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Wednesday, January 25, 2017

अमरकंटक धाम : सोन नदी एवं कपिलधारा ।।

 नर्मदा कुंड और कल्चुरी कालीन मंदिर देखने के बाद हम निकल पडे सीधे सौनमुदा की ओर जहां से सौन नदी निकलती है। अमरकंटक नर्मदा और जोहिला के अलावा सोन नदी का भी उदगम स्थल है।

















 नर्मदा के उदगम स्थल से बस दो किमी पर है सोनमुदा। पहाडों की हरी भरी गोद में एकांत स्थल भी व्यावसायिकता ने विकृत कर रखे हैं। सोन नदी के उदगम स्थल पर भी पक्के मंदिर बन जाने के कारण उसने बगल से ही दूसरा रास्ता बना लिया है। सौ मीटर चलकर ही सौन पहाडी से नीचे कूद पडती है। हालांकि इसका बास्तविक स्वरुप दस किमी बाद ही नजर आता है। पहाडी से सैकडों मीटर गहरी खाई में गिरते समय इसका रुप बडा ही मनमोहक लगता है।
सीढियों से नीचे उतरते ही हमें बहुत सारे मंदिरों का एक समूह नजर आता है जहां गोमुख से सोन आती हुई बतायी गयी जबकि सौन की असली और बडी धारा मंदिरों के पीछे एक अलग रास्ता बनाती हुई नजर आयी। पंडो ने नर्मदा और सौन के उदगम को ही अपनी दुकान बना डाला। इतने मंदिर खडे कर दिये कि बेचारियों का दम घुटने लगा। आखिरकार दोनों ने ही अपने नये रास्ते बना डाले। जिस कुण्ड से सोन निकल रहा था वह स्रोत अब बंद हो गया है उसके आगे करीब 70 मीटर ऊपर से नया स्रोत आके सोन की धारा को पुनः जीवित किया है,नहीं तो आप भूल जाते की सोन का उद्गम अमरकंटक से है।ऐसे भी ये मिथ्या है सोन अमरकंटक से निकला है अमरकंटक सोन मुडा से निकली एक धारा जरूर सोन में जाके मिलती है। अमरकंटक में दोनों नदियों की बस एक छोटी सी धार ही नजर आयेगी आपको। पेन्ड्रा जाकर सौन ने और कपिलधारा से दस किमी आगे जाकर नर्मदा ने अपना सही रुप इख्तियार किया है। यहां से घाटी और जंगल से ढ़की पहाडियों के सुंदर दृश्‍य देखे जा सकते हैं। सोनमुदा नर्मदाकुंड से दो किमी. की दूरी पर मैकाल पहाडियों के किनारे पर है। सोन नदी 100 फीट ऊंची पहाड़ी से एक झरने के रूप में यहां से गिरती है। सोन नदी की सुनहरी रेत के कारण ही इस नदी को सोन कहा जाता है। हांलाकि पानी थोडा ही है कितुं ऊंचाई से जब सैकडों फीट गहराई में गिरता है तो अच्छा लगता है। गहरी गहरी वनाच्छादित घाटियों को निहारने के लिये इससे वेहतर कोई जगह हो ही नहीं सकती।
विंध्य व सत्पुड़ा की पर्वत क्षृंखला के बीच मैकाल पर्वत क्षृंखला के बीचों बीच बसा अमरकंटक सिर्फ पर्वतों ,घने जंगलों , मंदिरों, गुफाओं, जल प्रपातों का पर्याय - एक रमणीक स्थल ही नही बल्कि एक प्रसिद्ध धार्मिक स्थल भी है जहाँ जीवन दाई नदियाँ हैं, बिखरे पत्थर- पत्थर पर शिवलिंग है, जड़ी बूटियों से भरे जंगल हैं। ठंडे हवा के झोंको में घाटियों  में पैर लटका कर बैठना और चने नमकीन मिस्त्रित भेलपुरी खाने का आनंद ही अलग है। पर थोडा सावधान ! बंदर आपके गाल को लाल करके आपकी भेल ले जा सकता है। कैमरे से तो विशेष एलर्जी है बंदरों को। हल्की हल्की वारिष में हमने भेलपुरी का लुत्फ उठाया जबकि हमारे तिवारी जी तो पूरे समय बंदरों से ही जूझते रहे जबकि मुझसे उनकी ऐसी दोस्ती हुई कि न केवल गाडी पर मेरे साथ घूमे फिरे बल्कि मेरे आगे पीछे भी घूमते रहे। आखिरकार मैंने उनके लिये तीस रुपये के चने जो खरीदे रखे थे।
मैं एकदम किनारे पर पहुंच कर पहाडी की तरफ पैर लटका कर नीचे फैले हुये हरे भरे पेड पौधों के विशाल संसार को निहार रहा था। कितनी खूबसूरत है ये जंगल की दुनियां भी। लोग कहते हैं कि हम दिन प्रतिदिन जंगली होते जा रहे हैं जबकि मुझे तो जंगली कहीं ज्यादा सभ्य लगे, मनुष्यों से।
