Wednesday, January 4, 2017

Jaatland journey

जाटलैंड जर्नी ।।
धौलपुर से दिल्ली ।।

होलीडेज को हमेशा होली जौब्स में ही खर्च करना चाहिये, ऐसा मेरा मानना है, चाहे वो गर्मी सर्दी की हों या त्यौहारों की। घर पर पडे पडे तो शरीर को भी जंग लग जाती है और दिमाग को भी, और फिर मेरे जैसा अतिबौद्धिक खुरापाती इंसान लगातार घर में टिक जाये तो घर में भी जंग छिडने की नौबत आ जाती है, इसलिये इससे पहले कि जंग की रणभेरी बजे, निकल पडो मुहब्बत बांटने । दुनियां में बहुत लोग हैं जो पागलों से भी प्यार करते हैं, और पागलों की तरह इस महापागल के आने का इंतजार करते हैं।
ऐसे ही प्रेमी पागलों की श्रंखला में सबसे पहले मथुरा का मेरा लंगोटिया संजू आता है जो मेरे इस पागलपन ( घुमक्कडी) से सिर्फ इसलिये रष्क खाता है कि मैंने इसकी शादी कराकर घर में कैद होने पर मजबूर कर दिया, वरना पहले तो ये हमेशा यूरोप और अफ्रीका के समुद्री तटों पर ही पडा रहता था। खैर इस बार संजू को भी दिल्ली में किसी से मिलना था जो मथुरा में बिना कोई समय गंवाये हम दोनों एक ही बाईक पर हो लिये। पिछले तीस सालों की यादों में इस तरह खो गये कि दिल्ली आने का पता ही नहीं चला। लेकिन दिल्ली में घुसने के बाद जीवन की कडवी सच्चाई नजर आ गयी जहां सडकों पर हजारों गाडियां बस दौडे जा रहीं थीं, अंधी दौड, पलभर में बहूत कुछ अपना बना लेने की दौड, पलभर को कोई रुक कर दम लेने की सोचे भी तो पीछे बाला ठोक जायेगा। ये दौड कहां जाकर खत्म होगी पता सबको है, पर दौडना भी जरूरी है वरना पिछडने का खतरा जो है।
मुझे सबसे पहले गाजियाबाद पहुंचना था जहां कि  फेसबुक पर मिले मेरे परम आदरणीय भैया आनंद कृष्ण का मुझे आशीर्वाद लेना था। फेसबुक पर बहुतों को पढता हूं पर ये महाराज तो कुछ अलग ही है। दुनियां से कुछ हटकेले हैं, कुछ भटकेले हैं , और लगता था कि कुछ सटकेले भी हैं। समुंदर की सी गहराई छिपी होती है इनकी बातों में। जो बात मैं पूरे एक लेख में कह पाता हूं, ये बिहारी के चाचा बस एक ही लाईन में कह जाते हैं। आधा घंटा तो मैं अपनी खोपडी में नवरतन तेल रगडता हूं तब तो इनकी बात मेरी समधन में आती है। टीवी चैनलों के बौद्धिक संपादक हैं , आजकल खुद फिल्म्स बनाते हैं, सोच तो रहस्यवाद से परिपूर्ण होनी ही है। चाहे कुछ भी लिखवा लो, किसी भी टौपिक पर, किसी के पक्ष में, किसी के विपक्ष में, होता जानदार ही है। इतना जानदार कि बहुतों के तो ये इंसान समझ ही नहीं आया कि आखिर ऊपर बाले ने किस मिट्टी से बनाया है। लेखन में जितनी गहरायी है, व्यवहार में उतनी ही सरलता। एकदम जमीन से जुडे इंसान। और ये अकेले ही नहीं, बल्कि भाभीजी और दोनों बच्चियां भी। इस अजनबी को इतना सारा लाड प्यार अपनापन दिया है कि शब्द नहीं हैं मेरे पास। भूख नहीं थी कितुं पता चला कि भाभी ने मेरे लिये खास व्यंजन बनाया है, न चाहते हुये भी खींच गया क्यूं कि भैया मेरे इंतजार में अभी तक खाना भी न खाये थे। रात हो चली थी और मुझे अभी दो जगह और जाना था, जाना बहुत जरूरी न होता तो रातभर भैया से सरखपाई करता। चंद शब्दों में इनकी तश्वीर नहीं खींच पाऊंगा, इनकी वाल पर जाकर ही समझना होगा कि ये सबसे हटके क्यूं हैं।
इस बार दिल्ली की तरफ जाने का मेरा मुख्य मकसद था, कुछ खोये हुये रिश्तों को जोडना। मेरे एक ताऊजी विधी मंत्रालय में सचिव क्या हुये, फिर कभी गांव लौट ही नहीं पाये। दिल्ली शहर की भूलभुलैया में ऐसे खोये कि याद ही नहीं रहा कि जिंदगी तो अपनों से ही है, भौतिक सुख सुविधाओं से नहीं। तीस साल गुजर गये, बुढापे का अकेलापन खाने लगा तो अपनों की याद सताने लगी। फौन करके राजीखुशी लेते रहते। बहुत मिस करते थे हमें। अपने पास बुलाते भी थे पर ताईजी एंव बच्चों की बेरुखी की बजह से हिम्मत नहीं पडती थी जाने की। अभी कुछ दिन पूर्व ऊपरबाले का बुलावा आ गया और सारा नाम पद धन दौलत शौहरत इसी लोक में छोडकर परलोक सिधार गये। मौत से किसकी यारी है। आज उनकी तो कल मेरी बारी