Tuesday, November 8, 2016

My bike tour of Nepal part 8

काठमांडू से जनकपुर
27 अक्टूवर 2016
काठमांडू से शाम को पांच बजे निकला था इस बजह से शिवजी की मूर्ति के दर्शन न कर पाया था जिसके बारे में बताया गया था कि पंचमुखी लिगं है, लेकिन धुलिखेल में रात बिताने के बाद अगली सुवह जैसे ही जनकपुर के लिये रवाना हुआ, मुझे हर मोड पर शिवजी के दर्शन हुये। इतनी प्राकृतिक सुंदरता शायद ही मैंने कभी देखी हो। धूलिखेल के तुरंत बाद ही घना पहाडी जंगल और उसमें बल खाती सडकें शुरू हो गयीं। थोडी थोडी देर बाद ही किसी न किसी नदी का साथ मिल जाता।
धूलिखेल से अमले होते हुये बर्दीवाश तक का रास्ता मैं जिदंगी भर न भूल पाऊंगा। इतनी खूबसूरती तो स्विसलेंड में भी न होगी। ऊंचे ऊंचे पहाड और बलखाती सर्पिलाकार सडकें और नीचें बहती नीली नीली नदी। हाय रे मैं तो स्वर्ग में आ गया था। लोग शिवजी को बहां मंदिर में ढूंड रहे थे जबकि वो तो यहां थे मेरे पास। गजब ।
सोचा तो ये था कि धूलिखेल से जनकपुर का दौ सौ किमी का रास्ता बारह बजे तक तय कर शाम को जनकपुर घूम लूंगा लेकिन उन खूबसूरत बादियों में दिल ऐसा अटका कि हर मोड पर गाडी खडी करता और वीडियो बनाता। अमले के पास ही नदी तक पहुंचने का रास्ता मिल गया तो नदी पर ही कपडे धोने और स्नान करने का कार्य भी कर लिया। इस बीच शायद ही कोई जगह हो जिसे देखकर दिल से वाह वाह न निकली हो। अब जब भी कभी नेपाल जाना होगा मैं जनकपुर होते ही जाना पसंद करूंगा।
बर्दीवाश पहुंचते पहुंचते शाम के पांच बजे चले थे। भूख भी जोरों से लगी थी। गौर किया तो आसपास का बातावरण देख लगा कि मैं भारत में आ चुका हूं। दर असल बर्दीबास भारतीय सीमा से नजदीकी होने के कारण यहां की बोली भाषा लोग खानपान कपडे आदि का रहन सहन सब कुछ भारतीय ही है। सबसे पहले तो सब्जी से दो लिट्टी खींची जिसे थोडी शक्ति सी आयी। लिट्टी चोखा बहुत कम जगह पर ही मिलता है। ज्यादातर जगह पर तो आलू की सब्जी ही पेलते हैं लिट्टी के साथ। काठमांडू और पोखरा में पान खाने को तरस गया मैं। बर्दीबास में चौराहे पर ही पान की दुकान देख दिल खुश हो गया। डौन बाले अमिताभ " विजय " बाली फीलिगं आयी थी जब उसे मुद्दतों के बाद गंगा तटीय पुरबियों ने पान खिलाया था। पान बनाने की स्टाईल भी अलग अलग शहरों जैसे बर्दीबास जनकपुर सीतामढी मुजफ्फरपुर पटना आरा बनारस इलाहाबाद के साथ बदलती जाती है। मिथिलांचल का पान सबसे बेहतरीन है।
बर्दीबास से जनकपुर के लिये सीधे हाईवे जाता है।
जनकपुर सच में अच्छी जगह है। कुदरत ने भरपुर आशीर्वाद दिया है वो बात अलग है कि इंसानों ने उसकी कद्र नहीं की।
यदि मैं कहूं कि जनकपुर या मिथिलांचल जलाशयों, नदियों और हरियाली बाला क्षेत्र है तो अतिशयोक्ति न होगी। जनकपुर शहर में ही ढेर सारे बडे बडे सरोवर हैं। लेकिन शहर को देखकर निराशा ही हाथ लगी। जनकपुर में नेपाल जैसी सफाई नहीं है। मुझे तो वो पूरी तरह बिहारी क्षेत्र नजर आया। वही भाषा, वही खानपान, वही रहन सहन और वही गंदगी। जनकपुर के तालाबों की कोई केयर नहीं है । घाट के चारों तरफ गंदगी के ढेर लगे हैं। संकरे और गंदे धूलयुक्त रोड भी शहर की दुर्दशा बयां कर रहे हैं।
