Monday, January 30, 2017

Allahabad tour

लखनऊ से इलाहाबाद के लिये सुवह तडके ही निकल पडा। तवी भाई ने एसी सिटिगं चेयर कनफर्म करा दी तो कोई दिक्कत नहीं आयी। लखनऊ जंक्शन बहुत बडा है, प्लेटफार्म का पहले ही पता कर लेना चाहिये वरना दौडते दौडते ही परेशान हो जाते हैं। सुवह नौ दस के बीच इसने मुझे इलाहाबाद उतार दिया। मौईन का गांव चालीस किमी दूर था जो हमने संतोष भाई के साथ ही कोई एक जगह चुन ली थी। वहीं पर तीनों की मुलाकात हो गयी। संतोष भाई अपनी कार लेकर आये थे इसलिये कोई दिक्कत नहीं आयी।
मैंने कभी सोचा न था कि " इंसानियत की आवाज " ग्रुप की शुरुआत में मौईन से बना रिश्ता मुझे इनके इतने करीब ले आयेगा। दिल के रिश्ते कभी जाति धर्म देखकर नहीं बनते, यदि बनते हैं तो विचारों की पवित्रता देखकर या दिल की सच्चाई देखकर। यदि विचारों में समानता न हो तो आपके सगे भाई भी  आपके अपने नहीं हो सकते, और विचार मिल जायें तो दुनियां के दूर किसी कोने में बैठा इंसान भी आपके इतना करीब आ जायेगा कि उसके आगे खून के रिश्ते भी फैल हो जाते हैं।
मौईन तवी आलोक मेराज अहसान मंसूर एमडी अली और संतोष भाई जैसे मित्रों के करीब आने की एक और प्रमुख बजह थी कि ये लोग भी मेरी तरह धर्म के गुलाम नहीं थे। धर्म की बुराईयों पर खुल कर चर्चा करना चाहते हैं । जहालियत से बाहर निकालना चाहते हैं। इसके लिये हमें ज्यादा कुछ नहीं करना है, बस एक बार थोडी सी हिम्मत जुटानी है कि हम अपने धर्मों की गुलामी से बाहर निकल कर सोच सकें और प्रश्न कर सकें। एक बार हम जाहिलियत से बाहर निकल आये और जान गये कि अल्लाह या ईश्वर कभी किसी को आदेश नहीं देता कि जाओ गैरों का सर काट दो, ये तो बस कुछ सियासी भेडिये हैं जो शिकार ढूंडते घूम रहे हैं तो समझ लीजिये कि फिर ना तो बगदादी किसी का सर कलम कर पायेगा और ना कोई अखलाक किसी की राजनीतिक साजिश का शिकार हो पायेगा।
संतोष भाई  फेसबुक पर दिन भर धार्मिक पात्रों की खिल्ली उडाते रहते हैं। पहले मैं भी ऐसा ही था लेकिन बाद में फेसबुक पर ही कुछ बडे बुजर्गों और बडे भाईयों ने सलाह दी कि नकारात्मक बिदुंओं को परोस कर आप कभी सुधार नहीं कर पाओगे, धार्मिक चेतना लाना चाहते हो तो सकारात्मक पक्ष को सामने लाओ। बस तभी से मेरी लेखनी ने मोड ले लिया और मैं बताने लगा कि ये परपंरायें क्यूं व कैसी बनीं एवं इनका महत्व क्या है ? मौईन आलोक तवी भी चेंज हो गये जबकि संतोष भाई अभी वहीं अटके पडे हैं। 
संतोष भाई की कार में हम तीनों चन्द्रशेखर पार्क की तरफ बढ चले। बहुत बडा पार्क है ये। बाहर गाडी पार्क कर पार्क में घूमते घामते आजाद की मूर्ति के पास पहुंच गये। अचानक से आखों के सामने वो मंजर आ गया जब पंडज्जी अपनी एक मात्र पिस्तौल से पेड की ओट में छिपकर ब्रिटिश पुलिस का सामना कर रहे हैं और अचानक से एक ही गोली रह जाती है। विकल्प सिर्फ मौत रह जाती है तो क्यूं न अपने हाथ ही मौत चुनी जाये और आजाद हमेशा के लिये गुलामी से आजाद हो जाते हैं। आज भी मूंछों पर ताव देते हुये पंड्डज्जी पार्क में खडे हैं और लोगों को बता रहे हैं कि ये आजादी बहुत मुस्किल से मिली है इसकी कद्र जरूर करना। 
पार्क में घूमने के बाद हम लोग संगम की तरफ बढ चले। गंगा जमुना सरस्वती का संगम बोला जाता है लेकिन सरस्वती कहीं दिखाई नहीं देती। वैदिक कालीन सरस्वती इधर कभी आयी भी न होगी । वह तो सिंधु नदी की सहायक नदी थी। हनुमानगढ जैसलमेर होते हुये सीधे पाकिस्तान चली गयी थी और अरब सागर में मिल गयी थी। यहां की सरस्वती तो कोई अन्य छोटी सी नदी रही होगी जो सूख गयी होगी। जब ज्ञान प्रदायिनी हिमालय की बेटी सरस्वती लुप्त हो गयी तो अन्य का भी क्या भरोषा ? संगम पर बहुत दूर चलने के बाद संगम नजर आता है, नाव में बैठकर जाना पडता है तब संगम नजर आता है क्यूं कि गंगा का पानी रोक दिया गया है इसलिये बस जमुना नजर आती है। नदियों को हमने मां माना है पर हमने उनकी कोई केयर नहीं करी। अतिश्रद्धा कहें या अंधविश्वास , घाट बहुत गंदे कर रखे हैं पंडो की दुकानदारी ने और लोगों की मूर्खता ने। चार साल पहले और गया था मैं गंगा