Friday, July 28, 2017

आसाम मेघालय यात्रा : माजुली ।

हम जहां ठहरे थे वह जगह कमलाबाडी कस्बे से दो किमी अलग हरे भरे धान के खेतों के बीच बनी बंबू कौटेज थीं। दूर दूर तक सिर्फ हरियाली ही हरियाली। कौटेज मालिक बाईक्स भी किराये पर देता है। पांच सौ रूपये में दिनभर के लिये। चूंकि शाम को अतिंम फैरी तीन बजे थीं और हमें उसी से बापस होना था क्यूं कि मेरा आगे का (अरुणाचल का परुषराम कुंड, शिवसागर और तवांग ) प्लान रद्द हो चुका था। रद्द होने का कारण था हमारी मुख्यमंत्री महोदया का आकस्मिक निरीक्षण अभियान और छुट्टियों का रद्द होना। 

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माजुली द्वीप एकदम ग्रामीण जीवन है। ऐसी जगह को देखने के लिये तो कम से कम तीन दिन चाहिये। हमारे पास तो पूरा एक दिन भी न था फिर भी बाईक की बजह से बहुत सारे सत्र घूम लिये। घूम क्या लिये बस छू लिये समझो क्यूं कि सत्रों की जीवन शैली को समझने के लिये तो वहां रुककर देखना पडता है। एक बात और है कि ये सत्र एक दूसरे से इतनी दूर हैं कि बिना बाइक के इन तक पहुंचना ही संभव नहीं है। हम सुवह तडके ही निकल पडे। सबसे पहले पहुंचे मिसिगं विलिज जहां मिसिगं जनजाति के लोग आज भी अपनी पारंपरिक जिंदगी जीते हैं। रोड के दोनों ओर बांस की बनी हुई झोंपडी और उनके आगे बांस की ही बाउंड्री वाल। ऐसे तो माजुली में विभिन्न जाति जनजातियों के लोग रहते हैं जिन्होनें माजुली के शानदार सांस्कृतिक विरासत के लिए अमूल्य योगदान दिया है लेकिन सबसे अधिक मिसिंग ही हैं। द्वीप में ४७% जनसंख्या अनुसूचित जनजाति की है जिनमें मिसिंग, देउरी और सोनोवाल-कछारी शामिल हैं। माजुली की आबादी में असमिया के अन्य जाति उपजाति जैसे-कलिता, कोंच, नाथ, अहोम, चुतिया, मटक और ब्राह्मण भी रहते हैं। इन के अलावा, कमोवेश संख्या में चाय जनजाति के लोग, नेपाली, बंगाली, मारवाड़ी और मुसलमान भी वर्षों से यहाँ बसोवास कर रहे हैं। मिसिंग जनजाति को “मिरी” भी पुकारा जाता है। मिसिंग जनजाति सदियों पहले अरुणाचल प्रदेश से यहां आकर बस गए थे। मिसिंग लोग वास्तव में बर्मा(वर्तमान म्यांमार) देश से ताल्लुक रखने वाले मंगोल मूल के लोग हैं। लगभग ७०० साल पहले वे बेहतर जीवन की तलाश में अरुणाचल प्रदेश के रास्ते होते हुए असम आये और ब्रह्मपुत्र नदी के सहायक नदियों जैसे दिहिंग, दिसांग, सुवनशिरी, दिक्रंग के इर्द गिर्द बसने लगे। इसी क्रम में माजुली में भी मिसिंग लोग बहुतायात में बस गए। नदी के किनारे बसने के कारण वे बहुत कुशल नाविक और मछुआरे होते हैं। ऐसा कहा जाता है की हर दूसरा मिसिंग बच्चा बढ़िया तैराक होता है। ये लोग नदी किनारे की ज़िन्दगी के आदी हो गए हैं और नदी को अपना जीवनदाता मानते हैं। नदी की विभीषिका और इससे उपजने वाली विषम परिस्थितियों को ये जीवन का अंग मानते हैं आजीवन इससे संघर्ष करते हैं।