सीताजी का महल जानकी मंदिर यदि आज हिन्दुओं की बजाय सिखों या ईसाईयों के पास होता तो दुल्हन की तरह चमक रहा होता। इतनी सफाई होती कि जूते पहन कर अदंर घुसने का मन तक न करता। हिंदू मंदिरों में बैठे लुटेरों के बराबर शायद ही किसी धर्म में इतना चडावा आता हो पर पता नहीं क्यूं मंदिरों के रखरखाव और स्वच्छ मैनेजमेंट के नाम पर इन पर बिजली गिर जाती है। जानकी मंदिर बांउड्रीवाल के अदंर ही लोगों ने दुकानें लगा रखी हैं जो बहां गंदगी फैला रहे हैं। मंदिर के अदंर भी विशेष सफाई नजर नहीं आयी। पंडो का सारा ध्यान तो बस चढावे पर ही रहता है।
सरकार ने मंदिर की सुरक्षा के लिये तीन फौजी तैनात कर रखे हैं।
इसमें कोई शक नहीं कि जानकी महल बहुत ही भव्य और विशाल है। धीमी धीमी आवाज में गूंजती हुई रामधुन सुवह ही सुवह कानों में अमृत घोल देती है। शाम को हजारों की संख्या में श्रद्धालु आरती में शामिल होते हैं। मंदिर में न केवल श्री राम और जानकी हैं बल्कि उनके अन्य तीनों भ्राता भी सपत्नीक विराजमान हैं। हालांकि यह मंदिर देवी सीता को ही समर्पित है। मन्दिर की वास्तु हिन्दू-राजपूत वास्तुकला है। यह नेपाल में सबसे महत्त्वपूर्ण राजपूत स्थापत्य शैली का उदाहरण है। यह स्थल जनकपुरधाम भी कहलाता है।
प्राप्त जानकारी के अनुसार यह मन्दिर 4860 वर्ग फ़ीट क्षेत्र में निर्मित विस्तृत है और इसका निर्माण 1895 में आरंभ होकर 1911 में पूर्ण हुआ था।
मन्दिर परिसर के आसपास 115 सरोवर एवं कुण्ड हैं, जिनमें गंगासागर, परशुराम कुण्ड एवं धनुष-सागर अत्याधिक पवित्र कहे जाते हैं।
इस मन्दिर का निर्माण मध्य भारत के टीकमगढ़ की रानी वृषभानु कुमारी के द्वारा 1911 ईसवी में पूर्ण करवाया गया था। इसकी तत्कालीन लागत नौ लाख रुपये थी। स्थानीय लोग इस कारण से ही इसे नौलखा मन्दिर भी कह दिया करते हैं।
1647 में देवी सीता की स्वर्ण प्रतिमा यहां मिली थी और कहते हैं इस स्थान की खोज एक सन्यासी शुरकिशोरदास ने की थी जब उन्हें यहां सीता माता की प्रतिमा मिली थी। असल में शुरकिशोरदास ही आधुनिक जनकपुर के संस्थापक भी थे। इन्हीं संत ने सीता उपासना (जिसे सीता उपनिषद भी कहते हैं) का ज्ञान दिया था। मान्यता अनुसार राजा जनक ने इसी स्थान पर शिव-धनुष के लिये तप किया था।
जनकपुर में जानकी मंदिर के निकट ही राम मंदिर भी बना है। काफी प्राचीन और सुंदर मंदिर है कितुं जनकमहल की अपेक्षा काफी छोटा है। राममंदिर के ठीक सामने बना तालाब इसकी सुंदरता में और इजाफा करता है जिसके दूसरी ओर भूतनाथ मंदिर एवं अन्य देवी देवताओं के मंदिर हैं।
