Thursday, January 12, 2017

Kashmir yatra 2016: shrinagar city

अगली ही सुवह जल्दी फौजी भाई हमें बैरक से निकाल कर नजदीकी एक होटल रुम में ले गया। उसका कहना था कि कल जुम्मे की नमाज के बाद भयंकर पथराव होगा इसलिये मैं तुम्हें खतरे में नहीं डाल सकता, हमें तो हर शुक्रवार पत्थर झेलने की आदत पड गयी है।






हमें सुलाने के बाद फौजी भाई जगा रहा था, कुछ औफीशियल काम निपटाना था, इसलिये हमारे जगने से पहले ही उसने लिये गरम पानी कर तैयार रखा था, हम भी सुवह सात बजे तक तो नहा धोकर नीचे मंदिर में आ चुके थे। मंदिर में दर्शन कर प्रसाद ले, पास ही जलते अलाव पर हाथ सैंकने को बैठ गये। दरअसल वहीं सुवह की ड्यूटी पर तैनात कुछ सैनिक भी बैठे थे और मैं उनसे बात कर श्रीनगर का असली हाल लेने के मूड में था। पंड्डज्जी तो हमें प्रसाद देकर हीं निकल चुके थे , शायद उन्हें कहीं कामधंधे पर जाना होगा। अखाडा पूरी तरह सैनिकों के ही हवाले था। सैनिकों से बात करने पर बहुत सारी बातें ऐसी पता चलीं जो हमारे लिये थोडी अप्रत्याशित थीं। थोडी देर बाद होटल के रुम में सामान शिफ्ट करके हम चारों लोग श्रीनगर के मुख्य आकर्षण डल झील और नजदीक ही निशात गार्डन की तरफ निकल लिये।
फिल्मों में कश्मीर की हसीन वादियां देख देख कर मेरा मन यहां आने के लिए बार बार बहुत उतावला हो उठता था, कल्पनाओं की वस्तु बास्तविक वस्तु या स्थान से कहीं अधिक प्यारी और आकर्षक होती है, ऐसे श्रीगर के बारे में भी जाने कैसे कैसे कयास लगा रखे थे। श्रीनगर यानी सौंदर्य का नगर, समुद्रतल से 1,730 मीटर की बुलंदी पर यह कश्मीर का सब से बड़ा नगर है, यह  झेलम और डल झील के खूबसूरत किनारों पर बसा हुआ है, एक विशाल और मैदानी भूखंड के रूप में श्रीनगर चारों ओर फैली पर्वतमालाओं से घिरा है, यहां के सुंदर बाग, कलात्मक इमारतें, देवदार और चिनार के पेड़ इसे वास्तव में धरती पर एक बहुत ही खूबसूरत रूप देते हैं,  गुलमर्ग, पहलगाम और सोनमर्ग इस रूप में नगीनों जैसे लगते हैं। डल झील के विशाल विस्तार के आरपार जाने के लिए हर कोने पर शिकारे और नौकाएं मिलती हैं लेकिन सर्दियों का समय काश्मीर के लिये तो बिल्कुल भी उपयुक्त नहीं है। सिर्फ वर्फ का ही आनंद ले सकते हैं, पत्ते झड जाने के कारण बाग बगीचे अपनी खूवसूरती खो चुके होते हैं । यदि हरी भरी घाटियां और फूलों के बाग देखने हैं तो गर्मियों का समय ही उचित रहता है। इस समय तो निशात गार्डन एक दम रुखा बेजान और नीरस गुमनाम सा पडा था, चारों तरफ पत्ते रहित सूखी टहनियों बाले पेड और रुखी सूखी घास। गार्डन के लौन में बैठा एकमात्र कश्मीरी ड्रैस बाला दुकानदार भी मक्खीमार रहा था।
