नेपाल बाइक टूर : पोखरा से काठमांडू
25 अक्टूवर 2016 (छठवां दिन)
सारंगकोट से पोखरा की ओर नीचे उतरते समय बिंध्यबासिनी मंदिर भी पडता है लेकिन अब मुझे जल्दी से शहर से बाहर निकल जितना ज्यादा खींच सकूं उतना खींचने की पडी थी। सौभाग्यवश पोखरा से काठमांडू का रोड अन्य रोड की अपेक्षा अधिक अच्छा निकला। यही मुख्य हाईवे है पोखरा आने के लिये। ज्यादातर पर्यटक इसी पृथ्वी राजमार्ग से ही आते जाते हैं। बुटवल पोखरा मार्ग की अपेक्षा यह अधिक चलायमान भी है तो समतल भी। नदी की तलहटी के सहारे सहारे ही रोड बनाया गया है। पूरे मार्ग में पहले की तरह कहीं भी पहाड चडना या उतरना नहीं पडा मुझे। समतल और चौडा हाईवे होने की बजह से मैंने रात होने से पहले ही करीब सत्तर किमी बाईक खींच ली पर चूंकि अभी एक सौ पचास के करीब और चलना था, लौज लेना ही ठीक रहेगा, सोच कर डुमरे नाम के चौराहे पर एक रुम ले लिया। रुम तीन सौ पांच सौ हजार तक हर जगह मिल जाता है। कुछ सस्ते लौज में नहाने को पानी उपलब्ध नहीं रहता क्यूं कि उन्हें आसपास के किसी श्रोत से लाना होता है। खाने को दाल चावल मछली हर जगह उपलब्ध है बस रोटी सब्जी के लिये आपको पहले कहना होगा, मिल जायेगी। डुमरे चौक के नजदीक ही एक नदी बह रही है जो थोडा ही आगे चलकर मर्स्यांगदी नदी में और थोडा चलकर त्रिशुली नदी में मिल जायेगी।
मुझे ये तो पता था कि राह में मनोकामना देवी का मंदिर पडेगा पर कितनी दूर पडेगा, न पता था। मोबाईल डिस चार्ज हो चुका था। पता होता तो डुमरे से मात्र चालीस पचास किमी और आगे मनोकामना के नजदीक ही पडाव डालता। खैर सुवह जल्दी ही बिना नहाये धोये निकल लिया मैं तो। करीब एक घंटे बाद ही मनोकामना केवल कार पार्क पहुंच गया। बहां दस रुपये में गाडी पार्क अकी और सबसे पहले बगल से बहती हुई नदी पर उतर गया। नहाया तो नहीं पर साबुन से डेंटिग पेंटिग पूरी कर डाली। सेविगं कर एक दम राजाबाबू बन गया। करीब एक घंटे तक सैकडों लोगों की खुशियों में शरीक होता रहा। दरअसल यहां धार्मिक लोग कम पर्यटक ज्यादा थे। पांच सौ मीटर लंबी लाईन लगी थी। भारतीयों के लिये हजार रुपये की टिकट जब कि अन्य विदेशियों के लिये बीस डालर। नेपालियों के लिये तीन सौ नेपाली। तब भी गनीमत थी नेपाल ने हमें विदेशी शब्द से अलग रखा था। कुछ तो अपनापन दिखाया ही था पडौसी होने का। हालांकि पोखरा और सारंगकोट में एक दो लडके मिले जिनकी शिकायत थी कि भारतीय हमें अपना भाई नहीं मानते। हमें नेपाली कहकर हेय दृष्टि से देखते हैं और दुत्कारते हैं। हो सकता है उनका पाला किसी तूचिया से पडा हो पर जहां तक मेरा अनुभव है कि हमने हर मेहमान को सर आखों पर लिया है जबकि नेपालियों को तो कभी विदेशी माना ही नहीं। पूरे भारत में हर जगह काम करते और जीविका चलाते मिल जायेंगे आपको। खैर नई जनरेशन फेसबुक और वाटसेप की नफरत की पैदावार है, नकारात्मकता ही सीखेगी।
