Sunday, February 26, 2017

( मेरे दोस्त राही की आत्मकथा : राज; एक अधूरी प्रेम कहानी )

कल एक बचपन के मित्र से अचानक मुलाकात हो गयी। और वो भी पूरे चौबीस साल बाद। इसी बीच उसकी एक डायरी पढने का भी मौका मिला। उसने अपनी प्रेम कहानी लिखी थी उसमें। मुझे उसकी प्रेम कहानी में रूचि इसलिये थी कि थोडी बहुत मेरी भी उपस्थिति थी उसमें। इस पूरी प्रेम कहानी में जिस चीज ने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया था, वह थी ईश्वर की मौजूदगी। हालांकि मैं प्रकृतिवादी हूं , वर्डसवर्थ की तरह पेड पोधों फूल पत्तियों नदियों झरनों हवाओं और फिजाओं में ही उसे साक्षात रूप में देखता रहा हूं, लेकिन फिर भी जीवन के कुछ अनुभव ऐसे हैं कि लगता है कि मेरी ईश्वर से बात होती है और वह मुझे सुनता है। उसका नाम क्या है , रुप क्या है, मुझे कुछ नहीं पता बस इतना मालुम है कि उस तक मेरी बात पहुंचती है। उससे मिलने के लिये मुझे किसी मंदिर मस्जिद नहीं जाना पडता, कहीं भी, कभी भी मिल जाता है वो मुझे। इस बात को शायद कोई और न समझ पाये पर चूंकि मैंने अनुभव किया है तो मैं ही समझ पाऊंगा। शायद यही कारण रहा कि मैं चाह कर भी कभी नास्तिक नहीं बन पाया। धार्मिक किताबों, उनके पात्रों और पंडे पुजारियों के लिये बहुत कुछ उल्टा सीधा लिखा करता था पर नास्तिक फिर भी न बन पाया । कहूं कि ईश्वर ने मुझे बनने ही नहीं दिया। जब भी कभी ऐसी नौबत आती वह अपनी उपस्थिति दे जाता। एक बार नहीं सैकडों बार उससे मेरी बातें हुयीं हैं। आज जब ये डायरी पढी तो लगा जैसे मेरी अपनी ही कहानी हो।

एक लडकी अत्यंत भावुक, ईमानदार और सीधी सच्ची लडकी अपनी गरीबी, पिछडी जाति में पैदा होने के दंश एवं अपने पिता के जुआ खेलने और घर पर कर्जदारों की लाईन लगे रहने के वावजूद पढ लिख कर शिक्षिका बनने में सफल रही कितुं सुख उस अभागी को कभी प्राप्त नहीं हुआ क्यूं कि उसने केवल समर्पण ही करना सीखा था। अपने हक को प्राप्त करना नहीं सीख पायी वो। जब वो दस वर्ष की थी , पडौस में एक किरायेदार के खुद से पांच वर्ष बडे लडके मतलब मुझसे मन ही मन प्रेम करने लगी। वह मूक एकतरफा प्रेम एक साल तक उसके मन में ही रहा, कह न पायी अपने मन की बात। लडकी का भाई भी मेरी क्लास में था। मैं बारहवीं कक्षा में था और वह आठवीं कक्षा में।
ऐसा नहीं था कि मैं एकदम शरीफ सीधा साधा इन सब बातों से दूर रहने बाला था। एकदम रसिक था मैं भी। अब तक बीसियों गर्लफ्रेंड बना चुका था। पर कहते हैं न कि चोरों के भी ईमान होते हैं या कहो कि चोरों के ही ईमान होते हैं, मुझे अपने दोस्त की बहिन की तरफ देखना मंजूर न था। नया नया दोस्त बना था नये गांव में। और किसी को जानता तक न था उसके अलावा। अनेकों बार ऐसे अवसर आये जब लंच टाईम में मेरे अन्य साथी लडकी की सहेलियों के चक्कर में पानी की टंकी के पास मंडराते रहते लेकिन मैंने कभी भी उस लडकी की तरफ नजर उठा भी न देखा।