Friday, February 3, 2017

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) ।।

गंगा मैया का असर कहूं या तंग गलियों एवं लोगों की भीड का प्रभाव कि दिसम्बर की कडकडाती ठंड में भी मैं पूरे दो दिन तक टी शर्ट में भी पसीना देता रहा। शायद इसी बजह से बनारस की लस्सी एवं ठंडाई बार बार मुझे अपनी ओर खींच रही थी। सारनाथ देखने के बाद मैं Dr Gajanand Singh Ji को बाइक पर बिठाकर बीएचयू की तरफ दौडने लगा लेकिन भंयकर जाम से निकलने में हमें एक घंटा लग गया।
आखिरकार बनारस हिन्दू विवि आ ही गया। सपने में भी न सोचा था कि विवि कैंपस भी हमारे धौलपुर शहर से बडा होगा। 1300 एकड में फैला ये कैंपस अपने मेहराबदार गेट के बाहर की भीड़-भाड़ और चहल-पहल के विपरीत शांति का नखलिस्तान लगता है। पेड़ों की कतार वाले रास्ते और मंदिर की वास्तुकला वाले हल्के-पीले रंग के भवन वाराणसी की प्राचीन गलियों में उमड़े जनसैलाब से राहत देते हैं।
स्वतंत्रता सेनानी और समाज सुधारक मदन मोहन मालवीय के दिमाग की उपज बीएचयू की स्थापना 1916 में हुई। इसे हिंदू संस्कृति और आधुनिक प्रौद्योगिकी तथा उद्योग की शिक्षा का उत्कृष्ट मेल  माना जाता है. यह सही मायनों में पूरब और पश्चिम के बीच समकालिकता की रूमानी कल्पना है।
मैन गेट से अदंर घुसते ही हमें किसी अन्य दुनियां में होने जैसा एहसास हुआ। चौडी चौडी सडक, दोनों ओर घने वृक्षों की कतार , स्वच्छ वायु एवं शांत वातावरण में घूमते हुये छात्र छात्राऐं हमें प्राचीन काल के गुरुकुलों की याद दिला रहे थे। बीएचयू एशिया का सबसे बड़ा आवासीय कैंपस है और यहां भाषा विज्ञान, संगीत शास्त्र और बायो-टेक्नोलॉजी से लेकर मैनेजमेंट तक के विविध पाठ्यक्रमों की पढ़ाई होती है. बीएचयू का लक्ष्य, ''शिक्षण और अनुसंधान के बीच तालमेल'' है.
बी एच यू कैंपस में भी काफी देर तक बाइक दौडाने के बाद आखिरकार हम विश्वनाथ मंदिर पहुंच ही गये। मंदिर पर लोग तो थे पर इतनी भीड नहीं थी जितनी गंगाघाट बाले काशी विश्वनाथ मंदिर पर थी। कभी कभी तो सोचता हूं कि उस तंग गली बाले प्राचीन मंदिर में जब मेरा थोडी ही देर में दम घुटने लगा और मैं आधा घंटा भी न टिक सका तो वेचारे भगवान को रोज दो सिलेन्डर आक्सीजन के लेने पडते होंगे।
पर यहां राहत थी। खूबसूरत भवन खुली हवा खुला बातावरण प्राकृतिक सौदंर्य ।
मंदिर यदि शहर की किच किच कोलाहल से दूर पेडों की छांव में हों तो अदंर से फीलिगं आती है, कुछ पल गुजारने की। भगवान से मुलाकात होगी कि नहीं , पता नहीं पर कम से कम आत्म साक्षात्कार तो हो ही जायेगा जो ईश्वर प्राप्ति का सबसे उत्तम रास्ता है। 
बनारस में घूमने की जैसे ही फेसबुक मित्रों को सूचना मिली , सारे के सारे सलाह देने कि ठंडाई जरुर पीना। बीएचयू से लौटते समय मैं गर्मी से वेहाल था, सोचा कुछ ठंडक मिलेगी तो एक गिलाश ठंडाई खेंच गया। बेचारे भोलेबाबा जब भी फुर्सत में बैठ कर हमारे बारे में सोचते होंगे तो यही कहते होंगे कि ये उल्लू के पट्ठे नशा तो खुद करते हैं और साले बिल मेरे नाम का फाड देते हैं। पर कम से कम मैंने तो भोले के नाम पर न पी थी। सोचा , अपने शौक मौज के लिये भगवान को नशेडी कहकर बदनाम क्यूं करुं ? 
