Tuesday, November 8, 2016

My bike tour of Nepal part 8

काठमांडू से जनकपुर
27 अक्टूवर 2016
काठमांडू से शाम को पांच बजे निकला था इस बजह से शिवजी की मूर्ति के दर्शन न कर पाया था जिसके बारे में बताया गया था कि पंचमुखी लिगं है, लेकिन धुलिखेल में रात बिताने के बाद अगली सुवह जैसे ही जनकपुर के लिये रवाना हुआ, मुझे हर मोड पर शिवजी के दर्शन हुये। इतनी प्राकृतिक सुंदरता शायद ही मैंने कभी देखी हो। धूलिखेल के तुरंत बाद ही घना पहाडी जंगल और उसमें बल खाती सडकें शुरू हो गयीं। थोडी थोडी देर बाद ही किसी न किसी नदी का साथ मिल जाता।
धूलिखेल से अमले होते हुये बर्दीवाश तक का रास्ता मैं जिदंगी भर न भूल पाऊंगा। इतनी खूबसूरती तो स्विसलेंड में भी न होगी। ऊंचे ऊंचे पहाड और बलखाती सर्पिलाकार सडकें और नीचें बहती नीली नीली नदी। हाय रे मैं तो स्वर्ग में आ गया था। लोग शिवजी को बहां मंदिर में ढूंड रहे थे जबकि वो तो यहां थे मेरे पास। गजब ।
सोचा तो ये था कि धूलिखेल से जनकपुर का दौ सौ किमी का रास्ता बारह बजे तक तय कर शाम को जनकपुर घूम लूंगा लेकिन उन खूबसूरत बादियों में दिल ऐसा अटका कि हर मोड पर गाडी खडी करता और वीडियो बनाता। अमले के पास ही नदी तक पहुंचने का रास्ता मिल गया तो नदी पर ही कपडे धोने और स्नान करने का कार्य भी कर लिया। इस बीच शायद ही कोई जगह हो जिसे देखकर दिल से वाह वाह न निकली हो। अब जब भी कभी नेपाल जाना होगा मैं जनकपुर होते ही जाना पसंद करूंगा।
बर्दीवाश पहुंचते पहुंचते शाम के पांच बजे चले थे। भूख भी जोरों से लगी थी। गौर किया तो आसपास का बातावरण देख लगा कि मैं भारत में आ चुका हूं। दर असल बर्दीबास भारतीय सीमा से नजदीकी होने के कारण यहां की बोली भाषा लोग खानपान कपडे आदि का रहन सहन सब कुछ भारतीय ही है। सबसे पहले तो सब्जी से दो लिट्टी खींची जिसे थोडी शक्ति सी आयी। लिट्टी चोखा बहुत कम जगह पर ही मिलता है। ज्यादातर जगह पर तो आलू की सब्जी ही पेलते हैं लिट्टी के साथ। काठमांडू और पोखरा में पान खाने को तरस गया मैं। बर्दीबास में चौराहे पर ही पान की दुकान देख दिल खुश हो गया। डौन बाले अमिताभ " विजय " बाली फीलिगं आयी थी जब उसे मुद्दतों के बाद गंगा तटीय पुरबियों ने पान खिलाया था। पान बनाने की स्टाईल भी अलग अलग शहरों जैसे बर्दीबास जनकपुर सीतामढी मुजफ्फरपुर पटना आरा बनारस इलाहाबाद के साथ बदलती जाती है। मिथिलांचल का पान सबसे बेहतरीन है।
बर्दीबास से जनकपुर के लिये सीधे हाईवे जाता है।
जनकपुर सच में अच्छी जगह है। कुदरत ने भरपुर आशीर्वाद दिया है वो बात अलग है कि इंसानों ने उसकी कद्र नहीं की।
यदि मैं कहूं कि जनकपुर या मिथिलांचल जलाशयों, नदियों और हरियाली बाला क्षेत्र है तो अतिशयोक्ति न होगी। जनकपुर शहर में ही ढेर सारे बडे बडे सरोवर हैं। लेकिन शहर को देखकर निराशा ही हाथ लगी। जनकपुर में नेपाल जैसी सफाई नहीं है। मुझे तो वो पूरी तरह बिहारी क्षेत्र नजर आया। वही भाषा, वही खानपान, वही रहन सहन और वही गंदगी। जनकपुर के तालाबों की कोई केयर नहीं है । घाट के चारों तरफ गंदगी के ढेर लगे हैं। संकरे और गंदे धूलयुक्त रोड भी शहर की दुर्दशा बयां कर रहे हैं।
सीताजी का महल जानकी मंदिर यदि आज हिन्दुओं की बजाय सिखों या ईसाईयों के पास होता तो दुल्हन की तरह चमक रहा होता। इतनी सफाई होती कि जूते पहन कर अदंर घुसने का मन तक न करता। हिंदू मंदिरों में बैठे लुटेरों के बराबर शायद ही किसी धर्म में इतना चडावा आता हो पर पता नहीं क्यूं मंदिरों के रखरखाव और स्वच्छ मैनेजमेंट के नाम पर इन पर बिजली गिर जाती है। जानकी मंदिर बांउड्रीवाल के अदंर ही लोगों ने दुकानें लगा रखी हैं जो बहां गंदगी फैला रहे हैं। मंदिर के अदंर भी विशेष सफाई नजर नहीं आयी। पंडो का सारा ध्यान तो बस चढावे पर ही रहता है।
सरकार ने मंदिर की सुरक्षा के लिये तीन फौजी तैनात कर रखे हैं।
इसमें कोई शक नहीं कि जानकी महल बहुत ही भव्य और विशाल है। धीमी धीमी आवाज में गूंजती हुई रामधुन सुवह ही सुवह कानों में अमृत घोल देती है। शाम को हजारों की संख्या में श्रद्धालु आरती में शामिल होते हैं। मंदिर में न केवल श्री राम और जानकी हैं बल्कि उनके अन्य तीनों भ्राता भी सपत्नीक विराजमान हैं। हालांकि यह मंदिर देवी सीता को ही समर्पित है। मन्दिर की वास्तु हिन्दू-राजपूत वास्तुकला है। यह नेपाल में सबसे महत्त्वपूर्ण राजपूत स्थापत्य शैली का उदाहरण है। यह स्थल जनकपुरधाम भी कहलाता है।
प्राप्त जानकारी के अनुसार यह मन्दिर 4860 वर्ग फ़ीट क्षेत्र में निर्मित विस्तृत है और इसका निर्माण 1895 में आरंभ होकर 1911 में पूर्ण हुआ था।
मन्दिर परिसर के आसपास 115 सरोवर एवं कुण्ड हैं, जिनमें गंगासागर, परशुराम कुण्ड एवं धनुष-सागर अत्याधिक पवित्र कहे जाते हैं।
इस मन्दिर का निर्माण मध्य भारत के टीकमगढ़ की रानी वृषभानु कुमारी के द्वारा 1911 ईसवी में पूर्ण करवाया गया था। इसकी तत्कालीन लागत नौ लाख रुपये थी। स्थानीय लोग इस कारण से ही इसे नौलखा मन्दिर भी कह दिया करते हैं।
1647 में देवी सीता की स्वर्ण प्रतिमा यहां मिली थी और कहते हैं इस स्थान की खोज एक सन्यासी शुरकिशोरदास ने की थी जब उन्हें यहां सीता माता की प्रतिमा मिली थी। असल में शुरकिशोरदास ही आधुनिक जनकपुर के संस्थापक भी थे। इन्हीं संत ने सीता उपासना (जिसे सीता उपनिषद भी कहते हैं) का ज्ञान दिया था। मान्यता अनुसार राजा जनक ने इसी स्थान पर शिव-धनुष के लिये तप किया था।
जनकपुर में जानकी मंदिर के निकट ही राम मंदिर भी बना है। काफी प्राचीन और सुंदर मंदिर है कितुं जनकमहल की अपेक्षा काफी छोटा है। राममंदिर के ठीक सामने बना तालाब इसकी सुंदरता में और इजाफा करता है जिसके दूसरी ओर भूतनाथ मंदिर एवं अन्य देवी देवताओं के मंदिर हैं।
जनकपुर के लोग बहुत धार्मिक और सहयोगी प्रवृति के हैं। मिलनसार भी हैं। रात को पहुंचते पहुंचते देरी हो चली थी इसलिये थोडी बहुत देर जानकी मंदिर में घूमने के बाद नजदीक ही पागलबाबा धर्मशाला चला गया था जहां मात्र तीन सौ नेपाली में काफी बडा रुम मिल गया था। लेकिन सुवह ही जल्दी नहा धोकर सभी मंदिर और शहर देखने निकल पडा। पूरा शहर बस दो घंटे में ही नाप डाला। तभी एक सज्जन ने मुझे धनुषा धाम के बारे में जानकारी दी कि सीता के धनुष का एक टुकडा आज भी बहां सुरक्षित है। जनकपुर घूमने के बाद में धनुषा धाम जाने की इच्छा हुई जो जनकपुर से मात्र सत्रह किमी दूर एक गांव में है। धनुषा धाम जाते हुये रास्ते में आस पास ढेर सारे तालाब और हरे भरे खेत एवं पेड पौधे देख मन भी हरा हो गया। निसंदेह प्रकृति का पूरा आशीर्वाद है मिथालांचल पर। रास्ते में कुछ पुलिसकर्मी भी मिले जिन्हौने मेरे कागजात चैक कर ही मुझे आगे बढने दिया। नेपाल की पुलिस तो वाकई बहुत कर्तव्यनिष्ठ है। पग पग पर कानून का सख्त पहरा है। सख्त है तो सेवाभावी भी है।
धनुषाधाम से दो तीन किमी पहले ही एक विशाल सरोवर मिला जिसके बीचों बीच एक कमल पर शेषनाग बने हुये हैं। हालांकि तालाब पूरी तरह सुनसान जगह पर है पर हरे भरे पेडों से घिरे होने एवं सुंदर कमल के फूलों से भरे होने के कारण बहुत ही रमणीक स्थल बन पडा है। मुझे भीडभाड बाले मंदिरों की बजाय ऐसे स्थान कुछ ज्यादा ही पंसद आते हैं। तालाब पर थोडा देर विराम के बाद धनुषा धाम पहुंचा पर जैसा सुना था बैसा मिला नहीं। मैं सोचा कि कोई धातु का टुकडा संरक्षित रखा होगा लेकिन धनुषाधाम मंदिर में एक प्राचीन वटबृक्ष की जडों से निकलता हुआ प्रवाल टाईप का कोई पत्थर है जो जमीन से फूट रहा है और निरंतर बढता ही जा रहा है। स्थानीय लोग इस पथरीले तत्व को ही धनुषा कहते हैं। बहां पूजा कर रहे पंडिज्जी भी इसकी कहानी कुछ यूं सुनाते हैं कि धनुष के तीन टुकडे हुये जिसमें एक आकाश में गया और एक पाताल में और तीसरा यहां गिरा जो साल दर साल बढता ही जा रहा है।
खैर लोगों की आस्था और पंडो की दुकानदारी पर ज्यादा तर्क करना बेकार है। खामखा गाली खाने से क्या फायदा । हम तो चलते हैं अब बापस जनकपुर बौर्डर की ओर । दस दिन हो गये घर की याद भी आने लगी है। दो दिन बाद दीपावली भी है। त्यौहार पर घर के सदस्य पूरे न हों तो त्यौहार का उल्लास ही रह जाता।
जनकपुर से बौर्डर तक का रास्ता और बौर्डर से सीतामढी तक रास्ता तो इतना खराब था कि सारा मूड ही खराब हो गया। फिर भी जैसे तैसे दस बीस किमी का वो सफर भी पूरा कर ही लिया। बौर्डर पर किसी ने नहीं रोका। मैंने खुद ही कागज चैक कराये और नेपाली सैनिकों को धन्यवाद देकर भारत में प्रवेश कर लिया जहां भारतीय बीएसएफ
के जवानों ने खूब मजाक की। एक जवान तो यहां तक बोला कि सरकार मास्टर इतनी दूर सैरसपाटे के लिये तो नहीं आ सकता । कहीं ऐसा तो नहीं कि राजस्थान की अफीम यहां निकालने आये हों। मैं भी मजाक को मजाक में ही टाल गया क्यूं कि यदि मैं पलट कर कह देता कि ये काम तो बीएसएफ  बाले ज्यादा अच्छा करते हैं तो शायद उनको बुरा लग जाता। खैर सैनिक हमारे देश का गौरव हैं और मैं उनका तहेदिल से सम्मान करता हूं। उनसे हाथ मिलाया। साथ फोटो भी खिंचाया और निकल लिया सीतामढी होते हुये पटना की ओर।

Thursday, November 3, 2016

My bike tour of Nepal part 7

पशुपतिनाथ मंदिर से जनकपुर की ओर ।।
26 अक्टूवर 2016

नेपाल यात्रा का सबसे बडा आकर्षण है पशुपतिनाथ मंदिर। पशुपतिनाथ मंदिर काठमांडू के तीन किलोमीटर उत्तर-पश्चिम देवपाटन गांव में बागमती नदी के किनारे पर स्थित है। नेपाल के एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनने से पहले यह मंदिर राष्ट्रीय देवता, भगवान पशुपतिनाथ का मुख्य निवास माना जाता था।
यह मंदिर यूनेस्को विश्व सांस्कृतिक विरासत स्थल की सूची में सूचीबद्ध है। पशुपतिनाथ में  सिर्फ हिंदुओं को मंदिर परिसर में प्रवेश करने की अनुमति है। गैर हिंदू आगंतुकों बागमती नदी के दूसरे किनारे से इसे बाहर से देख सकते हैं।  यह मंदिर नेपाल में शिव का सबसे पवित्र मंदिर माना जाता है। मिली हुई जानकारी के अनुसार 15 वीं सदी के राजा प्रताप मल्ल से शुरु हुई परंपरा कि मंदिर में चार पुजारी (भट्ट) और एक मुख्य पुजारी (मूल-भट्ट) दक्षिण भारत के ब्राह्मणों में से रखे जाते हैं। पशुपतिनाथमें शिवरात्रि त्योहार विशेष महत्व के साथ मनाया जाता है।
किंवदंतियों के अनुसार इस मंदिर का निर्माण सोमदेव राजवंश के पशुप्रेक्ष ने तीसरी सदी ईसा पूर्व में कराया था किंतु उपलब्ध ऐतिहासिक रिकॉर्ड 13वीं शताब्दी के ही हैं। इस मंदिर की कई नकलों का भी निर्माण हुआ है जिनमें भक्तपुर (1480), ललितपुर (1566) और बनारस (19वीं शताब्दी के प्रारंभ में) शामिल हैं। मूल मंदिर कई बार नष्ट हुआ। इसे वर्तमान स्वरूप नरेश भूपलेंद्र मल्ला ने 1697 में प्रदान किया।
ऐसे तो लाखों लोग धार्मिक आस्था के बशीभूत पशुपतिनाथ जी के दर्शन मात्र काठमांडू जाते हैं पर मेरे जैसे घुमक्कड आस्था के लिये कम जिज्ञासा के लिये अधिक जाते हैं। बुद्ध जैसे धर्म सुधारक के देश में लोगों ने किस तरह धर्म और अध्यात्म का संयोजन किया हुआ है, यही मेरी सबसे बडी जिज्ञासा थी। बहां जाकर पता चला कि लोगों ने बुद्ध को भी उसी धर्म का एक भाग बना रखा है। " Oh My God " में कांजी भाई, परेश रावल, से एक धर्मगुरु , मिथुन, ने अतं में सच ही कहा था," ये गौड लविगं पीपुल नहीं बल्कि गौड फियरिगं पीपुल हैं। तुम इनसे इनका भगवान छीनोगे तो ये लोग तुम्हें ही अपना नया भगवान बना देंगे।" धर्म विद्रोही/ सुधारक बुद्ध को भी भगवान बुद्ध बना दिया गया और आज अन्य भगवानों के साथ उन्हें भी पूजा जा रहा है जबकि बुद्ध तो नास्तिक थे।
खैर हमें क्या, हम तो ये सब लीलायें देखने निकले हैं। देखेंगे और दुनियां को बतायेंगे। पशुपतिनाथ जी मतलब शिवजी के बारे में यहां जो भी कथायें कहानियां हैं, मैं उनसे कभी सहमत न हो पाऊगां क्यूं कि मेरा मानना है कि प्रकृति पूजक सनातन की शक्ल इन्हीं काल्पनिक कथाओं ने ही बिगाडी है। मेरा मानना है कि शिव और शक्ति, अर्धनारीश्वर, के सैकडों रूप हैं। वो कोई तुच्छ मानव नहीं जिसे हम एक मूर्ति बनाकर इतिश्री कर लें। परमपिता परमेश्वर शिव तो संपूर्ण संसार को बनाने और मिटाने बाली एक रहस्यमयी शक्ति है जिसका न कोई आदि है और न कोई अतं। वो तो अनंत है। वो हर जगह मौजूद है। नदी के जल में, पेड पौधों में, पशुओं में यहां तक कि सृष्टि के हर जीव में मौजूद है। उसका एक रूप पशुपालक भी है। उसी पशुपालक स्वरुप की प्रतिमा एवं नंदी की विशाल मूर्ति यहां मंदिर में स्थित है। पीतल धातु से बने नंदी / बैल मंदिर के मुख्य द्वार पर ही विराजमान हैं जिसका मुख मंदिर में रखी शिवलिगं की ओर है। चूंकि यह सृष्टि लिंग और योनि की बदौलत ही है अत; शिव का एक रुप यह भी है। इस बात को कि हम सब हमारे माता पिता ने कैसे पैदा किया है, जानते हैं लेकिन पर्दे में रखते हैं लेकिन सनातन ने इससे भी पर्दा हटा दिया है और उस लिंग और योनि जिसकी बदौलत हमारा बजूद है, को भी पूज्य बना दिया। सनातनी प्राचीन पंडितो ने कभी भी नग्नता को गंदगी नहीं माना क्यूंकि नग्नता सच बोलती है, प्राकृतिक भी है जबकि कपडे का आवरण मानव मन के भावों को छुपाने का एक साधन।
लेकिन पशुपतिनाथ मंदिर में लगा बोर्ड, "केवल हिन्दुओं के लिये" भी मुझे सनातनी परंपरा और नियम के विरुद्ध लगा। सनातन परपंरा सबको आत्मसात करने और सबको समा लेने का गुण रखती है तो फिर ये रोक कैसी ? जब अन्य धर्मावलंबियों की परपंरायें उन्हें नहीं रोकती तो हम क्यूं रोकें। परमपिता के घर में रोक ? ये ईश्वर की नहीं , धर्म के ठेकेदारों की ही हो सकती है। हालांकि मुझसे किसी ने मेरे हिंदू होने का सबूत नहीं मांगा और स्वंतंत्र रूप से मंदिर परिसर में विचरण करता रहा। मंदिर के पीछे एक नदी बह रही है जिसके दूसरी और बहुत सारे मंदिरों का समूह है। मंदिर के एक तरफ नदी तट पर ही श्मशान घाट है जो इस सच्चाई को स्वीकार कराता है कि मृत्यु भी एक अटल सत्य है और लौट कर पुन: हमें इसी में विलीन हो जाना है।
मंदिर परिसर में काफी देर घूमने के बाद मंदिर के पीछे नदी तट पर बने मंदिरों और श्मशान घाट जलती हुई चिताओं में मौत रुपी सच्चाई को निहारता रहा। सोचने लगा कि आखिर लोग मौत से डरते क्यूं हैं ? ये शरीर प्रकृति के पंच तत्वों से बना है और एक दिन इन्ही में समा जायेगा तो फिर डर कैसा ? नदी से लौटते हुये दक्षिणी गेट पर भिखारियों की लंबी कतार देखी जो हिन्दुस्तान की हकीकत को बयां कर रही थी। हिन्दुस्तान में धर्म को दुकान यहां की परिस्थितियों ने ही बनाया होगा।
शाम के चार बज चले थे जबकि मंदिर के कपाट करीब छ बजे खुलने बाले थे। भगवान के घर में भी भक्त भगवान के दर्शन के लिये इंतजार कर रहे थे तो सिर्फ भगवान और भक्त के बीच कुछ दुकानदारों के कारण। सही बात तो ये है कि मैं उस मूर्ति की आकृति शिल्प कला को देखने का उत्सुक था ना कि उसे भगवान समझ कर दर्शन करने का क्यूंकि मेरे हिसाब से तो अब तक राह में आयी नदियां पहाड हरी भरी घाटियां जल वायु जीव जन्तु ही असली शिव हैं मंदिर में तो बस एक कलाकार की मेहनत से बनायी हुई कलाकृति है शिव नहीं। सच पूछो तो मुझे तो शिवजी के दर्शन मुख्य द्वार में प्रवेश करते समय ही हो गये थे जब मैंने मंदिर परिसर में दो नन्हे मुन्ने बाल गोपालों को दाना चुग रहे कबूतरों के समूह के साथ मस्ती करते देखा था। रास्ते भर प्रकृति के अजब गजब उपहार पहाड नदी ताल और पेडों को निहारा था। साक्षात ईश्वर तो वही था। ये तो केवल समाज को एकत्रित करने और मिलने मिलाने एवं एक दूसरे को समझने का एक स्थान विशेष था। प्राचीन विद्धानों ने भी समाज की खातिर ही इन स्थानों का निर्माण करवाया होगा क्यूं कि ईश्वर कहां रहते हैं, ये बात तो वो मुझसे ज्यादा जानते थे। आखिर भारत प्रकांड पंडितों का देश है, मैं तो उनके पैरों की धूल भी नहीं। वो बात अलग है कि बाद में आये कुछ स्वार्थी तत्वों ने इसका रुप भी बिगाड दिया।
फिर भी दिल की बात कहूं तो मुझे मंदिर में अच्छा लगा। कोई ज्यादा भीड नहीं और न कोई शोर शराबा। दूर दूर से आये अलग अलग संस्कृतियों के लोगों से मिलना भी एक सुखद अनुभव था।
रात होने से पहले जनकपुर के लिये रवाना होना था अत: निकल पडा मंदिर के नजदीकी ही हाईवे पर जो मुझे धूलिखेल मिथिला होते हुये जनकपुर छोड सकती थी। धूलिखेल तक शाम हो चली थी और मुझे यहीं रुकना था। मैं सोच रहा कि मेरी नेपाल यात्रा का अतं हो चला लेकिन मुझे क्या पता था कि नेपाल की असली खूबसूरती तो मेरा जनकपुर रोड पर इंतजार कर रही थी।


