Thursday, January 5, 2017

Jaatland journey : दिल्ली से हरियाणा

दिल्ली से हरियाणा ।।
(झज्जर, सिलानी सिलाना, बलाली कलाली, चरखीदादरी, कालूबास, भिवानी)
दिल्ली के घुमक्कड मित्रों से मिलने के बाद मैं निकल पडा जाटलैंड मतलब हरियाणा और शेखावाटी की तरफ जहां मुझे जानना था कि इतिहास के वीर नायकों की आज क्या स्थिति है। भले ही जाट खुद को शिव की जटा से उत्पन्न वीरभद्र की संतान बता कर गौरवान्वित मेहसूस करे लेकिन अगर गौर से देखा जाय तो शिवजी की पहली पत्नि सती के पिता शक्तिशाली राजा दक्ष के यज्ञ को नष्ट करने और चारों ओर हाहाकार मचाने बाले योद्धा प्रथम जाट वीरभद्र के माध्यम से भी साहित्यकारों ने उसे केवल एक आक्मणकारी नायक बताने की ही कोशिष की है जो कि इतिहास में वर्णित हूण उत्पत्ति को सही ठहराती है। उत्पत्ति में भले मतभेद हों पर ये निश्चित है कि जाट एक आक्मणकारी जाति थी जो कालांतर में सपतसैंधव क्षेत्र में दिल्ली के चारों ओर बस गयी थी। सिंधु नदी के इस पार पंजाब हरियाणा और दिल्ली के निकटवर्ती यूपी में बस गयी थी, फौज में लडने के अलावा खेती एवं पशुपालन करके गुजारा करने लगी थी। तात्कालिक परिस्थितिबस जाटों ने हिंदू धर्म, सिख धर्म और इस्लाम भी अपना लिया। देश की अस्मिता खतरे में देख पंजाब के जाट गुरु के शिष्य / सिख बन गये तो सिंध पार के मुस्लिम बन गये जबकि दिल्ली के समीपवर्ती कट्टर हिंदू बन गये। धर्म चाहे कोई रहा हो , काम तब से लेकर आज तक वही रहे हैं, रक्षा, खेती और पशुपालन। मुझे जानना था कि देश के सबसे उपजाऊ क्षेत्र पर राज करने का फायदा अधिक हुआ या नुकसान अधिक हुआ क्यूं कि इतिहास गवाह है कि सिकंदर से लेकर अब्दाली तक बाहरी आक्रमणकारियों का कहर सबसे ज्यादा इस उपजाऊ जमीन के निवासियों पर ही वरपा है। सन सैंतालीस का बंटबारा भी जट्टों ने ही झेला है। देखना ये है कि इन विपरीत परिस्थितियों ने जाटों को कुछ बनाया है या बरबाद किया है । शेखावाटी के जाटों ने बहुत जुल्म झेला है जमींदारों और तात्कालिक राजाओं का, लेकिन सुखद पहलू ये है कि शेखावाटी के हर घर से आज IAS/IPS निकल रहे हैं।
इसे कहते हैं Sweet r the uses of Adversity. मतलब बुरे दिनों में भी एक अच्छाई छुपी होती है।
दिल्ली से निकलकर मूंडका में अनवर भाई के यहां ब्रेकफास्ट लेकर जल्दी से झज्जर के लिये रवाना हो गया जहां कि मेरे फेसबुक मित्र डा. पवन राज्याण मेरे इंतजार में खडे थे कि जल्दी जल्दी मुझे झज्जर का शहीद पार्क घुमा सकें जहां कि 1857 की क्रांति के नायकों की वीरता के किस्से दफन थे। 1857 की जंगे-आज़ादी का बिगुल बजते ही झज्जर के नवाब अब्दुर्रहमान ख़ां ने भी अपने देश को गुलामी की जंजीरों से आजाद कराने के लिए तलवार उठा ली। उनकी अगुवाई में झज्जर की जनता भी इस समर में कूद पडी लेकिन क्रांति असफल हुई और 23 दिसंबर 1857 को हरियाणा में क्रांति की अलख जगाने वाले क्रांतिकारी नवाब अब्दुर्रहमान ख़ां को दिल्ली के लाल किले के सामने चांदनी चौक पर सरेआम फांसी दे दी गई। आजादी का वह परवाना हंसते-हंसते शहीद