Tuesday, November 8, 2016

My bike tour of Nepal part 8

काठमांडू से जनकपुर
27 अक्टूवर 2016
काठमांडू से शाम को पांच बजे निकला था इस बजह से शिवजी की मूर्ति के दर्शन न कर पाया था जिसके बारे में बताया गया था कि पंचमुखी लिगं है, लेकिन धुलिखेल में रात बिताने के बाद अगली सुवह जैसे ही जनकपुर के लिये रवाना हुआ, मुझे हर मोड पर शिवजी के दर्शन हुये। इतनी प्राकृतिक सुंदरता शायद ही मैंने कभी देखी हो। धूलिखेल के तुरंत बाद ही घना पहाडी जंगल और उसमें बल खाती सडकें शुरू हो गयीं। थोडी थोडी देर बाद ही किसी न किसी नदी का साथ मिल जाता।
धूलिखेल से अमले होते हुये बर्दीवाश तक का रास्ता मैं जिदंगी भर न भूल पाऊंगा। इतनी खूबसूरती तो स्विसलेंड में भी न होगी। ऊंचे ऊंचे पहाड और बलखाती सर्पिलाकार सडकें और नीचें बहती नीली नीली नदी। हाय रे मैं तो स्वर्ग में आ गया था। लोग शिवजी को बहां मंदिर में ढूंड रहे थे जबकि वो तो यहां थे मेरे पास। गजब ।
सोचा तो ये था कि धूलिखेल से जनकपुर का दौ सौ किमी का रास्ता बारह बजे तक तय कर शाम को जनकपुर घूम लूंगा लेकिन उन खूबसूरत बादियों में दिल ऐसा अटका कि हर मोड पर गाडी खडी करता और वीडियो बनाता। अमले के पास ही नदी तक पहुंचने का रास्ता मिल गया तो नदी पर ही कपडे धोने और स्नान करने का कार्य भी कर लिया। इस बीच शायद ही कोई जगह हो जिसे देखकर दिल से वाह वाह न निकली हो। अब जब भी कभी नेपाल जाना होगा मैं जनकपुर होते ही जाना पसंद करूंगा।
बर्दीवाश पहुंचते पहुंचते शाम के पांच बजे चले थे। भूख भी जोरों से लगी थी। गौर किया तो आसपास का बातावरण देख लगा कि मैं भारत में आ चुका हूं। दर असल बर्दीबास भारतीय सीमा से नजदीकी होने के कारण यहां की बोली भाषा लोग खानपान कपडे आदि का रहन सहन सब कुछ भारतीय ही है। सबसे पहले तो सब्जी से दो लिट्टी खींची जिसे थोडी शक्ति सी आयी। लिट्टी चोखा बहुत कम जगह पर ही मिलता है। ज्यादातर जगह पर तो आलू की सब्जी ही पेलते हैं लिट्टी के साथ। काठमांडू और पोखरा में पान खाने को तरस गया मैं। बर्दीबास में चौराहे पर ही पान की दुकान देख दिल खुश हो गया। डौन बाले अमिताभ " विजय " बाली फीलिगं आयी थी जब उसे मुद्दतों के बाद गंगा तटीय पुरबियों ने पान खिलाया था। पान बनाने की स्टाईल भी अलग अलग शहरों जैसे बर्दीबास जनकपुर सीतामढी मुजफ्फरपुर पटना आरा बनारस इलाहाबाद के साथ बदलती जाती है। मिथिलांचल का पान सबसे बेहतरीन है।
बर्दीबास से जनकपुर के लिये सीधे हाईवे जाता है।
जनकपुर सच में अच्छी जगह है। कुदरत ने भरपुर आशीर्वाद दिया है वो बात अलग है कि इंसानों ने उसकी कद्र नहीं की।
यदि मैं कहूं कि जनकपुर या मिथिलांचल जलाशयों, नदियों और हरियाली बाला क्षेत्र है तो अतिशयोक्ति न होगी। जनकपुर शहर में ही ढेर सारे बडे बडे सरोवर हैं। लेकिन शहर को देखकर निराशा ही हाथ लगी। जनकपुर में नेपाल जैसी सफाई नहीं है। मुझे तो वो पूरी तरह बिहारी क्षेत्र नजर आया। वही भाषा, वही खानपान, वही रहन सहन और वही गंदगी। जनकपुर के तालाबों की कोई केयर नहीं है । घाट के चारों तरफ गंदगी के ढेर लगे हैं। संकरे और गंदे धूलयुक्त रोड भी शहर की दुर्दशा बयां कर रहे हैं।
