Sunday, July 9, 2017

आसाम मेघालय यात्रा : शिलांग से चेरापूंजी

शिलांग पीक से शहर एवं आसपास की हरी भरी पहाडियों का खूबसूरत नजारा देखने के बाद बापस हाईवे पर आकर आगे बढे ही थे कि आधे घंटे में ही एलीफेंट झरनों का बोर्ड लगा देखा। इसी जगह पर रोड विभाजित है। चेरापूंजी और मनसिवराम रोड आगे जाकर बांग्लादेश सीमा पर ब्लाक हैं। सोहरा और मनसिवराम भी आपस में जुडे नहीं हैं । यहीं से दोनों की अलग अलग रोड है। पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों में जाने के लिये घने जंगल और पहाडियों की बजह से बापस ही आना पडेगा। बारिश की संभावना के चलते हमने गुवाहाटी से निकलते ही एक बडी तिरपाल खरीद ली थी। मेरे पास रेनकोट पहले से ही था। गुवाहाटी से शिलांग तक एक बूंद न पडी। धूप भी खूब थी पर चुभी कभी नहीं। एकदम मस्त मौसम। लेकिन जैसे ही हम एलीफेंट गुफाओं के मोड पर पहुंचे झमाझम बारिश ने दस्तक दे दी। बडे इंतजार के बाद तो बारिस हुई थी , रुकने बाला कौन था। रेनकोट पहना और निकल पडे झरनों की तरफ। हाईवे से बस आधा किमी अंदर चलना पडता है। झरनों की पार्किगं बाली जगह पर ही एक छोटा सा मार्किट है । करीब आठ दस दुकानें हैं। खाने पीने एवं जरूरत का हर सामान मिल जाता है। दुकान के सामने ही बाइक खडी करी और उतर पडे नीचे की ओर । एलीफेंटा फाल शिलांग से बारह किलोमीटर दूर है। इस झरने को पास से देखने के लिए एक लकड़ी के पुल से होकर सीढि़यों से नीचे तक जाना होता है। ये सीढियां बारिश में फिसलनभरी हो जाती हैं। भागदौड अच्छी नहीं रहती। रैलिगं पकड पकड कर धीमे धीमे चलना चाहिये।कुल तीन झरने हैं। तीनों के अलग अलग नीचे उतरना होता है। झरनों के चारों इतने घने पेड हैं कि पार्किगं से कुछ भी नहीं देख सकते आप। अभी कुछ दिनों पहले प्रधानमंत्री जी भी यहां होकर गये थे। निसंदेह खूबसूरत झरने हैं। समय हो तो पूरा दिन यहां बिताया जा सकता है पर हमें तो जल्दी पडी थी मेघों में सैर करने की। मेघालय बोले तो बादलों का घर लेकिन ये क्या एलीफेंट फौल्स से निकलते ही बारिश बंद। एकदम खुला और साफ मौसम। सामान्यतया यहां की गारों पहाडियों में उष्ण कटिबंधी वन घाटी में मानसून के दौरान बादल हमेशा पाए जाते हैं और खासी तथा जेंतिया पहाडियों के मध्यम पाइन वन यहां की सुंदरता बढ़ाते हैं। भारत के पूर्वोत्तर कोने पर स्थित मेघालय उत्तरी और पूर्वी दिशाओं में असम से घिरा है तथा इसके दक्षिण और पश्चिम में बंगला देश के मैदान हैं। खासी और जेंतिया पहाडियों की ऊंची श्रृंखला में एक ठण्डा और खुशनुमा मध्यम प्रकार का मौसम रहता है जबकि ठण्ड के मौसम में यहां अच्छी ठण्ड होती है। भौगोलिक रूप से मेघालय सात जिलों में बंटा हुआ है और यहां तीन जनजाति के लोग पाए जाते है-खासी, गारो और जयंतिया। मेघालय में ईस्ट, वेस्ट और साउथ गारो हिल्स की पहाडि़या तुरा के आसपास हैं जो गारो जनजाति के रूप में पहचानी जाती है। जयंतिया लोग जयंतिया हिल्स में पाए जाते हैं।