मेरे दिमाग में बस एक ही बात थी कि दोस्त की बहिन है। हालांकि मैं किसी दूसरे शहर से अभी अभी इस गांव में आकर बसा ही था फिर भी एक गर्लफ्रेन्ड बन चुकी थी। जो मेरे बहुत ही ज्यादा करीब आयी थी, उसी लडकी की पडौसन थी जो मुझे मन ही मन अपना भगवान मान बैठी थी और अक्सर मेरे बारे में ही सोचा करती थी। कच्ची उम्र का कच्चा प्रेम बहुत खतरनाक होता है।महज चौदह वर्ष की उम्र थी लडकी की। मैं भी इसे प्रेम की बजाय आकर्षण ही कहता यदि मैंने ये लंबा प्रेमकाल न देखा होता तो। मैं सीनियर स्कूल में था और वह जूनियर गर्ल्स स्कूल में। वह अपने स्कूल में बैठी बैठी अपने मन की बातों को कागज में उतारती रहती। ऐसे ही धीरे धीरे उसने एक घडा पत्रों से भर दिया था लेकिन ये पत्र कभी उसने मुझे दिये नहीं। एक दो बार उसकी सहेलियों से उसकी पागलों जैसी हालत देखी नहीं गयी तो सलाह दी कि वह उसे सारी बात बता दे लेकिन हिम्मत न कर सकी। बस मन ही मन पूजती रही। 
और उधर मैं एकदम मस्त मौला टाईप, पूर्ण भौतिकवादी, चार्वाक गुरू का चेला, खाओ पीओ मौज करो, हर दूसरे दिन एक नयी गर्लफ्रेंड बना रहा। लेकिन मुझे कहीं भी संतुष्टि नहीं मिली। कहते हैं जब इंसान भौतिकता की सारी चढाई चढ लेता है उसका उतार शुरू हो जाता है और आध्यात्मिक झुकाव प्रारंभ हो जाता है। हालांकि मैं हर रोज लंच टाईम में उसके स्कूल के सामने जाता था अपने दोस्त के साथ। मेरा दोस्त अपनी गर्लफ्रैंड से मिलने जाता था और मैं उसके साथ उसका रक्षक बन कर खडा रहता। उधर मुझे पता भी नहीं था कि मैं यहां आया नहीं बल्कि किसी के द्वारा बुलाया जा रहा था। दर असल वो लडकी हर रोज लंच से पहले प्रार्थना करती रहती थी कि काश मैं उसे देख पाऊं ! बस एक झलक ! मैं इन सब बातों से अनभिज्ञ था। वह मुझे देखती रहती थी छिपकर पर मैंने कभी नोटिस नहीं किया इस बात को। 
एक दिन शाम को छत पर मैं और मेरा दोस्त दोनों बैठे बतिया रहे थे कि उससे मन की बात कहने लगा," यार सब कुछ है मेरे पास। धन दौलत नाम खानदान सबकुछ पर सच्चा प्यार नहीं मिला।"
उसे जोर की हंसी आयी," और कितनी बनायेगा बे ? सौ के पार तो तेरा आकणा पहुंच गया होगा ?" 
दुखियाते हुये गंभीरता से बोला," तू सही कह रहा है पर दिल की बात बता रहा हूं। ये सारी लडकियां मेरे भौतिक आवरण से प्रेम करने बाली हैं और मैं ईश्वर से एक ऐसी लडकी चाहता हूं जो भले सुंदर न हो, गरीब हो, किसी भी जाति की हो, पर मुझे आत्मिक प्रेम करने बाली हो। मैं उसे अपना जीवन साथी बनाना चाहता हूं। थक गया हूं यार इस चमकीली नकली दुनियां से। अब मुझे सच्चा भावनात्मक संसार चाहिये।" 
उसी शाम को हम दोनों बतियाते हुये मंदिर की ओर बढ चले थे। और मैंने पहली बार खुद को भगवान के सामने गिडगिडाते हुये रोते हुये देखा था। बडा अजीब सा दृश्य था। भगवान को न मारने बाला, हरदम उसकी मजाक बनाने बाला आज उसके सामने हाथ पसारे सच्चे प्रेम की भीख मांग रहा था। मुझे तो शायद पता भी नहीं था कि मेरा सच्चा प्रेम पिछले एक साल से मेरा इंतजार कर रहा था। 