Tuesday, November 1, 2016

My bike tour of Nepal part 6

नेपाल बाइक टूर : पोखरा से काठमांडू
25 अक्टूवर 2016 (छठवां दिन)

सारंगकोट से पोखरा की ओर नीचे उतरते समय बिंध्यबासिनी मंदिर भी पडता है लेकिन अब मुझे जल्दी से शहर से बाहर निकल जितना ज्यादा खींच सकूं उतना खींचने की पडी थी। सौभाग्यवश  पोखरा से काठमांडू का रोड अन्य रोड की अपेक्षा अधिक अच्छा निकला। यही मुख्य हाईवे है पोखरा आने के लिये। ज्यादातर पर्यटक इसी पृथ्वी राजमार्ग से ही आते जाते हैं। बुटवल पोखरा मार्ग की अपेक्षा यह अधिक चलायमान भी है तो समतल भी। नदी की तलहटी के सहारे सहारे ही रोड बनाया गया है। पूरे मार्ग में पहले की तरह कहीं भी पहाड चडना या उतरना नहीं पडा मुझे। समतल और चौडा हाईवे होने की बजह से मैंने रात होने से पहले ही करीब सत्तर किमी बाईक खींच ली पर चूंकि अभी एक सौ पचास के करीब और चलना था, लौज लेना ही ठीक रहेगा, सोच कर डुमरे नाम के चौराहे पर एक रुम ले लिया। रुम तीन सौ पांच सौ हजार तक हर जगह मिल जाता है। कुछ सस्ते लौज में नहाने को पानी उपलब्ध नहीं रहता क्यूं कि उन्हें आसपास के किसी श्रोत से लाना होता है। खाने को दाल चावल मछली हर जगह उपलब्ध है बस रोटी सब्जी के लिये आपको पहले कहना होगा, मिल जायेगी। डुमरे चौक के नजदीक ही एक नदी बह रही है जो थोडा ही आगे चलकर मर्स्यांगदी नदी में और थोडा चलकर त्रिशुली नदी में मिल जायेगी।
मुझे ये तो पता था कि राह में मनोकामना देवी का मंदिर पडेगा पर कितनी दूर पडेगा, न पता था। मोबाईल डिस चार्ज हो चुका था। पता होता तो डुमरे से मात्र चालीस पचास किमी और आगे मनोकामना के नजदीक ही पडाव डालता। खैर सुवह जल्दी ही बिना नहाये धोये निकल लिया मैं तो। करीब एक घंटे बाद ही मनोकामना केवल कार पार्क पहुंच गया। बहां दस रुपये में गाडी पार्क अकी और सबसे पहले बगल से बहती हुई नदी पर उतर गया। नहाया तो नहीं पर साबुन से डेंटिग पेंटिग पूरी कर डाली। सेविगं कर एक दम राजाबाबू बन गया। करीब एक घंटे तक सैकडों लोगों की खुशियों में शरीक होता रहा। दरअसल यहां धार्मिक लोग कम पर्यटक ज्यादा थे। पांच सौ मीटर लंबी लाईन लगी थी। भारतीयों के लिये हजार रुपये की टिकट जब कि अन्य विदेशियों के लिये बीस डालर। नेपालियों के लिये तीन सौ नेपाली। तब भी गनीमत थी नेपाल ने हमें विदेशी शब्द से अलग रखा था। कुछ तो अपनापन दिखाया ही था पडौसी होने का। हालांकि पोखरा और सारंगकोट में एक दो लडके मिले जिनकी शिकायत थी कि भारतीय हमें अपना भाई नहीं मानते। हमें नेपाली कहकर हेय दृष्टि से देखते हैं और दुत्कारते हैं। हो सकता है उनका पाला किसी तूचिया से पडा हो पर जहां तक मेरा अनुभव है कि हमने हर मेहमान को सर आखों पर लिया है जबकि नेपालियों को तो कभी विदेशी माना ही नहीं। पूरे भारत में हर जगह काम करते और जीविका चलाते मिल जायेंगे आपको। खैर नई  जनरेशन फेसबुक और वाटसेप की नफरत की पैदावार है, नकारात्मकता ही सीखेगी।
मनोकामना केवल कार से ही मैया के हाथ जोड रवाना हो लिया पशुपतिनाथ की तरफ। अभी करीब एक सौ बीस किमी था। दस बज चले थे। धूप भी अच्छी निकल आयी थी। गाडी खींच दी। इस रोड पर सरकार ने जगह जगह सार्वजनिक सुलभ शौचालय और स्नानघर बनाये हैं। काफी सुविधाजनक है। रोड इतना अच्छा था कि पता ही नहीं कि कब काठमांडू में प्रवेश कर गया पर क्या पता था कि काठमांडू की दस बीस किमी धूलभरी सडक पूरे दो सौ के बराबर पडेगी। शहर में घुसते घुसते धूल से लथपथ हो गया। बीस किमी की सडक बहुत बुरी हालत में है। शहर आने पर जान में जान आयी। सबसे पहले स्यंभूनाथ स्तूप पहुंचा। काफी बडा है। काफी दूरी तक फैला हुआ है। रोड पर बुद्ध की प्रतिमा लगी हैं लेकिन प्राचीन मंदिर के लिये आपको गली में जाकर ऊपर चडना होगा। मंदिर के सामने ही निशुल्क पार्किगं है। मैं पहले इसे शिवजी का मंदिर समझ रहा था बाद में पता चला कि बौद्ध मंदिर है। महात्मा बुद्ध हों या महावीर , पुरोहितों की दुकान बंद करने के जिस मकसद से इन्होने जनता को ज्ञान दिया था, वो पूर्णरुपेण सफल न हो सका। दुकान और दुकानदार के नाम भले बदल गये पर कार्य आज भी वही बदस्तूर जारी है। इंसान को भगवान के सहारे की आदत सी हो गयी है। तुम उनका भगवान छीनोगे तो वे लोग तुम्हें ही नया भगवान बनाकर पूजने लगेंगे। पंचो की बातें सिरमाथे पर पन्हाला वहीं गिरेगा। स्तूप परिसर में प्रवेश किया ही था कि निगाह पडी कि एक फुआरेनुमा गोल कुंड के बीचोंबीच बुद्ध की प्रतिमा खडी है और लोग खरीदे हुये सिक्के फेंक कर अपना भाग्य आजमा रहे हैं। सिक्के बेचने बालों की बहां दुकानें लगीं हैं। यदि सिक्का बुद्ध के चरणों में टिक गया तो सौभाग्य अन्यथा दुर्भाग्य। दुर्भाग्य तो देश का है कि इतनी बैज्ञानिक तरक्की करने के बाद भी प्रतिमाओं में अपना सौभाग्य ढूंड रहे हैं। खैर हमें क्या ! हम तो घुमक्कड हैं। हमें तो सब झेलना है। यही तो देखने निकलते हैं हम लोग कि दुनियां में कैसे कैसे लोग हैं और कैसी कैसी उनकी परम्परायें हैं। सुखद पहलू ये है कि ऊंचे सू पहाडीनुमा स्थल पर विशाल परिसर है जिसमें चारों तरफ हरेभरे पेड और पेडों पर लगी रंगबिरंगी लारनीलीहरी पट्टियां जिन पर कुछ लिखा हुआ भी था। सीढियां चढकर मुख्य मंदिर स्थल पर पहुंचा तो देखा रास्ते में ही दुकानदारों ने मूर्तियों पिक्चर्स आदि से रास्ते को आर्ट गैलरी बना रखा है। निसंदेह कलाकारी बहुत ही उत्कृष्ट है। सुंदर सुंदर मूर्तियां। बुद्ध की शिव की माता की और अन्य देवी देवताओं की।
नेपाल के लोगों ने बुद्ध को हिन्दू धर्म में ही शामिल कर लिया है। उनके लिये तो विष्णु के ही अवतार हैं बुद्ध। बैसे गहनता से देखा जाय तो सनातन का धार्मिक रुप त्रिदेव परिवार में मिलता है तो आध्यात्मिक पक्ष बुद्ध महावीर कृष्ण में। वो बात अलग है कि पंडो से कोई नहीं बच सकता। वो आध्यात्मिक योगियों को भी धार्मिक गुरू बना ही लेते हैं ताकि उनकी पेटपूजा भी होती रहे।
काठमांडू शहर के पश्चिम में ऊंची पहाडी पर स्थित स्यंभूनाथ स्तूप परिसर का तिब्बतन नाम
 'Sublime Trees' ठीक ही पडा है क्यूं कि यहां पेडों की बहुत सारी बैरायटीज हैं। परिसर में एक बडे स्तूप के अलावा बहुत सारे लिच्छवी काल के छोटे छोट मंदिर भी बने हुये हैं। मंदिरों के बीचों बीच सफेद रंग का गोल बडा स्तूप जिसका शिखर सोने जैसा धूप में चमकता है और स्तूप की सफेद गोल दीवार पर भगवान बुद्ध की आखें और भौंहें भी पैन्टिड हैं और दोनों आखों के बीच एक का अंक उनकी नाक बनाता है। मुख्य स्तूप तक पहुंचने के लिये दोनों और से सीढियां हैं। उतरने के लिये पूरी 365 steps हैं जो कोई ज्यादा कठिन भी नहीं हैं पर मैंने कुछ विदेशी बुजुर्गों को हांफते और पसीने से तरवतर होते हुये भी देखा तो दूसरी और मंदिर परिसर में काम कर रहे मजदूरों को पीठ पर बडे बडे पत्थर लादते भी देखा। सब अभ्यास की बात है। यदि भगवान वाकई हमारे मंदिर चढने से प्रशन्न होते हैं तो ये बहस का विषय हो सकता है कि वो किससे खुश होंगे , उन पत्थर ढोते मजदूरों से या हमारे जैसे भक्तों से ?
स्तूप परिसर की ऊपरी पहाडी से ही नीचे काठमांडू शहर का फोटो लिया । इतना बडा शहर ! बाप रे बाप ! पहाडों के बीच इतना बडा शहर होना रीयली अमेजिंग था। वहीं किसी ने इशारे से पशुपतिनाथ मंदिर का स्थान बताया जो इतनी दूर था कि बस अंदाजा लगा पाया कि कम से कम बीस पच्चीस किमी तो होगा। स्यंभूनाथ स्तूप से नीचे उतर कर आया और पशुपतिनाथ मंदिर का पता पूछा तो सबने यही कहा कि बहुत दूर है । उन्हें क्या पता था कि इस घुमक्कड के लिये कुछ भी दूर नहीं है। पूछते पाछते पहुंच ही गया मंदिर पशुपतिनाथ।

 

