हमारे आज के गुवाहाटी दर्शन का पहला स्थल बालाजी मंदिर मन को प्रशन्न कर गया। ना कोई भीड ना कोई अन्य कर्मकांड बाली धक्कामुक्की । एकदम शांत और सुंदर माहौल। कृष्ण भगवान के दर्शन लाभ हुये। मन खुश हुआ। और हम चल दिये पहाडों की तरफ जहां प्राकृतिक रुप से झरते हुये जल ने शिवजी का निर्माण कर दिया था। बैसे भी पहाडों में तो अपनी जान बसती है। बालाजी मंदिर घूमने के बाद हमें सीधे ही वशिष्ठ मंदिर की तरफ निकलना था लेकिन तभी औटो चालक ने मुझे एक ऐसे प्राकृतिक और धार्मिक स्थल के बारे में बताया जो ज्यादा फेमस नहीं था लेकिन प्रकृतिप्रेमी उस स्थल को बहुत पंसद करते हैं। भिष्मेश्वर महादेव नाम से मैंने वो जगह मैप में खूब सर्च की पर मुझे नहीं मिली। बालाजी मंदिर के थोडा आगे चलते ही जंगल शुरू हो जाता है। दस मिनट बाद ही उसने हमें जंगल के एक कौने पर छोड दिया जहां से हमें दो किमी पैदल चलना था। एकदम शांत एकांत पगडंडी । चारों तरफ हरा भरा जंगल। इक्का दुक्का पर्यटक। एक किमी बाद ही एक बडी सी शिला रुपी गणेश मंदिर मिला। शहर की आपाधापी से दूर कुछ लोग यहां गणेश मंदिर पर आकर खानेपीने का कार्यक्रम करते हैं। एक छोटीसी जलधारा भी बह रही है मंदिर के बगल। भारत के लोग तो शुरू से ही प्रकृतिप्रेमी रहे हैं। जहां नदी पहाड जंगल दिखे बस वहीं रम गये। पत्थरों में गणेश जी या शिवजी की मूर्ति बनाकर मंदिर बनाने का उद्देश्य भी एक शरण स्थल बनाने का रहा होगा। दूर एकांत जंगल में ये स्थल भी राहत के केन्द्र होते हैं जो खाने पीने सोने आराम करने की दृष्टि से काफी सुविधाजनक होते हैं। साथ में धार्मिक भाव और हो तो सोने पर सुहागा। गणेश मंदिर पर थोडा विश्राम कर हम आगे बढे और फिर एक किमी बाद ही एक कलात्मक दरवाजा दिखाई देता है जिसके एक ओर गेरूआ रंग की एक ढाल भी रखी है जिस पर कुछ चित्र बने हैं। गेट से हमें नीचे उतरना होता है। नीचे उतरते हुये घने पेडों के बीच पहाडों से उतरती हुई हमें एक छोटी सी स्वच्छ जलधारा दिखाई पडती है। उसी जलधारा ने अपने वेग से एक शिला में छेद कर शिवलिंग का निर्माण कर दिया है। उस स्थान पर बहुत सारे लोग फूल पत्ती बेलपत्तर आक धतूरा के साथ साथ जलाभिषेक भी करते हैं। ये सिर्फ आस्था की बात है। मुझे वहां सिर्फ प्रकृति का चमत्कार दिखाई दिया। ये शिवलिगं वगैरहा तो पानी के घर्षण से बन जाते हैं। मुख्य चीज है तो प्रकृति का सानिध्य । यही सत्य है यही शिव है और यही सुंदर है बाकी आकार तो बनते बिगडते रहते हैं। यही सृजन करती है यही पालन करती है और यही विनाश करती है अत: इन आकारों में शिव को तलाशने की बजाय मैं तो समस्त जंगलों पहाडों गुफाओं नदियों फूल पत्तियों में ही शिव को साक्षात देखते रहता हूं। बाकी सबकी अपनी अपनी आस्था।