चूंकि आसाम यात्रा की शुरूआत कामाख्या देवी से ही करनी थी, हम गुवाहाटी स्टेशन से एक स्टेशन पहले ही कामाख्या स्टेशन पर उतर गये। अभी हमारा सीधे मंदिर ही जाने का विचार था अत: प्लेटफार्म पर ही स्नान आदि से फ्री हो लिये। वेटिगं रुम के अलावा भी आजकल प्लेटफार्म पर पे एंड यूज शौचालय स्नानघर बन गये हैं। लौकरूम भी हैं। यह रेलवे की अच्छी सुविधा है। सुवह के पांच बजने बाले थे लेकिन उजाला हो चुका था। पूर्वोत्तर में जल्दी सुवह हो जाती है। कामाख्यां स्टेशन से बाहर निकलते ही मैंने अपने घुमक्कड मित्र कपिल चौधरी को फोन लगाया जो रेलवे में आसाम में ही पोस्टिड हैं। उनका गुवाहाटी आना तो संभव नहीं हुआ लेकिन उन्हौने मेरी बजह से दो दिन की छुट्टी जरूर मंजूर करा लीं और मेरे जोरहाट आने का इंतजार करने लगे ताकि माजुली द्वीप साथ घूम सकें। हमारा पहला डेस्टीनेशन था गुवाहाटी दर्शन और उसमें भी सबसे पहले कामाख्या दर्शन।
कामाख्या जंक्शन से कामाख्या बाली बस बाले मोड तक ले जाने के लिये जीपें या औटो चलती हैं जो दो सौ रुपये लेते हैं। मैंने औटो की बजाय बीस रुपये में रिक्सा लिया जिसने मुझे एक किमी दूर मुख्य रोड तक छोड दिया जहां से कामाख्या मोड के लिये बस मिल सकती थी। बस ने दस रुपये लिये कामाख्या मोड तक छोडने को। कामाख्या मोड दस रुपये में फिर एक औटो मिला जिसने हमें कामाख्या टैक्सी स्टैंड छोड दिया। टैक्सी स्टैंड से मंदिर तक करीब पांच सौ मीटर पैदल ऊपर की ओर चलना होता है। मंदिर के गेट पर ही जूते चप्पल और बैग जमा करने बाला होता है जो बीस रुपये लेता है। दर्शन करने के लिये मंदिर के बांयी ओर लाईन लगती है। मुझे पता होता कि लाईन में इतनी देर लगना होता है मैं तो कभी न लगता। भारत के बडे बडे मंदिर घूम लिये पर यहां जैसा गंदा राग तो कहीं नहीं देखा। वी आईपी दर्शन तो तिरुपति, केरल आदि मंदिरों में भी होता है लेकिन आम भक्त को इतना इंतजार तो कहीं नहीं करना पडता जितना यहां। मंदिर के बांयी ओर से पांच सौ मीटर की एक जालीदार लंबी संकरी गैलरी में चलना होता है जिसमें एक तरफ बैठने के लिये बैंच भी हैं। मुश्किल से पांच सौ श्रद्धालु होंगे लाईन में लेकिन हम आधे घंटे में बस दस कदम ही आगे खिसक पा रहे थे। चलते रहते तब भी कोई दिक्कत न होती। पैसे देकर दर्शन करने बालों को वरीयता दी जा रही थी और उन्हें मंदिर के नजदीक से ही लाईन में प्रवेश करा दिया जाता और हमारी लाईन रोक दी जाती। पैसे देकर दर्शन हमें कभी नहीं करने। ऐसे दर्शन से तो बिना दर्शन ही ठीक । बैसे भी मुझे कौनसे देवी से अपने लिये कुछ मांगना था, मुझे तो बस ये देखना कि कामाख्या का मतलब क्या होता है ? क्या बास्तव में यहां शक्ति के योनि रूप की ही पूजा होती है ? औरत का रजस्वला रूप भी मान्य है ?