Monday, October 31, 2016

My Nepal bike tour part 5

24 October पांचवा दिन : मालूंग टू पोखरा & पोखरा टू काठमांडू ।।

ट्रैफिक पुलिस पर्यटकों के प्रति जहां एक और बहुत मददगार है तो वहीं दूसरी ओर कानून के मामले में बहुत सख्त भी है। जगह जगह गाडियां चैक की जा रहीं थी पर नेपालगंज बौर्डर से लेकर काठमांडू तक मुझे बस एक जगह रोका गया। पोखरा से सौ किमी पहले । वो भी उत्सुकतावश। मेरी गाडी पर " I love My India " का स्टीकर जो लगा था और " बेटी बचाओ बेटी पढाओ " स्लोगन लिखा था तो सभी लोग मुझे किसी NGO  का सदस्य समझ रहे थे। पुलिसकर्मी ने मुझसे बहुत ही दोस्ताना तरीके से बात की। कागज चैक कर काफी देर बातें करता रहा। काफी देर हंसी मजाक करने के बाद निकल पडा पोखरा की तरफ।
मालुंग नामक गांव में मात्र तीन सौ नेपाली में कमरा मिल गया। नेपाल में पर्यटन ही मुख्य व्यवसाय है तो परिवार के सभी सदस्य इसी कार्य में व्यस्त रहते हैं। बेटे बेटियां बुजुर्ग सभी लोग। यहां तक कि परिवार की महिलायें भी शराब परोषती हैं और उस पर खूल कर हंसी मजाक भी करती हैं। शराब तो पहाडों में पानी जैसी अहमियत रखती है। जल्दवाजी में मेरा चार्जर घर ही छूट गया था। होटल बाले अकंल ने बताया कि बस सौ मीटर पर ही एक दुकान है। सामान और हैलमेट कमरे में ही रखा था। सोचा कि सौ मीटर के लिये क्या हैलमेट लगांऊ, वाईक लेकर दुकान पर पहुंचा। चार्जर लेकर निकल ही रहा था कि पुलिसकर्मी ने रोक लिया। काफी समझाया पर नहीं माना। हैलमेट लाने के लिये होटल तक पैदल ही दौडा दिया। हैलमेट लाने के बाद भी हजार रुपये का चालान करने लगा। काफी निवेदन किया तब जाकर कहीं छोडा । कडी चेतावनी के साथ।
रुम पर बापस आकर एक प्लेट दाल चावल मंगायी जो करीब एक सौ अस्सी रुपये की थी। पहाडों में मंहगाई बहुत है। रात को बहुत गहरी नींद आयी। इतनी गहरी कि सुवह तीन बजे ही जग गया। मुर्गा भी बांग पर बांग दिये जा रहा था। अंधेरा था इसलिये विस्तर में ही पडा रहा और अपना यात्रा वृतांत लिखता रहा।
सुवह सात बजे थोडा उजाला होते ही पोखरा के लिये निकल पडा। सोचा था कि एक घंटे में धूप निकल आयेगी पर उल्टा हो गया। सर्दी बढती गयी। जैसे जैसे पोखरा की तरफ बढ रहा था, ठंड बढती जा रही थी। हालत ये हो गयी कि मुझे रुककर इनर और जैकेट पहनना पडा। पोखरा से तीस किमी पहले ही उमडते घुमडते बादलों ने घेर लिया। देखते ही देखते सफेद सफेद रूई जैसे बादलों ने पहाडों को अपने आगोश में समा लिया। न तो नीचे नदी घाटी दिख रही और न ऊपर की चोटियां। यहां तक कि सडक पर भी काफी नजदीक जाकर दिख रहा था। खतरनाक मोड थे। थोडी सी लापरवाही जानलेवा हो सकती थी।
वाईक की स्पीड मुस्किल से बीस रही होगी। हालांकि इतनी खडी चढाई नहीं थी कि पहले दूसरे गियर लगाना पडे।
ठंड बढती जा रही थी। मैं ठंड में ठिठुरने ही जा रहा था कि अचानक से भगवान भाष्कर के दर्शन हुये। साईड में गाडी लगाई और दस मिनट तक धूप सेंकी। सारी ठंड जाती रही।
बडा मनमोहक नजारा था। कोहरे में लिपटी पहाडियों को धूप ने नहला कर और चमकदार बना दिया था। घाटी में नीचे बहती हुई नदी भी चमकने लगी। अब जैसे ही मोड आता, सूरज छिप जाता और फिर वही बादलों का हुजूम फिर अगले मोड पर सूरज की चमक। धूप और बादल हरी भरी पहाडियों में आंख मिचौली का खेल खेल रहे थे।
पोखरा से लगभग चालीस किमी पहले से ही रोड पर स्कूल के लिये जाते बच्चों का आना शुरू हो गया था। समय करीब साढे आठ नौ का रहा होगा। छोटे छोटे मासूम से बच्चे पीठ पर बस्ता लगाये अपनी मम्मी या पापा की उंगली थामे उछलते कूदते स्कूल बस स्टैन्ड की तरफ बढ रहे थे तो कुछ बच्चों का समय पूर्व निर्धारित स्थान पर अपनी बस का इतंजार कर रहे थे। देखकर बहुत खुशी हुई कि पहाडी लोग भी आधुनिक शिक्षा में गहरी रुचि लेने लगे हैं। रंग विरंगी ड्रैस । कोई मेहरूम कलर तो कोई बैंगनी। कोई सफेद तो कोई हरी ड्रैस। ज्यादातर तो मुझे प्राईवेट स्कूल्स के ही बच्चे दिखे।
दस बजे तक अच्छी धूप निकल आयी थी और पोखरा भी पहुंच चला था। पोखरा पहाडों से घिरी हुई काफी चौडी समतल जगह है। पोखरा से बस पांच किमी पहले ही एक बौद्ध शांति स्तूप है। बहुत ऊंचाई पर । उस पहाड की सीधी चडाई पर तो मेरी वाईक भी घनघना उठी। इतनी सीधी चडाई आज तक कभी इस वाईक ने नहीं देखी। करीब दस मिनट की चडाई है पर पहले गियर में ही ले जाना पडा। दस मिनट की चडाई के बाद एक खुला स्थान आया जहां काफी सारे रैस्ट्रांज बने हुये हैं और यहीं गाडी पार्क कर सीढियां चढकर शांति स्तूप पहुंचना होता है। हांफते रुकते रुकाते मैं सीढियां चढ गया और ऊपर पहुंच कर जो नजारा देखा स्तब्ध रह गया। शहर की सबसे पहाडी पर स्तिथ सफेद गोल स्तूप, चारों और सुंद सुंदर फूलों की क्यारियां और हरे भरे पेड पौधे। मन प्रशन्न हो गया। गजब की शांति। खुली हवा। पेड के नीचे बिछाये गये सिटिगं प्लेस से नीचे पोखरा शहर और विशाल फेवा ताल में तैर रही नावों को देखना भी काफी आनंददायक होता है। शांति स्तूप की दस सीढियां उतरने के बाद से ही शानदार होटल्स बने हुये हैं जहां आप पोखरा की खूबसूरती को निहारते हुये चाय काफी या वाईन की चुस्कियां ले सकते हैं। यहां से पूरा शहर दिखता है। पोखरा नेपाल में दूसरी सबसे ज्यादा घूमे जाने वाली जगह है। यह 827 मीटर ऊंचाई पर स्थित है और ट्रेकिंग और रैफ्टिंग के लिए भी प्रसिद्घ है। पोखरा की अद्भुत प्रकृति का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि महज आठ सौ मीटर की ऊंचाई पर स्थित इस जगह से आठ हजार मीटर ऊंचाई वाली चोटियां बस हाथ बढ़ाकर छू लेने भर वाले फासले पर स्थित हैं। दुनिया में कहीं और आपको इतनी जल्दी एक हजार मीटर से आठ हजार मीटर ऊंचाई का सफर तय करने को नहीं मिलेगा। फेवाताल का दृश्य और पीछे स्थित माछापुछे (6977 मीटर) पर्वत की शोभा मानो शांति और जादू के सम्मोहन में बाँध लेती है। चारों तरफ पर्वतों से घिरी पोखरा घाटी घने जंगलों, प्रवाही नदियां, स्वच्छ झीलों और विश्वप्रसिद्घ हिमालय के दृश्यों के लिए ख्यात है। पोखरा धौलागिरी, मनासलू, माछापुछे, अन्नपूर्णा जैसा महत्वपूर्ण चोटियों और अन्य हिमालयी दृश्यों का आनंद प्रदान करता है। पोखरा का सबसे विलक्षण दृश्य अन्नपूर्णा पर्वत श्रेणी का है जो रंगमंच के पर्दे की शोभा प्रदान करता है। वैसे अन्नपूर्णा पर्वत श्रेणी में सबसे ऊंची चोटी अन्नपूर्णा (8091 मीटर) है, लेकिन माछापुछे पड़ोस की सभी चोटियों पर शासन करती है। माछापुछे शिखर मेहराबदार शिखर है।
शांति स्तूप पर काफी देर विश्राम करने और पोखरा शहर का अवलोकन करने के बाद नीचे आया। जोरों की भूख लगी थी। रोटी सब्जी तो मिली नहीं। मोमोज खाना नहीं चाहता था। आमलेट का आर्डर दे दिया। सौ रुपये की एक आमलेट पेट भरने के लिये काफी थी। खा पीकर थोडी ताकत आयी शरीर में और फिर चल पडा शहर की ओर जहां अगला पडाव था डेविस फाल और उसी के सामने गुप्तेश्वर गुफा।
मैं समझ रहा था कि डेविस फाल कोई नेचुरल झरना होगा जो पहाडों की गोद से अनवरत बह रहा होगा और लोग उसमें नहा कर मस्ती कर रहे होंगे। मैं भी नहाने को मचल उठा था। सुवह जल्दी निकल पडा था। सर्दी की बजह से नहा नहीं पाया था और अब धूप निकल आयी थी तो गर्मी लग रही थी। अक्टूवर में भी जून की सी गर्मी। ग्लोवल वार्मिंग का असर पहाडों में भी नजर आने लगा है। वो दिन दूर नहीं जब हम वर्फ देखने अन्टार्कटिका का टूर बनाया करेंगे। शांति स्तूप से उतरने के बाद बाजार में पहुंचा तो डेविस फाल के इधर उधर तीन चक्कर लगा लिये पर मुझे दिखाई नहीं दिया। दर असल सडक के दोनों तरफ दुकानें सजी हैं और उन्ही में से एक डेविस फाल का गेट है। डेविस फाल का व्यापारीकरण कर दिया गया है। गेट पर दस रुपये का टिकट काट कर अदंर जाने दिया जाता है जहां कि ढेर सारी दुकानें सजी हैं। दुकानदारों की डिमांड करती निगाहों से बचते हुये कुदरत के अजूबे झरने तक पहुंचा तो देखता ही रह गया। गजब का दृश्य था। एक नदी उफनती हुई आ रही है और रहस्यमयी ढंग से जमीन के अदंर समा गयी है। जमीन में समाते समाते इतनी गहरी घाटी बना गयी है कि हम उसे ऊपर से देख भी नहीं पाते। हमें तो बस ऊपर उठता हुआ धुंआ ही दिखता है। मैंने उसके कुछ फोटो और वीडियो भी बनाया है उसे आप फेसबुक पर देख सकते हैं। झरने के चारों ओर एक रैलिगं लगी है जिसकी बजह से उसका पूरा आनंद नहीं ले पाया पर जितना भी लिया मन को राहत दे गया। उसमें नहा न पाने का मलाल था पर इतने खतरनाक झरने में न नहाना ठीक था क्यूं कि एक बार डेविस नाम के व्यक्ति नहाते समय झरने में समा गये थे और दो दिन की मशक्कत के बाद उनकी लाश मिली थी तभी से इस झरने का नाम डेविस फाल पड गया। झरने के आसपास शेष जो भी सजावट है वो बनाबटी है अत: मुझे कोई खास आकर्षित न कर सकी। हम तो नेचुरलिस्ट जो ठहरे। खैर थोडी बहुत देर अदंर चहलकदमी करने के बाद बाहर आये तो पार्किगं बाले लडके ने पांच रुपये मांगने से पहले ही सलाह दी कि सर आप गाडी यहीं खडी रहने दो सामने ही गुप्तेश्वर गुफा भी देख आईये। उसकी बात में दम थी। नेपाल में यदि कुछ सस्ता है तो वो है पार्किगं । बस पांच रुपये। हैलमेट और सामान गाडी पर ही छोड दो। कोई हाथ तक न लगायेगा। सामान वहीं रख सामने ही मंदिर की ओर बढ गया।
गुप्तेश्वर एक धार्मिक गुफा है। इस गुफा के लिये गोल बाबडी टाईप सीढियां हैं और उसके ऊपर ही एक सुंदर मंदिर भी बना है। यह गुफा तीन किमी लंबी है लेकिन सुरक्षा कारणों से इसे थोडा अदंर जाकर रोक रखा है। गुफा के अंदर एक शिवलिंग स्थित होने के कारण हिंदुओं के लिए इस गुफा का विशेष महत्व है। सीढियां उतरते गया और आखिर में एक दरवाजे में प्रवेश करते ही अंधेरा ही ही अंधेरा। ऊपर से टपकती छत। रपटती सीढियां। साईड में प्राचीन मूर्तियां। अतं में उतरकर गुफा का सबसे चौडा स्थान और उसके बीचों बीच शिवलिगं और कुर्सी डाले पंडज्जी। प्रकृति के उपहारों की दुकानदारी करना तो हमने बखूबी सीख लिया है और यही कारण है कि लोग सनातन की तरफ आकर्षित नहीं हो पाते। इस दुकानदारी से घवरा कर दूर भाग जाते हैं। खैर कुछ भी हो नजारा बडा मनमोहक था। थोडी देर अदंर घूमने के बाद ऊपर मंदिर पर आया। साफ सुथरा मंदिर जिसमें नेपाली लोग भजन कीर्तन कर रहे थे और महिलायें भक्ति में चूर नृत्य कर रहीं थी। मेरे साथ ही एक जर्मनी का पेयर भी वीडियो रिकौर्डिगं कर रहा था जिसमें उस महिला को भजन की धुन पर नाचते देख जर्मन महिला भी खडे खडे ठुमकने लगी थी। नाचती महिला ने हम दोनों को भी आमंत्रित किया लेकिन थकावट बहुत ज्यादा थी मेरी तो हिम्मत न पडी। जर्मन महिला थोडा संकुचा गयी और मुझसे बोली , मैं ऐसा कैसे कर पाऊंगी ? ओह काश मैं नाच पाती। लवली बंडरफुल ! अमेजिंग ! व्हाट अ कल्चर !
जब अंग्रेज लोग सनातनी संस्कृति और गीत संगीत की तारीफ करते हैं तो दिल खुश हो जाता है। आखिर में यही तो हमारी कुल जमा पूंजी है जो हमने दुनियां को सिखाया है। सनातन का मतलब है , प्रकृति गीत संगीत भक्ति आनंद मौज मस्ती जिसके लिये कि ये भौतिकवादी लोग तरषते हैं। नजदीक ही विन्ध्यवासिनी मंदिर है । वो देवी भगवती जो शक्ति का ही एक दूसरा स्वरूप समझी जाती हैं यह मंदिर उनकी पूजा का स्थल है।
डेविस फाल पर न नहा पाया था , सोचा फेवा ताल पर नहाऊंगा। पूछते पूछते फेवा ताल पहुंचा पता चला कि चार पांच किमी तक फैला हुआ है आप कहीं भी वोटिगं कर सकते हैं पर मैं तो सबसे फेमस स्पाट जगह ढूंड रहा था और वो थी बाराही मंदिर बाला वोटिगं प्लेस। फेवा झील नेपाल की दूसरी सबसे बड़ी झील है जो पोखरा के आकर्षण का केंद्र है। उसका पूर्वी किनारा जो बैडैम या लेकसाइड के नाम से लोकप्रिय है। यह पर्यटकों के पसन्द का निवास स्थल है जहां अधिकतर होटल, रेस्तरां और हैंडिक्राफ्ट की दुकानें अवस्थित हैं। यह सबसे भीड भाड बाला किनारा हैं जहां हजारों नाव हैं । मात्र सौ रुपये से लेकर छ हजार तक की रेट्स हैं। चार साथी हों तो आप नाविक लेकर निकल पडें और घंटे के हिसाब से पेमेंट करें। अधिकांशत पर्यटक फेवा ताल के बीचों बीच बने वाराही मंदिर तक ही जाते हैं और लौट आते हैं। शाम के समय वोटिगं का आनंद ही कुछ और है। ताल के बीचों बीच बना वाराही मंदिर फेवा झील के मध्य भाग में निर्मित यह पैगोडा शैली का दोमंजिला मंदिर देवी शक्ति का उपासना स्थल है जो चारों से घने बृक्षों से आच्छादित है। बहुत ही रमणीक और सुंदर स्थान।
पोखरा को झीलों की नगरी भी कह सकते हैं आप। फेवा ताल के अलावा भी बहुत सारी झीलें हैं जिनमें बेगनास और रूपा झील खास हैं। ये दोनों झील पोखरा से 15 किमी दूरी पर स्थित हैं और अपने चारों ओर स्वच्छ वातावरण के कारण पूर्णतया नैसर्गिक अनुभूति प्रदान करते हैं। पोखरा को झीलों का शहर कहते हैं। पोखरा में आठ झीलें हैं-फेवा, बनगास, रूपा, मैदी, दीपपांग, गुंडे, मालदी, खास्त. फेवा झील में तो बाराही मंदिर भी है, जहां लोग दर्शन करने जाते हैं। इसके अलावा बर्ड वाचिंग, स्विमिंग, सनबाथिंग आदि को अपना बना सकते हैं।
फेवा ताल भ्रमण के बाद सारंगकोट नाम का स्थान मेरी लिस्ट में था जहां से पैराग्लाडिगं का आनंद लिया जा सकता है। शहर के दूसरे कोने पर स्थित सबसे ऊंची पहाडी पर बना यह स्थान पहुंचने के हिसाब से बडा खतरनाक और एडवेंचरस है। कोई हिम्मतबाला ही वाईक चला कर बहां पहुंच सकता है। बाप रे बाप! इतनी ऊंची चढाई ! और वो भी एकदम सीधी ! मैं जोश ही जोश ही जोश में चड तो गया पर मुझे पसीना आ गया। दर असल रोड खराब है। मोटे मोटे गिट्टी कंकड पडे हैं। सीधी चडाई पर डाबर रोड न हो तो चडाई दूभर हो जाती है। बाइक उछलते उछलते चड रही थी। एक तरफ गहरी खाई । गिरने फिसलने का डर । चडाई खत्म न होने का नाम नहीं ले रही थी। ऐसी चडाई पर  बाइक तीन सौ सीसी ही होनी चाहिये। फिर भी मैं अपनी सौ सीसी होंडा की तारीफ करूगां कि उसने मुझे पहुंचा दिया सबसे ऊंची चोटी पर जहां से पोखरा के मकान चींटी जैसे दिख रहे थे। फेवा ताल के ऊपर मंडराते पैराग्लाईड किसी चील जैसे दिखाई दे रहे थे। खुली हवा । हरी भरी बादियां। एकांत पहाडियां। दिल खुश हो गया। सारी थकान जाती रही। सूर्य छिपने को था। फेवा ताल में चमकती लाल लाल किरणें मन को उद्वेलित कर रहीं थी। मन कर रहा था आज यहीं रुक जाऊं कितुं शहर से निकल कर रास्ते में रुकना सस्ता भी रहता है और आरामदायक भी। पैराग्लाडिगं सात हजार में हो रही थी जो मनाली में दो हजार की थी। इसलिये बस बैठ कर ही आनंद लेता रहा और थोडी देर बाद ही निकल पडा काठमांडू की ओर।
पोखरा ने दिल जीत लिया। निसंदेह बहुत सुंदर शहर है। पहाड़ों की वादियों से सजे शहर में माछेपूछे (फिश टेल) के साथ-साथ पहाड़ों की छाया जब झीलों के लहराते पानी पर पड़ती है तो उस समय का दृश्य ऐसा लगता है मानो किसी कलाकार ने अपनी कला को अंजाम दे दिया है। यहां पर भी सूर्य के उदय के दर्शन के लिए लोग सारंगकोट में 1591 मीटर की ऊंचाई पर अलस्सुबह ही पहुंच जाते हैं जब सूरज की पहली किरण बर्फ जमे पहाड़ों पर पड़ती है तो उस समय का सुनहरापन पहाड़ का श्रृंगार कर देता है और पर्यटकों का दिल वाह-वाह कह उठता है। प्रकृति का यह अद्भुत दृश्य कभी न भूलने वाला बन जाता है।
पोखरा नेपाल का दूसरा बड़ा शहर है। पोखरा नेपाल के पश्चिमांचल विकास क्षेत्र, गण्डकी अंचल और कास्की जिला का सदरमुकाम है। यहां पर प्रकृति कुछ ज्यादा ही मेहरबान है। यहां से हिमालय पर्वत श्रेणियों को अपेक्षाकृत नजदीक से देखा जा सकता है। अन्नपूर्णा, धौलागिरि और मान्सलू चोटियों को यहां निकट से देखा जा सकता है। यह कुदरत का अद्भुत करिश्मा ही है कि 800 मीटर की ऊंचाई पर बसे पोखरा से 8000 मीटर से भी ऊंचे पहाड़ सिर्फ 25-30 किमी. की दूरी पर स्थित है।पहाड़ों के अलावा झालें, नदियां, झरनों के साथ मंदिर, स्तूप और म्यूजियम भी पर्यटकों को आकर्षित करते हैं।यहां भी हवाई अड्डा है। सड़कें अच्छी हैं। बाजार भी सजे-धजे रहते हैं। शापिंग का भरपूर मजा लिया जा सकता है।
यहां पर काली-गंडक नदी में विश्व में सबसे सकरी गहराई वाला स्थान है। कई नदियां भी हैं. एक है सेती नदी! नेपाली में सेती का अर्थ सफेद! अर्थात सफेद दुधिया पानी की नदी! खास बात-यह नदी कहीं अंडरग्राउंड, तो कहीं सिर्फ दो मीटर चौड़ी और कहीं-कहीं यह 40 मीटर गहरी है. महेन्द्र पुल, के.एल. सिंह ब्रिज, रामघाट, पृथ्वी चौक से इस नदी का उफान देखा जा सकता है। झीलों, नदियों के साथ डेविस फाल अर्थात मनमोहक झरना दिलोदिमाग को ताजगी देता है। पोखरा में इंटरनेशनल म्यूजियम और गोरखा मेमोरियल म्यूजियम अपनी-अपनी कहानी बताकर इतिहास से परिचित कराते हैं। तितली म्यूजियम का भी मजा लिया जा सकता है लेकिन रात होने से पहले मुझे शहर छोडना था और रास्ते में कोई सस्ता सा लौज लेना था इसलिये निकल पडा काठमांडू की ओर।