सीताजी का महल जानकी मंदिर यदि आज हिन्दुओं की बजाय सिखों या ईसाईयों के पास होता तो दुल्हन की तरह चमक रहा होता। इतनी सफाई होती कि जूते पहन कर अदंर घुसने का मन तक न करता। हिंदू मंदिरों में बैठे लुटेरों के बराबर शायद ही किसी धर्म में इतना चडावा आता हो पर पता नहीं क्यूं मंदिरों के रखरखाव और स्वच्छ मैनेजमेंट के नाम पर इन पर बिजली गिर जाती है। जानकी मंदिर बांउड्रीवाल के अदंर ही लोगों ने दुकानें लगा रखी हैं जो बहां गंदगी फैला रहे हैं। मंदिर के अदंर भी विशेष सफाई नजर नहीं आयी। पंडो का सारा ध्यान तो बस चढावे पर ही रहता है।
सरकार ने मंदिर की सुरक्षा के लिये तीन फौजी तैनात कर रखे हैं।
इसमें कोई शक नहीं कि जानकी महल बहुत ही भव्य और विशाल है। धीमी धीमी आवाज में गूंजती हुई रामधुन सुवह ही सुवह कानों में अमृत घोल देती है। शाम को हजारों की संख्या में श्रद्धालु आरती में शामिल होते हैं। मंदिर में न केवल श्री राम और जानकी हैं बल्कि उनके अन्य तीनों भ्राता भी सपत्नीक विराजमान हैं। हालांकि यह मंदिर देवी सीता को ही समर्पित है। मन्दिर की वास्तु हिन्दू-राजपूत वास्तुकला है। यह नेपाल में सबसे महत्त्वपूर्ण राजपूत स्थापत्य शैली का उदाहरण है। यह स्थल जनकपुरधाम भी कहलाता है।
प्राप्त जानकारी के अनुसार यह मन्दिर 4860 वर्ग फ़ीट क्षेत्र में निर्मित विस्तृत है और इसका निर्माण 1895 में आरंभ होकर 1911 में पूर्ण हुआ था।
मन्दिर परिसर के आसपास 115 सरोवर एवं कुण्ड हैं, जिनमें गंगासागर, परशुराम कुण्ड एवं धनुष-सागर अत्याधिक पवित्र कहे जाते हैं।
इस मन्दिर का निर्माण मध्य भारत के टीकमगढ़ की रानी वृषभानु कुमारी के द्वारा 1911 ईसवी में पूर्ण करवाया गया था। इसकी तत्कालीन लागत नौ लाख रुपये थी। स्थानीय लोग इस कारण से ही इसे नौलखा मन्दिर भी कह दिया करते हैं।
1647 में देवी सीता की स्वर्ण प्रतिमा यहां मिली थी और कहते हैं इस स्थान की खोज एक सन्यासी शुरकिशोरदास ने की थी जब उन्हें यहां सीता माता की प्रतिमा मिली थी। असल में शुरकिशोरदास ही आधुनिक जनकपुर के संस्थापक भी थे। इन्हीं संत ने सीता उपासना (जिसे सीता उपनिषद भी कहते हैं) का ज्ञान दिया था। मान्यता अनुसार राजा जनक ने इसी स्थान पर शिव-धनुष के लिये तप किया था।
जनकपुर में जानकी मंदिर के निकट ही राम मंदिर भी बना है। काफी प्राचीन और सुंदर मंदिर है कितुं जनकमहल की अपेक्षा काफी छोटा है। राममंदिर के ठीक सामने बना तालाब इसकी सुंदरता में और इजाफा करता है जिसके दूसरी ओर भूतनाथ मंदिर एवं अन्य देवी देवताओं के मंदिर हैं।