जनकपुर के लोग बहुत धार्मिक और सहयोगी प्रवृति के हैं। मिलनसार भी हैं। रात को पहुंचते पहुंचते देरी हो चली थी इसलिये थोडी बहुत देर जानकी मंदिर में घूमने के बाद नजदीक ही पागलबाबा धर्मशाला चला गया था जहां मात्र तीन सौ नेपाली में काफी बडा रुम मिल गया था। लेकिन सुवह ही जल्दी नहा धोकर सभी मंदिर और शहर देखने निकल पडा। पूरा शहर बस दो घंटे में ही नाप डाला। तभी एक सज्जन ने मुझे धनुषा धाम के बारे में जानकारी दी कि सीता के धनुष का एक टुकडा आज भी बहां सुरक्षित है। जनकपुर घूमने के बाद में धनुषा धाम जाने की इच्छा हुई जो जनकपुर से मात्र सत्रह किमी दूर एक गांव में है। धनुषा धाम जाते हुये रास्ते में आस पास ढेर सारे तालाब और हरे भरे खेत एवं पेड पौधे देख मन भी हरा हो गया। निसंदेह प्रकृति का पूरा आशीर्वाद है मिथालांचल पर। रास्ते में कुछ पुलिसकर्मी भी मिले जिन्हौने मेरे कागजात चैक कर ही मुझे आगे बढने दिया। नेपाल की पुलिस तो वाकई बहुत कर्तव्यनिष्ठ है। पग पग पर कानून का सख्त पहरा है। सख्त है तो सेवाभावी भी है।
धनुषाधाम से दो तीन किमी पहले ही एक विशाल सरोवर मिला जिसके बीचों बीच एक कमल पर शेषनाग बने हुये हैं। हालांकि तालाब पूरी तरह सुनसान जगह पर है पर हरे भरे पेडों से घिरे होने एवं सुंदर कमल के फूलों से भरे होने के कारण बहुत ही रमणीक स्थल बन पडा है। मुझे भीडभाड बाले मंदिरों की बजाय ऐसे स्थान कुछ ज्यादा ही पंसद आते हैं। तालाब पर थोडा देर विराम के बाद धनुषा धाम पहुंचा पर जैसा सुना था बैसा मिला नहीं। मैं सोचा कि कोई धातु का टुकडा संरक्षित रखा होगा लेकिन धनुषाधाम मंदिर में एक प्राचीन वटबृक्ष की जडों से निकलता हुआ प्रवाल टाईप का कोई पत्थर है जो जमीन से फूट रहा है और निरंतर बढता ही जा रहा है। स्थानीय लोग इस पथरीले तत्व को ही धनुषा कहते हैं। बहां पूजा कर रहे पंडिज्जी भी इसकी कहानी कुछ यूं सुनाते हैं कि धनुष के तीन टुकडे हुये जिसमें एक आकाश में गया और एक पाताल में और तीसरा यहां गिरा जो साल दर साल बढता ही जा रहा है।
खैर लोगों की आस्था और पंडो की दुकानदारी पर ज्यादा तर्क करना बेकार है। खामखा गाली खाने से क्या फायदा । हम तो चलते हैं अब बापस जनकपुर बौर्डर की ओर । दस दिन हो गये घर की याद भी आने लगी है। दो दिन बाद दीपावली भी है। त्यौहार पर घर के सदस्य पूरे न हों तो त्यौहार का उल्लास ही रह जाता।
जनकपुर से बौर्डर तक का रास्ता और बौर्डर से सीतामढी तक रास्ता तो इतना खराब था कि सारा मूड ही खराब हो गया। फिर भी जैसे तैसे दस बीस किमी का वो सफर भी पूरा कर ही लिया। बौर्डर पर किसी ने नहीं रोका। मैंने खुद ही कागज चैक कराये और नेपाली सैनिकों को धन्यवाद देकर भारत में प्रवेश कर लिया जहां भारतीय बीएसएफ
के जवानों ने खूब मजाक की। एक जवान तो यहां तक बोला कि सरकार मास्टर इतनी दूर सैरसपाटे के लिये तो नहीं आ सकता । कहीं ऐसा तो नहीं कि राजस्थान की अफीम यहां निकालने आये हों। मैं भी मजाक को मजाक में ही टाल गया क्यूं कि यदि मैं पलट कर कह देता कि ये काम तो बीएसएफ  बाले ज्यादा अच्छा करते हैं तो शायद उनको बुरा लग जाता। खैर सैनिक हमारे देश का गौरव हैं और मैं उनका तहेदिल से सम्मान करता हूं। उनसे हाथ मिलाया। साथ फोटो भी खिंचाया और निकल लिया सीतामढी होते हुये पटना की ओर।

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