Friday, January 27, 2017

छत्तीसगढ : शहडोल से विलासपुर : देवरानी-जेठानी मंदिर 5वीं सदी

शहडोल से रात को ही ट्रैन थी जो मुझे सुवह तक विलासपुर पहुंचा सकती थी। हालांकि मुझे जसपुर की तरफ जाना था जहां मुझे नागों की दुनियां देखनी थी। कहते हैं कि सावन के महीनों में चारों ओर सांप ही सांप नजर आते हैं। बच्चे खेलते हैं सापों से। मुझे मिलना था नागलोकवासियों से। लेकिन मित्र राकेश शर्मा का आगृह था कि मैं उनके पास ही रुकूं और फिर उनकी गाडी लेकर जसपुर चला जाऊं।मैं सुवह ही विलासपुर स्टेशन पहुंच गया पर राकेश जी से फौन की गडबडी के कारण संपर्क स्थापित न हो सका। समय की भी कमी थी। रायपुर और दुर्ग भी जाना था। दो एक मित्रों से मिलना था। राकेश जी से बात नहीं हुयी तो सोचा कि दुर्ग बाले दोस्तों से मिल आऊं। दुर्ग में एक तो मित्र विकाश शर्मा जी से एंव दूसरे पुलिसकर्मी स्मिता टांडी जी से मिल कर आना था। बहुत खुशी हुई दोनों से मिलकर। शाम को ही बापसी ट्रैन थी। उधर राकेश भाई से भी बात हो गयी थी जो मुझे बार बार बुला रहे थे। समय की कमी के चलते नागलोक तो रद्द हो चुका था। अब तो विलासपुर से ही लौटना था घर। राकेश भाई के साथ विलासपुर घूमते रहे और सुवह नजदीकी ही एक प्राचीन मंदिर गये जो मनिहारी नदी के किनारे है।ताला या तालाग्राम भोजपुर-दागोरी रोड पर बिलासपुर से 25 किमी की दूरी पर स्थित है।






