Friday, July 28, 2017

आसाम मेघालय यात्रा : माजुली ।

हम जहां ठहरे थे वह जगह कमलाबाडी कस्बे से दो किमी अलग हरे भरे धान के खेतों के बीच बनी बंबू कौटेज थीं। दूर दूर तक सिर्फ हरियाली ही हरियाली। कौटेज मालिक बाईक्स भी किराये पर देता है। पांच सौ रूपये में दिनभर के लिये। चूंकि शाम को अतिंम फैरी तीन बजे थीं और हमें उसी से बापस होना था क्यूं कि मेरा आगे का (अरुणाचल का परुषराम कुंड, शिवसागर और तवांग ) प्लान रद्द हो चुका था। रद्द होने का कारण था हमारी मुख्यमंत्री महोदया का आकस्मिक निरीक्षण अभियान और छुट्टियों का रद्द होना। 

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माजुली द्वीप एकदम ग्रामीण जीवन है। ऐसी जगह को देखने के लिये तो कम से कम तीन दिन चाहिये। हमारे पास तो पूरा एक दिन भी न था फिर भी बाईक की बजह से बहुत सारे सत्र घूम लिये। घूम क्या लिये बस छू लिये समझो क्यूं कि सत्रों की जीवन शैली को समझने के लिये तो वहां रुककर देखना पडता है। एक बात और है कि ये सत्र एक दूसरे से इतनी दूर हैं कि बिना बाइक के इन तक पहुंचना ही संभव नहीं है। हम सुवह तडके ही निकल पडे। सबसे पहले पहुंचे मिसिगं विलिज जहां मिसिगं जनजाति के लोग आज भी अपनी पारंपरिक जिंदगी जीते हैं। रोड के दोनों ओर बांस की बनी हुई झोंपडी और उनके आगे बांस की ही बाउंड्री वाल। ऐसे तो माजुली में विभिन्न जाति जनजातियों के लोग रहते हैं जिन्होनें माजुली के शानदार सांस्कृतिक विरासत के लिए अमूल्य योगदान दिया है लेकिन सबसे अधिक मिसिंग ही हैं। द्वीप में ४७% जनसंख्या अनुसूचित जनजाति की है जिनमें मिसिंग, देउरी और सोनोवाल-कछारी शामिल हैं। माजुली की आबादी में असमिया के अन्य जाति उपजाति जैसे-कलिता, कोंच, नाथ, अहोम, चुतिया, मटक और ब्राह्मण भी रहते हैं। इन के अलावा, कमोवेश संख्या में चाय जनजाति के लोग, नेपाली, बंगाली, मारवाड़ी और मुसलमान भी वर्षों से यहाँ बसोवास कर रहे हैं। मिसिंग जनजाति को “मिरी” भी पुकारा जाता है। मिसिंग जनजाति सदियों पहले अरुणाचल प्रदेश से यहां आकर बस गए थे। मिसिंग लोग वास्तव में बर्मा(वर्तमान म्यांमार) देश से ताल्लुक रखने वाले मंगोल मूल के लोग हैं। लगभग ७०० साल पहले वे बेहतर जीवन की तलाश में अरुणाचल प्रदेश के रास्ते होते हुए असम आये और ब्रह्मपुत्र नदी के सहायक नदियों जैसे दिहिंग, दिसांग, सुवनशिरी, दिक्रंग के इर्द गिर्द बसने लगे। इसी क्रम में माजुली में भी मिसिंग लोग बहुतायात में बस गए। नदी के किनारे बसने के कारण वे बहुत कुशल नाविक और मछुआरे होते हैं। ऐसा कहा जाता है की हर दूसरा मिसिंग बच्चा बढ़िया तैराक होता है। ये लोग नदी किनारे की ज़िन्दगी के आदी हो गए हैं और नदी को अपना जीवनदाता मानते हैं। नदी की विभीषिका और इससे उपजने वाली विषम परिस्थितियों को ये जीवन का अंग मानते हैं आजीवन इससे संघर्ष करते हैं।