मनोकामना केवल कार से ही मैया के हाथ जोड रवाना हो लिया पशुपतिनाथ की तरफ। अभी करीब एक सौ बीस किमी था। दस बज चले थे। धूप भी अच्छी निकल आयी थी। गाडी खींच दी। इस रोड पर सरकार ने जगह जगह सार्वजनिक सुलभ शौचालय और स्नानघर बनाये हैं। काफी सुविधाजनक है। रोड इतना अच्छा था कि पता ही नहीं कि कब काठमांडू में प्रवेश कर गया पर क्या पता था कि काठमांडू की दस बीस किमी धूलभरी सडक पूरे दो सौ के बराबर पडेगी। शहर में घुसते घुसते धूल से लथपथ हो गया। बीस किमी की सडक बहुत बुरी हालत में है। शहर आने पर जान में जान आयी। सबसे पहले स्यंभूनाथ स्तूप पहुंचा। काफी बडा है। काफी दूरी तक फैला हुआ है। रोड पर बुद्ध की प्रतिमा लगी हैं लेकिन प्राचीन मंदिर के लिये आपको गली में जाकर ऊपर चडना होगा। मंदिर के सामने ही निशुल्क पार्किगं है। मैं पहले इसे शिवजी का मंदिर समझ रहा था बाद में पता चला कि बौद्ध मंदिर है। महात्मा बुद्ध हों या महावीर , पुरोहितों की दुकान बंद करने के जिस मकसद से इन्होने जनता को ज्ञान दिया था, वो पूर्णरुपेण सफल न हो सका। दुकान और दुकानदार के नाम भले बदल गये पर कार्य आज भी वही बदस्तूर जारी है। इंसान को भगवान के सहारे की आदत सी हो गयी है। तुम उनका भगवान छीनोगे तो वे लोग तुम्हें ही नया भगवान बनाकर पूजने लगेंगे। पंचो की बातें सिरमाथे पर पन्हाला वहीं गिरेगा। स्तूप परिसर में प्रवेश किया ही था कि निगाह पडी कि एक फुआरेनुमा गोल कुंड के बीचोंबीच बुद्ध की प्रतिमा खडी है और लोग खरीदे हुये सिक्के फेंक कर अपना भाग्य आजमा रहे हैं। सिक्के बेचने बालों की बहां दुकानें लगीं हैं। यदि सिक्का बुद्ध के चरणों में टिक गया तो सौभाग्य अन्यथा दुर्भाग्य। दुर्भाग्य तो देश का है कि इतनी बैज्ञानिक तरक्की करने के बाद भी प्रतिमाओं में अपना सौभाग्य ढूंड रहे हैं। खैर हमें क्या ! हम तो घुमक्कड हैं। हमें तो सब झेलना है। यही तो देखने निकलते हैं हम लोग कि दुनियां में कैसे कैसे लोग हैं और कैसी कैसी उनकी परम्परायें हैं। सुखद पहलू ये है कि ऊंचे सू पहाडीनुमा स्थल पर विशाल परिसर है जिसमें चारों तरफ हरेभरे पेड और पेडों पर लगी रंगबिरंगी लारनीलीहरी पट्टियां जिन पर कुछ लिखा हुआ भी था। सीढियां चढकर मुख्य मंदिर स्थल पर पहुंचा तो देखा रास्ते में ही दुकानदारों ने मूर्तियों पिक्चर्स आदि से रास्ते को आर्ट गैलरी बना रखा है। निसंदेह कलाकारी बहुत ही उत्कृष्ट है। सुंदर सुंदर मूर्तियां। बुद्ध की शिव की माता की और अन्य देवी देवताओं की।
नेपाल के लोगों ने बुद्ध को हिन्दू धर्म में ही शामिल कर लिया है। उनके लिये तो विष्णु के ही अवतार हैं बुद्ध। बैसे गहनता से देखा जाय तो सनातन का धार्मिक रुप त्रिदेव परिवार में मिलता है तो आध्यात्मिक पक्ष बुद्ध महावीर कृष्ण में। वो बात अलग है कि पंडो से कोई नहीं बच सकता। वो आध्यात्मिक योगियों को भी धार्मिक गुरू बना ही लेते हैं ताकि उनकी पेटपूजा भी होती रहे।
काठमांडू शहर के पश्चिम में ऊंची पहाडी पर स्थित स्यंभूनाथ स्तूप परिसर का तिब्बतन नाम