My Nepal bike tour part 4

नेपाल बाइक टूर : चौथा दिन (23 October)
भालुबांग से लुम्बिनी कपिलवस्तु बुटवल और लुमांग ।।

नेपाल यात्रा का तीसरा दिन काफी उत्साहवर्धक एवं रोमांचक रहा। कुछ नया देखने की जिज्ञासा में दो सौ पचास किमी ही बाइक चलाया। राप्ती नदी के किनारे भालुबांग नामक स्थान पर रात बिताने के बाद सुवह चार बजे ही जग गया लेकिन उजाला होने का इंतजार करने लगा। बैसे भी लुम्बिनी कपिलवस्तु बस भालुबांग से सौ किमी दूर है। दो घंटे में कवर कर लूंगा, सोच कर पडा रहा। भारत की तैवीस अक्टवर थी जबकि नेपाल की सात तारीख पर सर्दी बिल्कुल भी नहीं। सुवह चार बजे से नहा धोकर बनियान में लेटा था पर सर्दी का नामोनिशां नहीं।
राप्ती नदी के किनारे भालुबांग नामक गांव में रात गुजारने के बाद लुम्बिनी के लिये सुवह जल्दी ही निकलने का विचार था। लुम्बिनी अभी करीब सौ किमी दूर था। सोचा था कि सुवह चार बजे ही निकल लुंगा कितुं राप्ती नदी के बाद एक बडा पहाड और जंगल पार करना था। अंधेरे में निकलना खतरनाक हो सकता था। सुवह चार बजे ही नहा धोकर उजाले का इंतजार करने लगा। जैसे बौर्डर फिल्म में एअर फोर्स औफीसर जैकी श्राफ के लिये एक एक मिनट भारी पड रही थी और रात के अंधकार की बजह से उडान भरने में दिक्कत मेहसूस कर रहा था, उसी प्रकार मैं भी बार बार बाहर निकल कर उजाले का इंतजार कर रहा था। इंतजार करते करते आखिरकार करीब छ बजे थोडा सा उजाला हुआ और मैं निकल पडा। जैसे ही राप्ती नदी पार कर घने जंगल भरे पहाड पर चडना शुरू किया कि सर्दी लगने लगी। मुझे वाईक रोक कर गर्म इनर निकालना पडा और बजाय अंदर के उसे कुर्ते के ऊपर ही पहन लिया। करीब एक घंटे बाद चौनुटा नामक जगह पर जाकर पहली बार भाष्कर भगवान के दर्शन हुये। शरीर में थोडी गर्माहट आयी तो जान में जान आयी। करीब चालीस किमी के बाद पहाड खत्म हुआ। उसके बाद करीब चालीस किमी और चलने के बाद बुढ्ढी नामक जगह से थोडा और चलकर गौरूसिंहे से आगे सीधे हाथ पर तिलोरांकोट होते हुये कपिलवस्तु और लुम्बिनी के लिये रास्ता कट जाता है कितुं यह रास्ता थोडा खराब है। पूरे रास्ते पर गिट्टी और कंकड भरे पडे हैं लेकिन तिलारांकोट नामक जगह पर जाना जरूरी था क्यूं कि यही वो जगह है जहां शाक्य मुनि गौतम बुद्ध का दरवार चला करता था जहां उन्होने अपना बचपन बिताया था। हालांकि उनका जन्म करीब पच्चीस किमी दूर लुम्बिनी में हुआ था पर यहां उनके पिता की राजधानी हुआ करती थी। गौरुसिंहे तौलीहंवा रोड पर आगे बढते हुये जैसे ही बाणगंगा नदी का पुल पार किया एक तिराहा सा मिला। लोकल लोगों से पूछा तो बताया कि यहां दरवार है महाराज का। आज भी दो शताब्दी पहले की ईंटों के अवशेष यहां मौजूद हैं। वो तालाब भी मौजूद है जिसमें वो स्नान किया करते थे। हालांकि इस पर विवाद है। इसी से सटा हुआ पिपरहंवा नामक स्थान है जो भारतीय सीमा के कपिलवस्तु में आता है। भारत सरकार का दावा है कि शाक्य गणराज्य का असली दरवार वही है।
भले ही भारत और नेपाल के लोग बहां अधिक न आते हों कितुं थाईलैंड चीन जैसे बौद्धिष्ट देशों से बहुत पर्यटक यहां आते हैं। पार्क में घुसते ही मेरी मुलाकात दो छोटे से दोस्तों से हुयी। कैलाश शाहनी और घनश्याम चौहान नाम था उनका। कैलाश की उम्र भले ही कम थी पर उसे उस जगह की पूरी नौलिज थी। बिना किसी स्वार्थ के मुझे जानकारी देने लगा तो मैंने उसे अपने साथ ले लिया और फिर उसने मुझे पूरा परिसर घुमाया। परिसर में करीब दो हजार साल पुराना देवी का मंदिर भी था जिसमें बहुत सारे हाथी ही हाथी बने हुये थे। देवी का मंदिर पीपल के वृक्ष के तने के सहारे ही बना था। करीब एक घंटे में पूरा परिसर घूमने और उन नन्हे नन्हे दोस्तों को उनकी मेहनत का कुछ फल देकर मैं लुम्बिनी वन के लिये आगे बढ गया। थोडा ही आगे चलकर तौलिहंवा कपिलवस्तु शहर आ गया जहां से रोड एकदम मस्त आ गयी थी और गाडी दौडने लगी थी पर कपिलवस्तु में ऐसा कुछ भी नहीं था जिसे देखने के लिये गाडी रोकी जाय।
पूरे नेपाल में मैंने एक चीज नोट की कि लोग बेहिचक गाडी पार्क कर हैलमेट उसी पर रख चले जाते हैं और उसे कोई छूता तक नहीं है। बहुत ईमानदार लोग हैं नेपाली। भारत में तो न तो हैलमेट मिलेगा और न गाडी।
कपिलवस्तु से सीधे लुम्बिनी वन के लिये निकल पडा जो बहां से करीब पैंतीस किमी दूर था। सुवह के नौ बजे थे और हल्की हल्की सर्दी का एहसास भी हो रहा था। रास्ते में ढेरों स्कूल जाते बच्चे भी मिले तो खेतों में हल चलाते किसान भी। यहां अब भी लोग बैलों की जोडी से खेत जोतते हैं हालांकि कुछ जगह ट्रैक्टर भी चल रहे थे। सडक के दोनों ओर धान के खेत । कुछ हरे भरे तो कुछ पके हुये। किसान फसल काटते हुये भी मिले। ये इलाका पूरी तरह मैदानी है। बुटवल तक ऐसा ही है। बुटवल से पहाडों की शुरूआत होती है। यहां के लोगों के चेहरों की बनाबट भी भारतीय ही है। भाषा तो नेपाली ही है पर पहाडी नेपाली से थोडी अलग। भारतीय सीमा का पूरा असर है यहां पर। कपडे, रहन सहन और खानपान सब कुछ भारतीय ही है और सबसे बडी बात ये थी कि मुझे हर दस कदम पर पान की दुकान मिल रही थी जिसके लिये कि मैं पोखरा काठमांडू जैसे पहाडी क्षेत्रों में तरष गया था।
लुम्बिनी पहुंचने में मुश्किल से एक घंटा लगा होगा। लुम्बिनी भगवान बुद्ध की जन्मस्थली है। यह जगह गोरखपुर के उत्तर-पश्चिम से 124 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहीं पर प्रसिद्ध अशोक स्तम्भ स्थित है। इसके अलावा यहां भगवान बुद्ध की माता महामाया का मंदिर भी स्थित है। लुम्बिनी नेपाल की तराई में पूर्वोत्तर रेलवे की गोरखपुर-नौतनवाँ लाइन के नौतनवाँ स्टेशन से 20 मील और गोरखपुर-गोंडा लाइन के नौगढ़ स्टेशन से 10 मील दूर है। यहाँ के प्राचीन विहार नष्ट हो चुके हैं। केवल अशोक का एक स्तम्भ है, जिस पर खुदा है- 'भगवान्‌ बुद्ध का जन्म यहाँ हुआ था।' इस स्तम्भ के अतिरिक्त एक समाधि स्तूप भी है, जिसमें बुद्ध की एक मूर्ति है। नेपाल सरकार द्वारा निर्मित दो स्तूप और हैं।
आज लुम्बिनी न केवल ऐतिहासिक बल्कि सांस्कृतिक धरोधर है। यूनेस्को ने बहुत सारे देशों के बौद्ध स्तूप यहां बनाये हैं। पूरे क्षेत्र को एक बाउन्ड्री वाल से पैक भी कर रखा है जिसके नौ गेट हैं और हर गेट पर सुरक्षा अधिकारी तैनात हैं। मैंने नौ नंबर गेट से प्रवेश किया और एक के बाद एक बौद्ध शांति स्तूपों में भ्रमण करते हुये अंत में बहां जा पहुंचा जहां महात्मा बुद्ध का जन्म हुआ था। काफी बडे क्षेत्र में फैला हुआ यह परिसर हरे भरे पेड पौधों से और सुंदर जान पडता है। बहुत सारे देशों के सुंदर सुंदर स्तूप हैं जहां आपको उन देशों की पूरी सांस्कृतिक झलक देखने को मिलेगी।
मायादेवी मंदिर मुख्य स्थल है। जन्म स्थान को एक बडे हाल में बंद कर रखा है जिसमें प्रवेश का दस रुपया टिकट लगता है। अदंर प्रवेश करने के बाद प्राचीन ईंटों के बहुत सारे गोल स्तूप , सम्राट अशोक का लिपि लिखा स्तंभ और पीपल का बौधि वृक्ष नजर आये। माया देवी मंदिर के अंदर दूसरी शताब्दी पहले की ईंटो का बना एक खंडहर है जिसे संरक्षित रखा हुआ है।
विचार देने बाला तो चला जाता है पर लोग वही काम करने लग जाते हैं जिसमें उनका स्वार्थ छिपा होता है। खंडहर पर लाखों रुपयों का ढेर लगा था। फोटो खींचने की मनाही थी। वही पंडित और वही पूजा पाठ और वही चडावा। बस थोडा रुप बदल गया था पूजा पाठ का। जिस बात का बुद्ध ने विरोध किया था वही कार्य आज उनके नाम पर हो रहा था। विचार देने बाला तो चला गया पर दुनियां बैसे ही चलती रही। इस परिसर में चीन थाईलेंड कम्बोडिया कोरिया जैसे बहुत सारे देशों के बहुत भव्य स्तूप हैं। एकदम शानदार। चारों तरफ घने पेड। बीच में बहती एक बडी और चौडी नहर जिसमें वोटिगं भी होती है। मात्र पच्चीस रुपये में।इस पूरे परिसर में वाईक या रिक्शा का होना बहुत जरूरी है वरना पैदल तो थक जाओगे। बहुत लंबा चौडा परिसर है ये। वाईक से घूमने में भी करीब दो घंटे लगे मुझे।
इस परिसर को बहुत अच्छे से जानने एवं सभी संस्कृतियों को जीने के लिये आपको यहां कुछ दिन रुकना होगा। सुकून और शांति प्राप्त करने के लिये इससे वेहतर और कोई स्थान हो ही नहीं सकता। जब भी मन उदास हो, व्याकुल हो अशांत हो तो बस एक ही शब्द गूंजता है," बुद्धम शरणम गच्छामि "
कपिलवस्तु हैडक्वार्टर तौलिहंवा है जो यूनेस्को बर्ल्ड हैरीटेज साईट और बुद्ध की जन्म स्थली लुम्बिनी से मात्र पच्चीस किमी दूर है।
महात्मा बुद्ध के पिता शुद्धोधन के प्राचीन शाक्य गणराज्य को भारत नेपाल सीमा ने विभाजित कर दिया है। सिद्धार्थनगर और कपिलवस्तु सीमा के इस पार भी हैं तो उस पार भी।
Faxian और Xuanzan जैसे बौद्धिस्ट इतिहासकारों ने इस पर लिखा तो लोगों तक बात पहुंची। भारतीय सिद्धार्थनगर के पिपरहवा को भी शुद्धोधन की राजधानी होने की मान्यता प्राप्त है। यह पूरा क्षेत्र कालानमक नामक बढिया चावल के लिये भी जाना जाता है।
दोपहर के बारह बजे थे और लुम्बिनी परिसर पूरा घुमा जा चुका था तो सोचा क्यूं न बुटवल होते हुये पोखरा के लिये निकल लिया जाय। लुम्बिनी से बुटवल की तरफ आगे बढते हुये बहेरंवा नामक जगह पर सौनोली बौर्डर से आती हुई सडक पर मिल जाते हैं और वहीं से खराब रोड शुरू हो जाता है। इतना खराब कि बस पूछो मत। पूरा धूल और गिट्टी बस। करीब दस किमी तक ऐसे ही धूल दूषरित होता रहा। बुटवल से थोडी स्पीड बढी ही थी कि सामने एक बडा और ऊंचा पहाड नजर आया। पता चला कि यहां से आगे अब बस पहाड ही पहाड हैं। करीब एक सौ पचास किमी चलना था अभी। वाईक रोक कर एक क्विक सर्विस करायी और निकल पडा पोखरा की ओर। पहाडों में वाईक तो मैंने अपनी रोहतांग यात्रा में भी चलायी थी पर ऐसा अनुभव बहां नहीं हुआ। बहां डबल रोड था और रोड भी नया था। गाडी भी एक सौ पचास सीसी की थी पर यहां तो सब उल्टा पुल्टा था। सिंगल रोड और वो भी पूरा टूटा फूटा। गाडी भी सौ सीसी की। पहाडों के मोड भी वहुत खतरनाक। एक सेंकड भी नजर इधर उधर चली जाय तो समझो गये भगवान के पास। रोड के सहारे सहारे एक तरफ गहरी खाई और उसमें बहती हुई नदी और दूजी तरफ ऊंचा पहाड। सिंगल रोड पर दोनों तरफ से आती जाती गाडियों का काफिला। यहां लोग वाईक्स बहुत रखते हैं। रोड पर बाईक्स की लाईन लगी थी। पर थीं जानदार । कोई भी दो सौ तीन सौ सीसी से कम न होगी। मेरी गाडी और उसका नंबर देखकर सैकडों की निगाहें ठहर गयीं थी। सबकी जुबां पर बस एक ही प्रश्न ,
" इतनी दूर से और  इस बाईक पर ?"
फिर भी मैंने तीस की ऐवरेज तो निकाल ही ली। करीब साठ किमी चलने के बाद अंधेरा हो चला था। सुवह से वाईक चला रहा था। थकान भी बहुत थी। रात में इस खतरनाक रोड पर आगे बढना खतरे से खाली न था। रुकना ही वेहतर होगा। मालुंग नामक स्थान पर एक लौज देखकर पडाव डाल दिया। अभी यहां से करीब सौ किमी और चलना था जिसे पार करने में करीब तीन घंटे और लगेंगे।