गिरती हुई नदी की फुआरों में जीवन तलाश रहा था कि पीछे से तिवारीजी का हो हल्ला कानों में पडा। देखा तो तिवारी जी बंदरों से जूझ रहे थे। बंदर उन्हें छेड रहे थे बल्कि तिवारी जी खुद ही उन्हें उकसा रहे थे। उन्ही बहुत सारे बंदरों के बीच बैठकर मैंने आधा घंटा बिताया। यहां तक कि मेरी बाइक तक पर चड आये और प्रेम से बैठ कर चने खाते रहे जबकि तिवारी जी सौ मीटर दूर बैठकर भी बंदरों की तरह गुलाटी खा रहे थे। जानवर हो इंसान सिर्फ प्रेम का भूखा है। ये हम समझ जायें तो कोई किसी का दुश्मन न रहे इस दुनियां में।सौनमुदा के बाद हम निकल लिये सीधे कपिलधारा की ओर । नर्मदा एक छोटी सी नाली के रूप पश्चिम में पत्थरों को काट कर चलती रही और हम भी उसे के सहारे सहारे आगे बढते रहे । लगभग छ किमी बाद हमारी बाइक एक जगह रुक गयी । दर असल यहां गहरी खाई थी जिसमें नर्मदा गिर कर जलप्रपात बना रही थी। ऊपर से देखने पर कतई नहीं लगता कि नीचे से इतनी तेज धारा दिखेगी। हम सीढियां उतरते हुये नीचे पहुंचे तो ऐसा लगा मानो जन्नत में आ गये हों। चारों ओर घने हरे भरे पेड पौधे । पत्थरों की गोलमटोल बडी बडी शिरायें । उनके बीच बहता नर्मदा का शीतल जल। थोडा आगे और पहुंचे तो दिखा नर्मदा का गिरता हुआ जल । मनमोहक झरना कपिलधारा। लगभग 100 फीट की ऊंचाई से गिरने वाला कपिलधारा झरना बहुत सुंदर और लोकप्रिय है। कहा गया है कि कपिल मुनी यहां रहते थे। घने जंगलों, पर्वतों और प्रकृति के सुंदर नजारे यहां से देखे जा सकते हैं। माना जाता है कि कपिल मुनी ने सांख्‍य दर्शन की रचना इसी स्‍थान पर की थी। कपिलधारा के निकट की कपिलेश्‍वर मंदिर भी बना हुआ है। कपिलधारा के आसपास अनेक गुफाएं है जहां साधु संत ध्‍यानमग्‍न मुद्रा में देखे जा सकते हैं। कपिलधारा से थोडा सा ही आगे जाकर एक और छोटा सा झरना है दूधधारा। अपने गुस्से के लिये प्रसिद्ध दुर्वासा ऋषि भी यहीं एक गुफा में निवास करते थे। अमरकंटक में दूधधारा नाम का यह झरना भी काफी लो‍कप्रिय है। ऊंचाई से गिरते इस झरने का जल दूध के समान प्रतीत होता है इसीलिए इसे दूधधारा के नाम से जाना जाता है। कपिलधारा की ऊपर से गिरती हुई धार ऐसे लगती है मानो स्वर्ग से ईश्वर दूध की बरसात कर रहा हो। नीचे झांक कर देखा तो बहुत सारे लोग नीचे नहा रहे थे। हमने भी गाडी वहीं खडी की और नीचे उतर गये। सौ मीटर की दूरी है मात्र। चारों और घने पेडों के बीच बडी बडी शिलाओं में बहती मां नर्मदे। वाह ! गजब का दृश्य ! कल कल बहती धारा ! मैं तो अभी उस प्रकृति की इस जादूगरी में खोया हुआ ही था कि तिवारी कहीं गायब हो गये। मैं ढूंढता रहा दिखाई ही नहीं दिये। मैं आगे बढ गया बिल्कुल उस जगह जहां धार नीचे गिर रही थी तभी निगाह पडी कि तिवारी जी ऊपर एक पहाडी पर धार के नीचे खडे हैं और कपडों सहित ही स्नान कर रहे हैं। एक पंडित को जाटों बाला काम देखकर बहुत जोर की हंसी आयी। खैर जैसे तैसे नीचे उतारा खूंचू भैया को वरना रात भर खून चूसता मेरा। नीचे उतर कर भी मन नहीं माना तो फिर मैं भी कूद पडा धारा में। पर मैं तो कपडे उतार कर ही कूदा। आधा घंटे तक गिरती हुई फुआरों में आनंद लेता रहा। झरने में नहाने में इतने मगन हो गये कि समय का पता ही नहीं चला। शाम हो चली थी। हमें लौटना भी था। जल्दी से ऊपर आये। पर तिवारी जी को एकबार फिर बंदरों ने घेर लिया। हहह जैसे तैसे निकाल कर लाया। अंधेरा हो चला था। अभी शहडोल लौटना था। शहडोल बाले रास्ते में दो घने जंगल घाट भी पार करने थे निकलना ही बेहतर था। पर तिवारीजी को भूख लग आयी थी और फिर उनके कपडे भी गीले थे। कपिलधारा पर ही ऊपर आते ही बहुत सारे ढावे हैं। यादव ढावे पर बैठकर खाना भी खाया और कपडे भी सुखाये । भले ही रात हो चली थी लेकिन अमरकंटक की सुखद यादों में उस जंगल का पता ही नहीं चला और रात बारह बजे तक हम शहडोल बापस आ गये।