 देवरानी-जेठानी मंदिर 5वीं सदी का है। इन मंदिरों की खोज अवशेषों में से की गई, जिनमें देवरानी मंदिर अच्छी हालत में है जबकि जेठानी मंदिर की हालत जर्जर है। तालाग्राम को अमेरी-कापा ग्राम के रूप में भी जाना जाता है। 7 फुट की ऊंचाई और 4 फुट की चौड़ाई के साथ एक अद्भुत प्रतिमा मंदिर में विराजमान है। तालाग्राम रुद्र शिव के लिए प्रसिद्ध है।
इस मंदिर के बाहर ही रोड पर कार खडी करने के बाद जब हम अंदर कैपंस में पहुंचे तो देखा कि सैकडों उत्सुक लोगों की भीड अपनी प्राचीन सनातनी परंपरा को जानने के प्रयास में थी।अधिकांश स्थानों पर  शिवजी को लिंग रूप में दिखाने के पीछे क्या मंतव्य रहा होगा, ये तो मुझे भी नहीं मालुम लेकिन पांचवी सदी में मतलब उत्तर भारत के गुप्तकाल के दौरान दक्षिण कौशल के शरभपुरीय शाषकों ने शिवजी की इस मूर्ती उनके असली रूप को डालने का खूबसूरत प्रयास किया है।
 मंदिर के तल विन्यास में आरंभिक चन्द्रशिला और सीढिय़ों के बाद अर्धमंडप, अन्तराल गर्भगृह तीन प्रमुख भाग हैं। मंदिर की सीढिय़ों पर शिव के यक्षगण और गंधर्वो की सुन्दर आकृतियां डोलोमटिक लाइमस्टोन पर खुदी हुई हैं। मनियारी नदी में मिलने वाले पत्थरों का प्रयोग यहां किया गया है। निचले हिस्से में शिव- पार्वती विवाह के दृश्य उत्कीर्ण हैं। प्रवेश द्वार के उत्तरी पाश्र्व में दोनों किनारों में विशाल स्तंभ के दोनों और 6- 6 फीट के हाथी बैठी मुद्रा में हैं। दक्षिण की और मुख्य प्रवेश द्वार के अलावा पूर्व और पश्चिम दिशा में भी द्वार हैं। मुख्य प्रवेश द्वार पर पत्थरों के कलात्मक स्तंभ हैं।उत्खनन से प्राप्त अतिरिक्त मूर्तियों में चतुर्भुज कार्तिकेय की मयूरासन प्रतिमा है। द्विमुखी गणेश की प्रतिमा अपने दांत को एक हाथ में लिए चन्द्रमा में प्रक्षेपन के लिए उद्यत मुद्रा में है। अर्धनारीश्वर, उमा- महेश, नागपुरूष, यक्ष मूर्तियों में अनेक पौराणिक कथानक झलकते हैं। शाल भंजिका की भग्न मूर्ति में शरीर सौष्ठवता व कलात्मक सौन्दर्य का संतुलित प्रयोग किया गया है। एक विशाल चतुर्भज प्रतिमा जिसकी भुजाएँ तथा आयुध खंडित है की भाव भंगिमा से महिषासुरमर्दिनी की मूर्ति का बोध होता है।
रुद्र की विशाल और अनौखी मूर्ति में सारे पशु पक्षी शिवजी के अंग में समाये हुये हैं। निसंदेह यहां भी शिव या रुद्र को मानव रूप में ही दिखाया है जिसमें लिगं भी दृष्टिगोचर है। बाद में जाकर मूर्तिकारों ने केवल लिगं को ही प्रमुखता दी लेकिन ये है उनका असली रूप। 
मैं अभी भी इस कशमकश में हूं क्या शिव जी वास्तव में एक मानव ही थे ? कहीं ऐसा तो नहीं कि ये रुद्र अन्य कोई योगी हों जो एकांत जंगल या पर्वत पर ध्यान साधना में तल्लीन संत हों और जो ध्यान में इतना मगन हो जाय कि उसे ध्यान भी न रहे कि उसके ऊपर सांप लोट रहे हैं। एक ऐसा योगी जो पशु पक्षियों पेड पोधों नदी तालावों मतलब प्रकृति की खूबसूरत दुनियां में निवास करता हो। यदि ये मानव ही है तो ईश्वर के तीन रुपों सृजक पालनहार और विनाषक बाली परिकल्पना ध्वस्त होती नजर आती है। खैर ये योगी कोई भी हों आदि पुरुष हैं जिसकी मान्यता सैंधव सभ्यता से लेकर अब तक विश्व के बहुत सारे देशों में चली आ रही है। 
देवरानी मंदिर परिसर में बहुत बहुत पत्थरों की शिलाओं और अर्धनिर्मित मूर्तियों को देखकर ये आभाष होता है कि बाद में यहां लाल बलुआ पत्थरों का मूर्ति कारखाना रहा होगा। मेंढक मगरमच्छ कछुवे मोर आदि की मूर्तियां इसी की ओर इशारा करती हैं।
विभिन्न जीव -जन्तुओं की मुखाकृति से इसके अंग-प्रत्यंग निर्मित होने के कारण प्रतिमा में रौद्र भाव संचारित है। प्रतिमा समपाद स्थानक मुद्रा में प्रदर्शित है। इस महाकाय प्रतिमा के रूपांकन में गिरगिट, मछली, केकड़ा, मयूर, कच्छप सिंह आदि जीव- जन्तु तथा मानव मुखों की मौलिक प्रकल्पना युक्त रूपाकृति अत्यंत ओजस्वी है। इसके शिरोभाग पर मंडलाकार चक्रों में लिपटे हुये गिरगिट के पृष्ठ भाग से नासिका रंध्र, सिर से नासाग्र तथा पिछले पैरों से भौंह निर्मित है। बड़े आकार के मेंढक के विस्फारित मुख से नेत्र पटल तथा कुक्कट के अंडे से नेत्र गोलक बने है। छोटे आकार के प्रोष्ठी मत्स्य से मूंछे तथा निचला ओष्ठ निर्मित है। बैठे हुए मयूर से कान रूपायित हैं।कंधा मकर मुख से निर्मित है। भुजायें हाथी के शुंड के सदृश्य हैं तथा हाथों की अंगुलियां सर्प मुखों से निर्मित हैं। वक्ष के दोनों स्तन तथा उदर भाग पर मानव मुख दृष्टव्य है। कच्छप के पृष्ठ से कटिभाग, मुख से शिश्न और उसके जुड़े हुये दोनों अगले पैरो से अंडकोष निर्मित है। अंडकोष पर घंटी के सदृश्य जोंक लटके हुये हैं। दोनों जंघाओं पर हाथ जोड़े विद्याधर तथा कटि पाश्र्व में दोनों ओर एक-एक गंधर्व की मुखाकृति है। दोनों घुटनों पर सिंह मुख अंकित है। स्थूल पैर हाथी के अगले पैर के सदृश्य हैं। प्रमुख प्रतिमा के दोनों कधों के ऊपर दो महानाग पाश्र्व रक्षक के सदृश्य फन फैलाये हुए स्थित है। पैरों के समीप उभय पाश्र्व में गर्दन उठाकर फन काढ़े हुए नाग अनुचर दृष्टव्य हैं।प्रतिमा के दांये में स्थूल दण्ड का खंडित भाग बच हुआ है। उनके आभूषणों में हार, वक्ष- बंध तथा कटिबंध नाग के कुंडलित भाग से रूपायित हैं । वर्णित प्रतिमा के बांये हाथ में स्थित आयुध, दायें पैर के समीप स्थित नाग तथा अधिष्ठान भाग भग्न है।
सन 76-77 तक इस मंदिर का अधिकांश भाग मलबे में ढका मिला था। एक बात और गौरतलब है कि खुदाई में प्राप्त प्राचीन मंदिर ईंटों का बना हुआ है जबकि मूर्तियां पत्थर की। मंदिर परिसर दो नदियों के संगम पर स्थित है। चारों ओर सुंदर हरा भरा पार्क है। बगल में ही एक नया मंदिर बना है जिस पर नदी की ओर घाट बना दिया गये हैं। नदी को रोककर एक छोटा सा एनिकट बना दिया गया है जिस पर लोग गाडियों सहित गुजरते हैं।नदी के घाटों पर भी बहुत सारे जलीय जीवों एवं देवी देवताओं का अकंन साबित करता है कि सनातन प्रकृति के अलावा और कुछ नहीं है। 
शहर की आपाधापी से दूर एकांत जगह पर नदी के किनारे यह स्थल बहुत ही रमणीक है। यहां आकर मन प्रशन्न हो गया। समय की कमी थी । शाम को ही घर लौटना था। राकेश भाई ने औनलाईन टिकट कन्फर्म करा दी थी। सुवह तक धौलपुर पहुंचना बहुत जरूरी था।




















छत्तीसगढ की यात्रा अगली बार होगी ढंग से तो। ये तो बस छूना भर ही था क्यूं कि छत्तीसगढ तो खजाना है। जो भी लोग असली सनातनी पंरपरा को जानना चाहते हैं छत्तीसगढ जरूर जायें। मैं इस बार होली पर जाऊंगा। 

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