माजुली स्थित यह गाँव मिसिंग लोगों के विशिष्ट लोक संगीत, नृत्य और संगीत वाद्ययंत्र होते है। इनमें से अधिकांश का इस्तेमाल उनकी सामाजिक और धार्मिक उत्सवों के दौरान होता हैं। एक परंपरागत मिसिंग घर लठ्ठों (आमतौर पर बांस) के ऊपर बना होता है। ऐसा वे अचानक आने वाली बाढ़ से बचने के लिए करते है। इनके घरों के छत फूस से बने होते हैं और फर्श, दीवारों और छत के लिए बांस बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया जाता है। मिसिंग लोग यूँ तो विभिन्न त्योहारों को मनाते हैं लेकिन उनके दो मुख्य पारंपरिक त्योहार हैं- आली-आय-लिगांग और पोराग। ये त्यौहार उनके कृषि चक्र के साथ जुड़े होते हैं। मिसिंग महिलायें कुशल बुनकर होतीं हैं। वे अपनी किशोरावस्था तक पहुँचने से पहले इस कला में निपुण हो जाती हैं। उन्हें प्राकृतिक रंगों का भी अच्छा ज्ञान होता है। माजुली की मिसिंग महिलाओं को विशेष रूप से उनके उत्तम हथकरघा उत्पाद मिरीजेन शॉल और कंबल के लिए जाना जाता है। 
मिसिंग गांव के बाद हम बढ गये सामुगुरी सत्र की तरफ जहां कि मुखौटा निर्माण होता है। हालांकि यह सत्र छोटा ही है। केवल दो तीन भवन हैं जिनमें विद्यार्थियों को मुखोटा बनाना सिखाया जाता है। 
मुखौटा शिल्प यहाँ कमाई का एक स्रोत है। सत्रों में भावना (नाटक), रास उत्सवों में इस्तेमाल होने वाले मुखौटों की माजुली से बाहर भी आपूर्ति की जाती है। विशेष रूप से सामुगुरी सत्र मुखौटा बनाने के शिल्प में अपनी विशेषज्ञता के लिए प्रसिद्ध है।
सामुगुरी सत्र के बाद बैष्णव दक्षिणपथ सत्र जो दस किमी दूर था लेकिन रास्ता इतना आनंददायक है कि चलते ही रहो बस। दूर दूर धान के खेत और चारागाहों में चरतीं गायें। पानी भरे खेतों को बैलों की सहायता से जोतते किसान। पिता की सहायता करते युवक। बगुलों सारसों और जलपक्षियों को उडाते छोटे छोटे बाल गोपाल। सब कुछ मनमोहक। नहर किनारे दोनों ओर घने पेड और अचानक से रोड उतर जाती है सत्र की तरफ। मुझे लगा ही नहीं कि मैं आसाम में हूं। ऐसा लगा जैसे अपने मथुरा वृंदावन के किसी गुरूकुल आश्रम में आ गया हूं।अधनंगे शरीर पर धोती पहने शिक्षक और शिक्षार्थी । गायों को चराने ले जाते युवक। दोनों हाथ जोडकर जय श्री कृष्णा का अभिवादन। सब कुछ मोह लेने बाला। झोंपडीनुमा विशाल भवन जिसमें श्री कृष्ण का संपूर्ण परिवार विराजमान हैं। हम बाहर से देख पाये। अदंर जाने के लिये धोती कुर्ता की वेशभूषा जरूरी थी। मंदिर के बाहर परिसर में उछलकूद करते खरगोश और हिरन। समय की कमी थी वरना दो चार दिन जरूर काटता ऐसी जगह पर। 
माजुली द्वीप असमिया नव-वैष्णव संस्कृति का केन्द्र रहा है। नव-वैष्णव विचारधारा असमिया संत महापुरुष श्रीमंत शंकरदेव और उनके शिष्य माधवदेव द्वारा पन्द्रहवीं सदी के आसपास शुरू की गयी थी। इन महान संतों द्वारा निर्मित कई सत्र अभी भी अस्तित्व में हैं और असमिया संस्कृति का अंग बने हुए हैं। माजुली प्रवास के दौरान श्रीमंत शंकरदेव यहाँ पश्चिम माजुली के बेलागुरी नामक स्थान में कुछ महीने रूके थे। इसी स्थान पर दो महान संतों, श्रीमंत शंकरदेव और माधवदेव का महामिलन हुआ था। इस ऐतिहासिक भेंट का बहुत महत्व है क्योंकि इसी के बाद बेलागुरी में “मनिकंचन संजोग” सत्र स्थापित हुआ। हालांकि यह सत्र अब अस्तित्व में नहीं है। इस सत्र के बाद माजुली में पैंसठ सत्र और स्थापित किए गए। माजुली में स्थित मूल पैंसठ में से अब केवल बाईस ही अस्तित्व में है। दक्षिणपाट सत्र को वनमाली देव ने स्थापित किया था। वे रासलीला अथवा रास उत्सव के समर्थक थे। रासलीला अब असम के राष्ट्रीय त्योहारों के रूप में मनाया जाता है।