हम इंसान भी बहुत चालू किस्म के लोग हैं, अपने देवी देवताओं एवं पैगम्बरों के नाम पर भांग शराब मांस का भोग लगाकर खुद मजे लेते हैं। बुराईयों को समाज में स्वीकार्य कराने के लिये भगवान से बेहतर कोई आड हो ही नहीं सकती, थोडा सा भोग भगवान को लगाकर बाकी खुद खेंच जाते हैं। बकरा खाना है तो बोल दो कि इब्राहिम बोल कर गये हैं , शराब पीनी है तो काल भैरव ने परमीशन दी है, डकैती करनी है तो मां भवानी की आज्ञा है और चिलम का सुट्टा लगाना है तो भोलेबाबा का प्रशाद है, बस फिर खुल कर खाओ पीओ , ईश्वर ने बोला है।
चूंकि मैंने पहली बार भांग की ठंडाई का सेवन किया था, सोचा था कि चढने में समय लगेगा जब तक तो मैं कमरे पर पहुंच जाऊगां और सो जाऊगां लेकिन ट्रैफिक में फंस गया और घर पहुंचने में ही एक घंटा बीत गया। बाइक की ब्रैक भी थोडी लूज थीं और बार बार गाडी बाले अचानक ब्रेक लगा देते, मैं टकराने से बाल बाल बचता। मेरे पीछे बैठे डाक्टर साहव बार बार मुझसे कह रहे कि चाहर साहब आपको चढ गयी है, बाइक मुझे दे दीजिये पर मुझे तो कुछ भी महसूस नहीं हुआ था। और बडी आसानी से घर भी पहुंच गया था पर उन्हें विश्वास न हुआ और बाद में मजे लेने के लिये मेरे दोस्तों को नमक मिर्च नीबूं मसाला लगा कर कमेंट किया और दोस्त तो इतने कमीने हैं कि उन्हें तो बस मौका चाहिये मुझसे मौज लेने का।
डाक्टर साहव ने आकर लिखा, "" भाँग  की ठंडाई  पीने  के बाद  मोटरसाइकिल  चाहर  साहब चलाने लगे मै इनके पीछे बैठा था । हमे लगने लगा  था कि भाँग  की ठंडाई  कुछ रंग  लायेगी और लाने भी लगी कि चाहर जी अपनी मोटरसाइकिल से आगे वालो  को धक्का  मारने लगे । मैने बोला जरा संभाल के मास्टर साहब, ये आगरा नहीं बनारस है, ज्यादा मस्ती का रस न लो, दो मिनट में आपका रस निकाल देंगे , इन्होने कहा डाक्टर  साहब  आप  निश्चित  रहे। धक्का  मै नही बल्कि हमारे आगे की गाड़ी  वाले हमें मार रहे है । मेरा माथा  ठनकने  लगा। आखिर आगे की मोटरसाइकिल  वाला पीछे वाले को धक्का  कैसै मार दे सकता है ? वाईक में वैक गियर  तो होती नही। अभी समझाये मुस्किल से दो मिनट न हुये होंगे कि तब तक इन्होने  एक नवयुवती की स्कूटी को पीछे से ठोक दिया, महिला थोडा  नाराज होती हुयी बोली कि चढाये हो क्या ? या सीधे आगरा से चले आ रहे हो ? चाहर साहब  बोले, " मैडम  धक्का  मै नही बल्कि  आप हमको धक्का मार रहीं है । इससे पहले कि मामला और आगे बढता, मै बीच बचाव करते हुए बोला, मैडम ये बनारस  के नही आगरा के रहने वाले है और मेरे मेहमान  है ।ना जाने क्यूं आगरा का नाम सुनकर वो महिला मंद मंद मुस्कराई और आगे जाने का रास्ता देते हुए बोली, जाने दीजिये न , बडे बडे शहरों में छोटी छोटी बातें होतीं ही रहतीं हैं। मैं तभी से सोचने लगा हूं कि आखिर आगरा के निवासी होने मे ऐसी क्या खूवी पाई थी उस महिला ने।""
हहह ये थे हमारे बुजुर्ग मित्र डा गजानंद सिंह जी यादव जो कि समाजवादी विचारक हैं। बस ऐसे ही तवी भाई मोईन भाई सज्जाद भाई संतोष भाई रवि भाई तुषार भाई प्रमोद भाई जैसे अन्य बहुत सारे मित्रों की यादों को लिये ये महापागल आगरा की ओर पृस्थान कर चला। 













No comments:

Post a Comment