हो गया। अंग्रेजों ने मरने के बाद भी नवाब की लाश के साथ निहायत ही वहशियाना सलूक किया। नवाब की लाश दफनाने के बजाय गङ्ढे में फेंक दिया गया, जहां उसे जानवरों और चील-कव्वों ने नोचा। इससे ज्यादा दुख की बात और क्या होगी कि इस स्वतंत्रता सेनानी को कफन तक नसीब नहीं हुआ। नवाब अब्दुर्रहमान ख़ां के कुशल प्रबंधन के साथ-साथ इमारतें और तालाब बनवाने में भी ख़ासी दिलचस्पी ली। उन्होंने अनेक इमारतें तामीर कर्राईं। झज्जर में बेगम महल, झज्जर की जामा मस्जिद का मुख्य द्वार, गांव छूछकवास में महल और तालाब, दादरी में इला और किले के अंदर ख़ूबसूरत इमारतों का निर्माण करवाया। मुगल और भारतीय शैली में बनी ये इमारतें प्राचीन कलात्मक कारीगरी के नायाब नमूनों के रूप में विख्यात हैं।
दिल्ली से लगभग 65 किमी. की दूरी पर स्थित झज्जर बहुत सुन्दर पर्यटन स्‍थल है जिसकी स्थापना छज्जु नाम के एक जाट ने की थी जिसके नाम पर यह झोझू फिर झज्जर हो गया। बहादुरगढ़ की स्थापना राठी जाटों ने की थी। पहले बहादुरगढ़ को सर्राफाबाद के नाम से जाना जाता था। बेरी में महाभारतकाल का भीमेश्वरी देवी का प्रसिद्ध मन्दिर है। इस मन्दिर में पूजा करने के लिए देश-विदेश से पर्यटक प्रतिवर्ष आते हैं। रोहतक भी नजदीक ही है। मन्दिरों के अलावा पर्यटक यहां पर भिंडावास पक्षी अभ्यारण घूमने भी जाते हैं। भिंडावास पक्षी अभ्यारण झज्जर से 15 कि॰मी॰ की दूरी पर है जिस में 250 से अधिक प्रजातियों के पक्षियों को देखा जा सकता है। इन पक्षियों में स्थानीय और प्रवासी दोनों होते हैं। यहां पर एक झील का निर्माण भी किया गया है। यह झील बहुत सुन्दर है। पर्यटक इस झील के किनारे सैर का आनंद ले सकते हैं और इसके खूबसूरत दृश्यों को कैमरे में कैद भी कर सकते हैं। यह अभ्यारण लगभग 1074 एकड़ में फैला हुआ है।
झज्‍जर में स्थित बुआ का गुम्बद बहुत खूबसूरत है। इसका निर्माण मुस्तफा कलोल की बेटी बुआ ने कराया था। उन्होंने इसका निर्माण अपने प्रेमी की याद में कराया था। गुम्बद के पास ही एक तालाब का निर्माण भी किया गया है। वह दोनों इसी तालाब के पास मिलते थे। झज्जर नगर के उत्तरी किनारे पर सात मकबरे और एक मस्जिद एक ही पंक्ति में मौजूद हैं। इन्हीं से सटा हुआ है 20 फुट गहरा बुआ वाला सरोवर, जो लगभग चार सौ वर्ष पुराना बताया जाता है। बुआ ने उसकी स्मृति में सरोवर तो पक्का करवाया ही, यहां पर हसन का मकबरा भी बनवाया। दो वर्ष बाद बुआ भी संसार छोड़ गई, तो उसे भी यहां दफनाया गया। सरोवर को पक्का करने के लिए चूना-पत्थर की शिलाओं तथा लाखौरी ईंटों का जिस प्रकार प्रयोग किया गया है, वह कारीगरी की अद्भुत मिसाल है। सरोवर की चारदीवारी नीचे से 5-6 फुट चौड़ी है तो ऊपर से चार फुट ऊंची। आठ लाख घन फुट जल-भराव क्षमता वाले सरोवर की चारों दीवारें समान रूप से दो सौ फुट लम्बी हैं। इस चौकोर सरोवर की दक्षिणी, उत्तरी तथा पश्चिमी दीवारों में घाट हैं। पूर्वी दीवार में कोई घाट नहीं है। वर्षा जल को ग्रहण करने हेतु चार फुट व्यास का खाल निर्मित हुआ। इसके मुहाने पर झरना