'Sublime Trees' ठीक ही पडा है क्यूं कि यहां पेडों की बहुत सारी बैरायटीज हैं। परिसर में एक बडे स्तूप के अलावा बहुत सारे लिच्छवी काल के छोटे छोट मंदिर भी बने हुये हैं। मंदिरों के बीचों बीच सफेद रंग का गोल बडा स्तूप जिसका शिखर सोने जैसा धूप में चमकता है और स्तूप की सफेद गोल दीवार पर भगवान बुद्ध की आखें और भौंहें भी पैन्टिड हैं और दोनों आखों के बीच एक का अंक उनकी नाक बनाता है। मुख्य स्तूप तक पहुंचने के लिये दोनों और से सीढियां हैं। उतरने के लिये पूरी 365 steps हैं जो कोई ज्यादा कठिन भी नहीं हैं पर मैंने कुछ विदेशी बुजुर्गों को हांफते और पसीने से तरवतर होते हुये भी देखा तो दूसरी और मंदिर परिसर में काम कर रहे मजदूरों को पीठ पर बडे बडे पत्थर लादते भी देखा। सब अभ्यास की बात है। यदि भगवान वाकई हमारे मंदिर चढने से प्रशन्न होते हैं तो ये बहस का विषय हो सकता है कि वो किससे खुश होंगे , उन पत्थर ढोते मजदूरों से या हमारे जैसे भक्तों से ?
स्तूप परिसर की ऊपरी पहाडी से ही नीचे काठमांडू शहर का फोटो लिया । इतना बडा शहर ! बाप रे बाप ! पहाडों के बीच इतना बडा शहर होना रीयली अमेजिंग था। वहीं किसी ने इशारे से पशुपतिनाथ मंदिर का स्थान बताया जो इतनी दूर था कि बस अंदाजा लगा पाया कि कम से कम बीस पच्चीस किमी तो होगा। स्यंभूनाथ स्तूप से नीचे उतर कर आया और पशुपतिनाथ मंदिर का पता पूछा तो सबने यही कहा कि बहुत दूर है । उन्हें क्या पता था कि इस घुमक्कड के लिये कुछ भी दूर नहीं है। पूछते पाछते पहुंच ही गया मंदिर पशुपतिनाथ।
25 अक्टूवर 2016 (छठवां दिन)
सारंगकोट से पोखरा की ओर नीचे उतरते समय बिंध्यबासिनी मंदिर भी पडता है लेकिन अब मुझे जल्दी से शहर से बाहर निकल जितना ज्यादा खींच सकूं उतना खींचने की पडी थी। सौभाग्यवश पोखरा से काठमांडू का रोड अन्य रोड की अपेक्षा अधिक अच्छा निकला। यही मुख्य हाईवे है पोखरा आने के लिये। ज्यादातर पर्यटक इसी पृथ्वी राजमार्ग से ही आते जाते हैं। बुटवल पोखरा मार्ग की अपेक्षा यह अधिक चलायमान भी है तो समतल भी। नदी की तलहटी के सहारे सहारे ही रोड बनाया गया है। पूरे मार्ग में पहले की तरह कहीं भी पहाड चडना या उतरना नहीं पडा मुझे। समतल और चौडा हाईवे होने की बजह से मैंने रात होने से पहले ही करीब सत्तर किमी बाईक खींच ली पर चूंकि अभी एक सौ पचास के करीब और चलना था, लौज लेना ही ठीक रहेगा, सोच कर डुमरे नाम के चौराहे पर एक रुम ले लिया। रुम तीन सौ पांच सौ हजार तक हर जगह मिल जाता है। कुछ सस्ते लौज में नहाने को पानी उपलब्ध नहीं रहता क्यूं कि उन्हें आसपास के किसी श्रोत से लाना होता है। खाने को दाल चावल मछली हर जगह उपलब्ध है बस रोटी सब्जी के लिये आपको पहले कहना होगा, मिल जायेगी। डुमरे चौक के नजदीक ही एक नदी बह रही है जो थोडा ही आगे चलकर मर्स्यांगदी नदी में और थोडा चलकर त्रिशुली नदी में मिल जायेगी।