ईस्ट खासी हिल्स शिलांग का हिस्सा है और यहां पर खासी जनजाति के लोग बहुतायत में पाए जाते हैं। इन तीनों ही जनजातियों की एक प्रमुख विशेषता है कि ये मातृसत्तात्मक हैं। यानि वंश लड़कियों से चलता है और विरासत का हस्तांतरण भी मां से बेटी को ही होता है। यहां के पुरुष शादी के बाद पत्नी के घर रहते हैं। यहां के लोग अपनी भाषा बोलते हैं और अंग्रेजी भी जानते हैं। खासी जनजाति के बारे में दिलचस्प बात यह है कि इस जनजाति में महिला को घर का मुखिया माना जाता है। जबकि भारत के अधिकांश परिवारों में पुरुष को प्रमुख माना जाता है। इस जनजाति में परिवार की सबसे बड़ी लड़की को जमीन जायदाद की मालकिन बनाया जाता है। यहां मां का उपनाम ही बच्चे अपने नाम के आगे लगाते हैं।यहां के काफी लोगों ने ईसाई धर्म को स्वीकार कर लिया है इसलिए क्रिसमस बड़े जोर-शोर से मनाया जाता है। इसके अलावा दो प्रमुख जनजातीय त्योहार हैं-एक ‘शाद सुक माइनसीम’ यानि खुशी का डांस जो अप्रैल महीने में बाइकिंग ग्राउंड शिलांग में तीन दिन तक मनाया जाता है। इस त्योहार में कोई धार्मिक रस्म नहीं होती और न ही कोई बलि चढ़ाई जाती है। दूसरा है ‘नोंगक्रेम डांस’ जो खासी जनजाति का सबसे महत्वपूर्ण त्योहार है। पांच दिन तक चलने वाले इस त्योहार में बकरे की बलि चढ़ाई जाती है।
एलीफेंट झरनों से अभी बस बीस किमी ही चल पायेंगे होंगे कि हमारा रोड एक बार फिर विभाजित होता नजर आया। उमटिगांर नाम की नदी के साथ एक और नदी संगम कर रही है। रोड के दोनों और ऊंची ऊंची हरी भरी पहाडियां और बीच में संगम। ये स्थान काफी चौडा बन पडा है अत: रोड पर ही ठहरने जैसा स्थान बना दिया गया है। यहीं से मुख्य रोड डावकी की तरफ चला जाता है और चेरापूंजी बाला रोड सिंगल हो जाता है। असली मेघालय की शुरूआत यहीं से होती है। यहां हमारा रोड भी विभाजित हो रहा था। मैन हाईवे रोड डावकी जा रहा है जो स्वच्छ जल बाली उमगोट नदी में खेलती कूदती उछलती मछलियों के लिये जाना जाता है।यदि आप मछली पकड़ने की इच्छा रखते हैं तो रानीकोर जाएं। बोटिंग का शौक हो और प्रकृति को बिल्कुल नए अंदाज में देखना चाहते हैं तो डावकी जाएं। यहां पर एक झूले वाला पुल है जिसके नीचे से डावकी नदी बहती है। यहां पर हर साल बोटिंग प्रतियोगिता भी आयोजित की जाती है। जाकरेम के गर्म पानी के सोते एक ऐसी जगह है जो ‘हेल्थ रिसौर्ट’ के तौर पर भी लोकप्रिय है। यहां पर गंघक के पानी का सोता है जो कई बीमारियों को दूर करने वाला माना जाता है। यह चट्टानों से घिरा एक सुंदर स्थान है। यदि किसी को अगरतला आइजोल जाना है तो इस रूट से जा सकता है। फिलहाल तो हमें केवल चेरापूंजी ही जाना था। डाबकी अगरतला फिर देखेंगे कभी, सोचकर बढ लिये आगे की तरफ। इस रोड पर आप चाहकर भी स्पीड से दौड न पायेंगे। हर कदम पर इतनी खूबसूरती है कि गाडी दौडाने का मन ही