जनकपुर के लोग बहुत धार्मिक और सहयोगी प्रवृति के हैं। मिलनसार भी हैं। रात को पहुंचते पहुंचते देरी हो चली थी इसलिये थोडी बहुत देर जानकी मंदिर में घूमने के बाद नजदीक ही पागलबाबा धर्मशाला चला गया था जहां मात्र तीन सौ नेपाली में काफी बडा रुम मिल गया था। लेकिन सुवह ही जल्दी नहा धोकर सभी मंदिर और शहर देखने निकल पडा। पूरा शहर बस दो घंटे में ही नाप डाला। तभी एक सज्जन ने मुझे धनुषा धाम के बारे में जानकारी दी कि सीता के धनुष का एक टुकडा आज भी बहां सुरक्षित है। जनकपुर घूमने के बाद में धनुषा धाम जाने की इच्छा हुई जो जनकपुर से मात्र सत्रह किमी दूर एक गांव में है। धनुषा धाम जाते हुये रास्ते में आस पास ढेर सारे तालाब और हरे भरे खेत एवं पेड पौधे देख मन भी हरा हो गया। निसंदेह प्रकृति का पूरा आशीर्वाद है मिथालांचल पर। रास्ते में कुछ पुलिसकर्मी भी मिले जिन्हौने मेरे कागजात चैक कर ही मुझे आगे बढने दिया। नेपाल की पुलिस तो वाकई बहुत कर्तव्यनिष्ठ है। पग पग पर कानून का सख्त पहरा है। सख्त है तो सेवाभावी भी है।
धनुषाधाम से दो तीन किमी पहले ही एक विशाल सरोवर मिला जिसके बीचों बीच एक कमल पर शेषनाग बने हुये हैं। हालांकि तालाब पूरी तरह सुनसान जगह पर है पर हरे भरे पेडों से घिरे होने एवं सुंदर कमल के फूलों से भरे होने के कारण बहुत ही रमणीक स्थल बन पडा है। मुझे भीडभाड बाले मंदिरों की बजाय ऐसे स्थान कुछ ज्यादा ही पंसद आते हैं। तालाब पर थोडा देर विराम के बाद धनुषा धाम पहुंचा पर जैसा सुना था बैसा मिला नहीं। मैं सोचा कि कोई धातु का टुकडा संरक्षित रखा होगा लेकिन धनुषाधाम मंदिर में एक प्राचीन वटबृक्ष की जडों से निकलता हुआ प्रवाल टाईप का कोई पत्थर है जो जमीन से फूट रहा है और निरंतर बढता ही जा रहा है। स्थानीय लोग इस पथरीले तत्व को ही धनुषा कहते हैं। बहां पूजा कर रहे पंडिज्जी भी इसकी कहानी कुछ यूं सुनाते हैं कि धनुष के तीन टुकडे हुये जिसमें एक आकाश में गया और एक पाताल में और तीसरा यहां गिरा जो साल दर साल बढता ही जा रहा है।
खैर लोगों की आस्था और पंडो की दुकानदारी पर ज्यादा तर्क करना बेकार है। खामखा गाली खाने से क्या फायदा । हम तो चलते हैं अब बापस जनकपुर बौर्डर की ओर । दस दिन हो गये घर की याद भी आने लगी है। दो दिन बाद दीपावली भी है। त्यौहार पर घर के सदस्य पूरे न हों तो त्यौहार का उल्लास ही रह जाता।
जनकपुर से बौर्डर तक का रास्ता और बौर्डर से सीतामढी तक रास्ता तो इतना खराब था कि सारा मूड ही खराब हो गया। फिर भी जैसे तैसे दस बीस किमी का वो सफर भी पूरा कर ही लिया। बौर्डर पर किसी ने नहीं रोका। मैंने खुद ही कागज चैक कराये और नेपाली सैनिकों को धन्यवाद देकर भारत में प्रवेश कर लिया जहां भारतीय बीएसएफ
के जवानों ने खूब मजाक की। एक जवान तो यहां तक बोला कि सरकार मास्टर इतनी दूर सैरसपाटे के लिये तो नहीं आ सकता । कहीं ऐसा तो नहीं कि राजस्थान की अफीम यहां निकालने आये हों। मैं भी मजाक को मजाक में ही टाल गया क्यूं कि यदि मैं पलट कर कह देता कि ये काम तो बीएसएफ  बाले ज्यादा अच्छा करते हैं तो शायद उनको बुरा लग जाता। खैर सैनिक हमारे देश का गौरव हैं और मैं उनका तहेदिल से सम्मान करता हूं। उनसे हाथ मिलाया। साथ फोटो भी खिंचाया और निकल लिया सीतामढी होते हुये पटना की ओर।