My Nepal bike tour part 3

नेपाल बाईक टूर तीसरा दिन (22 October)
लखीमपुर खीरी से नेपाल बौर्डर एवं भालुबांग ।।
नेपाल यात्रा का तीसरा दिन मेरे लिये बहुत ज्यादा मायने रखता है। जीवन में पहली बार विदेशी धरती पर कदम रखने का मौका जो मिलने बाला था मुझे।
सुबह ही
मित्र कौशलेन्द्र को अपने स्कूल निकलना था और मुझे नेपाल की तरफ । पुराने ofसंघर्ष भरे दिनों की याद में हम दोनों इस कदर खो गये थे कि इस बार फिर लेट हो गया मैं। लगभग आठ बजे निकल पाया। लखीमपुर खीरी से ननपारा और ननपारा से नेपाल बौर्डर्। करीब एक सौ दस किमी है। लखीमपुर से ननपारा और भारत नेपाल सीमा तक का हाईवे एकदम शानदार है। गाडी चलती नहीं उडती है। बैसे भी लखीमपुर खीरी जिला काफी हरियाली बाला है। सडक के दोनों ओर काफी घने पेड पौधे और दूर दूर तक फैले हुये हरे भरे खेत। कुछ खेतों में धान की कटाई भी चल रही थी। थोडा आगे निकलते ही शारदा नदी मिली और फिर उससे थोडा आगे चलकर घाघरा नदी। दोनों नदिया थोडा आगे चलकर बहराईच में मिल जातीं हैं और थोडा आगे चलकर अयोध्या फैजाबाद में सरयू नदी कहलाती है। ननपारा से पहले एक घना बन्यजीव अभ्यारण भी मिला। करीब दस बजे ननपारा पहुंच गया था। ननपारा में ही वाईक सर्विस करायी और एटीएम से पैसे भी निकाले। पहली बार परायी धरती पर जा रहे हैं, पर्याप्त रुपये साथ रहते हैं तो हिम्मत रहती है। भारत नेपाल सीमा पर स्थित बहराईच जिले का ननपारा भारत का काफी बडा कस्वा है।
नेपालगंज बौर्डर पर करीब बीस मिनट लगे। वाईक के कागज चैक कराये और एक सौ चौदह नेपाली के हिसाब से वाईक का टैक्स भी दिया। वाईक का टैक्स भरते समय मुझे पहली बार एहसास हुआ कि मैं विदेश यात्रा पर हूं वरना तो यहां का खान पान रहन सहन बोली भाषा सब कुछ हमारे जैसी ही है। लोग हिंदी और नेपाली खूब बोलते हैं। चूंकि पर्यटन ही नेपाल का सबसे बडा व्यवसाय है लोग बहुत सम्मान करते हैं पर्यटकों का।
भारत से नेपाल की मुद्रा भले ही थोडी कम हो लेकिन बात बराबर ही पडती है। मंहगाई भी उतनी ही है। हर सामान MRP रेट से बढकर ही मिलती है। एक आमलेट सौ नेपाली की है जबकि  भारत में तीस रुपये की है। पैट्रोल सौ नेपाली रुपये प्रति लीटर है, भारत से थोडा सा ही सस्ता पडता है। बौर्डर पर ही भारतीय रुपयों का नेपाली में एक्सचेंज कराना ठीक रहता है। छोटे दुकानदार भारतीय रुपया नहीं लेते। बैसे भी हजार और पांच सौ के नोट इधर चलते नहीं। मैंने चार हजार रुपये के एक्सचेंज कराये थे। करीब चौंसठ सौ नेपाली रुपये मिले मुझे। एक हजार में सोलह सौ नेपाल के हिसाब से। हमारा दस रुपया यहां सोलह रुपये के बराबर होता है। कोहलपुर या पहले ही पैट्रोल फुल करा लेना चाहिये वरना काफी दूर तक पंप न मिलेगा।
भारत की अन्तर्राष्ट्रीय सीमा पर मैं अमृतसर बाघा बौर्डर भी जा चुका हूं पर पाकिस्तान और नेपाल के साथ हमारी सीमाओं में जमीन आसमान का अतंर है। बाघा बौर्डर पर आप उस जमीन पर पैर रखना तो दूर झांक तक नहीं सकते बिना बीजा के और यहां तो रुपडिहा बौर्डर में अदंर घुसने के बाद मुझे पता चला कि मैं नेपाल में हूं। लोग बेरोक टोक आ जा रहे हैं। ननपारा से नेपालगंज के बीच गाडियों की लाईन लगी है। दस मिनट में लोग गाडी का किराया देते हैं और आगे बढ जाते हैं। बिना बाहन बाले तो बैसे ही आ जा रहे हैं। नेपाली फौजी तैनात हैं पर आम तौर पर कोई सख्ती नहीं बरतते। बौर्डर के बाद हाईवे पर मुझे बहुत सारी फौजी चौकियां मिलीं पर पोखरा तक तो किसी ने रोका भी नहीं। दोस्त और दुश्मन पडौसी में शायद ये ही फर्क है। नेपालगंज बौर्डर पर बैठे कस्टम अधिकारी एकदम जमीन से जुडे बुजुर्ग। मृदुभाषी । कहने लगे आप हमारे मेहमान हैं। आपकी मदद करना हमारा फर्ज है। मैंने साथ फोटो भी खिंचाया पर बगल में बैठी फौजिन शरमा कर दूर चली गयी और मुझे फोटो के लिये मना करने लगी।
बौर्डर से नेपालगंज एवं कोहलपुर तक का रास्ता बहुत जानदार मिला। बहुत चौडा रोड और धूल का नामोनिशां नहीं। चारों तरफ सिर्फ हरियाली ही हरियाली। बौर्डर से मात्र बीस किमी दूर कौहलपुर शहर में नेपाल का एकमात्र और सबसे लम्बा राष्ट्रीय राजमार्ग महेन्द्र मार्ग मिल जाता है जो नेपाल के पश्चिम में स्थित पीलीभीत खटीमा से लेकर पूर्व में सिक्किम के सिलचर तक पार चला जाता है। नेपाल का महेन्द्र राजमार्ग जिसकी Length: 1,027.67 km (638.56 mi) नैनीताल या पीलीभीत के नजदीकी नेपाली शहर भीमदत्त से सिक्किम सीमावर्ती  कांकरविट्टा या Mechinagar तक जाता है। हालांकि बीच में अन्य राजमार्ग भी इसे क्रास करेंगे। जैसे
Tribhuvan Highway at Hetauda
Prithvi Highway at Bharatpur
Siddhatha Highway at Butwal

बीच में कुछ destinations भी पडेंगे जैसे Damak, Itahari, Hetauda, Bharatpur, Narayangarh, Butwal, Kohalpur ।।
महेन्द्र राजमार्ग को East West Highway पूर्व पश्चिम राजमार्ग नेपाल के तराई क्षेत्र को पार करता हुआ देश का सबसे लंबा हाईवे है जो भारतीय CPWD/PWD India engineers की देन है।
कोहलपुर के चौराहे पर एक तरफ बर्दिया बन्य जीव अभ्यारण का घना जंगल है और दूसरी तरफ बांके राष्ट्रीय निकुंज है। The Bardiya National Park बर्दिया राष्ट्रिय निकुञ्ज, 968 km2 (374 sq mi) में फैला हुआ
नेपाल की तराई क्षेत्र में करनाली नदी के पूर्वी तट पर एवं बबाई नदी द्वारा विभाजित सबसे बडा नेशनल पार्क है जो बांके नेशनल पार्क से जुडा हुआ है और अपने alluvial grasslands, subtropical moist deciduous forests,tigers, wild elephants and one-horned rhinos 30 , species of mammals, 250 species of birds,  endangered Bengal florican and sarus crane, Gharial and marsh mugger crocodiles and Gangetic dolphins के अलावा rafting and canoe trips along the Geruwa River, the eastern channel of the Karnali River के लिये भी जाना जाता है। Bardia National Park , नेपाल के Maoist insurgency के दौरान काफी डिस्टर्ब्ड रहा था किंतु अब सब ठीक है जबकि बांके नेशनल पार्क  550 km2 क्षेत्र में Banke, Salyan and Dang जिलों में फैला हुआ है।
यही हाईवे पश्चिमी राप्ती नदी के सहारे सहारे लालमटिया तक और फिर बुटवल और आगे की तरफ बढता जाता है। राप्ती नदी का साथ लमही, लालमटिया से थोडा आगे भालुबांग तक ही मिलेगा। लालमटिया के नजदीकी पहाडों से ही ये राप्ती नदी निकलती है जो पहले घाघरा में और फिर आगे जाकर गंगा में मिल जाती है। राप्ती नदी (या पश्चिमी राप्ती) मध्य नेपाल के दक्षिणी भाग की निचली पर्वतश्रेणियों में प्यूथान नगर के उत्तर से निकलती है। गंगा के मैदान में उतरने से पूर्व यह कुछ दूर तक शिवालिक पर्वत के समांतर पश्चिम दिशा में बहती है और मैदानी भाग में पूर्व एवं दक्षिण-दक्षिण-पूर्व दिशाओं में प्रवाहित होकर बरहज नगर (जिला देवरिया, उत्तर प्रदेश) के समीप घाघरा नदी से मिलती है। यह उत्तर प्रदेश के बहराइच, गोंडा, बस्ती एवं गोरखपुर जिलों के धान एवं गन्ना उत्पादक क्षेत्रों के मध्य से होकर बहती है। बाँसी एवं गोरखपुर इस नदी पर स्थित मुख्य नगर हैं। इसकी सहायक नदियों में मुख्यत: उत्तर के तराई प्रदेश से निकलनेवाली छोटी छोटी अनेक नदियाँ हैं। नदी की कुल लंबाई ६०० किलोमीटर है। यह गोरखपुर से नीचे की ओर बड़ी नौकाओं द्वारा नौगम्य है। जबकि पूर्वी राप्ती एक छोटी सी नदी है जो नेपाल के चितवन घाटी (भीतरी तराई) से पश्चिम की ओर प्रवाहित होकर अन्ततः भारतीय सीमा से थोड़ा पहले नारायणी (गण्डकी) में मिल जाती है।
फिर भी दिन भर में काफी कवर कर लिया और दिन भर में करीब तीन सौ किमी वाईक खेंच ली। कोहलपुर से लमही तक बांके बन्य जीव अभ्यारण का घना जंगल और ऊंची नीची रोड चलती रही और मैं नेपाल की हरी भरी पहाडियों में दौडता रहा। सोचा था कि रात होने से पहले लुम्बिनी वन , महात्मा बुद्ध की जन्म स्थली, पहुंच जाऊंगा पर लमही निकलते निकलते अंधेरा हो चला था और सामने करीब चालीस किमी का पहाडी घना जंगल था। घने जंगल और पहाडों में रात को चलना ठीक न होगा,ये सोच कर लमही से थोडा आगे लालमटिया पार कर राप्ती नदी के तट पर भालुबांग नामक तिराहे पर मात्र तीन सौ नेपाली रुपये में कमरा मिल गया। यहां लोगों ने घर को ही होटल दुकान आदि बना रखा है। इस दुकान पर रहने खाने से लेकर सभी सुविधायें मिलेंगी। शराब और मांसाहारी भोजन तो यहां आम बात है लेकिन शाकाहारी भोजन हर जगह मिलेगा। शराब तो इतनी कौमन है कि लगभग हर दुकान पर मिलेगी। एक क्वार्टर साठ से लेकर पांच सौ नेपाली तक हर ब्रांड मौजूद है। अंग्रेजी की बजाय नेपाली शराब ज्यादा चलती है। अंग्रेजी में रौयल स्टेग का एक क्वार्टर साढे तीन सौ नेपाली में आता है। नास्ते में आमलेट फिश मोमोज पकौडे आदि हैं। आमलेट सौ रुपये की है। शाकाहारी भोजन भी मिलेगा। सारा सामान भारत से ही आता है इसलिये थोडा मंहगा पडता है।
सुवह के पांच बजे ही लुम्बिनी के लिये निकलने बाला था पर  थोडा अंधेरा था। जंगल भी पार करना था। थोडा उजाला हो जाय तब चलना ठीक रहेगा। बैसे तो कोई डर नहीं है, नेपाली लोग काफी मेहनती और ईमानदार होते हैं पर जंगली जानवरों का कोई ईमान नहीं होता। भूख लगी हो तो आदमी का भी नास्ता कर डालते हैं।


Sunday, October 30, 2016

My bike tour of Nepal part 2

नेपाल बाईक टूर : दूसरा दिन (21 October)
मथुरा से लखीमपुर खीरी तक :
घुमक्कडी पर निकलते समय हमेशा सुवह जल्दी ही घर छोड देना चाहिये पर मैं मथुरा से निकलते थोडा लेट हो गया था। घुमक्कड को समय का पाबंद होना चाहिये। सुबह पांच बजे तक निकल पडना चाहिये अपने सफर पर जबकि मुझे मथुरा से निकलते निकलते नौ बजे गये थे और फिर रास्ते में एक घुमक्कड मित्र नरेश चौधरी मिल गया। हाईवे पर गांव है। अपने घर ले गया। खाने की बहुत जिद की मगर मैंने खाने की बजाय मट्ठा पीना और बोतल में रखना मुनासिव समझा। मथुरा से निकलते निकलते दस बज गये थे। मथुरा से हाथरस बदायूं कासगंज होते हुये शहजहांपुर मुहम्मदी और फिर लखीमपुर खीरी पहुंचना था। लखीमपुर खीरी तक रात होने से पहले पहुंच जाना चाहिये था कितुं देरी पर देरी होती गयी। बीच में रास्ता भी थोडा खराब मिला था। बीच में गंगा जी का कछला घाट भी पडा। गंगा जी में स्नान किये बिना आगे बढना मेरे लिये नामुमकिन था। पानी का तो कीडा हूं मैं। मैं तो जीता ही पेड पोधों और नदियों के जल में हूं। और फिर गंगाजी की तो बात ही अलग है। गंगाजी को मैया क्यूं कहते हैं इस बात का उत्तर तो आप गंगा तटीय क्षेत्रों का भ्रमण करके ही पायेंगे। पूरे यूपी बिहार बंगाल की धन संपदा गंगा मैया की ही देन है। संयोग कुछ ऐसा रहा कि इस बार मैंने गंगा जी को करीब सात आठ बार पार किया होगा। कछला घाट पर गाडी को भी स्नान कराया और खुद भी किया। घाट तो सोरों में भी है पर जल ठहराव लिये है जबकि कछला में गतिमान है एवं घाट पर समुद्री बीच जैसा है।
सोरों से निकलते निकलते शाम के तीन बज चले थे जबकि लखीमपुर खीरी अभी बहुत दूर था। फिर भी खूब गाडी दौडाई और रात को नौ बजे लखीमपुर खीरी पहुंच गया जहां मेरा दोस्त कौशलेन्द्र गुर्जर मेरा इंतजार कर रहा था।

बदायूं के बाद मुहम्मदी से लेकर लखीमपुर का रास्ता तो सुभानअल्ला! इतना जानदार कि बस पूछो मत ! वाईक हवा में उडती चली गयी। सडक के दोनों तरफ घनी हरियाली । धूल का नामोनिशां नहीं। रात का सफर । एकदम मस्त । मजा आ गया। कुल मिलाकर रात नौ बजे तक शिक्षक मित्र कौशलेन्द्र के कमरे पर पहुंच गया। ये वो ही शिक्षक मित्र है जिसने मेरे साथ कभी बेरोजगारी के झटके खाये थे। बहुत व्याकुल था नौकरी के लिये। इससे थोडा पहले ही मेरी नौकरी लग गयी तो और व्याकुल हो गया। मैं हिम्मत बंधाता रहता, चितां न कर, मई जून की तपिश के बाद सावन की फुआरें जरूर आयेंगी। उसके घर देर है अंधेर नहीं।

Saturday, October 29, 2016

My bike tour of Nepal : part 1

नेपाल बाईक टूर ।।
20 October  पहला दिन : धौलपुर टू मथुरा ।।।।

जाने कितनी बार नेपाल की यात्रा का प्लान बना होगा किंतु हर बार बस यही सोच कर रह गया कि गोरखपुर के बाद बस या टैक्सी में कैसे चल पाऊंगा मैं। बस हो या बंद कार मुझे काल समान लगती हैं। मनाली से रोहतांग तक के मात्र एक घंटे के सफर में मेरी जान निकल गयी थी जबकि यहां तो पूरे छ दिन सिर्फ बस में ही चलना था, नेपाल में ट्रैन्स हैं ही नहीं। चाहे कुछ भी हो जाय, जाऊंगा तो वाईक से ही, सोच लिया था। तीन हजार की इतनी लम्बी वाईक यात्रा के लिये कोई मेरे जैसा पागल घुमक्कड ही मेरा पार्टनर बन सकता है, आम शौकिया पर्यटक तो चक्कर खाकर गिर पडेगा। जैसे तैसे पडौसी शिक्षक भगवती शर्मा साथ चलने को तैयार भी हुआ पर मुझे पता था कि ये ऐन टाईम पर पलटी मार सकता है। जैसे ही इसके घर बालों को पता चलेगा कि तीन हजार किमी वाईक पर चलना है, घरबाले इसकी चुटिया खेंच लेंगे। और हुआ भी वही, बीस की सुवह निकलने से थोडा पहले ही मुंह लटकाता हुआ आया, अरे यार हमारा तो प्रोग्राम कैंसल है, घरबाले डांट रहे हैं। हहहहहह मुझे पहले ही पता था पर हम कहां रुकने बाले हैं, राही को साथी तो मिलते रहते हैं, यहां नहीं तो आगे मिलेंगे। और फिर कोई मिले न मिले, बस बढते जाना है। गब्बर कहता था कि जो डर गया वो मर गया पर मैं कहता हूं जो थम गया वो जम गया।
बीस को मथुरा में संजू की बच्ची का बड्डे फंक्शन था, दिल्ली से दोस्त भी आ रहे थे तो सोचा कि मथुरा होते हुये ही निकला जाय। बैसे भी नेपाल को लम्बाई में पार करने की ठान रखी थी। समय की कमी के चलते हालांकि पूरा तो पार न कर पाया पर तब भी काफी भाग कवर कर लिया।
अधिकांशत: पर्यटक बस लुम्बिनी बुटवल पोखरा काठमांडू के त्रिकोण में ही सिमट कर रह जाते हैं और भ्रमण स्थल हैं भी यही मुख्य तो पर हमें तो सडकें नापने की आदत है।
दिल्ली से आये दोस्तों को यमुना एक्सप्रैस वे पर बंद एसी कार में पता भी न चल पाया होगा कि यात्रा कहते किसे हैं ? मथुरा आने पर सोचा कि इन शहरी लोगों को गांव की गलियों में वाईक पर घुमा लाऊं । गांव भी कोई ऐसा बैसा नहीं , वो गलियां जिनमें बाल गोपाल बंशीवारे मोहन प्यारे अपनी सखियों सखाओं के साथ खूब मौज मस्ती किया करते थे, गायें चराया करते थे, यमुना के किनारे किनारे गोकुल की कुंज गलियों में घूमते हुये और रमण रेती की हरियाली में विचरण करते हुये मन को जो आनंद प्राप्त होता है उसे शहरी आदमी कुछ ज्यादा मेहसूस कर सकता है।
लेकिन लौटते हुये कहने लगे, मात्र दस किमी की वाईक यात्रा में हमारा ये हाल है, तुम्हारा हजारों किमी में क्या हाल होता होगा ?
दोस्त लोग कहते हैं कि इतना सफर कर कैसे लेते हो, सफर में तो बहुत सफर करना पडता है। बैसे ये सच भी है। घुमक्कडी में आनंद केवल एक जुनूनी घुमक्कड ही प्राप्त कर सकता है, सामान्य पर्यटक नहीं , घुमक्कडी तो कष्ट का दूसरा नाम है। पर हमें उस दर्द में भी सुकून मिलता है। एक मां भी दर्द झेलती है पर हर मां उस दर्द में आनंद प्राप्त करती है। दर्द न हो तो वो जननी ही न बन पाये।
आनंद भैया के शब्दों में कहूं तो यात्रा... एक अनुभव है, देशकाल का अनुभव। साथी कैसे होंगे, ये तो किस्मत है।
खुली खिड़कियां आपको कुदरत से सीधा जुड़े रहने का मौका देतीं हैं। वातानुकूलित बंद दुनिया में सबकुछ बंद ही होता है। लोगों के दिल भी। सुविधाए जैसे जैसे बढती जातीं हैं, लोग सिमटते जाते हैं, कटते जाते हैं।
बंद डिब्बे की यात्रा में बच्चे, पूरी यात्रा बस फोन पर गेम्स खेलते बिता देते हैं। बदलती जगह के मुताबिक बदलते हालात के बारे में समझ, बढ़ती ही नहीं उनकी। यात्रा केवल दूरी तय करना नहीं है। वो बदलते स्थान के साथ, बदलते तापमान, आवाज, गंध, नजारे, सबके अनुभव की यात्रा होती है।
सूर्यमुखी के खेतों से गुजरते, एक खास गंध से भरे जीवन से गुजरने का अनुभव होता है। फर्क तापमान का भी होता है और आद्रता का भी। ऐसा हर खास स्थान के साथ होता है। यही तो अनुभव है। अन्यथा बच्चों को, टीवी, सिनेमा कंप्यूटर के पर्दे... और सच्चाई में अंतर ही समझ नहीं आता है। हो ऐसा ही रहा है।
भारत एक ठंडा बंद डब्बा नहीं है। वो विविधताओं से भरा बेहद खूबसूरत देश है। और देशप्रेम, कागज, फोन, कंपूटर और क्रिकेट के मैदान में नहीं... देश में फैला है। नये लोग... भारत से प्रेम, इसके अनुभव से नहीं सीख रहे, वे इसे, बस तिरंगा डीपी और प्रोफाइल पिक्चर करने को समझ रहे हैं। और इसी के बूते दुनिया जीतना चाहते है।
फ्लाइट... बस दो घंटे में पूरा शिवालिक, विध्याचल, चंबल और कोंकन रेंज पार कर लेती है। लेकिन इससे, धरती पर लाखों बरस की प्रक्रिया से बनी भौगोलिक रचनाओं का वजूद और अहमियत खत्म नहीं हो जाती। वो वैसे ही प्रभावशाली बनी रहती हैं।
और अगर इन्हें सही से जीना हैं तो सफर में सफर तो होना ही पडेगा।
इस बार श्री राम की ससुराल, सीता मैया की जन्मभूमि और पशुपतिनाथ जी की पावन धरा के भ्रमण का इरादा है।