निर्मित हुआ है। दक्षिण तथा पूर्वी दिशा के पंद्रह फुट चौड़े घाटों में बीसियों पैडिय़ां भी निर्मित की गई हैं। उत्तरी दीवार में निर्मित दो घाट श्रद्धालुओं की दैनिक आवश्यकताओं के पूरक हैं। उत्तरी दीवार का एक घाट सीधा-ढलुआ है, जो सीधे जल-तल तक ले जाता है। दूसरा घाट महिलाओं के प्रयोग के लिए निर्मित हुआ, जिसमें पंद्रह फुट लंबी तथा छह फुट चौड़ी बारादरी है। बारादरी की मेहराबदार छत तथा दीवारों पर निर्मित और अब लुप्तप्राय: चित्र कलात्मक चिंतन के द्योतक  हैं। बुआ वाले सरोवर की उत्तरी दीवार में बने घाटों की बगल में सौ फुट लंबा ‘घोड़ा घाट’ इस प्रकार निर्मित हुआ कि अश्वारोही घोड़े से उतरे बिना ही जल तक पहुंच सकें। घाट का  अंतिम छोर बीस फुट गहरा है। सभी घाटों की ‘जेह’ के बुर्ज लाखौरी ईंटों तथा चूने से निर्मित अष्टïकोण आकार के हैं। सरोवर के निर्माण में प्रयुक्त विशाल शिलाओं को जोडऩे के लिए मुगल वास्तुशिल्प की अद्भुत देन ‘अवलेह’ (विशेष मिश्रण) को अपनाया गया। बुआ वाले सरोवर की विशेष पहचान इसके केन्द्र में निर्मित अष्टïकोणीय स्तम्भ हैं। चौकोर आधार वाले स्तम्भ का शिखर वृत्ताकार है, परन्तु बीच के चार खड़े अष्टïकोणीय हैं। स्तम्भ एक ओर सौन्दर्य में वृद्धि करता है तो दूसरी ओर यह जलस्तर मापने के उपकरण का दायित्व भी निभाता है। मध्यप्रदेश के विख्यात सरोवरों में ऐसे स्तम्भों की परम्परा बताई जाती है।
इन्हें ‘नागयष्टिï स्तम्भ’ की संज्ञा प्राप्त थी। स्तम्भ की विशेषता के कारण ही बुआ वाले सरोवर को हरियाणा के सरोवरों में अद्वितीय कहा गया है।
कलालों के मकबरे अपने आप में एक इतिहास व शासनकाल की अमिट धरोहर अपने आप अपने में समेटे हुए है। झज्जर क्षेत्र का महत्व तब और ज्यादा बढ़ गया जब The Rising: Ballad of Mangal Pandey फिल्म की शूटिंग के दौरान अभिनेता आमिर खान ने यहां 1857 की क्रांति की योजना वाले अहम सीन को कलालों के मकबरे में फिल्माया।
 करीब 381 वर्ष पूर्व झज्जर से सिलानी क्षेत्र के बीच में मुस्तफा की बेटी बुआ और एक लकड़हारे हसन के बीच बढ़ी प्यार के पीघें की अपने मुकाम पर पहुचने से पहले ही अन्य प्रेम कथाओं की तरह दम तोड़ गई। दोनों के बीच के प्यार की पींघ बढ़ने की दस्तक वर्ष 1635 की एक शाम से हुई जब 16 वर्षीय बुआ अपने सफेद घोड़े पर सवार होकर घर से निकली थी। बताते है कि सूरज पश्चिम की ओर बढ़ रहा था और बुआ का घोड़ा गति पकड़ था। इसी बीच झाड़ियों में हुई एकाएक आहट को सुनकर बुआ का घोड़ा सन्न होकर रुक गया। इससे पहले की बुआ कुछ समझ पाती, घोड़े ने अपने आगे के दोनों पैर उपर उठा लिए। बगैर किसी घबराहट के बुआ ने अपनी कमान से तीर को निकालते हुए धनुष पर चढ़ाया ही था, कि सामने से एक शेर झाड़ियों से निकला और उसने बुआ पर हमला बोल दिया। शेर द्वारा किए गए हमले में बुआ को काफी चोंटे आई। बुआ द्वारा किए गए शोर को सुनकर उस दौरान वहा लकड़िया काट रहा एक जवान हसन आ पहुचा। जिसने अपनी हिम्मत का परिचय देते हुए शेर को मौत के घाट उतार दिया। घायल बुआ को वह वहा से उठाकर