सामागुरी सत्र रास उत्सव, भावना(धार्मिक नाट्य) और अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए मुखौटा बनाने के लिए भारत भर में प्रसिद्ध है।
गरमूढ़ सत्र लक्ष्मीकांत देव द्वारा स्थापित किया गया था। शरद ऋतु के अंत के दौरान, पारंपरिक रासलीला समारोह धूमधाम से मनाया जाता है। प्राचीन हथियार जिन्हें “बरतोप” या तोप कहा जाता है यहाँ संरक्षित किये गए हैं।
औनीअति सत्र निरंजन पाठक देव द्वारा स्थापित किया गया “पालनाम और अप्सरा नृत्य के लिए प्रसिद्ध है। यह सत्र प्राचीन असमी कलाकृतियों, बर्तनों, आभूषण और हस्तशिल्प के अपने व्यापक संकलन के लिए भी प्रसिद्ध है। इस सत्र के दुनिया भर में एक सौ पच्चीस शिष्य और सात लाख से अधिक अनुयायी हैं। कमलाबारी सत्र: बादुला पद्म आता द्वारा स्थापित किया गया यह सत्र, माजुली द्वीप में कला, सांस्कृति, साहित्य और शास्त्रीय अध्ययन का एक केंद्र है। इसकी शाखा उत्तर कमलाबारी सत्र पूरे देश में और विदेशों में सत्रीय नृत्य और सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत कर चुके हैं।
बेंगेनाआती सत्र: मुरारी देव जो कि श्रीमंत शंकरदेव की सौतेली माँ के पोते थे, सत्र के संस्थापक थे। यह सांस्कृतिक महत्व और कला का प्रदर्शन करने के लिए एक नामचीन सत्र था। यहाँ अहोम राजा स्वर्गदेव गदाधर सिंघा का शुद्ध सोने का बना शाही पोशाक रखा गया है। इसके अलावा यहाँ स्वर्णनिर्मित एक शाही छाता भी संरक्षित है।ये सत्र “बरगीत”, ‘’मटियाखारा’’, सत्रीय नृत्य जैसे- झुमोरा नृत्य, छली नृत्य, नटुआ नृत्य, नंदे भृंगी, सूत्रधार, ओझापल्ली, अप्सरा नृत्य, सत्रीय कृष्णा नृत्य, दशावतार नृत्य आदि के संरक्षक स्थल हैं। ये सभी श्रीमंत शंकरदेव द्वारा प्रख्यापित किये गए थे।
पूरे शहर का चक्कर लगाते हुये हम कमलाबाडी बीच चौराहे पर आ गये। जहां हमने दोपहर का भोजन लिया। मिट्टी के चूल्हे पर बनी हाथ की रोटी और एकदम साधा उडद की दाल। एकदम घर जैसा भोजन। मिर्च मसालों से तो परहेज रहता है मुझे इसलिये ये भोजन भी दिल को भा गया। उसके बाद बढ चले अपने कौटेज की तरफ जहां से हमें अपना सामान समेटना था क्यूंकि हर हालत में ये अतिंम फैरी हमें पकडनी थी। कौटेज से ही हमें टैक्सी मिल गयी जिसने हमें नदी के तट पर छोड दिया। 
नाव चलने में अभी देरी थी। अन्य सवारियों के साथ साथ दो दूल्हे और उनकी बारात भी थीं। नाव किनारे पर लगी। नाव पर चढने से पहले दोनों दूल्हों को बिठाकर कुछ विदा जैसी रस्म अदा की गयी और भेंट इत्यादि आदि भी दी गयी। उसके बाद शुरू हुआ नाचने गाने का दौर। समझ तो न आया कि क्या गा रहे हैं लेकिन नाचते गाते महिलाओं पुरूषों को देखकर आनंद बहुत आया।