Tuesday, October 4, 2016

पुत्र मोह


केवल धैर्यवान ही पढें। पोस्ट लंबी, धार्मिक, ऐतिहासिक और सामाजिक है। छुई मुई जैसी धार्मिक आस्था बाले बंधु न पढें तो ही बेहतर है। डेंगू के मच्छर ने मेरा सारा खून चूस रखा है, आपकी गालियों को सहने लायक भी शक्ति नहीं बची है। फिर भी मन न माने तो मुझे ही देना, घरबालों को न देना क्यूं कि वो भी आपकी तरह धार्मिक बीमार हैं। घरबाली तौ इतनी धार्मिक है कि मेरी पोस्ट पढकर रोज काली देवी की तरह जीभ लपालपाकर चंडी रूप धारण कर छाती पर पैर रख चिल्लाती है," हे दुष्ट राक्षस ! हे महिषासुर के नवीनतम विकृत मौडल, शामत आयी है तेरी!  मैं उसे याद दिलाता हूं कि हे मेरे चरणों की दासी, प्राणों की प्यासी , काली और दुर्गा की सयुंक्तावतार देवी चार दिन बाद करवा चौथ का वृत किसके लिये रखेगी फिर ? तेरी लिये साडी और श्रंगार आइटम कौन लायेगा फिर ? तब जाकर उसका रूख कुछ नरम पडता है और करम फोडते, कजरी सा मुंह बनाते बडबडाती हुई रसोई की तरफ गति कर गयी कि हे भोलेनाथ ये ही दिन देखने लिये तुझपे लोटे लुढकाये थे। ऐसी भी क्या जल्दी थी ? दो चार सोमवार और सब्र कर लेती मैं तो , कम से कम किसी इंसान से तो व्याह कराता मेरा ? मेरे करम फूट गये । ये महाभैंषासुर क्यूं लिख दिया तूने मेरे करम में ?
नवरात्रे की पहली रात को मेरी प्राणप्यारी ने वृत रखा था। पूरे दिन भूखे मरी और मैं खा पीकर मस्त फेसबुक पर काल्पनिक मैया और उसके नकली उपासकों की मजाक बना रहा था। उसी रात मुझे तेज बुखार आया। पर मैंने घर में किसी को न जगाया। दूसरे दिन सुवह ही नीचे से ऊपर तक सब जाम। भयंकर दर्द । पूरी तरह विकलांग । लैट्रिन में भी न बैठ सका। काश खडे खडे निबटने का कोई सिस्टम भी अंग्रेजों ने बनाया होता। बिना फ्रैस हुये ही बाहर आ गया तो मेरी प्रिये प्राणेश्वरी के चेहरे पर चंडी के से भाव देख कर समझ गया कि आपातकाल शुरू होने बाला है। कोई पारिवारिक विपदा आने बाली है। इससे पहले कि उसकी गुस्सा शांत कर पाता,
फूट पडी," और करो मैया का अपमान ! अभी तो देखो क्या क्या होता है ! अभी तो मैया ने डेंगू का मच्छर ही भेजा है, कल को भैंरोबाबा का कुत्ता भी भेजेगी और उसके काटने से भी कुछ न हुआ तो अपना शेर भेजेगी।"
हहहहह अरर मेरी प्रीतम प्यारी, मेरी राजकुमारी, बडी भोली है री तू बेचारी ! नाम भी लिया तो किसका ? उस पियक्कड भैंरो का ? उस राक्षस का जिसकी बजह से तेरी मैया पहाडों की गुफा में नौ महीने तक दुबकी पडी रही ? भला हो उस नारी शक्ति का जिसने उसकी गर्दन उडाकर तीन किमी ऊपर लटका दिया वरना उस कमबख्त राक्षस को भी बाप कहकर पूजना पडता। प्रीतम प्यारी का मुंह सूजकर जयललिता सा हो गया।


ना चाहते भी दिन भर प्राणेश्वरी सेवा करती रही। बाबूजी पूरे दिन मेरे साथ बैठे रहे। शाम को दोस्त भगवती शर्मा गाडी में पटक कर डाक्टर के पास ले गया। चार हजार की जांच और दवाई लाया। घर पर उसने ही इंजैक्शन और ड्रिप लगायी। इंजैक्शन इतने हैवी थे कि ड्रिप बहुत स्लो चढानी पडी। रात के तीन बजे तक ड्रिप चढी। मैं फेसबुक पर बकलोली कर टाईम पास करता रहा। बाबूजी हर दस मिनट बाद मेरे कमरे के चक्कर काट रहे थे। नींद और थकान से आखें लाल पडी थीं बाबूजी की। 76 वर्ष की उम्र में इतनी जिंदादिली बहुत कम लोगों में देखी है मैंने।
उसी दिन बडे भैया मम्मी का औपरेशन कराने लखनऊ ले जा रहे थे। बाबूजी का भी रिजर्वेशन था। बुढापे में बेटे की अपेक्षा पत्नि से अधिक प्रेम होता है लेकिन बाबूजी ने लखनऊ जाने से साफ मना कर दिया। बोले कि मैं अपने बेटे को बीमार छोडकर नहीं जा सकता । मेरी लाख जिद करने पर बोले,
" तेरी मम्मी के साथ उसका सिपाई बेटा है न ? "
बाबूजी सुवह चार बजे तक जगते रहे। एक बार मैं ड्रिप लटका कर टायलेट गया तो देखा कि सुवह चार बजे बाबूजी ध्यान मग्न थे । शायद ईश्वर से अपने बेटे की सलामती की दुआ कर रहे थे।
मैं बापस आकर सो गया। सुवह जगा तो पता चला कि मैं काफी हद तक चल फिर सकता हूं। बाबूजी अभी सो रहे थे। सर पर हाथ रखा तो पाया कि बाबूजी बुखार में तप रहे थे।
आपने मुगल बंश के संस्थापक बाबर के इंतकाल की कहानी तो अवश्य सुनी होगी जिसने अपने पुत्र हुमायुं के बीमार पड़ने पर अल्लाह से हुमायुँ को स्वस्थ्य करने तथा उसकी बीमारी खुद को दिये जाने की प्रार्थना की थी। ईश्वर ने बाबर की दुआ कबूल कर ली और हुमांयू ठीक होने लगा। इसके बाद  बाबर का स्वास्थ्य बिगडता गया और अंततः वो 1530 में 48 वर्ष की उम्र में जन्नतनशीं हो गया।
लेकिन मेरे बाबूजी एक जिंदादिल इंसान है। जीवन जाने कितनी मुसीबतों का सामना करके अपनी चारों औलादों को सरकारी नौकर बनाया है। सन्यास आश्रम में भरपूर मस्ती और जिंदादिली है। मरने के नाम पर तो कहते हैं, यमराज की ऐसी तैसी भगा दुंगा मेरे पास फटका भी तो। इसलिये बाबर की पूरी कहानी यहां फिट नहीं होती पर आधी जरूर होती है।
अब सुनाता हूं आपको बाबर की कहानी।

आगरा के चार बाग के बीच में बाबर का अत्‍यन्‍त सुन्‍दर विशाल राजभवन। इसी राजभवन के एक कमरे में बाबर का पुत्र हुमायूँ बीमार पड़ा है। बीमारी धीरे-धीरे बिगड़ती जाती है और उसके साथ हुमायूँ के जीवन की आशा भी क्षीण पड़ती जाती है। बाबर इस समय आगरे से पचास किमी दूर मेरे शहर धौलपुर में है। हुमायूँ की बीमारी की खबर मिलते ही वह आगरे लौट पड़ता है।
दोपहर का समय है। चारों ओर सन्‍नाटा छाया हुआ है और वातावरण से उदासी टपक रही है। बाग के भीतर घुसते ही वहाँ के सन्‍नाटे से बाबर स्‍तब्‍ध हो जाता है। उसके आते ही राजभवन में कुछ हलचल होती है। वह सीधे उस कमरे में पहुँचता है जहाँ हुमायूँ पड़ा हुआ है। माहम बेगम - हुमायूँ की माँ - उसके पलंग के पास बैठी है और चिन्‍ता से उसका चेहरा उतरा हुआ है। बाबर को आया देखकर वह चुपचाप सिर झुकाकर खड़ी हो जाती है। बाबर एक बार उसकी ओर देखता है और फिर हुमायूँ के बिस्‍तर के नजदीक जाकर खड़ा हो शान्‍त भाव से उसे एकटक देखता रहता है। बाबर [हुमायूँ के सिर पर धीरे से हाथ फेरते हुए धीमी आवाज में] बेटे! बेटे! [हुमायूँ आँखें बन्‍द किए निश्‍चेष्‍ट पड़ा है, कोई उत्तर नहीं देता।"

माहम: [दीन स्‍वर में] जहाँपनाह! मेरे सरताज! आपके कई लड़के हैं, लेकिन मेरा... मेरा यह एक हुमायूँ ही है। चार औलादों में एक यही बच रहा है। मैं अपनी इन्‍हीं बदनसीब आँखों से, एक के बाद दूसरे को, मौत के मुँह में जाते देखती रही हूँ और सीने पर पत्‍थर रखकर सब बर्दाश्‍त करती गयी हूँ, लेकिन आज... अब नहीं...यह आखिरी औलाद... यह कलेजे का टुकड़ा... ! नहीं...नहीं, माँ का दिल इससे ज्‍यादा तंग...नहीं हो सकता... ! मैं अपनी इन बदनसीब आँखों को फोड़ लूँगी, लेकिन हुमायूँ की मौत नहीं देख सकती... नहीं देख सकती! [सिसकने लगती है।]

बाबर : [प्रेम से उठाकर सिर पर हाथ फेरते हुए] माहम! मलका! घबराओ मत!

माहम: [रोते हुए] सरताज! मैं न घबराऊँ तो और कौन घबराये? काश! आपको एक औरत—एक माँ—का दिल मिला होता! मुझे यह धन-दौलत कुछ नहीं चाहिए लेकिन मेरा बेटा... या खुदा! मेरा यह बेटा मुझसे न छीन! एक माँ का दिल तोड़कर—उसकी दुनिया उजाड़कर—तुझे क्‍या मिल जाएगा? मेरे सरताज! मैं आपके पैरों पड़ती हूँ। जैसे-भी हो, मेरे बेटे को बचाइए। आपको बादशाहत प्‍यारी है, लेकिन मुझे...मुझे मेरा बेटा प्‍यारा है। मेरे सरताज!

बाबर : [रुककर कुछ सोचता हुआ] हजारों आदमियों की जान लेने की ताकत हम में थी लेकिन आज एक आदमी की जान बचाने की ताकत हम में नहीं है। कैसी लाचारी है? [थोड़े आवेश में] किसी इन्‍सान को वह चीज लेने का क्‍या हक है जिसे वह दे नहीं सकता। बादशाहत! बादशाहत! यही बादशाहत है जिसके लिए बचपन से लेकर आज तक हम एक दिन भी चैन की नींद नहीं सो सके। और उसका नतीजा! [लम्‍बी साँस लेकर] सारी दौलत, सारी सल्‍तनत सामने पड़ी है और बादशाह का बेटा दम तोड़ रहा है। कोई तरीका, कोई हिकमत कारगर नहीं हो पाती। यही एक जगह है, जहाँ बादशाह और फकीर में कोई अन्‍तर नहीं रह जाता। हमसे वह कंगाल सौ गुना अच्‍छा जो चैन की नींद तो सोता है, बेफिक्री से जिन्‍दगी बिताता है।

हकीम : बड़े भाई! मैं क्‍या सोचूँ? मेरा सोचना और न सोचना तो दवा पर मुनहसर है और दवा कारगर नहीं हो रही है।

अबू बका : तो तुम क्‍या समझते हो कि दुनिया की तमाम बीमारियों की दवा तुम्‍हारे इन अर्कों, सफूफों और रूहों में ही महदूद है? कभी उस पर भी खयाल किया है कि जो इन दवाओं को ताकत बख्‍शता है? अगर उसकी नजर है तो तुम्‍हारे अर्क और सफूफ आबेहयात हैं; नहीं तो महज मिट्टी या गर्द, बस। तुम भले ही उम्‍मीद हार बैठे हो लेकिन मैं मायूस नहीं हूँ।

हकीम : बड़े भाई! मुर्तजा की ताकत तो अर्कों ओर सफूफों तक ही खत्‍म है।

अबू बका : हुक्‍म हो तो जहाँपनाह की खिदमत में मैं एक दवा अर्ज करूँ ?

अबू बका : मेरे उस्‍ताद, जिनकी बात के खिलाफ आज तक मैंने कुछ होते नहीं देखा और जिन्‍हें जहाँपनाह भी अच्‍छी तरह जानते हैं, कहा करते थे कि ऐसे मौके पर सबसे अजीज चीज खुदाताला को भेंट करने पर अकसर दम तोड़ते हुए मरीज को भी भला-चंगा होते हुए देखा गया है।

बाबर : [खुशी से] सच?

बाबर : [बात काटकर] मौलाना! आप शाहजादे की जिन्‍दगी को एक छोटी-सी बात समझते हैं ? जिसे आप शाहंशाहे-हिन्‍दुस्‍तान कहते हैं उसके दिल की एक-एक धड़कन हुमायूँ की जिन्‍दगी की मिन्‍नत की आवाज है। आज आपके सामने शाहंशाहे-हिन्‍दुस्‍तान नहीं, एक इन्‍सान — मामूली इन्‍सान खड़ा है, और जिन्‍दगी से उसके बेटे की जिन्‍दगी कहीं बेशकीमत है।

बाबर : आप जो कहिएगा उसे हम समझ रहे हैं। अगर आप यह सोचते हैं कि हुमायूँ के नहीं रहने पर हम जिन्‍दा रह सकेंगे तो आप धोखे में हैं।

अबू बका : जहाँपनाह! मेरे कहने का मतलब कुछ दूसरा है। मैं अर्ज करना चाहता हूँ कि क्‍यों नहीं उसे ही खुदा को भेंट किया जाए ?