एक साल बाद मेरे को पता चला कि एक लडकी है जो मुझे भगवान की तरह पूजती है तो मैं भी उसके प्रेम और समर्पण के आगे नतमस्तक हो गया। हम दोनों के प्रेम की शुरुआत बाला दिन भी मुझे अच्छे से याद है जब मैं किसी कार्य से अपनी हीरो रेंजर साइकिल पर गांव के बाहर एक बगीचे से निकल कर जा रहा था कि दो लडकियों ने मेरा रास्ता रोक लिया था। एक तो वही थी और दूसरी उसकी घनिष्ठ सहेली जिससे वह अपनी हर बात शेयर करती थी।
मैंने उसे तुरंत पहचान लिया उसे। आखिर कैसे न पहचानता उसे। आखिर दोस्त की बहन थी। न जाने कितनी बार उसकी तरफ आकर्षित हुआ था कितुं हर बार दिल और दिमाग की जंग में दिमाग की जीत हुई थी और यह कहते हुये दिल को समझा दिया था कि ये तो दोस्त की बहिन है। इधर नहीं देखना। पर शायद ऊपर बाले को कुछ और ही मंजूर था। लग रहा था जैसे एक दिन पहले भगवान के सामने की गयी विनती काम कर रही थी और उसने इसी को मेरे लिये चुना था। जैसे ही वे दोनों लडकियां एकदम एकांत रास्ते में आकर मेरी साइकिल के सामने आकर खडी हुईं और कडक आवाज में मुझसे शिकायती लहजे में बोलीं," आप होंगे बडे घर के। पर आपको मेरे पापा के बारे में वकबास करने का कोई हक नहीं है। मेरे पापा जो भी हैं जैसे भी हैं, मेरा गुरूर हैं। बहुत प्यार करती हूं उनसे। खबरदार जो आज के आइंदा उनके बारे में एक भी शब्द बोला तो ।" 
मैं तो भौंचक्का सा मुंह फाडे बस उन्हें सुना ही जा रहा था। सोच ही नहीं पाया कि क्या जबाब दूं ? और जबाब भी क्या देता ? गलती मेरी ही थी। एक दो दिन पहले ही उसके घर के सामने रहने बाली एक लडकी से उसके पिता के बारे में उलूल जुलूल बात कह बैठा था। दरअसल मेरा उद्देश्य उसके पिता की बेइज्जती करना नहीं था बल्कि बस नाराजगी भर थी। उसके पिता जुआ खेलते थे। जिसकी बजह से उनका परिवार बहुत ज्यादा आर्थिक तंगी से गुजर रहा था। चूंकि उसका बडा भाई मेरा क्लासमेट था और क्लास में सबसे होशियार था। ईश्वर ने सभी बच्चों को बहुत तेज बुद्धि दी थी जिसके बलबूते वे सभी बुलंदियां छू सकते थे। पर उनकी जुए की लत ने सब खेल बिगाड रखा था। दिन में वर्फ की पेटी साइकिल पर रख बेचने जाते । दिन भर में सौ दो सौ रुपये कमाते और शाम को सब जुए में हार जाते। इतना सब होने के वावजूद पिता के प्रति इतना सम्मान और समर्पण देखकर तो जैसे उसके प्रति दिल में इज्जत और बढ गयी। पता ही नहीं चला कि कब उससे प्रेम कर बैठा। प्रेम भी ऐसा बैसा नहीं । पूरे जीवन भर का ठेका। मेरे मन में पूरा विश्वास बैठ गया था कि कल भगवान ने मेरी बात सुन ली है और उसी ने आज ये मुलाकात करायी है। मुझे तो पता भी नहीं था कि वह पिछले एक साल से पागलों की तरह मुझसे प्यार किये जा रही थी। कागजों पर दीवारों पर पत्थरों पर मेरा नाम लिखती रहती थी। जब भी मैं उसके घर के सामने रहने बाली लडकी से मिलने आता तो जानबूझ कर कपडे धोने के बहाने चबूतरे पर आकर बैठ जाती थी और फिर फिर किताब लेकर छत पर चली जाती और बहां से छिप छिप कर मुझे देखा करती थी जबकि मेरा उसकी ओर ध्यान ही नहीं था। एक दो बार ध्यान गया भी तो मन को समझा लिया। उसके सामने बाली लडकी से मेरा अभी नया नया ही परिचय था। मैं उसके बारे में कुछ भी नहीं जानता था। न तो मुझे