Amarkantak tour : शहडोल से अमरकंटक की ओर रवाना

अब चलते हैं मां नर्मदा की जन्मदात्री पवित्र भूमि अमरकंटक की ओर। हालांकि रिमझिम रिमझिम बूंदा बांदी जारी थी कितुं अनंत तिवारी जी को इस बार कुछ अलग करना था। कुछ ऐडवेंचर टाईप। स्कार्पियो की जगह बाइक चुनी करिज्मा। करिज्मा शानदार बाइक है रीयली।



 दोनों भाईयों ने सुवह ही सुवह दो दो इडली बडा खींचे और निकल लिये अमरकंटक की ओर।



 शहडोल से अमरकंटक लगभग 125 km पडता है। शुरू के साठ किमी निकलने के बाद पठारी उतार चडाव शुरू हो जाते हैं और वहीं से शुरू होता है सफर का असली रोमांच। अभी ज्यादा आगे भी न बढ पाये थे कि हमको देवहरा से पहले ही केरर घाट की चढाई करनी पडी। मऊआ और टीक के पेडों के बीच सांप सी रेंगती सडकें और रिमझिम वारिष में बलखाती हमारी करिज्मा करिश्मा ही कर रही थी। उस आनंद को शायद शब्दों में न बयां कर सकूं मैं क्यूं कि ये आनंद तो आत्मिक अनुभूति है जो एक प्रकृतिप्रेमी ठीक बैसे ही फील करता है जैसे कोई ईश्वर का भक्त खुद को खुदा में खो देने पर करता है। मेरे हिसाव से तो सनातनी शिव की प्राप्ति भी ऐसी ही जगह हो सकती हैं जहां चारों ओर घने वृक्षों की हरियाली ही हरियाली हो और उनमें सैकडों जीव उसका गुणगान कर रहे हों। कहते हैं कि नर्मदे मां के हरेक कंकर में शंकर है। और हो भी क्यूं न ? आखिर उसी की तो बेटी है मां। पर आत्मा से परमात्मा के मिलन की घडी चिर स्थायी न रह सकी। स्वार्थी मनुष्य आत्मा की सुनता ही कब है जो परमात्मा की सुने। हम घाट पार कर अभी देवहरा पहुंचे ही थे कि पता चला कि कोयला पाने के लिये सडक को काट दिया गया है। कोल सिम को काटने के लिये सैकडों जेसीवी मशीनों को जमीन चीर देने के लिये उतार दिया गया है। हमारी बाइक रुक गयी और धरती मां के साथ किये गये इस मजाक को देखने हम भी नीचे उतर पडे। यहां प्रचुर मात्रा में कीमती खनिजों का मिलना, इस सुरम्य प्राकृतिक सुषमा के लिए दुश्मन साबित हो रहा है। तेजी से कटते जंगलों, कंक्रीट के जंगलों की बढ़ोतरी और खदानों से बाक्साइट के अंधाधुंध उत्खनन के चलते यह पावनभूमि तिल  तिल विनाश और आत्मघात की ओर अग्रसर है। हमने उन पावन वनों को काट डाला है जिनमें शिव का वास है और पशु-पक्षियों को खदेड़ दिया है या मार डाला है। धरती मां के साथ यह कैसा विश्वासघात है, हमारी तो समझ से परे है। मैकल पर्वत श्रेणी की अमरकंटक पहाड़ी समुद्र की सतह से कोई 3,500 फीट ऊंचाई पर है। अमरकंटक के जिन घने अरण्यों का वर्णन प्राचीन साहित्य में मिलता है, उनकी हरियाली अब यहां देखने को नहीं मिलती है। इस विनाश का मुख्य जिम्मेदार यहां की जमीन में पाया जाने वाला एल्यूमीनियम का अयस्क 'बाक्साइट" और कोयले की सिम है। पर्यावरण के सबसे बड़े दुश्मन मनुष्य ने अपनी भौतिक सुविधाओं की खातिर इस तपोभूमि को यहां-वहां खूब उजाड़ा। जंगल के जंगल साफ कर दिये।  