Thursday, November 3, 2016

My bike tour of Nepal part 7

पशुपतिनाथ मंदिर से जनकपुर की ओर ।।
26 अक्टूवर 2016

नेपाल यात्रा का सबसे बडा आकर्षण है पशुपतिनाथ मंदिर। पशुपतिनाथ मंदिर काठमांडू के तीन किलोमीटर उत्तर-पश्चिम देवपाटन गांव में बागमती नदी के किनारे पर स्थित है। नेपाल के एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनने से पहले यह मंदिर राष्ट्रीय देवता, भगवान पशुपतिनाथ का मुख्य निवास माना जाता था।
यह मंदिर यूनेस्को विश्व सांस्कृतिक विरासत स्थल की सूची में सूचीबद्ध है। पशुपतिनाथ में  सिर्फ हिंदुओं को मंदिर परिसर में प्रवेश करने की अनुमति है। गैर हिंदू आगंतुकों बागमती नदी के दूसरे किनारे से इसे बाहर से देख सकते हैं।  यह मंदिर नेपाल में शिव का सबसे पवित्र मंदिर माना जाता है। मिली हुई जानकारी के अनुसार 15 वीं सदी के राजा प्रताप मल्ल से शुरु हुई परंपरा कि मंदिर में चार पुजारी (भट्ट) और एक मुख्य पुजारी (मूल-भट्ट) दक्षिण भारत के ब्राह्मणों में से रखे जाते हैं। पशुपतिनाथमें शिवरात्रि त्योहार विशेष महत्व के साथ मनाया जाता है।
किंवदंतियों के अनुसार इस मंदिर का निर्माण सोमदेव राजवंश के पशुप्रेक्ष ने तीसरी सदी ईसा पूर्व में कराया था किंतु उपलब्ध ऐतिहासिक रिकॉर्ड 13वीं शताब्दी के ही हैं। इस मंदिर की कई नकलों का भी निर्माण हुआ है जिनमें भक्तपुर (1480), ललितपुर (1566) और बनारस (19वीं शताब्दी के प्रारंभ में) शामिल हैं। मूल मंदिर कई बार नष्ट हुआ। इसे वर्तमान स्वरूप नरेश भूपलेंद्र मल्ला ने 1697 में प्रदान किया।
ऐसे तो लाखों लोग धार्मिक आस्था के बशीभूत पशुपतिनाथ जी के दर्शन मात्र काठमांडू जाते हैं पर मेरे जैसे घुमक्कड आस्था के लिये कम जिज्ञासा के लिये अधिक जाते हैं। बुद्ध जैसे धर्म सुधारक के देश में लोगों ने किस तरह धर्म और अध्यात्म का संयोजन किया हुआ है, यही मेरी सबसे बडी जिज्ञासा थी। बहां जाकर पता चला कि लोगों ने बुद्ध को भी उसी धर्म का एक भाग बना रखा है। " Oh My God " में कांजी भाई, परेश रावल, से एक धर्मगुरु , मिथुन, ने अतं में सच ही कहा था," ये गौड लविगं पीपुल नहीं बल्कि गौड फियरिगं पीपुल हैं। तुम इनसे इनका भगवान छीनोगे तो ये लोग तुम्हें ही अपना नया भगवान बना देंगे।" धर्म विद्रोही/ सुधारक बुद्ध को भी भगवान बुद्ध बना दिया गया और आज अन्य भगवानों के साथ उन्हें भी पूजा जा रहा है जबकि बुद्ध तो नास्तिक थे।
खैर हमें क्या, हम तो ये सब लीलायें देखने निकले हैं। देखेंगे और दुनियां को बतायेंगे। पशुपतिनाथ जी मतलब शिवजी के बारे में यहां जो भी कथायें कहानियां हैं, मैं उनसे कभी सहमत न हो पाऊगां क्यूं कि मेरा मानना है कि प्रकृति पूजक सनातन की शक्ल इन्हीं काल्पनिक कथाओं ने ही बिगाडी है। मेरा मानना है कि शिव और शक्ति, अर्धनारीश्वर, के सैकडों रूप हैं। वो कोई तुच्छ मानव नहीं जिसे हम एक मूर्ति बनाकर