हैं। आगे जो भी आ जाय छोडते नहीं। सर्वाहारी हैं। वेज हो या नौनवेज। सब हजम। सोमरस हो, जौ का पानी हो या नीबूं पानी सब चलता है। वो बात अलग है कि दो घूंट जिन्दगी की, लेने के तुरंत बाद तुलसीदास की चौपाई निकलनी शुरू हो जाती हैं।
खैर ये सब तो जुडने जुडाने का एक बहाना था क्यूं कि दो बूंद जिन्दगी की, लेने के बाद ही जिन्दगी की बातें गहराई तक हो पातीं हैं।
नरेन्द भाई के साथ BSF कमान्डो ट्रैनिगं सेंटर भी गया। जहां मुझे बीस फुट ऊंची रस्सी पर चलने की ट्रैनिगं देने के चक्कर खुद घायल हो गया मेरा शेर । खैर बाद में ड्रैसिगं करा ली पर अभी सात दिन लगेंगे घाव को भरने में। सफेद नेकर और टीशर्ट में सैकडों प्रशिक्षु इस्पैक्टर्स को घास छीलते, झाडू लगाते और पीटी परेड करते देख उनके प्रति इज्जत में और इजाफा हुआ। इतनी कठोर ट्रैनिगं में मैंने अच्छे अच्छों को ट्रैनिगं छोड घर भागते देखा है। सजा के तौर पर पीठ पर पचास किलो का बजन रख दस किमी दौडाया जाता है।
कमान्डो स्थल बहुत ही रमणीक स्थान है। घने जंगल के बीच इक बडी झील के किनारे शानदार बंगला। सिर्फ पक्षियों की आबाज सुनाई दे रही थी। ना धूल धक्कड और न किसी प्रकार का कोई प्रदूषण । मन कर रहा और रूक जाऊं। रात को काफी देर रात तक वार्ताओं के दौर चले।हमखयाल तो पहले से ही थे अब हमराज भी हो गये। बहुत कुछ जाना समझा और सीखा।
अगली सुवह जल्दी ही सोनागिर जैन मंदिर, पीताम्बरा देवी दतिया, सूर्यमंदिर बालाजी और झांसी के लिये निकलना था इसलिये दिमाग में 4:35 का अलार्म भर लिया। घडी का अलार्म एक बार को फेल हो सकता है पर दिमाग का नहीं। 4:35 का मतलब 4:35 । अपने आप नींद खुल गयी। न एक मिनट लेट और न पहले। सुवह ही जल्दी नहा धोकर आदित्य और औंधे पडे स्वामीजी को उठाया । तैयार भी हो गये पर स्वामी जी ने नरेन्दर की चाबी आदित्य की गाडी में तोड दी। मुझे देरी हो रही थी। मैं तो टाटा वाई वाई कह कर निकल पडा। फौजी भी इमोशनल होता है पहली बार देखा।
सुवह ही झांसी के लिये विदा करते समय पहली बार एक फौजी को इमोशनल होते हुये देखा मैंने। संगीत के सुरों के बेताज बादशाह है ये फौजी नरेन्द्र। एक नंबर का दिबाना है भाई। एक फेसबुकिया से इतना दिल लगा बैठा कि अपनी जिदंगी के सारे पन्ने खोल के रख दिये। एक दिन की इस छोटी सी मुलाकात में आसूं , हंसी और संगीत के संगम के साथ साथ फौज की कमांडो ट्रैनिगं भी शामिल हो गयी। टेकनपुर की सुहावनी शाम। सुंदर सी झील के किनारे हरे भरे पेडों से घिरा बी एस एफ का कमांडेट आफिस जहां नरेन्द्र भाई अपने म्यूजिशियन साथियों के साथ अपने सुर के तार छेडते हैं तो आबाज झील के उस पार तक गूंज जाती है। एक बार तो भाई को ऐसा शुरूर चडा कि गाडी पर ही गाना शुरू कर दिये।
" नैन लड जईये तो मनमा वा कसक हौइवै करी।"
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