जो जैसे खुश रहे । हमें क्या मतलब। दुनियां खुश रहनी चाहिये । उनके संकटों से कुछ पल का आराम मिलना चाहिये बस। चाहे जैसे मिले। मैं तो उस प्राकृतिक सुंदरता को कैद करने में इतना मग्न हो गया कि मुझे उस शिवलिंग पर पूजापाठ करने की ध्यान भी नहीं रहा। राजो का पूरा ध्यान उसी पिंडी पर था जिसे पंडत अपनी दुकान बना कर नोट छाप रहा था। बिना लगात की नोट छपाई । दिन भर में दस हजार तो छाप लिये होंगे। ये उनका बिजनेस है । धर्म की दुकान। हमें लेना देना तो कुछ भी नहीं पर सनातन का मूल नष्ट करने पर दुख तो होता है।
थोडी देर बाद हरियाली में विचरण करने के बाद हम लौट पडे वशिष्ठ मंदिर की तरफ। एक बार पुन: अंतर्राष्ट्रीय राजमार्ग पर लौट कर बालाजी मंदिर की तरफ आगे बढे और वहीं से एक मार्ग कट गया वशिष्ठ मंदिर की ओर। वशिष्ठ मंदिर भी उसी जंगल में है। इसी जंगल में थोडा आगे चल कर मेघालय सीमा लग जाती है। रघुकुल या रघुवंश के शिक्षक कहलाये जाने बाले महर्षि वशिष्ठ ने भगवान राम और उनके भाइयों लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न को शिक्षा दी थी। कहा जाता है कि अपने जीवनकाल के अंतिम दौर में उन्होंने सन्ध्याचल पर्वत के ऊपर एक स्थान पर निवास किया। वह स्थान असम के वर्तमान गुवाहाटी शहर के दक्षिण-पूर्व छोर पर स्थित है और यहाँ वशिष्ठ आश्रम बना हुआ है। मुनि वशिष्ठ भगवान शंकर के अनन्य भक्त थे। 18 वीं शताब्दी के मध्य अहोम राजा राजेश्वर सिंह ने इसी स्थान पर एक शिव मंदिर का निर्माण कराया और आश्रम का निर्माण कराने के लिए 835 बीघा ज़मीन भी दी।
वशिष्ठ मंदिर में भी एक गुफ़ा है, जहां मुनि वशिष्ठ यहाँ ध्यान लगाया करते थे। मैं चित्रकूट, अमरकंटक और पचमढी जैसी प्राकृतिक जगहों पर भी ऐसी ही ढेर सारी गुफाऐं देख चुका हूं। ऋषियों मुनियों ने ऐसे ही एकांत स्थलों का चुनाव अपनी ध्यान साधना के लिये किया है।
वशिष्ठ मंदिर स्थल भी मुझे बहुत ही अच्छा लगा। दरअसल गुवाहाटी के सारे ही मंदिर या दर्शनीय स्थल प्रकृति की गोद में है और प्रकृति तो जननी है हमारी। मां की गोद में बैठना किसे अच्छा न लगेगा भला ! औटो चालक ने गेट पर ही उतारा। दो गेट हैं एक ऊपर चढने का और एक नीचे उतरने का। हमें ऊपर चढते हुये घूमकर नीचे बाले से बापस आना था। जैसे ही मंदिर की सीढियों पर झुका तो निगाह पडी एक नेत्रहीन कलाकार की संगीत लहरी पर जो दुनियां से बेखबर अपनी धुन में मस्त गाये जा रहा था। मैं ऐसे कलाकारों को जरूर कुछ न कुछ देता हूं। वहां शिवजी पर कुंडली मार कर बैठे उस पोंगा पंडित को कुछ न दिया था पर यहां इस कलाकार को देना जरूरी था। उसकी कला को प्रोत्साहन जरूर मिलना चाहिये। सीढियों से ऊपर चढे तो मुख्य द्वार पर दो असमिया सुंदरियों ने मस्तक पर चंदन लगा कर स्वागत किया। हम आगे बढे। वशिष्ठ मंदिर लाल रंग से बना हुआ है। मुख्य गर्भ गृह के सामने एक विशाल वरामदा है जिसमें एक पंडत जी असमिया रीति रिवाज से विवाह करा रहे थे।पहले विवाह मंदिरों में ही होते थे। इतना खर्चा भी नहीं होता था पर आजकल तो बाप रे बाप। रूह कांप जाती है। मैंने तो सोच रखा है मैं अपने बच्चों का विवाह मंदिर में ही करूंगा।