घाट पर । फूल मालाओं एवं अन्य कचरे को देखकर दो चार से पूछना पडता था कि क्या समुद्र मंथन से निकली अम्रत की बूंदें यहीं गिरीं थीं ? कई साल पहले गंगा स्नान करने गया था, दूर से सफेद रेत और बहती जल धारा मुझे दिखीं तो पैर जल्दी जल्दी बढाने लगा। पर वहां पडे मल मूत्र की गंदगी के कारण हरेक कदम संभाल कर रखना पड रहा था। खैर उन दिनों हम भी पूरे धर्मांध थे सो महान आत्माओं संतों की पवित्र मलमूत्र से पवित्र होते पवित्र घाट पर पवित्र डुबकी लगाने कूद पडे। पर ये कोई गांव की पोखर थोडी ही ना थी जो भैंस की पूंछ पकड के तैर लेते । रेत में गढे खंभों और सांकड एक हाथ से पकड डुबकी लगाकर ऊपर आया तो गले में देर सारी पवित्र फूलों की माला का कचरा लटक गया। मुश्किल से हटा कर फेंका तो दूसरा फिर तीसरा पर पवित्र जल के दर्शन नहीं हो पा रहे मालाओं से। पास में ही दो सज्जन अपने 95 बर्षीय बुढऊ जिसकी हाथ में कैनुला लगी बोतल चडी रही थी, की अतिंम इच्छा पूरी करने आये थे। बुढऊ सोच रहे होंगे गंगाजी नहाकर लुढकुंगा तो स्वर्ग में उर्वशी मेनका जैसी अप्सराओं के बीच लुढकता रहूंगा। तेज लहर से बच गये वरना वहीं हो गया होता राम राम सत्य बुढऊ का। खैर पास ही तैर रहे एक लडके से ट्यूब की जुगाड कर मैं आगे बढा और फिर डुबकी लगायी और इस बार मेरे गले में फूलों की माला नहीं थी बल्कि किसी की बांहें थीं, सोचा भईया ने थाम लिया होगा पर जब गौर से देखा तो ये तो लाश थी। मेरे पैंट गीली तो पहले से ही थी अब तो पीली हो गयी। राम राम बोलूं तो भी मुंह से मरा मरा निकले। जैसे तैसे भईया ने स्वर्गलोकानुगामी लाश से पीछा छुडाया। उस दिन मेरी समझ में आया कि राजकपूर ने वो फिल्म क्यूं बनायी थी, शर्त लगा लो , वह भी डुबकी लगाने आया होगा, सोचा होगा कि मंदाकिनी मिलेगी पर फूलन देवी की लाश से मुलाकात करके चला गया होगा और जाते ही RK studio में चिल्लाने लगा होगा, "ओ राम तेरी गंगा मैली हो गयी , पापियों के पाप धोते धोते।"
इस बार भी नदी तट की वही हालत थी। हम तीनों ने एक नाव पकडी और संगम की ओर बढ चले। यमुना गंगा के संगम की ओर बढते हुये आप कुछ अनाज के दाने जरूर ले जायें, पक्षियों का कलरव देखने को मिलेगा। वो मंजर बडा सुहावना होता है। संगम के नजदीक ही नदी में बांस गाढ रखे हैं। वहीं हमारी नाव रुक गयी । कुछ लोग स्नान भी करते हैं वहीं पर। लेकिन ये बहुत खतरनाक हो जाता है कभी कभी। हम तो बिना स्नान किये ही बापस आ गये। 
इसके बाद तीनों ने एक शानदार रेस्ट्रां में साथ ही भोजन किया और फिर संतोष भाई ने हमें बस स्टैंड ड्राप कर दिया जहां से मुझे और मौईन को गांव जाना था। मौईन का गांव बनारस रोड पर ही था जहां से मुझे सुवह ही निकलना था।
एक घंटे की बस यात्रा के बाद मौईन के गांव पहुंचा। गांव के मुख्य भाग से थोडी सी दूर एकांत में हरे भरे खेतों के बीच घर है। पिताजी तो इस दुनियां में नहीं है। मां ने ही अपने बच्चों को पढा लिखा कर काबिल बनाया है। बेटियों को भी पढा लिखा कर उनके घर भेज दिया है। और अब मौईन एवं उसके भाई के बच्चे भी आधुनिक शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। अब सबकी समझ आ गया है कि दीनी तालीम से ही काम नहीं चलेगा, जीवन की दौड में सफल होना है तो दुनियावी तालीम भी हासिल करनी होगी।
मौईन का बेटा आकर मुझसे आदाब करने लगा तो मां ने इशारा किया किया, कि वो मुझे नमस्ते या रामराम करे। फिर वो मुझसे रामराम सा बोला। बच्चे ने अपने बालमन से ही वही किया जो उसके दिल में था। करना भी चाहिये। और हमें भी उसी के अभिवादन के अनुसार उसका जबाब देना चाहिये। चलते समय मां ने मेरे लिये मीठी मठरी की एक पोटली सी बांध दी थी जिसे मैं सारी गैल खाते आया था। एक मां की ममता की मिठास थी उस मठरी में। मौईन ने मुझे सऊदी अरब से लाया हुआ एक इत्र दिया जिसे लगाकर में बनारस के मंदिरों में गया था। भोलेनाथ भी खुश हो गये होंगे इत्र की खुशबू पाकर।


और इस प्रकार मां के चरण स्पर्श कर एवं बच्चों से मिलकर मैं बनारस के लिये रवाना हो गया। 







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