माजुली स्थित यह गाँव मिसिंग लोगों के विशिष्ट लोक संगीत, नृत्य और संगीत वाद्ययंत्र होते है। इनमें से अधिकांश का इस्तेमाल उनकी सामाजिक और धार्मिक उत्सवों के दौरान होता हैं। एक परंपरागत मिसिंग घर लठ्ठों (आमतौर पर बांस) के ऊपर बना होता है। ऐसा वे अचानक आने वाली बाढ़ से बचने के लिए करते है। इनके घरों के छत फूस से बने होते हैं और फर्श, दीवारों और छत के लिए बांस बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया जाता है। मिसिंग लोग यूँ तो विभिन्न त्योहारों को मनाते हैं लेकिन उनके दो मुख्य पारंपरिक त्योहार हैं- आली-आय-लिगांग और पोराग। ये त्यौहार उनके कृषि चक्र के साथ जुड़े होते हैं। मिसिंग महिलायें कुशल बुनकर होतीं हैं। वे अपनी किशोरावस्था तक पहुँचने से पहले इस कला में निपुण हो जाती हैं। उन्हें प्राकृतिक रंगों का भी अच्छा ज्ञान होता है। माजुली की मिसिंग महिलाओं को विशेष रूप से उनके उत्तम हथकरघा उत्पाद मिरीजेन शॉल और कंबल के लिए जाना जाता है। 
मिसिंग गांव के बाद हम बढ गये सामुगुरी सत्र की तरफ जहां कि मुखौटा निर्माण होता है। हालांकि यह सत्र छोटा ही है। केवल दो तीन भवन हैं जिनमें विद्यार्थियों को मुखोटा बनाना सिखाया जाता है। 
मुखौटा शिल्प यहाँ कमाई का एक स्रोत है। सत्रों में भावना (नाटक), रास उत्सवों में इस्तेमाल होने वाले मुखौटों की माजुली से बाहर भी आपूर्ति की जाती है। विशेष रूप से सामुगुरी सत्र मुखौटा बनाने के शिल्प में अपनी विशेषज्ञता के लिए प्रसिद्ध है।
सामुगुरी सत्र के बाद बैष्णव दक्षिणपथ सत्र जो दस किमी दूर था लेकिन रास्ता इतना आनंददायक है कि चलते ही रहो बस। दूर दूर धान के खेत और चारागाहों में चरतीं गायें। पानी भरे खेतों को बैलों की सहायता से जोतते किसान। पिता की सहायता करते युवक। बगुलों सारसों और जलपक्षियों को उडाते छोटे छोटे बाल गोपाल। सब कुछ मनमोहक। नहर किनारे दोनों ओर घने पेड और अचानक से रोड उतर जाती है सत्र की तरफ। मुझे लगा ही नहीं कि मैं आसाम में हूं। ऐसा लगा जैसे अपने मथुरा वृंदावन के किसी गुरूकुल आश्रम में आ गया हूं।अधनंगे शरीर पर धोती पहने शिक्षक और शिक्षार्थी । गायों को चराने ले जाते युवक। दोनों हाथ जोडकर जय श्री कृष्णा का अभिवादन। सब कुछ मोह लेने बाला। झोंपडीनुमा विशाल भवन जिसमें श्री कृष्ण का संपूर्ण परिवार विराजमान हैं। हम बाहर से देख पाये। अदंर जाने के लिये धोती कुर्ता की वेशभूषा जरूरी थी। मंदिर के बाहर परिसर में उछलकूद करते खरगोश और हिरन। समय की कमी थी वरना दो चार दिन जरूर काटता ऐसी जगह पर। 
माजुली द्वीप असमिया नव-वैष्णव संस्कृति का केन्द्र रहा है। नव-वैष्णव विचारधारा असमिया संत महापुरुष श्रीमंत शंकरदेव और उनके शिष्य माधवदेव द्वारा पन्द्रहवीं सदी के आसपास शुरू की गयी थी। इन महान संतों द्वारा निर्मित कई सत्र अभी भी अस्तित्व में हैं और असमिया संस्कृति का अंग बने हुए हैं। माजुली प्रवास के दौरान श्रीमंत शंकरदेव यहाँ पश्चिम माजुली के बेलागुरी नामक स्थान में कुछ महीने रूके थे। इसी स्थान पर दो महान संतों, श्रीमंत शंकरदेव और माधवदेव का महामिलन हुआ था। इस ऐतिहासिक भेंट का बहुत महत्व है क्योंकि इसी के बाद बेलागुरी में “मनिकंचन संजोग” सत्र स्थापित हुआ। हालांकि यह सत्र अब अस्तित्व में नहीं है। इस सत्र के बाद माजुली में पैंसठ सत्र और स्थापित किए गए। माजुली में स्थित मूल पैंसठ में से अब केवल बाईस ही अस्तित्व में है। दक्षिणपाट सत्र को वनमाली देव ने स्थापित किया था। वे रासलीला अथवा रास उत्सव के समर्थक थे। रासलीला अब असम के राष्ट्रीय त्योहारों के रूप में मनाया जाता है।