मुझे ये तो पता था कि राह में मनोकामना देवी का मंदिर पडेगा पर कितनी दूर पडेगा, न पता था। मोबाईल डिस चार्ज हो चुका था। पता होता तो डुमरे से मात्र चालीस पचास किमी और आगे मनोकामना के नजदीक ही पडाव डालता। खैर सुवह जल्दी ही बिना नहाये धोये निकल लिया मैं तो। करीब एक घंटे बाद ही मनोकामना केवल कार पार्क पहुंच गया। बहां दस रुपये में गाडी पार्क अकी और सबसे पहले बगल से बहती हुई नदी पर उतर गया। नहाया तो नहीं पर साबुन से डेंटिग पेंटिग पूरी कर डाली। सेविगं कर एक दम राजाबाबू बन गया। करीब एक घंटे तक सैकडों लोगों की खुशियों में शरीक होता रहा। दरअसल यहां धार्मिक लोग कम पर्यटक ज्यादा थे। पांच सौ मीटर लंबी लाईन लगी थी। भारतीयों के लिये हजार रुपये की टिकट जब कि अन्य विदेशियों के लिये बीस डालर। नेपालियों के लिये तीन सौ नेपाली। तब भी गनीमत थी नेपाल ने हमें विदेशी शब्द से अलग रखा था। कुछ तो अपनापन दिखाया ही था पडौसी होने का। हालांकि पोखरा और सारंगकोट में एक दो लडके मिले जिनकी शिकायत थी कि भारतीय हमें अपना भाई नहीं मानते। हमें नेपाली कहकर हेय दृष्टि से देखते हैं और दुत्कारते हैं। हो सकता है उनका पाला किसी तूचिया से पडा हो पर जहां तक मेरा अनुभव है कि हमने हर मेहमान को सर आखों पर लिया है जबकि नेपालियों को तो कभी विदेशी माना ही नहीं। पूरे भारत में हर जगह काम करते और जीविका चलाते मिल जायेंगे आपको। खैर नई जनरेशन फेसबुक और वाटसेप की नफरत की पैदावार है, नकारात्मकता ही सीखेगी।
मनोकामना केवल कार से ही मैया के हाथ जोड रवाना हो लिया पशुपतिनाथ की तरफ। अभी करीब एक सौ बीस किमी था। दस बज चले थे। धूप भी अच्छी निकल आयी थी। गाडी खींच दी। इस रोड पर सरकार ने जगह जगह सार्वजनिक सुलभ शौचालय और स्नानघर बनाये हैं। काफी सुविधाजनक है। रोड इतना अच्छा था कि पता ही नहीं कि कब काठमांडू में प्रवेश कर गया पर क्या पता था कि काठमांडू की दस बीस किमी धूलभरी सडक पूरे दो सौ के बराबर पडेगी। शहर में घुसते घुसते धूल से लथपथ हो गया। बीस किमी की सडक बहुत बुरी हालत में है। शहर आने पर जान में जान आयी। सबसे पहले स्यंभूनाथ स्तूप पहुंचा। काफी बडा है। काफी दूरी तक फैला हुआ है। रोड पर बुद्ध की प्रतिमा लगी हैं लेकिन प्राचीन मंदिर के लिये आपको गली में जाकर ऊपर चडना होगा। मंदिर के सामने ही निशुल्क पार्किगं है। मैं पहले इसे शिवजी का मंदिर समझ रहा था बाद में पता चला कि बौद्ध मंदिर है। महात्मा बुद्ध हों या महावीर , पुरोहितों की दुकान बंद करने के जिस मकसद से इन्होने जनता को ज्ञान दिया था, वो पूर्णरुपेण सफल न हो सका। दुकान और दुकानदार के नाम भले बदल गये पर कार्य आज भी वही बदस्तूर जारी है। इंसान को भगवान के सहारे की आदत सी हो गयी है। तुम उनका भगवान छीनोगे तो वे लोग तुम्हें ही नया भगवान बनाकर पूजने लगेंगे। पंचो की बातें सिरमाथे पर पन्हाला वहीं गिरेगा। स्तूप परिसर में प्रवेश किया ही था कि निगाह पडी कि एक फुआरेनुमा गोल कुंड के बीचोंबीच बुद्ध की प्रतिमा खडी है और लोग खरीदे हुये सिक्के फेंक कर अपना भाग्य आजमा रहे हैं। सिक्के बेचने बालों की बहां दुकानें लगीं हैं। यदि सिक्का बुद्ध के चरणों में टिक