कामरूप देश में काम की पूजा ? फिर क्यूं हम काम से इतने घवराते संकुचाते हिचकिचाते फिरते हैं ? जब सार्वजनिक तौर पर हम लिंग और योनि के पूजक हैं तो उसे हम खुले रुप में स्वीकारते क्यूं नहीं हैं ? तो फिर क्यूं शिवजी के तीसरे नेत्र से कामदेव के शरीर को नष्ट करवा देते हैं? ऐसे देश में सैक्स पर खुली बात करना जुर्म क्यूं हो गया ? कामशास्त्र जैसे प्राचीन गृंथों में हम दुनियां को सेक्स सिखाते फिरते हैं और हम खुद इससे दूर भागते हैं ? यही सब सोचते विचारते हम आगे बढते रहे लेकिन हर एक घंटे बाद हमारे सामने बाला चैनल नीचे गिराकर हमें इंतजार करने को छोड दिया जाता। ऊंचाई की दृष्टि से हमारी गैलरी इस प्रकार बनी थी कि हम पूरे मंदिर को नीचे तलहटी में देख सकते थे। दर असल हम मंदिर का चक्कर लगाकर नीचे की तरफ उतरते जा रहे थे। करीब बारह बजे हमारी लाईन बलि घर के ठीक सामने और उसके बहुत नजदीक पहुंच गयी। लाल कुर्ता और धोती पहने पंडों को मैंने एक ही झटके में बकरी के बच्चों, मुर्गों एवं अन्य जीवों की गर्दन छिटकते हुये देखा। बलि के बकरी के बच्चे को सजा धजा कर लाया जाता। नहलाया भी जाता। खाने पीने को भी दिया जाता लेकिन बच्चे को मौत का पूर्वाभाष हो जाता और वह जोर जोर से अपनी जान की भीख मांगने लग जाता लेकिन देवी के नाम पर खुद मांस डकारने बाले लाल कपडों बाले इन कसाईयों को जरा भी रहम न आता और एक ही झटके में गर्दन धड से अलग हो जाती। बच्चे की आवाज दफन होकर रह जाती। छोटे छोटे जीवों के अलावा दो तीन बडे भैंसे भी काटे गये। दस दस पंडो ने रस्सों से जकड कर उनको मौत के घाट उतार दिया। धरती लाल हो गयी। पानी से सारा फर्श धो दिया गया । नाली में खून बहने लगा। मैं तो पक्का जी कर के यह सब देखता रहा लेकिन बाहर से आयी हुई कोमल ह्रदय महिलाओं के लिये यह सब बहुत ही नजदीक से देखना जीने मरने के समान था। गैलरी में हम बंद थे। दूर भी नहीं जा सकते थे। लाईन में रहना मजबूरी थी। बलि के गेट पर आये ही थे कि दोपहर का विश्राम हो गया और एक घंटे के लिये दर्शन विराम हो गया। सुवह के भूखे प्यासे बैठे थे। पानी पिलाने के लिये गैलरी के बाहर एक दो बच्चे खडे थे जो नीचे नल से पानी भरकर लाकर दे रहे थे लेकिन खाने को कुछ भी नहीं था। दोपहर के दो बज चले थे। पेट में अन्न का दाना भी नहीं। ऊपर से गर्मी ने हालत खराब कर रखी थी। मैंने तुरतं बैक गियर लगाया और गैलरी में पीछे से घूम कर बाहर निकल आया। खुली हवा मिली । जान में जान आयी। मंदिर के दक्षिणी दरवाजे पर एक दुकान है वहां से विस्किट के दो पैकेट ले आया। एक पैकेट राजो ने और एक मैंने खींच लिया।शरीर में थोडी सी जान आयी तो दर्शन करने की इच्छा भी बलवती हुई वरना हिम्मत टूट चली थी। थोडी देर बाद ही मुख्य मंदिर के कपाट खोल दिये और लाईन आगे बढ चली। मुख्य प्राचीन मंदिर या योनि स्थल से पहले ही एक स्तूपाकार विशाल हौल है जिसे पार कर गुफा की ओर बढना होता है। अंधेरा भी होता है। आगे बढते जाते हैं।मंदिर का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा जमीन से लगभग 20 फीट नीचे गुफा में स्थित है। फोटोग्राफी की अनुमति अंदर नहीं है। बाहर चाहे जितनी करो। गर्भ गृह में देवी की कोई तस्वीर या मूर्ति नहीं है। गर्भगृह में सिर्फ योनि के आकार का पत्थर है जो शक्ति का योनि रूप है। देवी की महामुद्रा कहलाता है योनि रूप। रजस्वला के समय हर माह तीन दिनों के लिए बंद होता है। यह मंदिर देवी के 51 शक्तिपीठ में शामिल है। गुफा से बाहर निकलने के लिये एक अलग द्वार है ।