थोडी ही देर में हमारी फैरी चल पडी और हम बाहर आकर माजुली को अलविदा कहने लगे। वहीं पर हमारी मुलाकात हुई राज्यसभा के एक टीवी रिपोर्टर से जो ब्रम्हपुत्र के बढते अपरदन की रिपोर्ट कवर करने आया था। चलते समय हमने देखा कि जगह जगह पर नावें रखी हुई हैं। कुछ नावें तो ऐसी लगी जैसे पानी उतरने के बाद वहीं जमी रह गयी थीं। हालाकिं नाव निर्माण माजुली का काफी बडा रोजगार का साधन है। जलीय इलाका एवं बाढ़ के खतरे के कारण नाव एक उपयोगी साधन है, इसीलिए नाव बनाने की कला यहाँ का एक पारंपरिक व्यवसाय है। यहाँ के नाव बनाने में माहिर लोगों की मांग हमेशा बनी रहती है। हस्तशिल्प और हथकरघा उद्योग भी यहां काफी उन्नत है। यहाँ बांस और गन्ने से फर्नीचर आदि बनाये जाते हैं। हथकरघा गांवों की औरतों के बीच एक प्रमुख व्यवसाय है। माजुली की महिलायें कुशल बुनकर होती हैं और अपने कपड़े स्वयं बुनती हैं। मिसिंग महिलाओं को कपड़ों के विदेशी डिजाइन और मनभावन रंग संयोजन के लिए जाना जाता है। वे "मिरजिम" नामक विश्व प्रसिद्ध कपड़े बनाती हैं। यहाँ लगभग २० गाँव कच्चे रेशम के एक किस्म “एंडी” का उत्पादन करते है और उसके उत्पाद तैयार करते हैं। 
हालांकि हमने रोटी भी खायी और चावल भी लेकिन यहां का मुख्य भोजन चावल ही है। यहाँ चावल का एक सौ अलग अलग किस्में किसी भी प्रकार के कृत्रिम खाद या कीटनाशक के इस्तेमाल के बिना उगाई जाती हैं। “कुमल शाऊल” (हिंदी: कोमल चावल) यहाँ चावल के सबसे लोकप्रिय किस्मों में से एक है। इसे सिर्फ पंद्रह मिनट के लिए गर्म पानी में डुबो कर रखने के बाद खाया जा सकता है। आमतौर पर इसे नाश्ते के रूप में खाया जाता है। बाओ धान, चावल का एक अनूठा किस्म होता है जो कि पानी के नीचे होती है, और दस महीने और बाद काटा जाता है। बोरा शाऊल एक अन्य किस्म का चावल है जो चिपचिपा भूरे रंग का होता है। यह चावल असम के पारंपरिक खाद्य पीठा बनाने और अन्य आनुष्ठानिक कार्यों में प्रयुक्त होता है।
इस बार हमारे पास पूरे एक महीने की छुट्टी थी और हम दोनों पति पत्नि सोच कर आये थे कि सभी सात बहन राज्यों को घूमकर आयेंगे लेकिन नौकरी तो नौकरी है। सरकार के आदेश के गुलाम हैं हम। यात्रा अधूरी ही रह गयी। अगली बार फिर होगी इसी आशा के साथ आसाम मेघालय यात्रा विवरण को यहां विराम देता हूं। 























Thursday, July 20, 2017

आसाम मेघालय यात्रा : गुवाहाटी से जोरहाट माजुली द्वीप।

चेरापूंजी से लौटते ही गुवाहाटी स्टेशन से जोरहाट की ट्रैन पकड ली। रात नौ बजे चलकर सुवह तडके ही पहुंचा देती है। माजुली द्वीप के लिये यहीं से फैरी पकडनी होती है लेकिन हम पहले गोलाघाट के नजदीक फरकटियर स्टेशन उतर गये क्यूं कि वहां मेरे मित्र कपिल चौधरी मेरा इंतजार कर रहे थे। झारखंड के रहने बाले घुमक्कड मित्र कपिल रेलवे कर्मचारी हैं यहीं पर। दो तीन घंटे आराम करने के बाद हम तीनों लोग जोरहाट के लिये निकल पडे। दो घंटे में ही पहुंचा दिया। जोरहाट में ही खाना खाया हम लोगों ने। सुभाष चौक से घाट के लिये मैजिक चलती है जो पच्चीस रुपये प्रति सवारी लेती है। फरकटियर से जोरहाट और ब्रम्हपुत्र घाट तक रास्ता ही अपने आप में एक आकर्षण है। चाय के बागानों और हरे भरे खेतों से ट्रैन गुजरती है तो एक अलग ही अहसास कराती है। और इसी प्रकार घाट तक का आधे घंटे का सफर भी असम को जानने का बेहतर मौका उपलब्ध कराता है। घनी हरियाली और शांतप्रिय माहौल के बीच आगे बढना दिल को सुकून पहुंचाता है।