उससे प्रेम था और उसे मुझसे। बस दोनों ही अपनी अपनी जरूरतें पूरा करना चाहते थे। मैं शरीर की और वह पैसे की। लेकिन ये उसके बारे में सबकुछ जानती थीं कि वह कितनी चरित्रहीन है । इसलिये मुझे आगाह भी करना चाहती थी क्यूं कि मैं बिल्कुल नया था उस गांव में। वह लडकी तो उसे अब काल की तरह लगने लगी थी उसे। उसे लगता था कि मैं उसके लिये ही ऊपर बाले ने भेजा हूं तो ये कौन होती है मुझसे मेरा प्रेम छीनने बाली। लगभग साल भर से वह मुझे और अपनी पडोसन को हंसते बोलते मस्ती करते देख देख जली जा रही थी। लेकिन कभी उसने मुझे टोका नहीं। कभी बात नहीं की। हालांकि इस बीच मैं बहुत बार उसके घर भी हो आया था पर वह हमेशा अंदर बाले कमरे से छिप छिप कर देखती रहती। पढने में बहुत होशियार थी। हर समय पढती रहती थी इसलिये उसके भाई या उसके माता पिता को उस पर कभी शक भी नहीं हुआ था । बैसे भी उसका मूक प्रेम था मेरे प्रति। देखते देखते साल भर निकल गया। परीक्षायें भी हो गयीं। मुझे बारहवीं पास करके वो गांव छोडकर शहर पडने जाना था और उसे नौवीं कक्षा में मेरे बाले स्कूल में ही आना था। हे भगवान ! ये कैसी परीक्षा ली तूने ! जिस स्कूल में आने का पिछले एक साल से मैं सपना देख रही थी, वो अब मेरे किस काम का ? यदि यही जा रहा है तो मैं उन पत्थरों से सर फोडूंगी ? जबकि अभी तो उससे अपने मन की बात कह भी नहीं पायी थी।
22 अप्रैल की बात थी। परिक्षायें हो चुकी थीं। और मुझे बस एक दो दिन में रुम खाली कर शहर शिफ्ट होना था। उसी से एक दो दिन पहले सामने रहने बाली उस लडकी का बदचलन चेहरा भी सामने आ गया था। पता चला कि उसके भी मेरे समेत करीब बीस लोगों से संबध थे। दिल तो न टूटा था खैर क्यूं कि उसके साथ दिल से जुडा ही कब था मैं ? सिर्फ जिस्म से जुडा था। बातों ही बातों में मैंने उस लडकी से भी उसी दिन संबध तोडा था और कुछ बातें इसके जुआरी पिता के बारे में कह दी थीं जो उसने बदला लेने के मूड से इस लडकी को बता दी थीं। बस उसी दिन इसने मुझे अपनी सहेली के साथ सुनसान रास्ते में रोक लिया था। और अपने पिता के बारे में कही गयी बातों पर मुझे खूब सुनायी थी। वह भूल गयी थी कि वह मुझे कितना चाहती है ! बस वो मेरा आखिरी दिन था लडकियों को दोस्त बनाने का। उसके बाद आज तक मेरी कोई दोस्त नहीं बनी। वही मेरा अतिंम प्रेम है। प्रेम तो उससे पहले भी कभी किसी से नहीं किया था इसलिये कह सकता हूं कि वही मेरा पहला और अतिंम प्रेम है।
पर ये कैसी विडबंना ! प्रेम होते ही विछोह ? ईश्वर से सीधे साक्षात्कार हुआ मेरा । ये कैसा न्याय तेरा ? कम से कम एक साल तो साथ रहने देता न ? शायद इसी तरह के विचार कुछ उसके भी दिमाग में आ रहे थे। मुझे अगले ही दिन उस गांव को छोडकर गर्मियों की छुट्टियां बिताने अपने गांव जाना था और फिर वहां से शहर अगली पढाई के लिये। मुझे रहा न गया। एक छोटी सी पर्ची लिखी जिसमें लिखा था," मैं तुम्हें अपना साथी बनाना चाहता हूं। हमेशा के लिये। जीवन भर का साथी । बनोगी ? ले पाओगी दुनियां से टक्कर ? दे पाओगी मेरा साथ ?"