गया तो सौभाग्य अन्यथा दुर्भाग्य। दुर्भाग्य तो देश का है कि इतनी बैज्ञानिक तरक्की करने के बाद भी प्रतिमाओं में अपना सौभाग्य ढूंड रहे हैं। खैर हमें क्या ! हम तो घुमक्कड हैं। हमें तो सब झेलना है। यही तो देखने निकलते हैं हम लोग कि दुनियां में कैसे कैसे लोग हैं और कैसी कैसी उनकी परम्परायें हैं। सुखद पहलू ये है कि ऊंचे सू पहाडीनुमा स्थल पर विशाल परिसर है जिसमें चारों तरफ हरेभरे पेड और पेडों पर लगी रंगबिरंगी लारनीलीहरी पट्टियां जिन पर कुछ लिखा हुआ भी था। सीढियां चढकर मुख्य मंदिर स्थल पर पहुंचा तो देखा रास्ते में ही दुकानदारों ने मूर्तियों पिक्चर्स आदि से रास्ते को आर्ट गैलरी बना रखा है। निसंदेह कलाकारी बहुत ही उत्कृष्ट है। सुंदर सुंदर मूर्तियां। बुद्ध की शिव की माता की और अन्य देवी देवताओं की।
नेपाल के लोगों ने बुद्ध को हिन्दू धर्म में ही शामिल कर लिया है। उनके लिये तो विष्णु के ही अवतार हैं बुद्ध। बैसे गहनता से देखा जाय तो सनातन का धार्मिक रुप त्रिदेव परिवार में मिलता है तो आध्यात्मिक पक्ष बुद्ध महावीर कृष्ण में। वो बात अलग है कि पंडो से कोई नहीं बच सकता। वो आध्यात्मिक योगियों को भी धार्मिक गुरू बना ही लेते हैं ताकि उनकी पेटपूजा भी होती रहे।
काठमांडू शहर के पश्चिम में ऊंची पहाडी पर स्थित स्यंभूनाथ स्तूप परिसर का तिब्बतन नाम
'Sublime Trees' ठीक ही पडा है क्यूं कि यहां पेडों की बहुत सारी बैरायटीज हैं। परिसर में एक बडे स्तूप के अलावा बहुत सारे लिच्छवी काल के छोटे छोट मंदिर भी बने हुये हैं। मंदिरों के बीचों बीच सफेद रंग का गोल बडा स्तूप जिसका शिखर सोने जैसा धूप में चमकता है और स्तूप की सफेद गोल दीवार पर भगवान बुद्ध की आखें और भौंहें भी पैन्टिड हैं और दोनों आखों के बीच एक का अंक उनकी नाक बनाता है। मुख्य स्तूप तक पहुंचने के लिये दोनों और से सीढियां हैं। उतरने के लिये पूरी 365 steps हैं जो कोई ज्यादा कठिन भी नहीं हैं पर मैंने कुछ विदेशी बुजुर्गों को हांफते और पसीने से तरवतर होते हुये भी देखा तो दूसरी और मंदिर परिसर में काम कर रहे मजदूरों को पीठ पर बडे बडे पत्थर लादते भी देखा। सब अभ्यास की बात है। यदि भगवान वाकई हमारे मंदिर चढने से प्रशन्न होते हैं तो ये बहस का विषय हो सकता है कि वो किससे खुश होंगे , उन पत्थर ढोते मजदूरों से या हमारे जैसे भक्तों से ?
स्तूप परिसर की ऊपरी पहाडी से ही नीचे काठमांडू शहर का फोटो लिया । इतना बडा शहर ! बाप रे बाप ! पहाडों के बीच इतना बडा शहर होना रीयली अमेजिंग था। वहीं किसी ने इशारे से पशुपतिनाथ मंदिर का स्थान बताया जो इतनी दूर था कि बस अंदाजा लगा पाया कि कम से कम बीस पच्चीस किमी तो होगा। स्यंभूनाथ स्तूप से नीचे उतर कर आया और पशुपतिनाथ मंदिर का पता पूछा तो सबने यही कहा कि बहुत दूर है । उन्हें क्या पता था कि इस घुमक्कड के लिये कुछ भी दूर नहीं है। पूछते पाछते पहुंच ही गया मंदिर पशुपतिनाथ।
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