इतिश्री कर लें। परमपिता परमेश्वर शिव तो संपूर्ण संसार को बनाने और मिटाने बाली एक रहस्यमयी शक्ति है जिसका न कोई आदि है और न कोई अतं। वो तो अनंत है। वो हर जगह मौजूद है। नदी के जल में, पेड पौधों में, पशुओं में यहां तक कि सृष्टि के हर जीव में मौजूद है। उसका एक रूप पशुपालक भी है। उसी पशुपालक स्वरुप की प्रतिमा एवं नंदी की विशाल मूर्ति यहां मंदिर में स्थित है। पीतल धातु से बने नंदी / बैल मंदिर के मुख्य द्वार पर ही विराजमान हैं जिसका मुख मंदिर में रखी शिवलिगं की ओर है। चूंकि यह सृष्टि लिंग और योनि की बदौलत ही है अत; शिव का एक रुप यह भी है। इस बात को कि हम सब हमारे माता पिता ने कैसे पैदा किया है, जानते हैं लेकिन पर्दे में रखते हैं लेकिन सनातन ने इससे भी पर्दा हटा दिया है और उस लिंग और योनि जिसकी बदौलत हमारा बजूद है, को भी पूज्य बना दिया। सनातनी प्राचीन पंडितो ने कभी भी नग्नता को गंदगी नहीं माना क्यूंकि नग्नता सच बोलती है, प्राकृतिक भी है जबकि कपडे का आवरण मानव मन के भावों को छुपाने का एक साधन।
लेकिन पशुपतिनाथ मंदिर में लगा बोर्ड, "केवल हिन्दुओं के लिये" भी मुझे सनातनी परंपरा और नियम के विरुद्ध लगा। सनातन परपंरा सबको आत्मसात करने और सबको समा लेने का गुण रखती है तो फिर ये रोक कैसी ? जब अन्य धर्मावलंबियों की परपंरायें उन्हें नहीं रोकती तो हम क्यूं रोकें। परमपिता के घर में रोक ? ये ईश्वर की नहीं , धर्म के ठेकेदारों की ही हो सकती है। हालांकि मुझसे किसी ने मेरे हिंदू होने का सबूत नहीं मांगा और स्वंतंत्र रूप से मंदिर परिसर में विचरण करता रहा। मंदिर के पीछे एक नदी बह रही है जिसके दूसरी और बहुत सारे मंदिरों का समूह है। मंदिर के एक तरफ नदी तट पर ही श्मशान घाट है जो इस सच्चाई को स्वीकार कराता है कि मृत्यु भी एक अटल सत्य है और लौट कर पुन: हमें इसी में विलीन हो जाना है।
मंदिर परिसर में काफी देर घूमने के बाद मंदिर के पीछे नदी तट पर बने मंदिरों और श्मशान घाट जलती हुई चिताओं में मौत रुपी सच्चाई को निहारता रहा। सोचने लगा कि आखिर लोग मौत से डरते क्यूं हैं ? ये शरीर प्रकृति के पंच तत्वों से बना है और एक दिन इन्ही में समा जायेगा तो फिर डर कैसा ? नदी से लौटते हुये दक्षिणी गेट पर भिखारियों की लंबी कतार देखी जो हिन्दुस्तान की हकीकत को बयां कर रही थी। हिन्दुस्तान में धर्म को दुकान यहां की परिस्थितियों ने ही बनाया होगा।
शाम के चार बज चले थे जबकि मंदिर के कपाट करीब छ बजे खुलने बाले थे। भगवान के घर में भी भक्त भगवान के दर्शन के लिये इंतजार कर रहे थे तो सिर्फ भगवान और भक्त के बीच कुछ दुकानदारों के कारण। सही बात तो ये है कि मैं उस मूर्ति की आकृति शिल्प कला को देखने का उत्सुक था ना कि उसे भगवान समझ कर दर्शन करने का क्यूंकि मेरे हिसाब से तो अब तक राह में आयी नदियां पहाड हरी भरी घाटियां जल वायु जीव जन्तु ही असली शिव हैं मंदिर में तो बस एक कलाकार की मेहनत से बनायी हुई कलाकृति है