है। एक न दिन तो जाना ही है, तो फिर इन भौतिक वस्तुओं से अधिक  मोह क्यूं रखें ? ताऊजी तो हमें छोडकर चले ही गये पर फिर भी इस आशा में कि उनके जाने के बाद ही उनके बच्चे रिश्तों को पहचान लें, मैं घर चला गया। जैसी आशा थी मुझे किसी ने नहीं पहचाना, परिचय दिया, कुछ फिलौसफरी झाडी तो ताऊ के छोरे को बुद्धत्व प्राप्त हुआ, चलते समय एकदम शांत रहने बाला मनमोहन सिंह टाईप भैया भी बोल पडा, अपना नंबर देता जा, घर पर मिलने आऊंगा चाची चाचा से, ये खून के रिश्ते खोने नहीं चाहिये। सुनकर दिल को खुशी हुयी, आना सफल हुआ। ताऊजी की आत्मा भी खुश हो रही होगी।
गाजियाबाद में काफी रात हो चली थी लेकिन दिल्ली अभी जाग रही थी, दिल्ली मुंबई बाले तो मुझे इंसान कम निशाचर ज्यादा नजर आते हैं, न रात का पता और न दिन का। जाने माने ब्लागर संदीप जाटदेवता का बहुत बार फौन आ चुका था, रात को मुझे उन्ही के पास रुकना था। रात को पूछते पाछते उनके घर पहुंच गया, खूब सारी बातें की, ब्लाग बनाना भी सीखा, अभी भी बहुत अच्छे से नहीं आया है, दिक्कत आती है तो फौन करके पूछ लेता हूं। सुवह जब नहा धोकर अक्षरधाम मंदिर की ओर निकले जहां कि सारे घुमक्कड मितरों का जमावाडा होने बाला था, निगाह पडी कि संदीप भैया तो शहर के बीचोंबीच स्थित एक गांव में रहते हैं। यमुना तट पर स्थित गांव जहां काफी दूर दूर तक हरे भरे खेत हैं, यमुना तट पर सूर्योदय के समय घूमना निसंदेह ही बहुत अच्छा लगा। शहर की भागमभाग से कोसों दूर शांत एकांत तट और स्नान करते लोग। इस भौतिक दौड ने यमुना मैया को भी मैले कुचैले परिधानों में लपेट कर रख दिया है फिर भी हिमालयराज की कृपा से अपनी सांसे लेने का प्रयास कर ही रही है।
यमुना के तट पर कुछ पल चहलकदमी करने के बाद अक्षरधाम मंदिर पहुंचे, जहां अजय भारतीय और कमल कुमार जैसे दिलदार घुमक्कडों से होनी थी। चारों यार काफी देर गुप्तगू करने के बाद निकल पडे अपनी अपनी मंजिलों की तरफ। कमल कुमार जैसा घुमक्कड ब्लागर, फिलौसौफर और फोटोग्राफर आपके साथ हो तो सफर का आनंद दोगुना हो जाता है। कमल का जीवन दर्शन किसी किताब से पढा हुआ नहीं है बल्कि खुद के जीवन की किताब से सीखा हुआ है। करोडपति परिवार का इकलौता बेटा गूगल सर्च करने की बजाय जानबूझ कर नुक्कड पर खैनी रगड रहे हैलमेट सेलर से रास्ता पूछने के बहाने कुछ पल उससे बतियाता है, दोस्ताना लहजे में उससे नाम पूछता है, और फिर उसकी रगडी हुई खैनी भी लेता है, भले ही जेब में रजनीगंधा रखी हो, किसी मजदूर के साथ बैठ कर खैनी खाते हुये बतियाना उसे अच्छा लगता है। कमल को देखकर मुझे " ताल " फिल्म के नायक मानव की याद आ गयी जिसका भगवान हमेशा उसके दिल में रहता था, अरबपति बाप का इकलौटा बेटा भारतीय ट्रैन के जनरल डिब्बे में और गांव बालों के साथ लोकल बस की छत पर बैठ कर चंबा पहुंचा था, कहता था भारत को इसी तरह जाना जा सकता है। कमल का ये दर्शन अपने पिता एवं ताऊ जी को खोने के बाद प्राप्त हुआ है।बुजुर्ग मां का बेटा बस जीना चाहता है एक खुशहाल जिंदगी और अपनी मां को हमेशा खुश रखना चाहता है। पैसे को मिट्टी के मोल समझता है, मन की खुशी को सबसे बडी दौलत। खैर कमल कुछ कुछ मेरे जैसे खयालातों का है, साथ घूमने में बहुत मजा आया। सबसे पहले निजामुद्दीन दरगाह ,फिर इंडियागेट, राष्ट्रपति भवन, संसद घूमते घामते कुतुबमीनार गये और फिर जेएनयू। पिछले दिनों  जेएनयू में हुये उपद्रव से इतना अतंर आ गया है कि उसी विवि का पूर्व छात्र कमल भी अदंर जाने में सफल नहीं हुआ। हमें बाहर से ही लौटना पडा। कुल मिलाकर सारा दिन दिल्ली की सडकों पर दौडते रहे और रात होते ही कमल के फ्लैट पर पहुंच गये जहां कि हमारा एक और घुमक्कड वीर बीनू कुकरेती हमें ज्वाईन करने आ रहा था। बीनू भाई उत्तराखंडी घुमक्कड है इसलिये मैं उसे पहाडों का राजा कहता हूं। कमल की मम्मी बनारस थी, घर पर हम तीन बिल्कुल अकेले थे इसलिये सारी रात पार्टी चलती रही। एक दूसरे को जिंदगी के तराने सुनाते रहे।

