Wednesday, March 29, 2017

( मेरे दोस्त राही की आत्मकथा भाग दो : राज; एक अधूरी प्रेम कहानी )

शायद ही कभी किसी को फैल होने पर इतनी खुशी होगी जितनी मुझे हुयी थी । जैसा कि परमात्मा ने सोच रखा था उसी क्लास में फिर पढने लगा। आश्चर्य की बात ये थी कि कुछ भी नहीं बदला था। क्लास के सभी चौदह लडके बापस मेरे साथ पढ रहे थे। यहां तक कि लडकी का टौपर भाई भी। वह इम्प्रूव करना चाहता था। एक बार फिर वही स्कूल । वही साथी। बस इस बार मेरी आत्मा मेरे ही साथ थी। अब मुझे लंच का इंतजार नहीं करना था। हर पीरियड के बाद वो पानी पीने के बहाने मुझे मिलने आती थी। अब हमारी बातें होने लगीं थीं लेकिन चलते फिरते अतंरालों में। गांव में इतनी आजादी नहीं थी कि हम साथ बैठ कर कहीं बतिया सकें। एक दूसरे के साथ विचारों का आदान प्रदान पत्रों से होने लगा। हालांकि वह बहुत ही शर्मीली और अंतर्मुखी लडकी थी लेकिन उसका प्रेम उसके डर पर विजय पा चुका था और अब खुल कर मुझसे बात करने लगी थी। मुझे पता भी नहीं चला और उसने पत्र लिख लिख कर एक घडा भर दिया। मैं उसके घर जाने लगा। दिन में दो तीन बार भी चक्कर लग जाते थे। जब भी मौहल्ले में कोई गीत संगीत कार्यक्रम होता तो मैं उसे देखने भर की ख्वाइश से बहां पहले ही पहुंच जाता। गांव में रामलीला होती थी। मैं उसे देखने जाता था। इस बहाने आते जाते उससे बात करने का मौका मिल जाता था। बस ऐसे ही सालभर निकल गया। मार्च आ चली। एक बार फिर पेपर देने थे। कोई खास तैयारी नहीं थी इस बार भी क्यूं कि पढाई में दिमाग था किसका ? पूरी साल तो मौज मस्ती करते ही निकल गयी थी। क्लास में शैतानी करने में नंबर वन मैं ही था। क्लास छोडकर हम स्कूल के पीछे सैयद पर बैठे मूंगफली खाते रहते थे।


कैमिस्ट्री लैक्चरर चौधरी साहब को पूरी क्लाश खाली मिलती तो डंडा लेकर ढूंडने निकल पडते और हमें स्कूल के पीछे टीले पर स्थित सैयद की मजार पर पाते। बिना डंडे खाये कैमिस्ट्री समझ ही नहीं आती थी। साल के अंत में प्रैक्टीकल ऐक्जाम लेने के लिये बाहर से टीचर आया। 50-50 रूपये इकट्ठा करके मिठाई नमकीन मंगाई। प्रैक्टीकल के बाद चौधरी साहब एक्स्ट्रनल को बिदा करने बाहर गेट तक गये और लौटे तो टेबल पर से सारी नमकीन और मिठाई के डिब्बे और सारे स्टूडैन्ट्स गायब मिले। ऊपर टीले पर बैठकर हम मिठाई का आनन्द ले रहे थे तभी नीचे से चौधरी साहब की आबाज आयी'" कुत्तो कमीनेों , मिठाई खाली हो तो नीचे आ जाओ, अपने 50-50 रुपये तो बापस ले जाओ। प्रैक्टीकल में तो पूरे नम्बर दिलवाये हैं मैंने।" बस ऐसे ही खेलते कूदते पूरी साल निकल गयी। इस साल भी पास होने के कोई चांस न थे। पेपर से पहले मेरी उससे कुछ बात हुई। जादू सा असर हुआ उसकी बातों का मुझ पर। बस तीस दिन बाकी थे। गांव के दूसरे कोने पर एक कमरा ले लिया किराये पर और रात दिन बस पढता रहा। बीस बीस घंटे पढा। उससे भी न मिला। पेपर अच्छे गये। आशा थी फर्स्ट डिवीजन की। पेपर देते ही भैया ने अपने पास बुला लिया। आगे की पढाई गंगापुर सिटी में ही होनी थी। ये समय बहुत पीडादायक था। मुझसे भी ज्यादा उसके लिये भी। अब तक पूरा गांव मेरे और उसके संबधों को जान चुका था।मेरे जाने के बाद उस पर मनचलों की कमेंट्स की बौछार होने बाली थी। विरह वेदना को सहे या लोगों के तायने। ऊपर से बोर्ड की परीक्षा का दवाब। पढ लिख कर गरीब मां बाप का सपना भी पूरा करना था। 

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