शिव नहीं। सच पूछो तो मुझे तो शिवजी के दर्शन मुख्य द्वार में प्रवेश करते समय ही हो गये थे जब मैंने मंदिर परिसर में दो नन्हे मुन्ने बाल गोपालों को दाना चुग रहे कबूतरों के समूह के साथ मस्ती करते देखा था। रास्ते भर प्रकृति के अजब गजब उपहार पहाड नदी ताल और पेडों को निहारा था। साक्षात ईश्वर तो वही था। ये तो केवल समाज को एकत्रित करने और मिलने मिलाने एवं एक दूसरे को समझने का एक स्थान विशेष था। प्राचीन विद्धानों ने भी समाज की खातिर ही इन स्थानों का निर्माण करवाया होगा क्यूं कि ईश्वर कहां रहते हैं, ये बात तो वो मुझसे ज्यादा जानते थे। आखिर भारत प्रकांड पंडितों का देश है, मैं तो उनके पैरों की धूल भी नहीं। वो बात अलग है कि बाद में आये कुछ स्वार्थी तत्वों ने इसका रुप भी बिगाड दिया।
फिर भी दिल की बात कहूं तो मुझे मंदिर में अच्छा लगा। कोई ज्यादा भीड नहीं और न कोई शोर शराबा। दूर दूर से आये अलग अलग संस्कृतियों के लोगों से मिलना भी एक सुखद अनुभव था।
रात होने से पहले जनकपुर के लिये रवाना होना था अत: निकल पडा मंदिर के नजदीकी ही हाईवे पर जो मुझे धूलिखेल मिथिला होते हुये जनकपुर छोड सकती थी। धूलिखेल तक शाम हो चली थी और मुझे यहीं रुकना था। मैं सोच रहा कि मेरी नेपाल यात्रा का अतं हो चला लेकिन मुझे क्या पता था कि नेपाल की असली खूबसूरती तो मेरा जनकपुर रोड पर इंतजार कर रही थी।


Tuesday, November 1, 2016

My bike tour of Nepal part 6

नेपाल बाइक टूर : पोखरा से काठमांडू
25 अक्टूवर 2016 (छठवां दिन)

सारंगकोट से पोखरा की ओर नीचे उतरते समय बिंध्यबासिनी मंदिर भी पडता है लेकिन अब मुझे जल्दी से शहर से बाहर निकल जितना ज्यादा खींच सकूं उतना खींचने की पडी थी। सौभाग्यवश  पोखरा से काठमांडू का रोड अन्य रोड की अपेक्षा अधिक अच्छा निकला। यही मुख्य हाईवे है पोखरा आने के लिये। ज्यादातर पर्यटक इसी पृथ्वी राजमार्ग से ही आते जाते हैं। बुटवल पोखरा मार्ग की अपेक्षा यह अधिक चलायमान भी है तो समतल भी। नदी की तलहटी के सहारे सहारे ही रोड बनाया गया है। पूरे मार्ग में पहले की तरह कहीं भी पहाड चडना या उतरना नहीं पडा मुझे। समतल और चौडा हाईवे होने की बजह से मैंने रात होने से पहले ही करीब सत्तर किमी बाईक खींच ली पर चूंकि अभी एक सौ पचास के करीब और चलना था, लौज लेना ही ठीक रहेगा, सोच कर डुमरे नाम के चौराहे पर एक रुम ले लिया। रुम तीन सौ पांच सौ हजार तक हर जगह मिल जाता है। कुछ सस्ते लौज में नहाने को पानी उपलब्ध नहीं रहता क्यूं कि उन्हें आसपास के किसी श्रोत से लाना होता है। खाने को दाल चावल मछली हर जगह उपलब्ध है बस रोटी सब्जी के लिये आपको पहले कहना होगा, मिल जायेगी। डुमरे चौक के नजदीक ही एक नदी बह रही है जो थोडा ही आगे चलकर मर्स्यांगदी नदी में और थोडा चलकर त्रिशुली नदी में मिल जायेगी।