मंदिर के पीछे ऊंचा हरा भरा पहाड है। खूब सारा हरा भरा जंगल है। और इसी पहाडी जंगल से निकल पडी है एक विशाल जल धारा। एकदम लाल रंग की जलधारा। विशाल चट्टानों के बीच बहती हुई नदी जगह जगह पर कुछ ठहर जाती है तो बच्चों को मस्ती करने का मौका मिल जाता है। नदी को देखकर तो मैं भी बच्चा बन जाता हूं।कपडे उतारे और तुरंत कूद पडा । दिन का एक बजा था। धूप ने गर्मी बहुत कर रखी थी। नदी में कूदते ही आनंद आ गया। मन तृप्त हो गया। नहाते ही भूख भी लग आयी थी। अब हमें लौटना था रूम की ओर लेकिन उससे पहले हमें चिडियाघर की घुमना था। हम चिडियाघर की तरफ बढ रहे थे तभी घुमक्कड मित्र कपिल चौधरी ने फौन पर बताया कि चिडियाघर के नजदीक ही एक कंपनी है जो किराये पर बाइक्स देती है। कपिल ने बताने में थोडी देर कर दी वरना हमें हजार रुपये औटो के न देने पडते। चिडियाघर घुसने से पहले ही सामने भोजनालय में भोजन किया और फिर चिडियाघर चले गये। चिडियाघर पहले ही बहुत सारे घूम चुका हूं इसलिये एक जैसा लगता है। कुछ खास मजा नहीं आया। थोडी देर में लौट आये। नजदीक ही वाइक कंपनी थी। सोचा शाम को ही चेरापूंजी शिलांग के लिये निकल पडेंगे हम कंपनी पहुंच गये। ठंडरबर्ड तो नहीं मिली जो उसने फौन पर बतायी थी। खाली नहीं थी। हमारे पहुंचने से पहले ही बुक हो चुकी थी। हमें एक स्कूटी मिल गयी। छ सौ रुपये चौबीस घंटे के लिये। बुलट बारह सौ रुपये में थी। चलो ठीक है आधे में ही काम हो गया। पेट्रोल टंकी फुल भर कर देते हैं । बस एक आईडी की कौपी ली मुझसे और स्कूटी मुझे थमा दी। स्कूटी आते ही मैंने औटोचालक का हजार रुपये का हिसाब कर दिया और उसके दोस्ताना व्यवहार के लिये पचास रुपये अलग से दिये। गले मिल कर वह मुस्कुराता हुआ आगे बढ गया। औटो लेने का एक फायदा ये भी हुआ कि उसने एक लोकल गायड की कमी पूरी कर दी थी। आसाम के बारे में बहुत सारी जानकारियां ऐसी दीं जो गूगल पर नहीं मिलती ।
स्कूटी पर बैठ कर हम गीता मंदिर श्याम मंदिर ब्रम्हपुत्र नदी घाट घूमते हुये बढ चले पलटन बाजार की तरफ जहां हमारा रुम था।
बहुत बढ़िया। मैं 1998 में आया था यहाँ। एक हफ्ते रहा।
ReplyDeleteबढ़िया और सुन्दर विवरण और आज आपके कारण एक नई जगह का पता चला।
ReplyDeleteवाह आज की घुमक्कड़ी एकदम धार्मिक....
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