महेश्वर से नितिन भाई का हर दस मिनिट बाद फौन आ रहा था। जल्दी से निकल लिया मैं भी । इंदौर से महेश्वर का सफर बाकई बहुत रोमांचक रहा। दोनों ओर विध्यांचल की हरी भरी बादियां, कपास गन्ना केला आदि की फसल एवं काली मिट्टी में काम कर रहे किसान ! वाह ! आनन्द आ गया ! इंदौर से धार की तरफ बढते हुये घाट पार करते ही निमाड क्षेत्र प्रारंभ हो जाता है। इस इलाके का जनजातीय वर्ग होली से पहले ही उत्साह और उमंग से सराबोर हो जाता है, यह भगोरिया मेलों में साफ नजर आता है।इन मेलों में आ रहे युवक और युवतियां अपने मनपसंद जीवन साथी की तलाश में लगे होते हैं और वे पान खिलाकर अपने प्रेम का इजहार कर उनका दिल जीतने की कोशिश कर रहे होते हैं। निमांड इलाके के झाबुआ, धार, बडवानी और अलिराजपुर में होली के मौके पर मनाए जाने वाले भगोरिया पर्व को प्रणय का पर्व माना जाता है। मान्यता है कि जनजातीय वर्ग के युवक और युवती इस पर्व पर लगने वाले मेलों में अपने सपनों के हमसफर को न केवल तलाशते हैं, बल्कि परंपरागत तरीके से प्रेम का इजाहर भी करते हैं।
आभाषी दुनियां के प्राणी भी मुझे वास्तविक जीवन में इतना प्रेम दे पायेंगे, सोचा भी न था। इंदौर से महेश्वर आने का कोई विचार न था लेकिन मेरे फेसबुक मित्र Nitin Kumar Joshi जी का असीम प्रेम मुझे यहां जबरन खींच लाया। मैंने उनका फोटो तक न देखा था पर वो मुझे पहचानते थे। महेश्वर में प्रवेश करते ही रोड पर मेरा इंतजार करते मिले। जैसे ही मैं उनके लहराते हाथ को देखकर उनके पास रुका, मुझे और मेरे बेटे को गले से लगा लिया और नेत्रों से आसुओं की अविरल धारा वहने लगी। खुशी में कुछ कहना चाह रहे थे पर गला रूधं गया और होंठ कांपने लगे। शुद्दध धार्मिक पंडित जी का मात्र एक महीने की मित्रता में इतना गहरा प्रेम ? और वो भी मेरे जैसे मुंहफट अधर्मी के साथ ? मेरी समझ से परे था पर कुछ बातें ऐसी होतीं हैं जिन्हें केवल परम सत्ता ही समझ सकती हैं। मैं केवल इतना एहसास कर सका कि कोई एक अदृश्य शक्ति थी जो मुझे यहां तक खींच लायी। सबसे पहले तो हम कस्बे की भागदौड से दूर एकांत और शांतिप्रिय वटैक्क्षिनी मंदिर गये जहां कि उनका परिवार पिछली कई पीढियों से पुजारी है।उसके बाद उन्हौने मुझे महिष्मती किला, बहुत सारे मंदिर और नर्मदा घाट घुमाया।
अपने माता पिता समेत समस्त परिवार के साथ साथ रिश्तेदारों से भी मिलवाया। मेरे लाख मना करने के वावजूद मुझे एक भी रूपया खर्च न करने दिया। उनका एक दिन अपने यहां रुकने का आग्रह मैं ठुकरा न सका और रात को उन्ही के यहां रात्रि विश्राम किया। मेरे मना करने के वावजूद अगली सुवह मुझे ऊंकारेश्वर तक छोडने की भी जिद कर रहे। मुझे नहीं पता कि मेरा उनसे क्या और कब का रिश्ता है क्यूंकि पुनर्जन्म को मैं मानता नहीं हूं पर कुछ तो ऐसा है जो मैं केवल महसूस कर रहा हूं पर व्यक्त नहीं कर पा रहा। निमाडी लोग निमाडी संस्कृति प्रेम से इतनी परिपूर्ण होगी, सपने में भी न सोचा था। कहते हैं कि यहां घरों के दरवाजे इसलिये छोटे रखे जाते हैं ताकि लोग दूसरों के आगे झुकना सीख सकें। घरों में कभी झाड झंकाड या कांटे नहीं लगाने देते। एक और खास बात , यहां सबकी मोटर साईकिलें रात को भी दरवाजे से बाहर रोड पर खडी होतीं हैं क्यूंकि यहां कभी चोरियां नहीं होती। मुझसे पांच बर्ष बडे नितिन जोशी जी एक आदर्श शिक्षक के संस्कारवान सुपुत्र हैं और दो बच्चों के पिता हैं। इस फेसबुक ने मुझे भारत ही नहीं विश्व के हर कोने में कुछ ऐसे "इंसान" दिये हैं जिनके प्रेम का ऋण मैं कभी न चुका पाऊंगा। ना जात की और धर्म की ये आत्मीयता है तो बस मानवता की । फेसबुक मित्र नर्मदीय ब्राह्मण नितिन भाई धौलपुर से हजार किमी दूर महेश्वर के रहने बाले हैं । फेसबुक पर भी अभी कोई बस दो महीने पहले ही मुलाकात हुयी थी। मेरे इंदौर आने की खबर सुनते ही अपने वीवी बच्चों और दुकान को छोडकर पचास किमी दूर महेश्वर आकर मुझे बुलाने का आग्रह करने लगे। विशेष प्रेम देखकर जब मैं महेश्वर पहुंचा तो आखों में आंसू लिये मुझे और विकी को ह्रदय से लगा लिया। रात को महेश्वर में उनके मातापिता से मिला जिन्हौने मुझे अपना दूसरा बेटा कहा और बेटे से बढकर प्यार दिया। चलते समय अपने घर की फसल दाल मूंगफली और ना जाने क्या क्या बांध दिया । बच्चे को भी विदा के रूप में दो सौ रूपये दिये। शहर घूमते समय भी मुझे एक रूपये की चीज खरीदने नहीं दी। रात को पडौसी रिश्तेदार भी मिलने आये और काफी देर तक बतियाते रहे। महेश्वर घुमाने के बाद ऊंकारेश्वर तक भी साथ में गये। लौटते समय मुझे और नितिन भैया दोनों को अलग होना था। यादगार के रुप में मुझे एक महेश्वर घाट की तश्वीर भेंट की और बेटे को सौ रूपये देने लगे और जब मना किया तो फूट फूट के रोने लगे। मेरे जैसा पत्थर दिल इंसान भी आखों में आंसू ले आया। वो कुछ बोलना चाह रहे थे पर गला साथ नहीं दे रहा था बस आंसू बहाये जा रहे थे । मैं भी कुछ न कह सका बस दिल से लगा लिया भाई को। समझ नहीं आ रहा कि मैं इस सच्चे ब्राह्मण परिवार का ये कर्ज कैसे चुका पाउंगा । मैं तो कृष्ण भी नहीं हूं जो इस सुदामा के दो मुट्ठी चावल के बदले विश्वकर्मा से महल बनवा दुगां।
आपका इस यात्रा अनूभव से यह समझ मे आ रहा है कि पहले शिक्षा व्यवस्था मे देशाटन एक अनिवार्य बिषय क्यो था ।अभी भी सच्चा ज्ञान सिर्फ किताबो से नहो मिलती ।
ReplyDeleteहहहह जी सही कहा भाईजी
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