सडक के दोनों ओर बांस के घने पेड और बांस की बनी हुई मकानों की बाहरी बाउंड्री वाल। सडक के किनारे बांस को काटपीट कर आकार देते किसान । सब कुछ मंत्र मुग्ध करने बाला। भारत की संस्कृति को ठीक से जानना है तो पैदल या दोपहिया वाहन से निकलना ही ठीक होता है। गुवाहाटी से लेकर अब तक मैं अपनी बाइक को बहुत मिस कर रहा था। हालांकि माजुली पहुंचकर मुझे बाइक मिल जानी थी इसलिये चिंता नहीं थी फिर भी जाने क्यूं ऐसा लगता है कि बंद ट्रेन में बहुत कुछ छूट जाता है हमसे।
सबसे ज्यादा आनंद तो निमाई घाट पहुंचकर आया जहां सरकारी और निजी फेरी उपलब्ध हैं , माजुली पहुंचाने के लिये। माजुली द्वीप अब जिला घोषित किया जा चुका है। घाट पर हम पहुंचे तो फैरी लगी हुई थी। पन्द्रह रुपये प्रति व्यक्ति के हिसाब कपिल जी तीन टिकट ले आये। हालांकि फैरी में अदंर बैठने की बहुत अच्छी व्यवस्था है लेकिन हम बैठने वालों में से कहां हैं , चढ गये छत के ऊपर जहां फैरी चालक बैठा रहता है। कुछ दैनिक यात्री भी चढ गये। उन्हौने तो तुरंत जाकर अपने ताश पत्ते निकाले और शुरू हो गये तीन पत्ती फ्लश खेलने। हमारा मन तो विशाल ब्रम्हपुत्र की गहराईयों में डूबा हुआ था। फैरी में हर रोज सैकडों लोग इधर से उधर आवागमन करते हैं। फैरी से न केवल यात्रियों वरन बाइक्स और फोर व्हीलर्स भी इधर से उधर ले जाया जाता है। थोडी ही देर में फैरी के बडे बडे रस्से खोल दिये गये और फैरी चल पडी ब्रम्हपुत्र की धारा की सीध में। फैरी या नाव हमेशा लंबाई में चलती है। धारा को धीरे धीरे काटते हुये दूसरी ओर पहुंचाती है। इस नद की चौडाई ही इतनी है कि फैरी को पहुंचने में दो घंटे लग गये लेकिन ये दो घंटे का सफर मेरे लिये यादगार बन गया। ब्रम्हपुत्र में ढलते सूरज को देखना बहुत ही अच्छा लगता है। माजुली आजकल चिंता का विषय बना हुआ है सरकार के लिये। लगातार घटता ही जा रहा है। ब्रम्हपुत्र नदी का मिट्टी कटाव तेजी से बढ रहा है। असम में भूकटाव हर नदी के तट पर होने वाली एक प्राकृतिक घटना है क्योंकि यहाँ की मिट्टी रेतीली है और इस क्षेत्र की भौगोलिक परिस्थितियाँ अभी भी विकास के क्रम में हैं। विनाशकारी भूकंप के बाद से द्वीप के दक्षिणी किनारे पर लगातार कटाव से कई गांवों और सत्र नदी की गाल में समा चुके हैं। भूकटाव ने माजुली द्वीप के जनसांख्यिकीय स्वरुप, पारिस्थितिकी, पर्यावरण, सामाजिक संरचना और आर्थिक विकास को खासा प्रभावित किया है ।
