Friday, February 3, 2017

सारनाथ: अशोक स्तंभ, मूलगंध कुटी विहार, जैन मंदिर

सारनाथ: अशोक स्तंभ, मूलगंध कुटी विहार, जैन मंदिर
महान सम्राट अशोक द्वारा 250 ईसा पूर्व में सारनाथ में बनवाया गया।यह स्तम्भ दुनिया भर में प्रसिद्ध है, इसे अशोक स्तम्भ के नाम से भी जाना जाता है।इस स्तम्भ में चार शेर एक दूसरे से पीठ से पीठ सटा कर बैठे हुए है।यह स्तम्भ सारनाथ के संग्रहालय में रखा हुआ है।भारत ने इस स्तम्भ को अपने राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में अपनाया है तथा स्तम्भ के निचले भाग पर स्थित अशोक चक्र को तिरंगे के मध्य में रखा है ।इतिहास सेमुख्य मंदिर से पश्चिम की ओर एक अशोककालीन प्रस्तर-स्तंभ है जिसकी ऊँचाई प्रारंभ में 17.55 मी. (55 फुट) थी। वर्तमान समय में इसकी ऊँचाई केवल 2.03 मीटर (7 फुट 9 इंच) है। स्तंभ का ऊपरी सिरा अब सारनाथ संग्रहालय में है। नींव में खुदाई करते समय यह पता चला कि इसकी स्थापना 8 फुट X16 फुट X18 इंच आकार के बड़े पत्थर के चबूतरे पर हुई थी।
इस स्तंभ पर तीन लेख उल्लिखित हैं। पहला लेख अशोक कालीन ब्राह्मी लिपि में है जिसमें सम्राट ने आदेश दिया है कि जो भिछु या भिक्षुणी संघ में फूट डालेंगे और संघ की निंदा करेंगे: उन्हें सफ़ेद कपड़े पहनाकर संघ के बाहर निकाल दिया जाएगा। दूसरा लेख कुषाण-काल का है। तीसरा लेख गुप्त काल का है, जिसमें सम्मितिय शाखा के आचार्यों का उल्लेख किया गया है।
धर्मराजिका स्तूप और धमेक स्तूप परिसर से बाहर आ जाते हैं और सडक पर टहलते हुये जैन मंदिर एवं बौद्ध मंदिर की तरफ आगे बढते हैं। सडक के एक तरफ सजावटी बस्तुओं की दुकानें भी खूब आकर्षित लगीं। थोडा सा ही आगे चलने पर जैन मंदिर आ जाता है। ग्यारहवें तीर्थंकर की जन्म भूमि है सारनाथ। धमेका स्तूप से सटा हुआ ही है कितुं परिसर अलग होने के कारण घूम कर आना पडता है। जैन मंदिर प्रांगण में कोई भीडभाड नहीं। एकदम शांत । थोडी देर पेडों की छांव में विश्राम कर दर्शन कर बाहर आकर हम बढ गये पीपल वृक्ष की ओर। तीन पीढियों एवं तीन विचारधाराओं के लोगों का उसी वृक्ष के नीचे समागम हुआ जहां महात्मा ने अपने पांच शिष्यों को मानव बनने की सीख दी। दरअसल बोधगया, बिहार में ज्ञान प्राप्ति के बाद अपने प्रथम पाँच शिष्यों को इसी जगह स्थित हिरण उद्यान में बुद्ध ने पहला धर्मोपदेश दिया जिसका उल्लेख 'धर्म चक्र प्रवर्तन' के नाम से बौद्ध साहित्य में मिलता है। यानि बौद्ध धर्म की नींव सारनाथ में ही पड़ी। बौद्ध धर्म ग्रंथों में सारनाथ का उल्लेख ॠषिपत्तन, धर्मपत्तन, मृगदाय व मृगदाव के रूप में होता रहा है पर ताज़्जुब की बात ये है कि सारनाथ का ये आधुनिक नाम पास में स्थित महादेव के मंदिर सारंगनाथ से निकल कर आया है। उस बोधिवृक्ष के नीचे अपने पाँच शिष्यों को उपदेश देते गौतम बुद्ध की मूर्ति दिखाई दे रही थी। कहते हैं कि सम्राट अशोक की पुत्री संघमित्रा ने बोधगया स्थित पवित्र बोधि वृक्ष की एक शाखा श्रीलंका के अनुराधापुरा में लगाई थी। उसी पेड़ की एक शाखा से सारनाथ का बोधिवृक्ष फला फूला है। यह शाखा यहाँ मुलगंध कुटि विहार के उद्घाटन के समय लगाई गई थी। 1989 में यहाँ गौतम बुद्ध व उनके शिष्यों की प्रतिमा म्यानमार के बौद्ध श्रृद्धालुओं की मदद से बनी। 1999 में इस परिसर में बुद्ध के 28 रूपों की प्रतिमा और लगाई गई। इसी परिसर में ही एक विशाल घंटी भी लगी हुई है जिसे बौद्ध धर्म घंटे का नाम देते हैं। कहते हैं इसे बजाते वक़्त इसकी आवाज़, सात किमी दूर तक सुनाई देती है।