निशात गार्डन में थोडी देर चहलकदमी करने के बाद हम लोग सामने ही डल झील में वोटिगं करने चले गये। डल झील और डलगेट नगर के पूर्व में 12 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैली है। कभी इस का विस्तार 28 वर्ग किलोमीटर था। डलगेट इस झील का वह पहला छोर है, जहां सैलानी सब से ज्यादा घूमतेफिरते हैं। इस समय शिकारा बालों के लिये औफ सीजन है जहां भीड लगी रहनी चाहिये थी, बहां सैलानियों का अकाल पडा था। इक्का दुक्का हम जैसे जिद्दी घुमक्कड ही नजर आये बस। शिकारा बाले हमारी तरफ ऐसी प्यासी नजरों से देख रहे और आगृह कर रहे थे मानो हम ही उनकी मंजिल हैं। जैसे जैसे हम आगे बढते जा रहे शिकारे की रेट कम होती जा रही थी। पांच सौ रुपये से शुरु होकर मात्र पचास रुपये पर रेट आ गयी थी लेकिन हम फौज की वोट के आने का इंतजार कर रहे थे जो हमें लेने आ रही थी। एक बडा सा गाऊन ( फेरन ) पहने और उसके अदंर एक छोटी सी गर्म अंगीठी(कांगडी) लटकाये कश्मीरी भाई पर्यटकों की तलाश में इधर से उधर घूम रहे थे लेकिन डल झील बाली सडक पूरी खाली पडी थी। उनकी इस वेवशी के लिये बहुत सारे लोगों के साथ साथ खुद वे भी जिम्मेदार थे। पर कहें किससे मजहब की अफीम ने पागल जो कर रखा है दुनियां को। चाहे बच्चे भूखे सो जांय पर मजहबी ठेकेदारों की बात जरूर मानेंगे।
थोडी देर में मेरे भाई का फौजी साथी भी आ गया जिसका इंतजार हम कर रहे थे, वो मोटरवोट ड्राईवर था, CREF की मोटरवोट चलाता था, पहले तो हमें अपनी कंपनी में ले गया जो झील के बींचोबीच एक टापू पर स्थित थी और फिर हमें चार चिनार के पडे लगे बाले उस स्थान पर ले गया जो वोटिगं पौईंट माना जाता है। झील के बीच में एक छोटा सा पार्क है जिसके चारों कौनों पर चार चिनार के पेड लगे हैं, गर्मियों में भले ही ये जगह सुंदर लगे पर अभी तो चारों पेड सूखे डंठल के अलावा कुछ न लगे। सोचा था कि शायद स्वर्ग में तो पतझड ही न आता होगा, सदैव हरियाली रहती होगी, पर शायद ये हमारा भ्रम ही था। वो स्वर्ग सिर्फ कल्पनाओं का हो सकता था या फिर धार्मिक किताबों, बास्तविक स्वर्ग को तो समय की नजर लग चुकी थी इसलिये चार चिनार जैसे एक दो जगह घूम फिर कर हम लोग वापस आ गये। झील में तेज स्पीड में वोटिगं करने का आनंद जरूर लिया पर ये आनंद भी अन्य वोट्स को मायूस शांत खडी देख ठंडा सा पड गया। जब चारों तरफ मायूसी सी छायी हों, आनंद चाह कर भी नहीं आ पाता। आनंद तो तब आता जब चारों तरफ रंग विरंगी नौकायें तैर रही होती और ढेर सारे पर्यटक मजे लूट रहे होते। थोडी बहुत देर तक डल झील के किनारे चहलकदमी करने के बाद बाजार में तफरी करते रहे, झेलम नदी के सहारे सहारे घूमते घामते बाजारों में बिकती गर्म शालों, कंबलों और रजाईयों को देखते झेलम के किनारे बने हनुमान मंदिर की तरफ बढ गये। जब हम लालचौक के नजदीक ही झेलम के किनारे स्थित सबसे फेमस हनुमान मंदिर पहुंचे तो मंदिर के चार चक्कर काट आये पर हमें उसका दरवाजा ना मिला। मंदिर का कगूंरा दूर से चमक रहा था पर उसका दरवाजा न दिखाई दे। मंदिर के अगल