सामागुरी सत्र रास उत्सव, भावना(धार्मिक नाट्य) और अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए मुखौटा बनाने के लिए भारत भर में प्रसिद्ध है।
गरमूढ़ सत्र लक्ष्मीकांत देव द्वारा स्थापित किया गया था। शरद ऋतु के अंत के दौरान, पारंपरिक रासलीला समारोह धूमधाम से मनाया जाता है। प्राचीन हथियार जिन्हें “बरतोप” या तोप कहा जाता है यहाँ संरक्षित किये गए हैं।
औनीअति सत्र निरंजन पाठक देव द्वारा स्थापित किया गया “पालनाम और अप्सरा नृत्य के लिए प्रसिद्ध है। यह सत्र प्राचीन असमी कलाकृतियों, बर्तनों, आभूषण और हस्तशिल्प के अपने व्यापक संकलन के लिए भी प्रसिद्ध है। इस सत्र के दुनिया भर में एक सौ पच्चीस शिष्य और सात लाख से अधिक अनुयायी हैं। कमलाबारी सत्र: बादुला पद्म आता द्वारा स्थापित किया गया यह सत्र, माजुली द्वीप में कला, सांस्कृति, साहित्य और शास्त्रीय अध्ययन का एक केंद्र है। इसकी शाखा उत्तर कमलाबारी सत्र पूरे देश में और विदेशों में सत्रीय नृत्य और सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत कर चुके हैं।
बेंगेनाआती सत्र: मुरारी देव जो कि श्रीमंत शंकरदेव की सौतेली माँ के पोते थे, सत्र के संस्थापक थे। यह सांस्कृतिक महत्व और कला का प्रदर्शन करने के लिए एक नामचीन सत्र था। यहाँ अहोम राजा स्वर्गदेव गदाधर सिंघा का शुद्ध सोने का बना शाही पोशाक रखा गया है। इसके अलावा यहाँ स्वर्णनिर्मित एक शाही छाता भी संरक्षित है।ये सत्र “बरगीत”, ‘’मटियाखारा’’, सत्रीय नृत्य जैसे- झुमोरा नृत्य, छली नृत्य, नटुआ नृत्य, नंदे भृंगी, सूत्रधार, ओझापल्ली, अप्सरा नृत्य, सत्रीय कृष्णा नृत्य, दशावतार नृत्य आदि के संरक्षक स्थल हैं। ये सभी श्रीमंत शंकरदेव द्वारा प्रख्यापित किये गए थे।
पूरे शहर का चक्कर लगाते हुये हम कमलाबाडी बीच चौराहे पर आ गये। जहां हमने दोपहर का भोजन लिया। मिट्टी के चूल्हे पर बनी हाथ की रोटी और एकदम साधा उडद की दाल। एकदम घर जैसा भोजन। मिर्च मसालों से तो परहेज रहता है मुझे इसलिये ये भोजन भी दिल को भा गया। उसके बाद बढ चले अपने कौटेज की तरफ जहां से हमें अपना सामान समेटना था क्यूंकि हर हालत में ये अतिंम फैरी हमें पकडनी थी। कौटेज से ही हमें टैक्सी मिल गयी जिसने हमें नदी के तट पर छोड दिया। 
नाव चलने में अभी देरी थी। अन्य सवारियों के साथ साथ दो दूल्हे और उनकी बारात भी थीं। नाव किनारे पर लगी। नाव पर चढने से पहले दोनों दूल्हों को बिठाकर कुछ विदा जैसी रस्म अदा की गयी और भेंट इत्यादि आदि भी दी गयी। उसके बाद शुरू हुआ नाचने गाने का दौर। समझ तो न आया कि क्या गा रहे हैं लेकिन नाचते गाते महिलाओं पुरूषों को देखकर आनंद बहुत आया।
