घुमक्कडी भी निसंदेह एक जुनून या कहूं कि एक पागलपन है तो गलत न होगा। घुमक्कड कम पैसों में भी अपने उद्देश्य को पूरा कर लेता है चाहे उसे कितनी ही परेशानियों का सामना क्यूं न करना पडे। ये रोग हर किसी को नहीं होता पर जिसे भी लगता है भंयकर रूप से लगता है। मुझे भी लगा है और आज से नहीं लगा है बल्कि 28 वर्ष हो गये। इन वर्षों में अधिकांश भारत को नाप डाला है और अब विदेशों की बारी है। कभी कभी तो पिछली बातें याद करते हुये खुद के पागलपन पर खुद ही हंस पडता हूं कि उस समय लोग मेरे बारे में क्या सोचते होंगे। बहुत साल पहले एक कंपनी के चीफ मैनेजर के इन्टरव्यूह में भी अपना इस जौब लेने के पीछे उद्देश्य यूरोप जाना बताया था। पेरिस और लंदन की गलियों में वाईक से घूमने का सपना तो पता नहीं कब पूरा होगा पर हां जब तक भारत को तो पूरा घूम ही लिया जाय।
धौलपुर में मेरे दो शिक्षक पडौसी अरविंद चौधरी और भगवती शर्मा मेरे बहुत ही घनिष्ठ मित्र भी हैं पर घूमने के मामले में बिल्कुल उलट हैं। यदि एकदम फ्री समय हो एवं खूब सारा पैसा हो और घर से पूर्ण अनुमति हो तो साथ जाने की हामी भर सकते हैं अन्यथा मुंह से ना ही निकलता है। और सबसे बडी बात है कि यात्रा पूरी तरह कम्फर्ट जोन में हो तभी जाना संभव हो पाता है उनका जबकि मेरा तो ये है कि मैं तो खिडकी से लटक भी जा सकता हूं। जैसे संसाधन हो उसी से समझौता भी कर लेता हूं। अभी मैंने गूगल पर मुंबई के एक घुमक्कड की यूरोप वाईक यात्रा पढी जिसमें उसने छ महीने में 18 देशों की यात्राएं की थी । इस बीच वह रातों को पार्क्स में समुद्री वीच पर धार्मिक स्थानों पर सोया था। जो भी मिल जाता वो खा लेता। कुल मिलाकर उसने अपनी ड्रीम यात्रा पूरी कर ही ली थी।
गोवा के सुदंर समुद्री किनारों पर शाम के वक्त पैदल घूमने की ना जाने कब से मन में थी पर चूंकि बडी ही रोमानी जगह है सोच रखा था कि अकेला नहीं जाऊगां, दोस्तों के साथ ही जाऊगां।
इस बार संयोग कुछ ऐसा बना कि अरविंद और भगवती दोनों शिरडी के सांई के दर्शन की इच्छा व्यक्त किये। मैंने सोचा थोडा आगे ही गोवा है चला जाय। अब चूंकि बडी मुस्किल से ही और तत्काल ही उनका प्रोग्राम बन पाता है, प्री प्लान्ड हो ही नहीं पाता। नतीजजन इस बार हमें जनरल वोगी में जाना पडा। मैं तो जनरल आदमी हूं और जनरल में ही चलता आया हूं और जनरल लोगों से बतियाकर जीवन दर्शन करता आया हूं अब तक।
आखिरकार एक दिन बैठे बैठे बातों ही बातों में गोवा जाना फाईनल हो गया और तुरंत ही पैकिगं की तैयारी होनी लगी। एक बार कहीं टाम डिक हैरी की पैकिगं कहानी पढी थी वही हो गया मेरे साथ इस बार। कभी कभी ऐडा बन के पेडा खाना ही बेहतर होता है क्यूं कि ज्यादा कर्मठ और चतुर बनना हमें गधा बना कर रख देता है। अरविन्द और भगवती को गलत तरीके से पैकिंग करते देख मैं अपने मुंह मियां मिठ्ठू बनते हुये बिना अपना अंजाम सोचे पट से बोल पडा,
"पैकिंग करना तो कोई हमसे सीखे। तुम दोनों तो मुझे अनाडी लगते हो। "
अच्छा , जरा कर के दिखाओ ? भगवती तपाक से बोला मानो उसकी मनोकामना पूर्ण हो गयी हो।
"चल हट परे, साईड में हो और ये देख , मैं कैसे करता हूं, मुझे फोलो करना और जैसे जैसे मैं कहते जाऊं करते जाना।" मैं जोश में मैदान में उतरते हुये बोला।
मैने सोचा था कि मैं आदेश दुंगा और वो करते जायेंगे पर ये क्या !
