सुवह मैं विकी को लेकर RAVI भाई के घर आ गया। मुझे यहीं से बापस होना था लेकिन नजदीकी महेश्वर के एक भाई NITIN JOSHI निरंतर फौन कर रहे थे मिलना चाहते थे। समय की कमी तो थी पर उनका स्नेह मुझे आखिर खींच ही ले गया। मैंने भाई की बाइक उठायी और अगली सुवह तडके ही निकल लिया महेश्वर की ओर। इंदौर में घर से चला ही था कि मंसूर हुसैन भाई का फोन आया कि मैं रास्ते में खडा आपका इंतजार कर रहा हूं। सब्जी मंडी के पास दोनों की मुलाकात भी हो गयी। नजदीकी ही एक होटल पर बैठकर पौहा और चाय का आनंद लेते हुये धर्म और मजहब के बीच बढती हुई दूरियों पर चर्चा करने लगे। मंसूर भाई शिया समुदाय से हैं और बहाबी समुदाय की कट्टरपंथी खूनी कार्यवाही से बहुत व्यथित हैं। अक्सर विरोध करते रहते हैं। कट्टरपंथियों का अक्सर निशाना भी बनते हैं। पेशे से शिक्षक हैं। शिक्षक होने के नाते सभी को मुहब्बत से रहने का पाठ भी पढाते रहते हैं। काफी देर बतियाने के बाद कुछ दूरी तक साथ चले और फिर मैं महेश्वर की तरफ निकल लिया और मंसूर भाई घर की तरफ।
मंसूर भाई के साथ रोड पार कर रहा था कि एक पुजारी आया और तिलक लगाने लगा, खुले पैसे नहीं थे इसलिये मैंने तो उसे हाथ जोड टाल भी दिया पर मुस्लिम मित्र ने ना केवल तिलक लगवाया बल्कि उसे दस रूपये भी दिये। पुजारी के चले जाने के बाद भाई ने कहा कि सर मैंने ये दस रूपये उसकी रोजी रोटी के लिये दिये हैं, ये उसका धर्म ही उसका कर्म है। हालांकि उन भाईजान की तरह मुझे भी कोई तिलक लगाये या जालीदार टोपी पहनाये, कोई फर्क ही नहीं पडता। पूजा हो या नमाज कोई फर्क नहीं पडता। मैं इनसे बहुत ऊपर जा चुका हूं, अब ये सभी काम महज औपचारिकता ही नजर आते हैं। आपका धर्म कभी कट्टरता नहीं सिखाता , नैतिक कर्तव्य या धार्मिकता सिखाता है। जब कोई मुस्लिम तिलक लगाने बाले पंडित को देखकर भाग कर दूर खडा हो जाये या कोई हिन्दू किसी जालीदार टोपी को पहनने से विदके, समझ लीजिये वो धार्मिक नहीं कट्टर है। आप कहेंगे कि अपनी मान्यताओं पर दृण रहना (कट्टर होना) बुरा है क्या ? नहीं कतई बुरा नहीं है पर ये कट्टरता आपको यदि अन्य मान्यताओं के प्रति असहिष्णु बनाती है और फिर अन्य सभी मान्यताओं पर रोष भी पैदा करती जो सामाजिक सोहार्द को बिगाडने में बडी भूमिका निभाता है तो निसंदेह कट्टरता खतरनाक है। कुछ दिनों पहले बनारस टूर में काशी विश्वनाथ मंदिर बाली गली में कुछ धार्मिक मुद्दों पर चर्चा करते हुये मैं और एक सज्जाद अली भाई जा रहे थे कि मंदिर के आते ही उनकी आवाज धीमी हो गयी, कहने लगे कि बाद में बात करेंगे, अभी बहुत संवेदनशील इलाका है, शांति से निकल लो यहां से। हालांकि उनकी सलाह बहुत व्यावहारिक थी पर मैं तभी से यह विचार कर रहा हूं कि मामला संवेदनशील होता कब है ? उस गली में दोनों ओर मुस्लिम व्यापारी थे जिनकी रोजी रोटी इन्ही हिन्दू श्रद्धालुओं पर निर्भर करती हैं यदि देखा जाये तो वो मंदिर अप्रत्यक्ष रूप से उन्ही मुसलमानों के लिये फलदायी है, फिर भी संवेदनशील है तो क्यूं है ? चप्पे चप्पे पर पुलिस का पहरा क्यूं है ? क्या हम एक दूसरे की भावनाओं को इज्जत नहीं दे सकते ? क्या कुछ हिन्दू उपद्रवियों का उस मंदिर से सटी मस्जिद के जंगले में दूध फैंकना किसी की मान्यताओं पर अतिक्रमण नहीं है ? हम एक दूसरे की भावनाओं की इज्जत क्यूं नहीं कर पा रहे हैं ? हमें कट्टर होना चाहिये या धार्मिक ?
काश सबकी सोच सत्यपाल चाहर जी और मंसूर हुसैन जी की तरह होता है तो अभी दुनिया कुछ और होता है । बहुत अच्छा लगा आपका वैचारिक और सामाजिक यात्रा वृत्तांत ।
ReplyDeleteआभार भाई जी
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