Tuesday, January 17, 2017

ललितपुर से जबलपुर ।।










ललितपुर से सागर की तरफ चलते हुये अमराझार घाटी पार करते ही सूर्य भगवान प्रशन्न हो गये और अपनी स्वर्णिम किरणों से मेरा पथ नहला दिया । तभी गैल में मिले गजराज ने गले लगा लिया। दमोह पहुंचा तो सूर्य की तपन अपने प्रचंड रुप में थी।  जबलपुर अभी सौ किमी दूर था। भाष्कर प्रभू कह रहे, " राही तनिक विश्राम कर लो, कहां दौडे जा रहे हो, थोडा दम तो भर ले " बात भी सही थी। दोपहर के तीन घंटे पेडों की छांव में चादर बिछाकर झपकी लेने में बिताये।रुखी सूखी आवोहवा और कत्थई कलर के तपते पत्यरों के बीच कुछ आम के पेडों ने मुझे रिचार्ज कर दिया।
शाम चार बजे फिर निकल पडा जबलपुर की ओर। जबलपुर पहुंचते पहुंचते शाम के छ बज चले थे। मौसम ने अचानक से अंगडाई ली। आसमान में कारे कारे बदरा जाने लगे। एक जोर की आंधी और साथ में बौछार। मैं शहर में प्रवेश कर चुका था और एक रुम भी ले लिया था। रात को होटल में ही खा पीकर गहरी नींद सो गया।
अगली सुवह जबलपुर के तीन चार मित्रों से भी मिलना था लेकिन ये मेरा दुर्भाग्य ही था कि किसी से मुलाकात नहीं हो पायी।
अगले दिन सुवह जल्दी ही धुंआधार जलप्रपात की तरफ बढ गया। नर्मदे मैया को प्रणाम जो करना था। नर्मदा में नहाने की बजह से होटल से बिना नहाये ही निकल लिया था। नदी पर नहाधोकर और खूब सारा घूम फिर कर चौसठ योगिनी मंदिर भी गया। बिल्कुल संसदाकार मंदिर। एकदम गोल।
जबलपुर में एक देवी जिनसे मिलने के लिये ही खास तौर पर मैं उधर निकला, मिल भी गयीं और आशीर्वाद भी मिला। ये देवी हैं दीदी ज्ञानेश्वरी देवी जो बनवासी बच्चों का गुरुकुल ही नहीं चलातीं बल्कि कैंसर पीडितों के लिये एक हास्पीटल भी चलातीं हैं। कैंसर पीडित भी जो बिल्कुल लास्ट स्टेज में दीदी के पास आते हैं।
मृत्यु खतरनाक नहीं होती बल्कि उसका खौप डरावना होता है और जिस दिन मौत से प्यार करना आ गया, जीवन सरस हो जाता है।
मैं दीदी ज्ञानेश्वरी देवी जी से मिला। बहुत ही महान व्यक्तित्व। जितना मैंने इनके बारे में संजय सिन्हा भैया से सुना था, उससे भी बढकर हैं। इनकी महिमा को कुछ शब्दों में बयां नहीं कर सकता पर संक्षिप्त में बस इतना ही कि दीदी जिन्दगी देती है मरने बालों को।
जी हां , विराट हास्पिस एक हास्पीटल नहीं एक मंदिर है जहां मरते हुये लोगों को जीवन दिया जाता है। कैंसर से पीडित वो मरीज जो अपनी आखिरी अवस्था में मौत का इंतजार कर रहे होते हैं, दीदी के पास आते हैं। दीदी और संस्था के कर्मचारी इन्हें हंसना सिखाते हैं। हर वो खुशी देने की कोशिष करते हैं जिसकी हर इंसान को जरूरत होती है। मृत्यु तो अटल है, उसे कौन रोक सकता है ? वो तो आनी ही आनी है पर मौत आने से पहले जिन्दगी बांटती है दीदी। दीदी को अच्छे से पता है कि उनके हास्पीटल मेंआज जितने भी मरीज हैं, वो आज नहीं कल ये दुनियां छोड जायेंगे पर दीदी उन्हें हंसना सिखाती है।
दीदी की ये निश्वार्थ सेवा निसंदेह उन्हें दिव्य बनाती है। संजय सिन्हा भैया ने कुछ दिन पहले दीदी के बारे में लिखा था तभी से इनसे मिलने को आतुर हो उठा था मैं। भैया ने लिखा था,
" किशोरावस्था की जो उम्र आम लड़कियों के लिए परी लोक के राज कुमार के ख्वाबों और खयालों का होता है, उस उम्र में दीदी निकल पड़ी थीं, शिक्षा के प्रचार और प्रसार में।
अपने अभियान के इसी मिशन में वो पहुंचीं पंजाब से जबलपुर। यहां उन्होंने बहुत साल पहले बनवासी बच्चों की शिक्षा की नींव डाली। और अपने मिशन के इसी पाठ्यक्रम को आगे बढ़ाने के बीच उनकी मुलाकात हुई एक अनिता नाम की लडकी से। ईश्वर भी कभी-कभी किसी-किसी की बहुत बड़ी परीक्षा लेता है। अनिता को यहीं एक दिन पता चला कि उसे कैंसर हो गया है।
कैंसर?
अब बारी थी दीदी को अपने गुरू से मिले ज्ञान की असली परीक्षा की। दीदी ज्ञानेश्वरी ने अनिता की सेवा शुरू कर दी। डॉक्टरों ने कह दिया था कि समय बहुत कम है और तकलीफ बहुत ज़्यादा। दीदी ने अनिता की सेवा जी जान से की। दीदी ने कल मुझे बताया कि वो भी ईश्वर से अनिता के लिए मौत की दुआ मांगती थीं। उसकी पीड़ा उनसे नहीं देखी जाती थी। ईश्वर ने उनकी सुन ली और एक दिन अनिता दीदी ज्ञानेश्वरी की गोद में दम तोड़ गई।
उस दिन अनिता ज्ञानेश्वरी दीदी की गोद में मर गई थी। दीदी चाहतीं तो जार-जार रो सकती थीं। चाहतीं तो अनिता के नाम पर पूरा उपन्यास लिख सकती थीं। पर नहीं। दीदी ने चुना कैंसर के मरीजों को तकलीफ से मुक्ति का रास्ता और यहीं से शुरू हुआ जबलपुर में विराट हॉस्पिस। यहां कैंसर के आखिरी स्टेज के मऱीज आते हैं और अपनी लंबी पीड़ा से मुक्ति पाते हैं। मौत तो सबको आनी ही है। पर दीदी यहां पढ़ाती हैं, मरने से पहले जीने का पाठ।"
दीदी से आधे घंटे की मुलाकात ने ही मुझे जीवन और मौत से जुडे अनेकों प्रश्न की अबूझ पहेली दे दी थी और मैं निकल पडा था उसे सुलझाते हुये बापस घर की ओर धौलपुर।

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