मुझे ये तो पता था कि राह में मनोकामना देवी का मंदिर पडेगा पर कितनी दूर पडेगा, न पता था। मोबाईल डिस चार्ज हो चुका था। पता होता तो डुमरे से मात्र चालीस पचास किमी और आगे मनोकामना के नजदीक ही पडाव डालता। खैर सुवह जल्दी ही बिना नहाये धोये निकल लिया मैं तो। करीब एक घंटे बाद ही मनोकामना केवल कार पार्क पहुंच गया। बहां दस रुपये में गाडी पार्क अकी और सबसे पहले बगल से बहती हुई नदी पर उतर गया। नहाया तो नहीं पर साबुन से डेंटिग पेंटिग पूरी कर डाली। सेविगं कर एक दम राजाबाबू बन गया। करीब एक घंटे तक सैकडों लोगों की खुशियों में शरीक होता रहा। दरअसल यहां धार्मिक लोग कम पर्यटक ज्यादा थे। पांच सौ मीटर लंबी लाईन लगी थी। भारतीयों के लिये हजार रुपये की टिकट जब कि अन्य विदेशियों के लिये बीस डालर। नेपालियों के लिये तीन सौ नेपाली। तब भी गनीमत थी नेपाल ने हमें विदेशी शब्द से अलग रखा था। कुछ तो अपनापन दिखाया ही था पडौसी होने का। हालांकि पोखरा और सारंगकोट में एक दो लडके मिले जिनकी शिकायत थी कि भारतीय हमें अपना भाई नहीं मानते। हमें नेपाली कहकर हेय दृष्टि से देखते हैं और दुत्कारते हैं। हो सकता है उनका पाला किसी तूचिया से पडा हो पर जहां तक मेरा अनुभव है कि हमने हर मेहमान को सर आखों पर लिया है जबकि नेपालियों को तो कभी विदेशी माना ही नहीं। पूरे भारत में हर जगह काम करते और जीविका चलाते मिल जायेंगे आपको। खैर नई  जनरेशन फेसबुक और वाटसेप की नफरत की पैदावार है, नकारात्मकता ही सीखेगी।
मनोकामना केवल कार से ही मैया के हाथ जोड रवाना हो लिया पशुपतिनाथ की तरफ। अभी करीब एक सौ बीस किमी था। दस बज चले थे। धूप भी अच्छी निकल आयी थी। गाडी खींच दी। इस रोड पर सरकार ने जगह जगह सार्वजनिक सुलभ शौचालय और स्नानघर बनाये हैं। काफी सुविधाजनक है। रोड इतना अच्छा था कि पता ही नहीं कि कब काठमांडू में प्रवेश कर गया पर क्या पता था कि काठमांडू की दस बीस किमी धूलभरी सडक पूरे दो सौ के बराबर पडेगी। शहर में घुसते घुसते धूल से लथपथ हो गया। बीस किमी की सडक बहुत बुरी हालत में है। शहर आने पर जान में जान आयी। सबसे पहले स्यंभूनाथ स्तूप पहुंचा। काफी बडा है। काफी दूरी तक फैला हुआ है। रोड पर बुद्ध की प्रतिमा लगी हैं लेकिन प्राचीन मंदिर के लिये आपको गली में जाकर ऊपर चडना होगा। मंदिर के सामने ही निशुल्क पार्किगं है। मैं पहले इसे शिवजी का मंदिर समझ रहा था बाद में पता चला कि बौद्ध मंदिर है। महात्मा बुद्ध हों या महावीर , पुरोहितों की दुकान बंद करने के जिस मकसद से इन्होने जनता को ज्ञान दिया था, वो पूर्णरुपेण सफल न हो सका। दुकान और दुकानदार के नाम भले बदल गये पर कार्य आज भी वही बदस्तूर जारी है। इंसान को भगवान के सहारे की आदत सी हो गयी है। तुम उनका भगवान छीनोगे तो वे लोग तुम्हें ही नया भगवान बनाकर पूजने लगेंगे। पंचो की बातें सिरमाथे पर पन्हाला वहीं गिरेगा। स्तूप परिसर में प्रवेश किया ही था कि निगाह पडी कि एक फुआरेनुमा गोल कुंड के बीचोंबीच बुद्ध की प्रतिमा खडी है और लोग खरीदे हुये सिक्के फेंक कर अपना भाग्य आजमा रहे हैं। सिक्के बेचने बालों की बहां दुकानें