नहीं करता। अभी मुस्किल से दस किसी भी न चल पाये होंगे कि एक रेस्ट्रां दिखाई दिया जिसके द्वार पर एक फुआरा लगा है जिसमें एक जलपरी मत्स्यकन्या स्नान कर रही है। लोगों की अच्छी खासी भीड है यहां। एक तरफ ऊंची पहाडी तो दूसरी गहरी खाई। हरी भरी खाई। हरी भरी घाटी इतनी खूबसूरत है कि बस देखते रह जाओ। इतनी घनी घाटी मैंने पहले कभी नहीं देखी। इस जगह का नाम मौकडौक घाटी। रोड के किनारे ही खासी समुदाय की औरतें मके के भुट्टे बेच रही थीं। दस रुपये का एक। पर वो दस बीस रुपये भी नहीं बोल पा रही थीं। इशारे में समझाया। पढे लिखे लोग ही हिंदी बोल पाते हैं यहां। इस घाटी के बाद तो जैसे हम स्वर्ग में प्रवेश कर गये। एक निगाह आसपास की घाटियों पर तो दूसरी रोड पर। शायद ही ऐसा कोई मोड हो जहां ब्रेक न लगी हो। पूर्वोत्तर राज्यों की जो पिक्चर सोच कर आया था अब आकर मिली थी। जिन लोगों को ईश्वर ने प्रकृति के रूप में इतना खूबसूरत तौहफा दिया हो भला वो प्रकृति पूजक क्यूं न हों। मेघालय भले ही ईसाई धर्म में मतांतरित हो गया हो पर इन आदिवासियों ने अपनी प्राकृतिक विरासत की उपासना नहीं छोडी है।
पूर्वोत्तर पर अनुसंधान कर रहे विद्धान श्री वीरेन्द्र परमार जी ने बताया कि पूर्वोत्तर की बहुत बड़ी आबादी प्रकृतिपूजक या ब्रह्मवादी हैं I विशेषकर आदिवासी समुदाय सूर्य, चन्द्रमा, नदी, पर्वत, पृथ्वी, झील, जल प्रपात, तारे, वन इत्यादि की पारंपरिक विधि से पूजा करते हैं। जिन आदिवासी समुदायों ने ईसाई धर्म ग्रहण कर लिया है वे भी प्रकृति की पूजा करते हैं। ईसाई धर्म अपनाने के बावजूद इन लोगों ने अपने मूल रीति – रिवाजों का परित्याग नहीं किया है। वे चर्च में भी जाते हैं और अपने पारंपरिक विधि – निषेधों का भी पालन करते हैं। प्रकृतिपूजक (animistic) जनजातियाँ देवी -देवताओं को प्रसन्न करने के लिए पशु – पक्षियों की बलि चढ़ाती हैं। इनकी धारणा है कि कुछ अदृश्य शक्तियाँ सृष्टि का संचालन करती हैं, सुख – समृद्धि देती हैं, शांति एवं आरोग्य प्रदान करती हैं, फसलों की रक्षा करती हैं तथा क्रोधित होने पर हानि भी पहुँचाती हैं। यहाँ दो प्रकार की दैवी शक्तियों की अवधारणा है – हितकारी देवी-देवता और अनिष्टकारी देवी-देवता। यदि समय और परिस्थिति के अनुसार इन देवी- देवताओं की पूजा की जाए और बलि देकर उनको संतुष्ट किया जाए तो मनुष्य का जीवन सुख-शांतिपूर्ण रहता है। इन समुदायों में स्वर्ग - नरक की संकल्पना भी है। विभिन्न समुदायों में प्राकृतिक शक्तियों, देवी-देवताओ आदि को भिन्न-भिन्न नामों से संबोधित किया जाता है I विभिन्न समुदायों की पूजा विधियों में भी भिन्नता है परंतु बलि प्रथा प्रायः सभी प्रकृतिपूजक जनजातियों में विद्यमान हैं।
इन्ही हरी भरी वादियों में खोते हुये पहुंच गये हम सोहरा चेरापूंजी ।। 


































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