बाबर : [एकाएक हुमायूँ के चेहरे की ओर देखकर घबराई हुई आवाज में] वह देखिए हकीम साहब! शाहजादे के चेहरे पर सफेदी छा रही है। आँख डरावनी लग रही है। [आवेश में] नहीं, नहीं अब ज्‍यादा सोचने का वक्‍त नहीं है। हमारे जीते-जी हुमायूँ को कुछ नहीं हो सकता। हम उसे बचाएँगे, जरूर बचाएँगे। हीरे और पत्‍थर से काम नहीं चलेगा। खुदाताला की खिदमत में हम खुद अपनी जान हाजिर करते हैं।

[बाबर तेजी से गम्‍भीरतापूर्वक हुमायूँ के पलंग की चारों ओर घूमने लगता है।]

अबू बका : [और हकीम घबराकर] आलमपनाह! आलमपनाह! यह क्‍या कर रहे हैं ? खुदा के लिए...।
बाबर : [कठोर स्‍वर में] खामोश! शाहंशाहे-हिन्‍दुस्‍तान का हुक्‍म है कि आप खामोश रहिए। हम जो कर रहे हैं उसमें खलल न डालिए। [तीन बार पलंग की परिक्रमा कर हुमायूँ के सिरहाने जमीन पर घुटने टेक कर बैठ जाता है। हाथ जोड़कर आँखें बन्‍द कर लेता है और मुँह कुछ ऊपर उठाए हुए शांत गम्‍भीर स्‍वर में कहता है।] या खुदा! परवरदिगार! तेरी मेहरबानी से मैंने एक-से-एक मुश्किलों पर फतह हासिल की है। मैं हर गाढ़े वक्‍त पर तुझे पुकारता रहा हूँ और तू मेरी मदद करता रहा है। आज एक बार फिर इस मौके पर तेरी उस मेहरबानी की भीख माँगता हूँ। अपने बेटे की जान के बदले मैं अपनी जान हाजिर करता हूँ। तू मुझे बुला ले, लेकिन उसे अच्‍छा कर दे...।

हकीम : [आश्‍चर्य और प्रसन्‍नता से] आलमपनाह! शाहजादा ने आँखें खोल दीं। आज सात रोज के बाद...।

बाबर : [प्रसन्‍नता से] हमारी आवाज अल्‍लाहताला तक पहुँच गई... पहुँच गई! अल्‍लाहो...अकबर...।

[बाबर धीरे-धीरे उठकर हुमायूँ के सिर पर हाथ फेरता है।]

बाबर अचानक से एक-दो बार जोर से सिर हिलाता है जैसे कोई तकलीफ हो। हकीम साहब! हमारे सर में जोर का चक्‍कर और दर्द मालूम हो रहा है। एक अजीब बेचैनी मालूम हो रही है।

[बाबर कमजोर और सुस्‍त एक पलंग पर पड़ा है। कभी-कभी दर्द से कराह उठता है पर चेहरे पर से अफसोस के बदले खुशी जाहिर हो रही है जैसे इस बीमारी की उसे कोई चिन्‍ता न हो। पलंग के एक बगल में एक तिपाई पर हकीम और दूसरी पर अबू बका बैठे हैं। दूसरे बगल में माहम और हुमायूँ चिन्तित भाव से चुपचाप खड़े हैं।]

बाबर : अब तो कूच की तैयारी है। जितनी देर तक साँस चल रही है, वही बहुत है। पसलियों में बेहद दर्द है, साँस नहीं ली जाती। अल्‍लाहताला बुला रहा है।

बाबर : आज हमें एक ही बात का अफसोस है। जिसकी सारी उम्र लड़ाई के मैदान में कटी उसकी मौत बिस्‍तर पर हो रही है। [खाँसता है] हम लड़ते-लड़ते मरने के ख्‍वाहिशमंद थे। खुशकिस्‍मती से एक ऐसे मुल्‍क में पहुँच भी गए थे जहाँ बहादुरों की कमी नहीं थी — लेकिन वह अरमान... [खाँसता है। हिन्‍दुस्‍तान बड़ा बुलन्‍द मुल्‍क है। यहाँ के राजपूतों के लिए हमारे दिल में बड़ी इज्‍जत है। वे दरसअल दिलेर और बहादुर हैं। मरना या मारना किसी को इनसे सीखना चाहिए।

बाबर : हकीम साहब! अब दवा न दीजिए। यह हिचकी है या खुदा का पैगाम है। [फिर हिचकी आती है]

माहम : [करुण स्‍वर में] या खुदा, यह कैसा इम्तिहान है ? एक ओर लख्‍तेजिगर को जिन्‍दगी बख्‍शी तो दूसरी ओर सरताज को इतनी तकलीफ दे रहा है।

बाबर : मलका! परवरदिगार के शुक्र के बदले शिकवा ? अल्‍लाहताला का हजार-हजार शुक्र है कि उसने हमारी इल्‍तजा सुन ली, हमारी उम्‍मीद और अरमानों के चमन को सरसब्‍ज रहने दिया, हमारी आँखों की मिटती हुई रोशनी लौटा दी। तभी तो हम आज शहजादे को भला-चंगा देख रहे हैं।

बाबर : [बात काटकर] हमारी फिक्र छोड़ो, मलका! हमने तो खुद यह तकलीफ माँगी है। हमें बहुत बड़ा फख्र है कि हमारे मालिक ने अपने ऐसे नाचीज बंदे की अदना-सी भेंट कबूल फर्मा ली। [दर्द से करवट बदलता है]
बाबर : सेहत! बेचारे हकीम साहब! बेटा! हमने हिन्‍दुस्‍तान को फतह किया, हकूमत की बुनियाद भी डाली मगर सल्‍तनत की ऊँची इमारत तैयार करने के पहले ही हमें जाना पड़ रहा है। अब उस इमारत को पूरा करना और कायम रखना तुम्‍हारा काम है। [हिचकी आती है।] जंग के मैदान में हमारी तलवार के वार कभी ओछे नहीं पड़े और अमन के जमाने में हमारी दानिशमंदी ने कोई गलत रवैया भी अख्तियार नहीं किया। बादशाहत के लिए दोनों चीजें एकसाँ जरूरी हैं। [दर्द से करवट बदलता है।] आह, सिर फटा जा रहा है।

बाबर : मलका! हम माँ-बेटे को एक-दूसरे को सुपुर्द करते हैं। [माहम सिसक-सिसककर रोने लगती है] बेटा, सिपहसालार को बुलाओ। [एक आदमी बाहर जाता है] और सुनो। इधर नजदीक आओ। [आवाज पहले से धीमी पड़ जाती है] आज से इस सल्‍तनत के तुम मालिक हो। [खाँसता है] तुम नेक और आजादखयाल हो। अपने भाइयों और बहनों को मुहब्‍बत की नजर से देखना। उनसे कोई गलती भी हो तो माफ करना। [हिचकी आती है] आह! साँस लेने में बड़ी तकलीफ है। [जोर से साँस लेता है]

बाबर : हम कूच कर रहे हैं। हमारे बाद शाहजादा हुमायूँ हिन्‍दुस्‍तान के बादशाह होंगे। [खाँसता है] आप सबों से उन्‍हें उसी तरह मदद मिलनी चाहिए जिस तरह हमें मिलती है। आह! बेटा! पानी! [हुमायूँ मुँह में पानी देता है] बेटा, यहाँ जितने हैं सबों का हाथ पकड़ो। [हिचकी आती है] सबों की परवरिश करना। [जोर से साँस लेता है] या खुदा! और हाँ, हमारी आखिरी ख्‍वाहिश... [हिचकी आती है] हमें यहाँ न दफना कर काबुल की मिट्टी में दफनाना। यह हमारा आखिरी हुक्‍म... और... ख्‍वाहिश है। [हिचकी] तुम सब... आबाद रहो [जोर की हिचकी] अल...विदा। अल्‍लाहो...अ...क...ब...र... [हिचकी के साथ शांत हो जाता है।]

Sunday, October 2, 2016

ऊटी से केरल की ओर ।।
चाय के हरे भरे बागानों में और वौटोनिकल पार्क में चहलकदमी करने के बाद केरल के वैक वाटर्स में नौकायान करने को मन मचलने लगा। अमिताभ बच्चन की ग्रेट गैम्बलर में इटली की शानदार और खूबसूरत नहरों में नौकायन करते हुये एक गाना फिल्माया गया था," दो लव्जों की है यही कहानी ...... " वेनिस की वो नहरें आज भी मेरा ड्रीम प्रोजेक्ट बनीं हुईं हैं। तभी किसी लेख में पढा कि इटली जैसी नहरें हमारे केरल में भी हैं। केरल की खूवसूरती शब्दों में बयां नहीं की जा सकती, इसे तो केवल जीया जा सकता है।
ऊटी से मेटुपलयम स्टेशन तक चलने बाली पहाडों की रानी टौय ट्रैन खुद में एक जन्नती अनुभव है। नीली नीली पहाडियों के बीच से धुंआ छोडती और सीटी मारती ये ट्रैन गजब का अनुभव है।


 मैट्टुपलयम तक बडी गाडियां भी आतीं हैं पर यदि न मिले तो एक घंटे की दूरी पर कोयम्बटूर से कहीं के लिये भी ट्रैन्स मिल जाती है। मैं केरल की नहरों के सपनों में खोया कोयम्बटूर होते हुये कोच्चि जा पहुंचा। कोच्चि में बन्दरगाह पर बने फुटपाथ पर घूमता रहा जहां वोम्वेनाड झील और अरब सागर का मिलता साफ दिखायी देता है। वहीं घूमते हुये बहुत सारे लोगों से बात हुयी जिन्हौने मुझे मंदिर सजेस्ट किये थे। सिटी बस में पूरा शहर भी घूमा। लेकिन कोच्चि में कोई खास आनंद नहीं आया क्यूं कि दिमाग में तो वही नहरें और उनमें दौडती नौकायें थीं। एक बार सोनी टीवी पर सीआईडी बाले किसी अपराधी का पीछा करते हुये केरला के वैक वाटर्स में स्पीड वोट्स दौड लगा रहे थे तभी से मेरे दिमाग में केरला की नहरें घूम रहीं थीं।
केरल उत्‍तर और दक्षिण दो हिस्‍सों में बंटा है। हालांकि, केरलम यानी केरा (नारियल) के पेड़ों से लदे इस प्रदेश का पश्‍चिमी हिस्‍सा अरब सागर से लगा है, लेकिन पूर्वी हिस्‍से पर चाय के बागानों से सजे ऊंचे हरे-भरे पहाड़ हैं। उत्‍तर और दक्षिण के हिस्‍सों को जोड़ती हैं 1500 किलोमीटर लंबी नहरें। केरल की 38 बड़ी नदियों और 5 बड़े सरोवरों का पानी इन्‍हीं नहरों के जरिए समुद्र में जा मिलता है। इस बैकवॉटर वाला हिस्‍से में सबसे मशहूर है दक्षिण से उत्‍तर केरल की ओर जाने वाला 85 किलोमीटर लंबा जलमार्ग, जो बड़े हाउसबोट्स और नावों के लिए मुफीद है। भारत में तीन राष्‍ट्रीय जलमार्ग हैं। यह जलमार्ग उनमें से एक है। हालांकि केरल की असल खूबसूरती बेहद खूबसूरत चाय बागानों, बैकवॉटर और अरब सागर के समुद्र तटीय बीच के हिस्‍से हैं।
कोच्चि से ट्रैन से एलप्पी पहुंचने का रास्ता भी खुद अपने आप में एक अलग ही अनुभव है। केरल की पूरी लम्बाई को यह ट्रैन पार करती है। रेलवे पाथ के दोनों ओर नहरें और घने पेड अपनी ओर खींचते हैं। एलेप्पी में जहां चारों तरफ बडी बडी नहरें ही नहरें हैं और उनमें वोटिगं का गजब का आनंद मिलता है। इन नहरों का पानी बैक वाटर्स के नाम से जाना जाता है। बैकवॉटर्स यानी समुद्र की लहरों के साथ आया वह पानी जो झील के रूप में बदल गया। अलेप्पी स्टेशन से करीब दस मिनट के रास्ते पर वोट जेट्टी है। यदि आप पर्सनल वोट लेना चाहें तो पांच सौ से तीन हजार हजार के बीच है। इसके अलावा सरकारी वोट भी चलती है जो मात्र पच्चीस रूपये में दो घंटे की यात्रा कराती है। वेम्बनाड़ लेक में मोटरबोट से तकरीबन दो घंटे की इस यात्रा का रोमांच हमेशा के लिए हमारे साथ रह जाने वाला था। अरब सागर के किनारे-किनारे बनी इसी लेक में केरल की प्रसिद्घ बोट रेस का आयोजन भी हर साल होता है। दूर दिखाई देते चर्च, पानी के बीच लगे साइन बोर्ड, लेक के बीच उभरा जमीन का कोई हरा-भरा टुकड़ा, उस पर नारियल के पेड़ों के नीचे एक झोंपड़ी और पानी बंधी हवा में हिलती छोटी-सी नाव। ‘अलप्पी को पूर्व का वेनिस’ ऐसे ही नहीं कहा जाता।
 हाउसबोट, जिसे मलयालम में यहां केतुवेल्लम कहा जाता है, में भी ठहरने की व्यवस्था रहती है।
अलप्पी बैकवॉटर्स के लिए प्रसिद्घ है, मगर यहां के छोटे से समुद्रतट पर आप अरब सागर के विस्तार कभी नहीं भूलेंगे। बीच पर ही बनी किसी कॉफी शॉप में देर तक बैठें, वहीं बेशक दक्षिण भारतीय खाना खाएं, सोने के जगमगाते गहनों के बाजारों से गुजरें और जेटी पर इंतजार करती बोट से होते हुए अपने रात के ठिकाने पर लौट आएं। रात को पानी के बीच बसी दुनिया की जलती-बुझती रोशनियां होती हैं, कोई देर से घर लौटती नाव या होता है सन्नाटा। सैलानियों की बोट से कभी-कभी उठता संगीत किसी दूसरी दुनिया से आता लगता है।
अलप्पी से कोलम का आठ घंटे का मात्र चार सौ रूपये की टिकट पर नौका सफर केरल की बस्तियों और शहरों के बीच का सफर जन्नत में होने का एहसास कराने बाला होता है। नारियल के झुरमुटों में बसे खूबसूरत घर। डूबता सूरज और लहरों का उठता-जाता शोर। गजब का द्श्य मानो वक्त ठहर गया हो।
तिरूअन्तपुरम से पहले एक बहुत फेमस जगह अम्रतापुरी कोलम  आयी जहां जानी मानी आध्यात्मिक हस्ती अम्रतामयी माता उर्फ अम्मा का आश्रम है जहां हजारों श्रद्धालु आते जाते हैं। पूरा दिन अलेप्पी में बिताने के बाद रात को तिरुअन्तपुरम के लिये ट्रैन पकडनी थी। रात को कोलम के रेलवे प्लेटफार्म पर ट्रैन के इतंजार में लेट गया। रेलवे पुलिस अधिकारी मुझे नोटिस कर रहा था। दर असल मुझे लौटते हुये रात हो चुकी थी और मैं सुबह छ बजे तक तिरुअन्तपुरम पहुंचना चाह रहा था इसलिये मैं सुवह के इंतजार में रात की तीन गाडियां निकाल चुका था। उसे ज्यादा शक हुआ तो मुझे पुलिस थाने ले गया।
करीब दो घंटे की कडी पूछताछ के बाद मुझे यह कहते हये छोडा कि बडी किस्मत बाले हो यार , शादीशुदा होने के वावजूद इतनी आजादी से घूम रहे हो।
आखिरकार करीब चार बजे की ट्रैन से एक घंटे मे त्रिअन्तपुरम पहुंच गया। सबसे पहले पदनाभ स्वामी मंदिर गया जो स्टेशन से बस एक किमी की दूरी पर है। ये दक्षिण भारत का वही प्रसिद्ध मंदिर है जहां करोंडों का खजाना छुपा है।
पद्मनाभस्वामी मंदिर भारत के केरल राज्य के तिरुअनन्तपुरम में स्थित भगवान विष्णु का प्रसिद्ध हिन्दू मंदिर है। भारत के प्रमुख वैष्णव मंदिरों में शामिल इस ऐतिहासिक मंदिर का पुनर्निर्माण त्रावनकोर के महाराजा मार्तड वर्मा ने करवाया था। मंदिर के गर्भगृह में भगवान विष्णु की विशाल मूर्ति विराजमान है। इस प्रतिमा में भगवान विष्णु शेषनाग पर शयन मुद्रा में विराजमान हैं।  यहाँ पर भगवान विष्णु की विश्राम अवस्था को 'पद्मनाभ' कहा जाता है और इस रूप में विराजित भगवान यहाँ पर पद्मनाभ स्वामी के नाम से विख्यात हैं।
अतं में समुद्र किनारे पहुंचा जहां खूव खुल कर मस्ती की। मछुआरों के साथ बैठ कर घंटे भर बतियाया। बीच पर वोटिगं की। स्विमिगं की।
समुद्र का बेहद खूबसूरत तट। एक जीवंत शाम। हर तट पर समुद्र अलग चेहरे के साथ होता है।
फिर भी बहुत पहचाना-सा। बचपन की भूगोल की किताबों से निकल कर मालाबार तट सामने आ खडा हुआ था। लहरें आ-आ कर लौट रही थीं। मछुआरे समुद्र में उतर पड़े थे, समुद्र के ऊपर बहती हवा कुछ ज्यादा ताजी थी।
रात हो रही थी और मुझे अभी तमिलनाडु की तरफ निकलना था।


Saturday, October 1, 2016

ऊटी की यात्रा

ऊटी की यात्रा ।।

ऐसे तो मैं पैदाईसी घुमक्कड हूं , पिछले तीस वर्ष से घूम रहा हूं और लगभग पूरा भारत घूम डाला लेकिन ये न पता था कि कभी मुझे फेसबुकिया लेखक या ब्लागर बनने का भी मौका मिलेगा वरना उन यादों को और सहेज कर रख पाता।
नीलगिरी की नीली नीली पहाडियां मुझे बुला रहीं थी और मैं उतावलेपन में बिना किसी कैमरे इत्यादि के बिना किसी साथी के अकेला ही उधर दौड पडा था। अब तो खैर मैं अकेला पागल नहीं हूं , दीवानों की पूरी एक टीम है मेरी पर एक दो साल पहले तक मेरे शहर में मैं अकेला ही दीवाना था जो पहाडों की खाक जानते फिर रहा था।
जानकारी के अभाव में मुझे ऊटी के नजदीकी हिल स्टेशन कुर्ग जैसे स्वर्ग को मिस कर देने का आज भी मलाल है क्यूं कि मैं ऊटी से सीधे केरल की तरफ कूच जो कर गया था। इस बार सर्दियों में जाऊंगा तो यात्रा की शुरुआत मैसूर से होगी।
कुर्ग , कर्नाटक का सबसे छोटा जिला, एक स्वर्ग का टुकडा है जहां उडते बादलों के बीच हरी भरी पहाडियों की ढलानों पर आप पशु पक्षियों के बीच भरपूर मस्ती कर सकते हैं। इलाइची,काली मिर्च,शहद और फूलों की मनमोहक सुगंध वाला शहर मदिकेरी कर्नाटक के कूर्ग जिले का मुख्यालय है। इसकी खूबसूरती और प्राकृतिक सौंदर्य के कारण मदिकेरी को दक्षिण का स्कॉटलैंड भी कहा जाता है। यहां की धुंधली पहाड़ियां, ठंडी हवाएँ, हरे वन, कॉफी के बागान और प्रकृति के खूबसूरत दृश्य मदिकेरी को हमेशा याद रहने वाला पर्यटन स्थल बनाते हैं। मदिकेरी का वातावरण,जंगल की ढलानें,विलक्षण गाँव,रंगीन दृश्य,मनमोहक खुशबू,शांत पर्यावरण,कल-कल करती नदियां,पशु-पक्षी,घने जंगल और झरनों से गिरता मोतियों सा पानी स्वर्ग का एहसास दिलाता है। कुर्ग को कोडागू भी कहा जाता है। इसका अर्थ है-सोती पहाड़ियों पर बसा धुंध जंगल। कुर्ग के बारे में बताने को बहुत कुछ है पर बाकी की कहानी मैं आपको इस बार की सर्दियों की छुट्टियों में सुनाऊंगा। साक्षात दर्शन कराऊंगा इस बार की यात्रा में।
ऊटी कोई बहुत मंहगी जगह नहीं है। मात्र तीन सौ रुपये में कमरा मिल गया था मुझे और वो भी स्टेशन के सामने ही। कमरे में सामान आदि रखकर फ्रैश होकर पैदल ही निकल पडा झील की ओर। स्टेशन के बगल से ही रोड जा रही है और नजदीक ही है।