मंदिर परिसर के चारों ओर आंगन रूपी खुली जगह है जिसके एक तरफ तो रपटनुमा ऊंची चडाई है तो दूसरी तरफ वरामदे बने हैं जिनमें धार्मिक अनुष्ठान होते रहते हैं। कामाख्या देवी के अलावा दस महाविद्या, काली, तारा, षोडशी, भुवनेश्वरी, छिन्नमस्ता, भैरवी, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी और कमला की पूजा भी कामाख्या मंदिर परिसर में की जाती है। यहां बलि चढ़ाने की प्रथा यहां की भौगोलिक और सामाजिक परिस्थितियों ने बनायी है। इसके लिए मछली, बकरी, कबूतर और भैंसों के साथ ही लौकी, कद्दू जैसे फल वाली सब्जियों की बलि भी दी जाती है। पूस के महीने में यहां भगवान कामेश्वर और देवी कामेश्वरी के बीच प्रतीकात्मक शादी के रूप में पूजा की जाती है। गुफा से बाहर निकलते शाम के तीन बज चले थे। मुख्य मंदिर के बाहर परिसर में बहुत सारे लाल कपडे पहने पंडे और उनके यजमान अलग अलग वरामदों में विभिन्न प्रकार के धार्मिक अनुष्ठानों में व्यस्त थे। इससे पहले कि मैं कामाख्या मंदिर से बाहर निकल कर उमानंद मंदिर के लिये बस पकडूं आपको कामाख्या के बारे में बताना चाहूंगा कि कामाख्या मंदिर गुवाहाटी का मुख्य धार्मिक स्थल है। ये मंदिर गुवाहाटी के अंतर्गत आने वाली नीलाचल पहाड़ियों में स्थित है जो रेलवे स्टेशन से 8 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। मन्दिर एक तांत्रिक देवी को समर्पित है। इस मन्दिर में आपको मुख्य देवी कामाख्या के अलावा देवी काली के अन्य 10 रूप जैसे धूमावती, मतंगी, बगोला, तारा, कमला, भैरवी, चिनमासा, भुवनेश्वरी और त्रिपुरा सुंदरी भी देखने को मिलेंगे। कामाख्या मंदिर असम की राजधानी दिसपुर के पास गुवाहाटी से आठ किलोमीटर दूर कामाख्या में है। कामाख्या से भी दस किलोमीटर दूर नीलांचल पर्वत पर स्थित है। यह मंदिर शक्ति की देवी सती का मंदिर है जो एक ऊंची पहाड़ी पर बना है व इसका तांत्रिक महत्व है। प्राचीन काल से सतयुगीन तीर्थ कामाख्या वर्तमान में तंत्र सिद्धि का सर्वोच्च स्थल है। सिद्ध शक्तिपीठ सती के इक्यावन शक्तिपीठों में सर्वोच्च स्थान रखता है। यहीं भगवती की महामुद्रा (योनि-कुण्ड) स्थित है।विश्व के सभी तांत्रिकों, मांत्रिकों एवं सिद्ध-पुरुषों के लिये वर्ष में एक बार पड़ने वाला अम्बूवाची योग पर्व वस्तुत एक वरदान है। यह अम्बूवाची पर्वत भगवती (सती) का रजस्वला पर्व होता है। पौराणिक शास्त्रों के अनुसार सतयुग में यह पर्व 16 वर्ष में एक बार, द्वापर में 12 वर्ष में एक बार, त्रेता युग में 7 वर्ष में एक बार तथा कलिकाल में प्रत्येक वर्ष जून माह में तिथि के अनुसार मनाया जाता है। कामाख्या मंदिर का प्लान (खाका) सती स्वरूपिणी आद्यशक्ति महाभैरवी कामाख्या तीर्थ विश्व का सर्वोच्च कौमारी तीर्थ भी माना जाता है। इसीलिए इस शक्तिपीठ में कौमारी-पूजा अनुष्ठान का भी अत्यन्त महत्व है। यद्यपि आद्य-शक्ति की प्रतीक सभी कुल व वर्ण की कौमारियाँ होती हैं। किसी जाति का भेद नहीं होता है। इस क्षेत्र में आद्य-शक्ति कामाख्या कौमारी रूप में सदा विराजमान हैं।इस क्षेत्र में सभी वर्ण व जातियों की कौमारियां वंदनीय हैं, पूजनीय हैं। वर्ण-जाति का भेद करने पर साधक की सिद्धियां नष्ट हो जाती हैं। शास्त्रों में वर्णित है कि ऐसा करने पर इंद्र तुल्य शक्तिशाली देव को भी अपने पद से वंछित होना पड़ा था।जिस प्रकार उत्तर भारत में कुंभ महापर्व का महत्व माना जाता है, ठीक उसी प्रकार उससे भी श्रेष्ठ इस आद्यशक्ति के अम्बूवाची पर्व का महत्व है। इसके अंतर्गत विभिन्न प्रकार की दिव्य आलौकिक शक्तियों का अर्जन तंत्र-मंत्र में पारंगत साधक अपनी-अपनी मंत्र-शक्तियों को पुरश्चरण अनुष्ठान कर स्थिर रखते हैं। इस पर्व में मां भगवती के रजस्वला होने से पूर्व गर्भगृह स्थित महामुद्रा पर सफेद वस्त्र चढ़ाये जाते हैं, जो कि रक्तवर्ण हो जाते हैं। मंदिर के पुजारियों द्वारा ये वस्त्र प्रसाद के रूप में श्रद्धालु भक्तों में विशेष रूप से वितरित किये जाते हैं। इस पर्व पर भारत ही नहीं बल्कि बंगलादेश, तिब्बत और अफ्रीका जैसे देशों के तंत्र साधक यहां आकर अपनी साधना के सर्वोच्च शिखर को प्राप्त करते हैं। वाममार्ग साधना का तो यह सर्वोच्च पीठ स्थल है। मछन्दरनाथ, गोरखनाथ, लोनाचमारी, ईस्माइलजोगी इत्यादि तंत्र साधक भी सांवर तंत्र में अपना यहीं स्थान बनाकर अमर हो गये।
सत्य की खोज