दो घंटे की रोमांचक यात्रा के बाद हम पहुंचे हैं निमाई घाट जहां से हमें एक जीप मिल जाती है जो हमें बीस रुपये में कमलाबाडी बाजार तक छोड देती है लेकिन जीप ड्राईवर अजय जो देखने में बिल्कुल अरुणाचल प्रदेश या मणिपुरी पहाडी प्रदेश का लग रहा था, कपिल से जल्दी घुलमिल गया और उसी ने हमें बंबू हट कौटेज के बारे में बताया। हालांकि कमलाबाडी बाजार में मात्र पांच सौ रूपये में रुम मिल जाता है लेकिन यह एकदम हरे भरे माहौल में शहर से दूर धान के खेतों के बीच शांतिप्रिय जगह थी तो हजार रुपये प्रति कौटेज हमें ज्यादा न लगे और फिर इसके पास बाइक्स भी थी जिससे हम शहर घूम सकते थे। एक दिन के पांच सौ रुपये पैट्रोल अपना। शाम हो चली थी भूख भी लग आयी थी। पहले तो नहा धोकर हरारत दूर की। खाना चाहे तो आप खुद भी बना सकते हैं और चाहें तो आप और्डर कर सकते हैं। एक सौ पचास रूपये प्रति थाली। हालांकि कमलाबाडी बाजार की अपेक्षा ये कौटेज थोडी मंहगी है लेकिन हम इस समय शहर से दो किमी दूर थे। दूर दूर तक सिर्फ खेत ही खेत। रात को मच्छरों से बचने को मच्छरदानी और कौईल दोनों का ही प्रयोग करना पडा लेकिन नींद बहुत गहरी आयी। अगली सुवह हमें जल्दी ही माजुली दर्शन के लिये निकलना था। श्री वीरेन्द्र परमार जी की दी हुई जानकारी के अनुसार उत्तर – पूर्वी भारत के युगांतरकारी महापुरुष श्रीमंत शंकरदेव की पुण्यभूमि के रूप में ख्यात माजुली द्वीप विश्व का सबसे बड़ा नदी द्वीप है I यह असम में जोरहाट के निकट ब्रह्मपुत्र नदी में अवस्थित है I इस द्वीप पर श्रीमंत शंकरदेव का स्पष्ट प्रभाव महसूस किया जा सकता है I इस द्वीप का निर्माण ब्रह्मपुत्र और उसकी सहायक नदियों मुख्यतः लोहित द्वारा धारा परिवर्तित करने के कारण हुआ है I समृद्ध विरासत, पर्यावरण अनुकूल पर्यटन और आध्यात्मिकता के कारण माजुली देशी – विदेशी पर्यटकों के लिए आकर्षण का प्रमुख केंद्र बन गया है I यह द्वीप पक्षियों के लिए स्वर्ग है I कार्तिक पूर्णिमा के समय आयोजित होनेवाली रासलीला के अवसर पर यहाँ असमिया संस्कृति जीवंत हो उठती है I इस अवसर पर पारंपरिक नृत्य, गीत और नाटिका की प्रस्तुति पर्यटकों का मन मोह लेती है I यहाँ की संस्कृति और नृत्य – गीत पर आधुनिकता का कोई प्रभाव नहीं पड़ा है I वैसे तो बरसात को छोड़कर कभी भी इस द्वीप का भ्रमण किया जा सकता है लेकिन जिन्हें असमिया संस्कृति की झलक देखनी हो उन्हें रासलीला के समय अवश्य आना चाहिए I अतीत में माजुली का कुल क्षेत्रफल 1,250 वर्ग किलोमीटर था लेकिन भूक्षरण के कारण इसका क्षेत्र सिमटकर अब मात्र 422 वर्ग किलोमीटर रह गया है I यहाँ की अधिकांश जनसंख्या आदिवासी है I वर्तमान में यहाँ लगभग 22 वैष्णव सत्र हैं जिनमे औनीअति सत्र, दक्षिणपथ सत्र, गरमुर सत्र और कालीबारी सत्र महत्वपूर्ण हैं I यहाँ का सामग्री सत्र मुखौटा निर्माण के लिए प्रख्यात है I इस सत्र में मुखौटा निर्माण का प्रशिक्षण भी दिया जाता है I पंद्रहवीं शताब्दी में इसी द्वीप पर वैष्णव संत संकरदेव एवं उनके शिष्य माधवदेव का पहली बार मिलन हुआ था I सर्वप्रथम श्रीमंत शंकरदेव ने सत्रों की स्थापना की थी जिसका उद्देश्य वैष्णव धर्म का प्रसार करना और असमिया संस्कृति को अक्षुण्ण रखना था I सत्र को आसान भाषा में वैष्णव मठ कहा जा सकता है I ये मठ सामाजिक गतिविधियों के प्रमुख केंद्र हैं I माजुली विगत पांच सौ वर्षों से असमिया सभ्यता और संस्कृति की राजधानी बना हुआ है I इस