थोडी ही देर में हमारी फैरी चल पडी और हम बाहर आकर माजुली को अलविदा कहने लगे। वहीं पर हमारी मुलाकात हुई राज्यसभा के एक टीवी रिपोर्टर से जो ब्रम्हपुत्र के बढते अपरदन की रिपोर्ट कवर करने आया था। चलते समय हमने देखा कि जगह जगह पर नावें रखी हुई हैं। कुछ नावें तो ऐसी लगी जैसे पानी उतरने के बाद वहीं जमी रह गयी थीं। हालाकिं नाव निर्माण माजुली का काफी बडा रोजगार का साधन है। जलीय इलाका एवं बाढ़ के खतरे के कारण नाव एक उपयोगी साधन है, इसीलिए नाव बनाने की कला यहाँ का एक पारंपरिक व्यवसाय है। यहाँ के नाव बनाने में माहिर लोगों की मांग हमेशा बनी रहती है। हस्तशिल्प और हथकरघा उद्योग भी यहां काफी उन्नत है। यहाँ बांस और गन्ने से फर्नीचर आदि बनाये जाते हैं। हथकरघा गांवों की औरतों के बीच एक प्रमुख व्यवसाय है। माजुली की महिलायें कुशल बुनकर होती हैं और अपने कपड़े स्वयं बुनती हैं। मिसिंग महिलाओं को कपड़ों के विदेशी डिजाइन और मनभावन रंग संयोजन के लिए जाना जाता है। वे "मिरजिम" नामक विश्व प्रसिद्ध कपड़े बनाती हैं। यहाँ लगभग २० गाँव कच्चे रेशम के एक किस्म “एंडी” का उत्पादन करते है और उसके उत्पाद तैयार करते हैं। 
हालांकि हमने रोटी भी खायी और चावल भी लेकिन यहां का मुख्य भोजन चावल ही है। यहाँ चावल का एक सौ अलग अलग किस्में किसी भी प्रकार के कृत्रिम खाद या कीटनाशक के इस्तेमाल के बिना उगाई जाती हैं। “कुमल शाऊल” (हिंदी: कोमल चावल) यहाँ चावल के सबसे लोकप्रिय किस्मों में से एक है। इसे सिर्फ पंद्रह मिनट के लिए गर्म पानी में डुबो कर रखने के बाद खाया जा सकता है। आमतौर पर इसे नाश्ते के रूप में खाया जाता है। बाओ धान, चावल का एक अनूठा किस्म होता है जो कि पानी के नीचे होती है, और दस महीने और बाद काटा जाता है। बोरा शाऊल एक अन्य किस्म का चावल है जो चिपचिपा भूरे रंग का होता है। यह चावल असम के पारंपरिक खाद्य पीठा बनाने और अन्य आनुष्ठानिक कार्यों में प्रयुक्त होता है।
इस बार हमारे पास पूरे एक महीने की छुट्टी थी और हम दोनों पति पत्नि सोच कर आये थे कि सभी सात बहन राज्यों को घूमकर आयेंगे लेकिन नौकरी तो नौकरी है। सरकार के आदेश के गुलाम हैं हम। यात्रा अधूरी ही रह गयी। अगली बार फिर होगी इसी आशा के साथ आसाम मेघालय यात्रा विवरण को यहां विराम देता हूं। 























4 comments:

  1. अत्यंत उत्तम आलेख, एक दिन में ही आपने पूरा माजुली का भ्रमण कर लिया,बधाई

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  2. ब्लॉग पर मेहनत करते रहिए,
    हम जैसे पाठक पढते रहेंगे।

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  3. बहुत सी सुन्दर चित्रण चाहर साहब , बहुत बहुत धन्यवाद यात्रा विवरण और यात्रा की सुन्दर जानकारियों को सचित्र साझा करने के लिए !

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  4. माजुली की एक एक छोटी से छोटी बात का कवर यहाँ करना अच्छा लगा..दुःख हुआ आपकी यात्रा अधूरी रह गयी पर कुछ छूट जाए तो वापस आने का मन भी लग रहता है...बढ़िया पोस्ट

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