लगीं हैं। यदि सिक्का बुद्ध के चरणों में टिक गया तो सौभाग्य अन्यथा दुर्भाग्य। दुर्भाग्य तो देश का है कि इतनी बैज्ञानिक तरक्की करने के बाद भी प्रतिमाओं में अपना सौभाग्य ढूंड रहे हैं। खैर हमें क्या ! हम तो घुमक्कड हैं। हमें तो सब झेलना है। यही तो देखने निकलते हैं हम लोग कि दुनियां में कैसे कैसे लोग हैं और कैसी कैसी उनकी परम्परायें हैं। सुखद पहलू ये है कि ऊंचे सू पहाडीनुमा स्थल पर विशाल परिसर है जिसमें चारों तरफ हरेभरे पेड और पेडों पर लगी रंगबिरंगी लारनीलीहरी पट्टियां जिन पर कुछ लिखा हुआ भी था। सीढियां चढकर मुख्य मंदिर स्थल पर पहुंचा तो देखा रास्ते में ही दुकानदारों ने मूर्तियों पिक्चर्स आदि से रास्ते को आर्ट गैलरी बना रखा है। निसंदेह कलाकारी बहुत ही उत्कृष्ट है। सुंदर सुंदर मूर्तियां। बुद्ध की शिव की माता की और अन्य देवी देवताओं की।
नेपाल के लोगों ने बुद्ध को हिन्दू धर्म में ही शामिल कर लिया है। उनके लिये तो विष्णु के ही अवतार हैं बुद्ध। बैसे गहनता से देखा जाय तो सनातन का धार्मिक रुप त्रिदेव परिवार में मिलता है तो आध्यात्मिक पक्ष बुद्ध महावीर कृष्ण में। वो बात अलग है कि पंडो से कोई नहीं बच सकता। वो आध्यात्मिक योगियों को भी धार्मिक गुरू बना ही लेते हैं ताकि उनकी पेटपूजा भी होती रहे।
काठमांडू शहर के पश्चिम में ऊंची पहाडी पर स्थित स्यंभूनाथ स्तूप परिसर का तिब्बतन नाम
 'Sublime Trees' ठीक ही पडा है क्यूं कि यहां पेडों की बहुत सारी बैरायटीज हैं। परिसर में एक बडे स्तूप के अलावा बहुत सारे लिच्छवी काल के छोटे छोट मंदिर भी बने हुये हैं। मंदिरों के बीचों बीच सफेद रंग का गोल बडा स्तूप जिसका शिखर सोने जैसा धूप में चमकता है और स्तूप की सफेद गोल दीवार पर भगवान बुद्ध की आखें और भौंहें भी पैन्टिड हैं और दोनों आखों के बीच एक का अंक उनकी नाक बनाता है। मुख्य स्तूप तक पहुंचने के लिये दोनों और से सीढियां हैं। उतरने के लिये पूरी 365 steps हैं जो कोई ज्यादा कठिन भी नहीं हैं पर मैंने कुछ विदेशी बुजुर्गों को हांफते और पसीने से तरवतर होते हुये भी देखा तो दूसरी और मंदिर परिसर में काम कर रहे मजदूरों को पीठ पर बडे बडे पत्थर लादते भी देखा। सब अभ्यास की बात है। यदि भगवान वाकई हमारे मंदिर चढने से प्रशन्न होते हैं तो ये बहस का विषय हो सकता है कि वो किससे खुश होंगे , उन पत्थर ढोते मजदूरों से या हमारे जैसे भक्तों से ?
स्तूप परिसर की ऊपरी पहाडी से ही नीचे काठमांडू शहर का फोटो लिया । इतना बडा शहर ! बाप रे बाप ! पहाडों के बीच इतना बडा शहर होना रीयली अमेजिंग था। वहीं किसी ने इशारे से पशुपतिनाथ मंदिर का स्थान बताया जो इतनी दूर था कि बस अंदाजा लगा पाया कि कम से कम बीस पच्चीस किमी तो होगा। स्यंभूनाथ स्तूप से नीचे उतर कर आया और पशुपतिनाथ मंदिर का पता पूछा तो सबने यही कहा कि बहुत दूर है । उन्हें क्या पता था कि इस घुमक्कड के लिये कुछ भी दूर नहीं है। पूछते पाछते पहुंच ही गया मंदिर पशुपतिनाथ।