द्वीप पर मुख्यतः तीन जनजातीय समुदाय के लोग निवास करते हैं – मिशिंग, देवरी और सोनोवाल कछारी I द्वीप पर 144 गाँव हैं और कुल जनसंख्या लगभग डेढ़ लाख है I यहाँ चावल की एक सौ से अधिक किस्मे उत्पादित की जाती हैं और इनके उत्पादन के लिए किसी प्रकार के कीटनाशक और रासायनिक खाद का प्रयोग नहीं किया जाता है I यहाँ शहर का कोलाहल नहीं, प्रदूषण नहीं, शांत वातावरण और सरल जीवन है, आध्यात्मिक शांति हैI






















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Monday, July 10, 2017

आसाम मेघालय यात्रा : चेरापूंजी सोहरा भाग 1 ।

आखिरकार हम पहुंच गये विश्व के सर्वाधिक वर्षा बाले स्थान चेरापूंजी क्षेत्र में। यहां औसत वर्षा 10,000 मिलीमीटर होती है। पर उस दिन मौसम बहुत शानदार रहा। एलीफेंट गुफा से लेकर सोहरा तक एक बूंद बारिस न हुई। यहां का क्षेत्रीय नाम सोहरा ही है। चेरापूंजी नाम तो अंग्रेजों का दिया हुआ है।  सोहरा में प्रवेश करते ही घनी वादियों में गिरते ऊंचे ऊंचे झरनों ने हमारा स्वागत कर दिया।
चेरापूंजी में जब आप पहुंचेंगे तो आपको चारों ओर सिर्फ झरनों का शोर सुनाई देगा। हरियाली से सजी चेरापूंजी की पहाड़ियां बरबस ही लोगों को अपनी ओर खींच लेती हैं। जब बारिश होती है तो बसंत अपने शबाब पर होता है। ऊंचाई से गिरते पानी के फव्वारे, कुहासे के समान मेघों को देखने का अपना अलग ही अनुभव है। यहां के स्थानीय निवासियों को बसंत का बड़ी शिद्धत से इंतजार होता है। चेरापूंजी में खासी जनजाति के लोग मानसून का स्वागत अलग ही अंदाज में करते हैं। मेघों को लुभाने के लिए लोक गीत और लोक नृत्यों का आयोजन किया जाता है जो पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र है।
सोहरा चेरापूंजी सर्किट में प्रवेश करते ही " वाहकाबा" झरने आपका स्वागत करते हैं। रोड के सहारे ही एंन्ट्रीगेट है। बीस रुपये टिकट है। नीचे उतर कर जाओ तो बस मुंह से वाह वाह ही निकलेगा। अभी तो ये पहला झरना था आगे तो लाईन लगी पडी थी। वाहकाबा झरनों पर हमने थोडा ही समय दिया और बढ गये सोहरा शैला रोड पर । सोहरा में थोडा आगे चल कर ही एक तिराहा आता है। इसी तिराहे के सीधे हाथ पर हैं रामकृष्ण मिशन और नोहकालीकाई झरने जो कि चेरापूंजी का मुख्य आकर्षण है और लैफ्ट हैंड पर मुख्य रोड चली जाती शैला की तरफ। पूरा सोहरा शहर इसी रोड पर पडता है। इसी रोड पर आगे चल कर बहुत सारे चर्च, ग्रेवयार्ड, पोस्ट औफिस, बैंक और पैट्रोल पंप के अलावा मुख्य आकर्षण मौसमेव गुफा और खूबसूरत झरने, सेवन सिस्टर फाल्स , हरे भरे पार्क आदि  हैं।
नोहकालीकाई फाल्स शहर से पांच किमी दूर थे , सोचा पहले मौसमेव गुफा की तरफ चलते हैं क्यूं कि अंधेरे होने पर वहां जा नहीं पायेंगे इसलिये हमारी स्कूटी मुड गयी मौसमेई गुफाओं की तरफ। गुफाओं से पहले पार्किगं में ही काफी सारी दुकानें और रैष्ट्रां बने हुये हैं। जहां आप शाकाहारी मांसाहारी भोजन कर सकते हैं। अभी शाम के चार बजे थे। थोडी धूप भी थी। बीस रुपये की टिकट ली और उतर गये नीचे गुफा में। गुफा में घुसने से पहले मानसिक तौर पर तैयार हो जाना चाहिये वरना घबराहट हो सकती है।  