हम दो और हमारे दो, घुमक्कड़ी के कीडे के मामले में फिफ्टी फिफ्टी हैं। विकी और उसकी मां को कोई खास लगाव नहीं है लेकिन मेरी बेटी मुझ पर गयी है पूरी तरह से। धन से फक्कड और मन से घुमक्कड। उसने जब से चेन्नई एक्सप्रेस मूवी देखी है, साऊथ इंडिया घूमने की इच्छा पाल बैठी है। मैं एक बार तमिलनाडु और केरल घूम कर आ चुका हूँ। दक्षिण भारतीय संस्कृति ने मुझे काफी प्रभावित किया था, सोचता रहा कि जब भी मौका मिला, बच्चों को भी मूल भारत से परिचित कराऊंगा। विकी को साथ ले जाने के लिये मुझे सोचना नहीं पडा कभी, जब भी उसकी इच्छा हुई, साथ हो लिया। मगर सीबू के लिए उसकी मां के साथ साथ उसके अम्मा बाबा की अनुमति लेनी पड़ती है। लडकी होने का यही सबसे बड़ा नुकसान है कि आत्मनिर्भर बनने के लिए संघर्ष करना पड़ता है, पहले घरवालों से और फिर बाहर वालों से। सीबू की विशेष इच्छा को देखते हुये इस बार उसकी माँ भी तैयार हो गयी घूमने को।
ऐसे तो मैं हमेशा जनरल बोगी में ही सफर करता हूं, भले कितना ही अंग्रेजी का सफर करना पड़े, मगर इस बार साथ में बेटी थी, जिसे मैं सफर के सफर से बचाते हुए उसके ख्वाव को पूरा करने को प्रतिबद्ध था। 22 दिसंवर शनिवार था, 25 से विंटर वैकेशन होनी थी। इसलिए 22 को ही रिजर्वेशन करा लिया। मोबाइल से रिजर्वेशन कराने का यह मेरा पहला मौका था इसलिये मैं वेटिंग को ही रि,जर्वेशन समझता रहा। ट्रेन छूटने से दो तीन घंटे पहले आगरा के घुमक्कड मित्र पवन कुमार जी ने समझाया कि किस प्रकार मुझे अपना PNR number डालकर पता करना है, सीट कनफर्म हुई या नहीं। अगर सीट कनफर्म नहीं होती तो मेरे रुपये बापस हो जाते और हम विदाऊट सीट की श्रेणी में आते मगर सुखद संयोग से सीट कनफर्म हो गयी और हम निर्धारित समय से घंटे भर पहले धौलपुर स्टेशन पहुंच गये ताकि मुरैना या ग्वालियर से अंडमान एक्सप्रेस को पकड सकें। चेन्नई अंडमान एक्सप्रेस मुरैना रात 7:30 और ग्वालियर 8:00 बजे पहुंचती है। इंतजार करते करते शाम के 6:30 हो चले तब थोडी चिंता हुई क्यूं कि सारी ट्रेन लेट थीं, ग्वालियर जाने वाली झेलम एक्सप्रेस अभी आगरा खडी थी। संयोग से उसी समय फेसबुक पर ट्रेन का इंतजार करते हुये सीबू का एक फोटो पोस्ट कर दिया तो फेसबुक मित्र प्रबल प्रताप जी ने तुरंत फोन लगाकर सुझाव दिया कि तुरंत टैक्सी करके मुरैना पहुंचो, फिलहाल कोई ट्रेन नहीं है। उस समय तक नेटवर्क प्राब्लम की बजह से मैं अंडमान एक्सप्रेस की राईट लोकेशन भी नहीं देख पा रहा था। इसलिए 700 रुपये में टैक्सी की और सीधे ग्वालियर।
कभी कभी कुछ दुर्योग या संयोग बनते ही हैं, आपको पता नहीं होता कि ये सब क्यूं हुआ। चाहता तो आगरा से हम अपनी ट्रेन पकड सकते थे, तीन ट्रेन आगरा की तरफ चली गयीं मगर खतरा था कि कहीं हमारी ट्रेन तब तक निकल न पडे वहां से। नैटवर्क की गडबडी की बजह से हम उसके राईट टाईम पर ही फोकस करके चल रहे थे। टैक्सी में ग्वालियर की तरफ दौडते हुये प्रबल प्रताप जी से सूचना मिली कि हमारी गाडी 2 घंटे लेट है, टैंशन की कोई बात नहीं है। जब जाकिर सीबू के थोडी जान में जान आयी। बेचारी बहुत दिनों से इंतज़ार करे बैठी थी। उसके भैया विकी ने गुजरात से लौटकर समुद्र की विशालता और भव्यता के गीत गाये थे, तभी से उस पर समुद्र की लहरों में खेलने का भूत सवार था। चेन्नई में उसकी एक बुआ भी रहती है जो कि बहुत दिनों से उसे बुला रही थी। कृष्णा मेरे गांव की ही लडकी, मेरी मुँहबोली बहन है जो मद्रास ब्याही है।हमारे मद्रास आने की खबर पाकर वह भी काफी उत्साहित और रोमांचित है। उसकी इस अति प्रसन्नता का मूल कारण ये भी है कि उसका ससुराल इतनी दूर है कि मायके (धौलपुर) से बहुत कम लोग वहां पहुंच पाते हैं।
भौगोलिक दूरियां प्रेम बढाती हैं और वैचारिक दूरियां प्रेम की दुश्मन होती हैं। अजीब संयोग ये भी है कि अत्यधिक प्रेम दूरियां पैदा करता है।
1440 में दो सीट आगरा से चेन्नई बुक करायी थीं। सीबू की टिकट जनरल 415 रू में चलते समय ली थी। ग्वालियर समय पर पहुंच गये भले हमारे 700- 800 रुपये अतिरिक्त खर्च हो गये। सर्दी बढती जा रही थी। भूख भी जोरों की लगी थी। घर से घी की पूडियां लेकर चले थे। वेटिंग रुम में बैठकर खाना खाने लगे। इधर ट्रेन और लेट हो गयी। सीबू को नींद आने लगी थी इसलिए बैग से पल्ली निकाल चादर बिछायी और मां बेटी दोनों को सुला दिया। मेरा मोबाइल चार्ज हो चुका था, मैं फेसबुक खोलकर बैठ गया। ट्रेन लेट होते होते आखिरकार दो बजे तक पहुंच गयी। इससे पहले सैकड़ों ट्रेन निकल गई, मैं रिजर्वेशन को कोस रहा था। रिजर्वेशन न होता तो अब तक किसी भी ट्रेन से निकल लिये होते। मगर गाडी आयी और खाली सीट पर चद्दर बिछाकर रजाई ओढकर जो गहरी नींद सोये तो रिजर्वेशन की सार्थकता नजर आने लगी। हालांकि स्लीपर में देहसुख रहता है मगर घुमक्कड़ी का असली मकसद पूरा नहीं हो पाता। स्लीपर कोच के अधिकांश यात्री संपन्न घरों से आते हैं जो अपनी अपनी सीट पर पहरे अपने अपने मोबाइल में खोकर रह जाते हैं, इसलिए घुमक्कड़ी का असल मक़सद जनरल बोगी में ही होता है, जहां असली भारत के दर्शन होते हैं लेकिन जनरल बोगी की यात्रा मेरे जैसा घुमक्कड़ी के लिए पागल इंसान ही कर सकता है।