दरअसल मंदिर से थोड़ी दूर पर इसी नाम के पुराने मंदिर के भग्नावशेष मिले हैं। चीनी यात्री ह्वेनसांग की माने तो यहाँ अवस्थित उस प्राचीन मंदिर की ऊँचाई लगभग 61 मीटर थी। 18 मीटर से कुछ अधिक वर्गाकार भुजा वाले इस मंदिर का प्रवेश द्वार पूर्व की ओर था जिसके सामने एक आयताकार मंडप एवम् विशाल प्रांगण था। इतिहासकारों का मानना है कि स्थापत्य और ईंटों की सज्जा शैली के हिसाब से ये मंदिर गुप्त काल में बनाया गया होगा। इसी स्थल पर नए मंदिर को बनाने का श्रेय श्रीलंका के बौद्ध प्रचारक अंगारिका धर्मपाल को जाता है जिन्होंने भारत में महाबोधि समाज की नींव रखी। भारत के नार्गाजुन कोंडा और तक्षशिला में उत्खनन से मिले कई पवित्र बौद्ध ग्रंथों को अंग्रेजों ने महाबोधि समाज को भेंटस्वरूप दिया और ये आज इस मंदिर की शोभा बढ़ा रहे हैं। हर साल कार्तिक पूर्णिमा के दिन इन धर्मग्रंथों के साथ यहाँ एक शोभायात्रा निकाली जाती है। मंदिर में घुसते ही स्वर्णिम आभा से चमकती बुद्ध की प्रतिमा नज़र आती है। प्रतिमा के बगल में जापान से लाई गई एक विशाल घंटी भी दृष्टिगोचर होती है।
महात्मा बुद्ध को प्रणाम करने के बाद सहसा नज़र मंदिर की दीवारों पर चली गई। प्रख्यात जापानी चित्रकार कोसेत्सू नोसू (Kosetsu Nosu) के बनाए इन चित्रों को 1936 में आम जन के सामने प्रस्तुत किया गया। 
मूलगंध कुटी विहार धर्मराजिका स्तूप से उत्तर की ओर स्थित है। पूर्वाभिमुख इस विहार की कुर्सी चौकोर है जिसकी एक भुजा 18.29 मी. है। सातवीं शताब्दी में भारत-भ्रमण पर आए चीनी यात्री ह्वेन त्सांग ने इसका वर्णन 200 फुट ऊँचे मूलगंध कुटी विहार के नाम से किया है। इस मंदिर पर बने हुए नक़्क़ाशीदार गोले और नतोदर ढलाई, छोटे-छोटे स्तंभों तथा सुदंर कलापूर्ण कटावों आदि से यह निश्चित हो जाता है कि इसका निर्माण गुप्तकाल में हुआ था। परंतु इसके चारों ओर मिट्टी और चूने की बनी हुई पक्की फर्शों तथा दीवारो के बाहरी भाग में प्रयुक्त अस्त-व्यस्त नक़्क़ाशीदार पत्थरों के आधार पर कुछ विद्धानों ने इसे 8वीं शताब्दी के लगभग का माना है।ऐसा प्रतीत होता है कि इस मंदिर के बीच में बने मंडप के नीचे प्रारंभ में भगवान बुद्ध की एक सोने की चमकीली आदमक़द मूर्ति स्थापित थी। मंदिर में प्रवेश के लिए तीनों दिशाओं में एक-एक द्वार और पूर्व दिशा में मुख्य प्रवेश द्वार (सिंह द्वार) था। कालांतर में जब मंदिर की छत कमज़ोर होने लगी तो उसकी सुरक्षा के लिए भीतरी दक्षिणापथ को दीवारें उठाकर बन्द कर दिया गया। अत: आने जाने का रास्ता केवल पूर्व के मुख्य द्वार से ही रह गया। तीनों दरवाजों के बंद हो जाने से ये कोठरियों जैसी हो गई, जिसे बाद में छोटे मंदिरों का रूप दे दिया गया। 1904 ई. में श्री ओरटल को खुदाई कराते समय दक्षिण वाली कोठरी में एकाश्मक पत्थर से निर्मित 9 ½ X 9 ½ फुट की मौर्यकालीन वेदिका मिली। इस वेदिका पर उस समय की चमकदार पालिश है। यह वेदिका प्रारम्भ में धर्मराजिका स्तूप के ऊपर हार्निका के चारों ओर लगी थीं। इस वेदिका पर कुषाणकालीन ब्राह्मी लिपि  में दो लेख अंकित हैं- ‘आचाया(र्य्या)नाँ सर्वास्तिवादि नां परिग्रहेतावाम्’ और ‘आचार्यानां सर्वास्तिवादिनां परिग्राहे’। इन दोनों लेखों से यह ज्ञात होता है कि तीसरी शताब्दी ई. में यह वेदिका सर्वास्तिवादी संप्रदाय के आचार्यों को भेंट की गई थी।
















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