जारी है.........

10 comments:

  1. वाह मास्टर जी...
    एक अलग ही प्रवाह है आपकी लेखनी मे...
    लिखते रहिये...
    बहुतों को एक अलग स्वाद मिलेगा।
    हार्दिक शुभकामनाए।

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  2. वाह मास्टर जी...
    एक अलग ही प्रवाह है आपकी लेखनी मे...
    लिखते रहिये...
    बहुतों को एक अलग स्वाद मिलेगा।
    हार्दिक शुभकामनाए।

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  3. गुरुदेव, जबरदस्त तरीके से अपने विचारों को व्यक्त करते हो। मैं कमल भाई के साथ कई यात्रा करके आया हूँ। आगे आपके व उनके साथ यात्राएँ होती रहेगी।
    एक जैसे विचारों के साथी, एक जगह जुडते है तो समय कैसे कटता है पता ही लग पाता है।

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    1. जी हां भाई जी बिल्कुल , बहुत मजा आता है।

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    2. मास्टर जी ने मुझे

      फोटू से बाहर निकाल दिया.. ����

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  4. बहुत गजब गुरुदेव

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  5. कमल सिंह के साथ ओरछा में थोड़ी घुमक्कड़ी की और एक दिन साथ मौज मस्ती करने का वक़्त मिला था.. और झाँसी से आगरा तक उनके साथ ट्रेन में भी यात्रा की ... जितने जिंदादिल इंसान हैं उतने ही अच्छे मित्र भी हैं .. मेरी उनसे पहली मुलाक़ात रही और उनसे फिर से मिलने की हमेशा तमन्ना रहेगी ...शायद डेल्ही में या राजस्थान में फिर मुलाकात हो ..

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