मैं इतना भावावेश में था कि बिना किसी की परवाह किये उसके घर चला गया और उसके हाथ में वो पर्ची पकडा दी। संयोग से घर पर कोई नहीं था। उसने मुझे शाम तक जबाब देने को कहा और मैं इंतजार करता रहा। शाम तक उसका कोई जबाब नहीं आया। पूरी रात सो न सका। बैचेनी रही। मन करा अभी जाकर पूछ आऊं। और ऐसे ही सुवह हो गयी।
अगले दिन जब मैं अपनी साइकिल से अपने गांव के लिये रवाना हो रहा था तो वो मुझे रास्ते में ही मिली। अपने कच्चे घर को लीपने के लिये पीली मिट्टी खोदने आयी थी। वो तो एक बहाना था मुझसे मिलने का। हालांकि मेरे पास नहीं आयी पर उसकी आखें और उसका लहराता हाथ बता रहा था कि वो भी मुझसे प्रेम करती है। उसे मेरा प्रस्ताव मंजूर था। मैं उसकी यादों में खोया हुआ अपने गांव की ओर रवाना हो गया। मेरे पिता के स्कूल की छुट्टियां नहीं हुयी थीं अभी इसलिये वो अभी अपने रुम पर ही थे। उनको अभी एक महीना और रुकना था इस गांव में। मेरे चले जाने के बाद मेरे पिता अकेले रह गये थे रुम पर और उन्हें खुद ही रोटी बनानी पडती थीं। शायद ये ही एक बहाना रहा होगा उसका मेरे पिता के करीब आने का। मेरी अनुपस्थिति में वह एक दो बार मेरे पिता के पास आयी थी और अपनी साहित्यिक रुचियों जैसे डायरी लेखन को उसने उनसे शेयर किया था। मेरे पिता भी साहित्यिक लेखन बाले ही शिक्षक थे तो उसके लेखन की खूब तारीफ करते। बातों ही बातों में वह मेरे बारे में पूछने लग जाती उनसे। वह समझती थी बडे बूढे तो पागल होते हैं। वो क्या समझ पायेंगे। पर पिताजी को तुरंत आईडिया हो गया हम दोनों के प्रेम के बारे में। लेकिन उन्हौने जीवन के पचपन बसंत देखे थे और शिक्षक भी थे तो सब समझते थे कि किशोरवस्था में आने बाली परेशानियों में किस प्रकार युवक युवतियों को डील किया जाय। चाहते तो उसी समय उसे झिडक देते और डांट देते लेकिन वो शांत रहे। और जब एक महीने बाद अपने गांव आये तो मुझसे उसका नाम लेकर पूछने लगे कि उस लडकी को जानते हो ? बहुत अच्छा लिखती है। गजब का भावनात्मक लेखन है उसका। तुम्हारे लेखन की तारीफ कर रही थी। पर वह तुम्हें कैसे जानती है ? मेरे पास इस बात का कोई जबाब न था सो टाल गया पर मैं इतना समझ गया था कि हम खुद को बहुत चतुर समझते हैं पर ये भूल जाते हैं ये हमारे बाप हैं , हमारी नस नस से वाकिफ रहते हैं। रिजेल्ट आते ही मुझे शहर निकलना था। मैं उसे बहुत मिस कर रहा था कि अगले ही दिन परीक्षा परिणाम आ गया। सारे विषयों में अच्छे अंक थे लेकिन कैमिस्ट्री में सप्लीमेंट्री थी। सोचा पुन: इसी क्लास में पढ लूं उसके साथ एक साल बिताने का मौका मिल जायेगा। लेकिन बडे भैया मेरी तैयारी कराने के लिये मुझे अपने साथ नौकरी पर ले गये। भैया अकेले ही थे जो ड्यूटी के अलावा सिर्फ मुझे पढाते रहते हैं। कैमिस्ट्री को रटा दिया मुझे। एक एक शब्द रट गया मुझे। सोचा था सौ में से अस्सी अकं ले आऊंगा। हालांकि जुडने तो सिर्फ तैंतीस ही थे। पर न जाने अंदर से कोई एक आवाज आ रही थी जो कह रही थी, रहने दो पास होकर क्या करोगे ? एक साल रुक जाओ। अगली साल फिर से दे लेना। वही हुआ। परिणाम आया तो सोचता ही रह गया आखिर ये हुआ कैसे ? मैं फेल हो चुका था। लेकिन मैं खुश था कि अब मुझे गांव छोडकर नहीं जाना पडेगा। मुझे लगा शायद हम दोनों के अंतर्मात्मा की आवाज उसने सुन ली थी। वह हम दोनों को एक साल के लिये साथ देखना चाहता था। 

जारी है 


( मेरे दोस्त राही की आत्मकथा : राज )

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