एक तालाब के पास लेकर जा बैठा। बताते है कि जब बुआ को होश आया तो चादनी रात में हसन बुआ के नजदीक था। बस यहीं से दोनों में प्यार की शुरुआत हुई। अगले दिन हसन की वापसी के समय में जब उसके परिवार ने उसकी इस मदद की एवज में इच्छा पूछी तो हसन ने बुआ का हाथ मागते हुए उसे अपना जीवन साथी बनाने की बात कही। कुछ दिनों के बाद,  मुस्तफा ने हसन को बुलाकर उसे राजा की सेना में भर्ती होने के लिए कहा और उसे युद्ध में सेना के साथ भेज दिया जहां उसकी मृत्यु हो गई। जब बुआ को इस दर्दनाक घटना की जानकारी मिली तो वह सदमें में आ गई। उसने अपने प्रेमी हसन को उसी तालाब के पास ही दफनाया, जहा वे अक्सर मिला करते थे। बुआ ने अपने प्रेमी की याद में एक कब्र का निर्माण भी करवाया। बुआ को भी हसन की कब्र के साथ ही दफनाया गया ताकि वे दोनों इस जहा में तो बेशक नहीं मिल पाए लेकिन दूसरे जहां में आपस में जरुर मिल सके।
नयी साल के पहले ही दिन मैं कोहरे और कडकडाती ठंड को हराता हुआ लगभग नौ बजे झज्जर के शहीद पार्क पर रुका जहां कि पहले से ही डा. पवन जी खडे हुये थे, दर असल पवन जी को जरूरी औपरेशन के लिये निकलना था अतः ज्यादा समय नहीं दे पाये फिर भी जल्दी जल्दी मुझे बुआ के तालाब और मकबरों को घुमा लाये और तीन किमी दूर गुरूकुल तक छोड आये।
झज्‍जर से मात्र तीन किमी पर एक आर्य गुरुकुल है जिसमें  पर्यटक संग्रहालय देख सकते हैं। यह हरियाणा का सबसे बड़ा संग्रहालय है। इसका निर्माण 1959 ई. में किया गया था। संग्रहालय के निर्देशक स्वामी ओमानंद सरस्वती ने पूरे विश्व से वस्तुएं एकत्र करके संग्रहित की हैं। उन्हीं के कठिन परिश्रम के फलस्वरूप पर्यटक यहां पर रोमन, यूनानी, गुप्त, पाल, चोल, गुजर, प्रतिहार, चौहान, खिलजी, तुगलक, लेड़ही और बहमनी वंश के सिक्के व कलाकृतियां देख सकते हैं। इसके अलावा यहां पर नेपाल, भूटान, श्रीलंका, चीन, पाकिस्तान, जापान, थाईलैंड, बर्मा, रूस, कनाडा, आस्ट्रेलिया, फ्रांस और इंग्लैंड आदि देशों की मुद्राएं भी देखी जा सकती हैं।
गुरुकुल के संस्कार देखकर बहुत खुशी हुई, धोती कुर्ते पहना हुआ जो भी छात्र आता नमस्ते के अभिवादन के साथ पैर छूता। उस समय भोजन का समय था, एक बडे हौल में सभी बच्चे पंक्तिवद्ध आलती पालती मार बैठ कर भोजन ग्रहण करने की तैयारी में थे। आचार्य महोदय ने मुझसे खाने की काफी जिद की लेकिन मेरी भूख तो बच्चों के सनातनी संस्कारों को ही देखकर खत्म हो चली थी। खाने के बाद बच्चों ने अपने बर्तन खुद ही साफ किये और भोजन कक्ष में सफाई भी की। भोजन कक्ष के बाद भवन के बैकसाईड में गया जहां एक मंदिर, यज्ञशाला और एक अखाडा भी था। शहर से दूर हरे भरे खेतों के बीच शांतिप्रिय शिक्षा का स्थान देखकर आत्मा तृप्त हुई।
चूंकि मुझे झज्जर के किसानों से मिलना था, पता चला कि गुरुकुल के नजदीक ही चाहर गोत्र के सोलह गांवो की एक खाप है जिसके प्रधान ठाकुर रिसपाल सिंह जी हैं, मिलने के लिये सिलानी गांव चला गया।

यात्रा जारी है ......







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