150 मीटर लम्बी इस गुफा के अन्दर प्रकाश का समुचित प्रबन्ध है अत: डर तो न लगा किंतु यह अनुभव मेरे जीवन का अविस्मरणीय अनुभव बन गया। गुफा का प्रवेशद्वार बड़ा है किन्तु जल्द ही यह सँकरा हो जाता है। कई मोड़ों और घुमावों के साथ इसमें काफी रोचक अनुभव होता है, लेकिन यदि काफी भीड़ हो तो साँस लेने में परेशानी हो सकती है। गुफा का अन्दरूनी हिस्सा कई प्रकार के जीव-जन्तु और पौधों की प्रजातियों का घर है और चमगादड़ तथा कीड़े-मकोड़ों के लिये उत्तम पनाहगार है।टपकते पानी से पत्थरों पर बनी विभिन्न प्रकार की सुन्दर बनावटें प्रकृति का एक और चमत्कार हैं। जैसे गुफा और संकडी हुई , हमें निकलने के लिये अपने शरीर को भी तोडना मोडना पडा। तभी सामने से घबराती हुई महिला और बच्चों ने रोना शुरू कर दिया। ऐसे में उनका तो लौटना ही ठीक था, सांस लेने में तकलीफ हो जाती है तो धीरज रखना चाहिये। घवराहट तो और काम खराब कर सकती है। थोडा आगे चल कर यह गुफा नीचे से और चिकनी हो जाती है। नीचे पानी में होकर चलना पडता है। ऊपर से भी जल टपक रहा है। दीवारों पर टपकते पानी की तरह पत्थर पर धार बनी हैं। गुफा में जैसे जैसे बढते हैं रोमांच आना आरंभ हो जाता है। पत्थरों में अलग अलग तरह की आकृतियां दिखाई देती हैं। कई आकृतियां किसी मनुष्य किसी जानवर तो कई बार किसी देवी देवता सरीखी लगती हैं। चूना पत्थर की ये गुफाएं हजारों साल पुरानी लगती हैं। जगह जगह इनसे पानी टपकता रहता है। कई जगह गुफा में घुटने भर पानी से होकर आगे बढ़ना पड़ता है। कई जगह ऊंचाई कम होने पर सिर बचाना भी पड़ता है। कई जगह तो एक ही आदमी के निकलने पर भर रास्ता होता है। गुफा को पार करते हुए काफी रोमांच आता है। यह पता नहीं होता कि गुफा कहां खत्म होने वाली है और कब हम खुली हवा में बाहर आने वाले हैं। बच्चों रास्ते में डर भी लगने लगता है, गुफा के अंदर आगे पीछे एक दूसरे से संवाद स्थापित करते हुए ही आगे बढना ठीक रहता है। गुफा में जाते समय मेरे पास टार्च न थी तो मैंने मोबाइल से वीडियो बनाना शुरू कर दिया जिससे रोशनी भी हो गयी और अदभुत अनुभव कैद भी हो गया। इससे पहले भी मैं गुफाओं में गया हूं पर इस बार भोले बाबा पधरे नहीं मिले और ना ही कोई पंडित मिला। पहला प्राकृतिक चमत्कार था जिसका टैक्स सरकार पर जा रहा था किसी पंडे पर नहीं। जैसे ही ये गुफा खत्म होने को आती है सीधे हाथ पर दूसरी गुफा दिखाई देती है पर इसमें प्रकाश नहीं है, इसलिये आना जाने की मनाही है। कहते हैं ये गुफा कामाख्या मंदिर गुवाहाटी तक गयी है, सच्चाई भगवान जाने। गुफा में घुसने से पहले एक रेस्ट्रां बाली आंटी के पास अपना बैग जमा करा था और पावरबैंक चार्जिगं पर लगाया था अत: बाहर निकल कर सोचा कि खाना भी यहीं खा लिया जाय बैसे भी शाम होने जा रही है भूख लग आयी थी। सूरज डूबने को था। मौसमेई ईको पार्क रिसोर्ट और उसके खूबसूरत फाल्स नजदीक ही थे।खाना खाकर तुरंत निकल लिये।



















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