वो तो दोनों पठ्टे बैड पर लेट गये और बोले,
पैकिंग हो जाये तो बता देना।
अब ये भी कोई बात हुई भला ? शिष्य बनने को बोला था या मालिक ? कमबख्तों ने बेगारी मजदूर बना कर रख दिया था । खैर गरज मेरी भी थी।
गुस्सा को दबा तो गया पर गुस्से में दिमाग उलट पलट हो गया।
हडबडी में पहले चीकू रख दिये और फिर उपर से भारी सामान। पता चला चीकू स्वर्गलोकगमन कर गये। चम्म्मच से निकालने पडे। खैर इस बार थोडा सावधानी से काम किया । बैग पैक हो भी गया पर
पूरी पैकिगं के बाद याद आया बृश तो अदंर रह गया जबकि सुवह जल्दी चलते समय उसकी जरूरत पडेगी । एक बार फिर सारा सामना निकालना पडा।
पनीर चेयर पर रख कर भूल गया और गलती से बैठ गया, पिछवाडे पर पूरा पनीर चिपक गया।
याद आया कि पनीर रखना है तो सारे कमरे में ढूंडता डोलूं, वो दोनों पट्ठे हंसे पर बतायें नही कि पीछे पैंट पर चिपका है।
पूरे दो घंटे तक चक्करघन्नी बनता रहा और पनीर को ढूंडता रहा।
धौलपुर में मेरे दो शिक्षक पडौसी अरविंद चौधरी और भगवती शर्मा मेरे बहुत ही घनिष्ठ मित्र भी हैं पर घूमने के मामले में बिल्कुल उलट हैं। यदि एकदम फ्री समय हो एवं खूब सारा पैसा हो और घर से पूर्ण अनुमति हो तो साथ जाने की हामी भर सकते हैं अन्यथा मुंह से ना ही निकलता है। और सबसे बडी बात है कि यात्रा पूरी तरह कम्फर्ट जोन में हो तभी जाना संभव हो पाता है उनका जबकि मेरा तो ये है कि मैं तो खिडकी से लटक भी जा सकता हूं। जैसे संसाधन हो उसी से समझौता भी कर लेता हूं। अभी मैंने गूगल पर मुंबई के एक घुमक्कड की यूरोप वाईक यात्रा पढी जिसमें उसने छ महीने में 18 देशों की यात्राएं की थी । इस बीच वह रातों को पार्क्स में समुद्री वीच पर धार्मिक स्थानों पर सोया था। जो भी मिल जाता वो खा लेता। कुल मिलाकर उसने अपनी ड्रीम यात्रा पूरी कर ही ली थी।
गोवा के सुदंर समुद्री किनारों पर शाम के वक्त पैदल घूमने की ना जाने कब से मन में थी पर चूंकि बडी ही रोमानी जगह है सोच रखा था कि अकेला नहीं जाऊगां, दोस्तों के साथ ही जाऊगां।
इस बार संयोग कुछ ऐसा बना कि अरविंद और भगवती दोनों शिरडी के सांई के दर्शन की इच्छा व्यक्त किये। मैंने सोचा थोडा आगे ही गोवा है चला जाय। अब चूंकि बडी मुस्किल से ही और तत्काल ही उनका प्रोग्राम बन पाता है, प्री प्लान्ड हो ही नहीं पाता। नतीजजन इस बार हमें जनरल वोगी में जाना पडा। मैं तो जनरल आदमी हूं और जनरल में ही चलता आया हूं और जनरल लोगों से बतियाकर जीवन दर्शन करता आया हूं अब तक।
आखिरकार एक दिन बैठे बैठे बातों ही बातों में गोवा जाना फाईनल हो गया और तुरंत ही पैकिगं की तैयारी होनी लगी। एक बार कहीं टाम डिक हैरी की पैकिगं कहानी पढी थी वही हो गया मेरे साथ इस बार। कभी कभी ऐडा बन के पेडा खाना ही बेहतर होता है क्यूं कि ज्यादा कर्मठ और चतुर बनना हमें गधा बना कर रख देता है। अरविन्द और भगवती को गलत तरीके से पैकिंग करते देख मैं अपने मुंह मियां मिठ्ठू बनते हुये बिना अपना अंजाम सोचे पट से बोल पडा,
"पैकिंग करना तो कोई हमसे सीखे। तुम दोनों तो मुझे अनाडी लगते हो। "
अच्छा , जरा कर के दिखाओ ? भगवती तपाक से बोला मानो उसकी मनोकामना पूर्ण हो गयी हो।
"चल हट परे, साईड में हो और ये देख , मैं कैसे करता हूं, मुझे फोलो करना और जैसे जैसे मैं कहते जाऊं करते जाना।" मैं जोश में मैदान में उतरते हुये बोला।
मैने सोचा था कि मैं आदेश दुंगा और वो करते जायेंगे पर ये क्या !
वो तो दोनों पठ्टे बैड पर लेट गये और बोले,
पैकिंग हो जाये तो बता देना।
अब ये भी कोई बात हुई भला ? शिष्य बनने को बोला था या मालिक ? कमबख्तों ने बेगारी मजदूर बना कर रख दिया था । खैर गरज मेरी भी थी।
गुस्सा को दबा तो गया पर गुस्से में दिमाग उलट पलट हो गया।
हडबडी में पहले चीकू रख दिये और फिर उपर से भारी सामान। पता चला चीकू स्वर्गलोकगमन कर गये। चम्म्मच से निकालने पडे। खैर इस बार थोडा सावधानी से काम किया । बैग पैक हो भी गया पर
पूरी पैकिगं के बाद याद आया बृश तो अदंर रह गया जबकि सुवह जल्दी चलते समय उसकी जरूरत पडेगी । एक बार फिर सारा सामना निकालना पडा।
पनीर चेयर पर रख कर भूल गया और गलती से बैठ गया, पिछवाडे पर पूरा पनीर चिपक गया।
याद आया कि पनीर रखना है तो सारे कमरे में ढूंडता डोलूं, वो दोनों पट्ठे हंसे पर बतायें नही कि पीछे पैंट पर चिपका है।
पूरे दो घंटे तक चक्करघन्नी बनता रहा और पनीर को ढूंडता रहा।
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