बगल आठ दस सरदारों के शोरूम हैं, एक वीर जी से पूछा तब पडौसी दुकानदार सरदारजी ने बताया कि जो सेना का बंकर टाईप बना हुआ है वही मंदिर है। बडी मुस्किल से सेना की तारवंदी में से गुजरते हुये अंदर प्रवेश किये तो देखा कि अंदर भी सेना के सशस्त्र सिपाई तैनात थे। हालांकि और अंदर गये तब बडा लम्बा चौडा मंदिर दिखाई दिया जिसमें एकमात्र पुजारी चुपचाप साल ओढे बैठा भक्तों का इंतजार कर रहा था पर भक्त नदारद थे।
 आश्चर्य की बात है कि हर चार घर छोड कर एक मंदिर है पर पूजा नहीं होती। इतने मंदिर तो शायद मथुरा ब्रदांवन में भी न होंगे। सारे मंदिर खाली और सुनसान पडे हैं, आजकल अधिकतर मंदिरों में सेना ने डेरा डाल रखा है।
मुझे सबसे ज्यादा आश्चर्य तो तब हुआ जब मैंने बातों ही बातों में पुजारी से पूछ डाला कि ये सैनिक आपकी और मंदिर की सुरक्षा के लिये यहां लगाये गये होंगे ? मेरी आशा के विपरीत पुजारी खिसिया कर बोला,
"" अरे कोई रक्षा वक्षा नहीं करते साब , ये तो बस दिमाग खराब करते हैं, कहीं रहने को जगह नहीं मिली तो हमारे मंदिर को घेर रखा है । "
उधर सैनिकों से बात की तो बताया गया कि जुम्मे के दिन पथराव होता है जिसमें मंदिर को निशाना बनाया जाता है, अत हमें यहां चौकी बनानी पडी ।
अब क्या सही है , क्या गलत , खुदा जाने पर ये तो तय है कि कश्मीरी पंडितों को बाहर निकालने में राजनीति का बहुत बडा हाथ रहा है। खुद एक सैनिक ने बताया कि जगमोहन जी ने किसी योजना के तहत कश्मीरी पंडितों को बाहर निकाला था। उधर कश्मीरी भाईयों का कहना था कि हम यहां सरदारों और पंडितों के साथ बहुत मुहब्बत से रहते हैं। कुछ सैनिकों से बात करने पर ये भी पता चला कि कश्मीरी पंडित खेतों और प्रतिष्ठानों के मालिक थे और मुस्लिम मजदूर जो 1990 में विद्रोह हुआ और सभी कश्मीरी पंडितों के साथ बुरी तरह व्यवहार किया गया और उन्हें अपना घर खेत दुकान छोड देने पर मजबूर कर दिया गया। 2016 साल का पहला दिन था, बाजारों में काफी रौनक थी, मौसम भी खुला था, लोग सामान खरीदने को टूट पडे थे। शाम होते होते मौसम ठंडा हो चला था, अत:होटल लौटना ही वेहतर था। श्रीनगर यात्रा के पहले दिन हम निशात गार्डन, डल झील और हनुमान मंदिर के अलावा शहर की गलियां ही घूमते रहे और बहुत सारे लोगों से बात कर उनके मन की बातें जानते रहे।

जारी है.....

5 comments:

  1. बहुत बढ़िया पोस्ट सत्यपाल जी.... पहली बार आपकी पोस्ट पढ़ी....|

    आपकी रचित शब्दों की लेखनी बहुत अच्छी लगी..

    धन्यवाद

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  2. बहुत बढिया पोस्ट

    मास्साब घाटी के उस समय के हालातों के जिम्मेदार लोगों के बारे मे बतायें।

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    1. धन्यवाद सर, जी जरूर सर

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