ऊटी की झील में बतख बाली पैडल वोट तलाश रहा था कि तभी दिल्ली के एक प्रोफेसर से मुलाकात हुई और मुलाकात होने की बजह शायद मेरा हिंदीभाषी होना ही होगा। उनके परिवार में तीन लोग थे और वोट को संतुलित रखने के लिये चार की आवश्यकता थी। हालांकि वोट में बैठने से पहले मुझे मेरे हिस्से के सत्तर रूपये बता दिये गये थे लेकिन वोटिगं के दौरान वो परिवार मेरे इतने करीब आ गया कि मेरी काफी जिद के बाबजूद उन्हौने मुझसे पैसे नहीं लिये। दिन ढलने को था। हवा में हल्की हल्की सी ठंड आने लगी थी। दिन भर की यात्रा की थकान की बजह से भूख और तेज लगने लगी थी। थोडी कोशिष करता तो शायद गेहूं की रोटी और सब्जी बाला भोजनालय भी मिल जाता पर भूख जोर मार रही थी और पैर दर्द के मारे कीर्तन कर रहे थे इसलिये नजदीकी ही एक भोजनालय पर बैठ गया। पता चला रोटी नहीं थी उसके पास। सिर्फ इडली सांभर और डोसा आदि साऊथ इंडियन भोजन ही था। मरता क्या न करता। भूख बहुत बुरी बनायी है, इंसान भूखा हो तो पत्थर भी चबा जायेगा ये तो डोसा ही था। थाली की बजाय केला का पत्ता विछा गया टेबल पर । डोसा लाया पर बिल्कुल सफेद लचीला डोसा। बाल्टी में से चमचा भरकर सफेद चटनी उसी पर फैला गया। सांभर भी ऐसा कि ना मिर्च और ना मसाला। ये कमबख्त इतना मसाला पैदा करते हैं कि वास्को दा गामा जैसों को बुला लेते हैं तो फिर अपनी सब्जी में डालने पर इतना जोर क्यूं पडता है। सरसों के तेल में छुकी सब्जी खाने बाला नारियल के तेल बाली सब्जी बडी मुश्किल ही खापेया, आनंद ही नहीं आता खाने में। खैर हम तो घुमक्कड हैं हमें घास फूस खाने की भी आदत होनी चाहिये। विपरीत परिस्थितियों में हमें सांप बिच्छू छिपकली भी खानी पड सकती है । मरे ऊंट के पेट में से पानी निकाल कर भी पीना पड जाता है। खुद का मूत भी पीना पड सकता है क्यूं कि जान है तो जहान है।

शेष अगले अंक में

ऊटी की यात्रा

"ऊटी ऊटी प्यार की बोटी""
ऋषि कपूर की फिल्म " कर्ज " के गाने " दर्दे दिल दर्दे जिगर ...... आशिक बनाया आपने " के अतं में टीना मुनीम एवं अन्य लडकियों के झील में गिरने बाले द्रश्य ने इतना रोमांचित किया था कि उसी दिन ऊटी जाने की ठान लिया था।
धौलपुर से पकडी हिमसागर एक्सप्रैस ने मुझे
कोयंबटूर (दक्षिण भारत का मैनचेस्टर) छोड दिया था। चूंकि मुझे टाय ट्रैन से ही ऊटी जाना था अत: मुझे मेट्टुपालयम पहुंचना पडा जो बहां से 38 किमी की दूरी पर है।
मेट्टुपालयम, नीलगिरी पैसेंजर (एनएमआर) का रेलवे जंक्शन है और यात्रीगण यहां से ब्रॉड गेज रेलवे के लिए बदल सकते हैं। नीलगिरी एक्सप्रेस (ब्लू माउंटेन एक्सप्रेस) मेट्टुपालयम को कोयम्बटूर के माध्यम से राज्य की राजधानी चेन्नई से जोड़ती है। यह अपनी ऊटी ट्रेन "नीलगिरी पैसेंजर" के लिए प्रसिद्ध है जो कि एशिया की एकमात्र रैक एंड पिनियन रेलवे है।
मेट्टुपालयम, नीलगिरी पहाड़ियों को जाने वाली दो घाट सड़कों के लिए शुरुआती स्थान के रूप में कार्य करता है।
ऐसे तो ऊटी के लिये वाहनों की खूव सुविधा है पर
वनाच्छादित पर्वतों के मनोरम दृश्य को देखने के लिए आप मेट्टुपालयम से ऊटी की टाय ट्रेन यात्रा ही करें। नैरो गेज की यह पहाड़ी ट्रेन मेट्टुपालयम के मैदानी इलाकों से शुरू होकर जंगलों, चाय के बागानों, 16 सुरंगों, तथा 250 से अधिक पुलों के रास्ते 46 किलोमीटर का सफर तय करती है। इसके चलने की गति तो काफी कम है (यात्रा में साढ़े चार से पांच घंटे लगते हैं) लेकिन पहाड़ों तथा मैदानी इलाकों के विलक्षण दृश्य इसकी पूर्णतया भरपाई कर देते हैं। मेट्टुपालयम की ट्रेन यात्रा पर्यटकों के लिए सबसे मनोरंजक और यादगार लम्हों में से एक है। भाप इंजन वाली इस ट्रेन को ब्रिटिश काल में बनाया गया।
छुक छुक करती धुआं उडाती नीले नीले पहाडों में चडती जाती खिलौना गाडी ने मुझे आखिरकार उसी झील के पास पहुंचा ही दिया। स्टेशन के नजदीक ही मात्र तीन सौ रुपये में एक कमरा मिल गया।
सबसे पहले बाजार घूमते हुये वौटौनिकल गार्डन पहुंचा। 22 हेक्टेयर में फैले इस खूबसूरत बाग में दो करोड बर्ष पुराने एक पेड़ के जीवाश्म संभाल कर रखे गए हैं।
उसके बाद शाम को झील पहुंचा जहां बतख पैडल वोटिगं का आनंद लिया। ऊटी झील का निर्माण यहां के पहले कलक्टर जॉन सुविलिअन ने 1825 में करवाया था। यह झील 2.5 किमी. लंबी है।
दस किमी दूर पर्वतीय डोडाबेट्टा चोटी जिले की सबसे ऊंची चोटी मानी जाती है। जहां से आसपास का मनोरम द्रश्य देखा जा सकता है।
यदि आप शेर चीतों आदि जानवरों से हाथ मिलाने एवं प्यार मुहब्बत की बात करने के इच्छुक हों तो नजदीक ही मदुमलाई वन्यजीव अभ्यारण्य जरूर जायें और कलहट्टी जलप्रपात झरना( 100 फीट ऊंचा ) का आनंद भी जरूर लें।

Sunday, September 11, 2016

ईश्वरीय दूत

बच्चों की जानने की लालसा बडी तीव्र होती है और वे अक्सर अपने पिता से ढेरों सवाल पूछा करते हैं।
“पापा, ईश्वर कौन होता है ? कहां रहता है ? हमें दिखता क्यूं नहीं है ? इस धरती को किसने बनाया ? ये नदियां और ये आसमान क्या हैं ? आदमी को किसने बनाया ? पापा बताओ क्या वाकई ईश्वर हमारे पास फरिस्ते भेजता है ? क्या वाकई वो अवतार लेकर धरती पर आते हैं ?
लगभग हर पिता अपने बच्चों को अपनी बुद्धि विवेक और अपनी धार्मिक आस्था के हिसाब से अपने बच्चों को समझा भी देता है और बच्चे वही मान भी लेते हैं क्यूं कि उन्हें अपने पिता पर भरोषा है।
अब जिम्मेवारी पिता की है कि वह अपने बच्चों को अपनी धार्मिक किताबों से रटी हुई कहानियां सुनाकर शांत करता है या वाकई तर्कों द्वारा ईश्वर और उनके भेजे गये पैगम्बरों की हकीकत बताता है। एक बार बस एक बार हम यह दुनिया कितनी बडी है इस विषय पर सोचें। आदमी एक छोटी सी इकाई मात्र है। हमारी पृथ्वी हमारे गृह सूरज का अन्य उपग्रहो के साथ  एक उपगृह मात्र है। सूरज हमारी आकाशगंगा का एक छोटा सा गृह मात्र है। हमारी आकाश गंगा में कितने तारे है यह कोई परिकल्पना नही कर पाया। फिर हमारे  खगोल में कितनी आकाश गंगा है यह भी कल्पना से परे हैं। जो इन्सान इस बृम्हान्ड के आकार की परिकल्पना नही कर सकता वह इसके बनने की या बिगडने की परिकल्पना करे तो मूर्खता को सिवाय कुछ नही है। सोचो जब हम इस खगोल की तुच्छतम इकाई सूरज को करोडो किमी की दूरी से भी आंखभर नही देख सकते। जब हम इन छोटा सी आंखो से पूरी धरती को भी नही देख सकते। तो क्या इतने बडे बृम्हांड के बनाने वाले निर्माता को इन तुच्छ आंखो से देख सकते हैं ? सोचो जब जिसकी बनायी चीजे इतनी बडी है कि उनको देखने की बात तो छोडो उनके आकार की भी परिकल्पना हम नही कर सकते तो उन चीजो के निर्माता को देखने का दम्भ कैसे भर सकते है ?  जिसके बनाये खिलौने इतने बडे है वह खुद कितना बडा होगा यह कल्पना से भी परे की चीज है। कोई व्यक्ति या कोई किताब इस असीमित अनन्त अकथनीय मिथक को कैसे जान सकती है, जिसकी कल्पना भी नही कर पा रहे उसे नापने की ?
आदिमानव को बस भोजन और शरण चाहिये थी जो इन जंगलों और गुफाओं ने प्रदान कर दी थी। ना तो उसे किसी भगवान पर फूलमाला चडाने की जरूरत थी और ना ही किसी शैतान पर पत्थर फेंकने की। उसके लिये तो ये पत्थर ही था बस। ना तो ये पत्थर भगवान था और ना शैतान। इस पत्थर को भगवान या शैतान बनाने की जरूरत उन बुद्धिजीवियों को पढी जो अपनी बल और बुद्धि की शक्ति के बल पर अन्य पर राज करना चाहते थे। और ये सब संभव हुआ उस भय के कारण जिसे कम बुद्धि का मानव समझ न सका। बादल का गरजना, बिजली का कडकना और आंधी तूफान वर्षा ने डराया तो उसे खुश करने के लिये उसे ही पूजने लगे। हजारों साल तक यही सब चलता रहा तब तक कि कोई नयी थ्यौरी न लेकर आ गया। खुद को ईश्वर का भेजा हुआ दूत बताकर उन पत्थरों को भगवान मानने की वजाय शैतान मानने पर जोर देने लगा मानो कि पत्थर को शैतान मानने से ही सारी समस्याएं हल हो जायेंगी।
लोगों ने मान भी लिया। मूर्ति पूजक सभ्यताएं समाप्त हुईं और मूर्ति विनाशक सभ्यता का उदय हुआ। फिर क्या सब कुछ ठीक हो गया ?
अन्याय अत्याचार अशिक्षा भूख गरीबी दूर हो गयी ? शांति बहाल हुई ?
नहीं खून खराबा हुआ ? तरक्की के नाम पर हथियार बने इस खूबसूरत दुनियां को खत्म करने के लिये। स्वंय घोषित ईश्वर के दूतों का मकसद सुकून पहुंचाना नहीं बल्कि स्वयं की सत्ता की स्थापना करना था। हजारों लाखों अनुयायी पैदा करना था जो हो गये लेकिन दुनियां और ज्यादा बदसूरत हो गयी।
जो एकदम धार्मिक अंधा होगा वही भले न इन बातों पर सोचे पर जिसने थोडा बहुत भी इतिहास पढा होगा, समझ जायेगा कि पंथ विचारधारा और ईश्वर द्वारा पैगम्बर और अवतार उतारे जाने की कहानियां जनसामान्य को राहत देने हेतु नहीं बल्कि उनका खून चूसने के लिये बनायीं गयीं थीं।
कितने बडे आश्चर्य की बात है कि सेमेटिक रिलीजन्स यहूदी ईसाई और इस्लाम के पैगम्बर सिर्फ जेरूसलेम के इर्द गिर्द ही जन्मे और सत्ता प्राप्ति हेतु खूब खून खरावा किये और उधर भारतीय पंथों के सभी अवतार देवी देवता सिर्फ भारत में ही दानवों का नाश करते रहे।
यही कहानी हर सभ्यता की है। सेमेटिक रिलीजन्स की सच्चाई जाननी है तो यूनान, मिश्र और रोम की सभ्यता के उत्थान और पतन का इतिहास पढ लें सारे पैगम्बरों की पोल खुलती नजर आयेगी।
अब्राहम/ इब्राहिम इन तीनों ही रिलीजन्स का गौड फादर है और तीनों के लिये ही पूज्य है। मूलत: यहूदी कबीला सरदार जिसने सर्वप्रथम मूर्तिपूजा का विरोध किया।
यहीं से होती है ईश्वर के नाम पर सिंधु के उस पार सत्ता की खूनी शुरूआत।
जबकि सिंधु के इस पार जातीय सर्वश्रेष्ठता और जमीन की लडाई में एक जाति को देवता और दूसरी को दानव बना कर खूब खून की होलियां खेली गयीं तथाकथित धर्म के नाम पर।
सच कडबा होता है। धर्मों का नंगा नाच जानना और पहचानना चाहते हो तो उठाओ इतिहास और देखो कि किसी प्रकार खुद को ईश्वर का दूत बताकर राजाओं ने मासूमों का खून बहाया है इस जमीन की खातिर ।
मुझे हंसी तो उन मूर्खों पर आती है जो पढ लिख कर भी इस जुल्म को ईश्वर की इच्छा कहते हैं। सिंधु के उस पार और इस पार के ईश्वर भी अलग अलग थे क्या ?
सभ्यता के आरंभ से ही God fearing people रहे हैं God Loving नहीं। सामान्यत: माना जाता है कि मरने के बाद जीव की आत्मा परमात्मा में विलीन हो जाती है। अर्थात मानव मरने के बाद ईश्वर के पास पहुंच जाता है। यदि मनुष्य ईश्वर प्रेमी होता तो आज स्वेच्छा से मरने बालों की लाईन लग रही होती और मनुष्य मृत्यु से घवरा रहा नहीं होता।
ईसा से मात्र तीन हजार साल पहले तक विश्व के प्रत्येक कौने में मनुष्य आकाशीय शक्तियों से डरता रहा और उसी डर और लालच में उन्हें अपना देवता बना बैठा। यूनान रोम मिश्र सुमेरिया असीरिया हों या एशियाई सभ्यता , सिर्फ प्राकृतिक देवता ही मनुष्यों को डराते रहे और उसी डर में उन्ही देवताओं की स्तुति शुरू हो गयी।
साहित्य में उनका मानवीयकरण हुआ। शादियां हुईं । बच्चे भी हुये। उन्होने व्यभिचार भी किया। बलात्कार भी किये। लूटखसोट भी की और इन्ही देवताओं का डर दिखा कर तत्कालीन कबीले के सरदारों ने जनसाधारण का खूब शोषण किया। हिन्दू धर्म में जिसे देवता कहा जाता है, इस्ला‍म में उन्हें फरिश्ता कहा गया है। ईसाई धर्म में ऐन्जल कहते हैं।
इस प्रश्न का अभी सटीक जबाब कोई भी गृंथ नहीं दे पाया है कि ये देवता/फरिस्ते/एंजल शरीरधारी थे या बिना देह के। कुछ अति बौद्धिक तर्क देते हैं कि 12 हजार ईपू धरती पर देवता या दूसरे ग्रहों के लोग उतरे और उन्होंने पहले इंसानी कबीले के सरदारों को ज्ञान दिया और फिर बाद में उन्होंने राजाओं को अपना संदेशवाहक बनाया और अंतत: उन्होंने इस धरती पर कई प्रॉफेट/ पैगंबर पैदा कर दिए।
प्रश्न खडा होता है कि पिछले इन चौदह हजार वर्षों में फिर कोई एलियन धरती पर क्यूं नहीं उतरे और किसी पीएम को पैगम्बर बना कर क्यूं नहीं गये। इन्हौने सिर्फ राजाओं को ही पैगम्वर या अवतार क्यूं चुना किसी आम आदमी को क्यूं नहीं ? इन स्वर्गदूत ने यहां की स्त्रियों के प्रति आकर्षित होकर उनके साथ संभोग करना भी शुरू किया और यहां के उन्ही राजाओं से युद्ध भी करने शुरू कर दिये । बस यही नहीं इन्ही देवताओं की बजह से इंसानों में झगड़े चलते रहे। इंसानों में भी दो गुट बन गये। पहले वे जो इन देवताओं के साथ थे और दूसरे वे जो उन्हें शैतान मानते थे। विरोधी लोग रक्त की शुद्धता बनाए रखने के लिए उनका विरोध करते थे।
जबकि आज तत्कालीन साहित्य का अध्ययन करने के बाद हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि प्राकृतिक शक्तियों आंधी तूफान बिजली वर्षा बाढ सूखा गर्मी सर्दी से डर कर ही समाज ने काल्पनिक देवताओं का निर्माण कर दिया जिसे साहित्यकारों ने मानवीयकरण कर अपनी कथाओं के माध्यम से जनसाधारण के बीच स्थायी कर दिया।