डायनामाइट लगाकर गहराई तक जमीन को छेदा गया। प्राकृतिक संतुलन बनाए रखने में सहायक पहाड़, पेड़ और कई छोटे-बड़े जल-स्रोत इस खनन की चपेट में आ गए। मुझे अचानक से ट्रैन में ज्ञान वघारते उस ज्ञानी की याद आ गयी जो उत्तराखंड त्रासदी के लिये हनीमून को जिम्मेदार ठहरा रहा था। हमें ऐसे पाप क्यूं नहीं नजर आते जो स्वार्थी मानव हर रोज कर रहा है। यदि यही हाल रहा तो पुण्य सलिला नर्मदा मां का अस्तित्व भी खतरे में आ जाएगा।
देवहरा के बाद राजेन्द्रग्राम का घाट पार करने के बाद हमें अगला पठार मिला , अमरकंटक का पठार , एक बिध्यांचल तो दूजी तरफ सतपुडा। बहुत ही सुंदर दृश्य। मनमोहक। पठार की विशेषता ही ये है कि ऊपर चढने के बाद एकदम समतल सा दिखाई देता है। अभी अमरकंटक से आठ दस किमी ही पहले थे कि एक बहुत बडा औषधि पार्क नजर आया। तिवारी जी ने बताया कि यहां हिमालय से भी कीमती जडीबूटियां प्राप्त होतीं हैं। अमरकंटक की औषधीय वनस्पतियाँ निसंदेह मानवजाति के लिये परमपिता परमेश्वर शिवजी की बेटी मां नर्मदे का प्रसाद है जिसके हर कंकर में शंकर समाहित है। अमरकंटक बहुत से आयुर्वेदिक पौधों के लिए  प्रसिद्ध है‍, जिन्‍हें  जीवनदायी गुणों से भरपूर माना जाता है। पांच नदियों के उद्गम अमरकंटक के चप्पे-चप्पे प्राकृतिक सौंदर्य, ऐतिहासिकता और समृद्ध परम्पराओं की सुगंध देते हैं। अमरकंटक एक तीर्थस्थान व पर्यटन केंद्र ही नहीं, बल्कि प्राकृतिक चमत्कार भी है। हिमाच्छादित न होते हुए भी यह पांच नदियों का उद्गम स्थल है जिनमें से दो सदानीरा, विशाल नदियां हैं जिनका प्रवाह परस्पर विपरीत दिशाओं में है। अभी थोडा सा ही आगे बढे तो दांयें हाथ पर श्री ज्‍वालेश्‍वर महादेव मंदिर का बोर्ड लगा देखा। मुस्किल से एक किमी की दूरी तय करके हम मंदिर पहुंचे तो चारों तरफ से हरी भरी वादियों, खेतों और घने पेडों को देखकर जैसे आत्मा तृप्त हो गयी और साथ ही भोले के नाम पर की जा रही दुकानदारी देख कर थोडा मन खिन्न भी हुआ पर कुल मिलाकर भोले अभी जीवित हैं, भले ही फूल मालाओं , प्रसाद की थैलियों और पैसों के ढेर के वीच से सांस लेने का प्रयास कर रहे हों। यहीं से अमरकंटक की तीसरी नदी जोहिला नदी की उत्‍पत्ति होती है जिसकी वजह से सौन और नर्मदा के बीच खटास बढी और नर्मदा रुठ कर पहाडों को काटकर लैंडस्लाईडिगं करती हुई विपरीत दिशा में चली गयी मानी जाती है।
पुराणों में इस स्‍थान को महा रूद्र मेरू कहा गया है। माना जाता है कि भगवान शिव अपनी पत्‍नी पार्वती से साथ इस रमणीय स्‍थान पर निवास करते थे। मंदिर के निकट की ओर सनसेट प्‍वाइंट भी है और यहीं होकर निकटतम रेलवे स्टेशन पेन्ड्रा के लिये सडक निकलती है। चारों तरफ की हरियाली में साक्षात भोले के दर्शन करने और उसे नमन करने के बाद पंडों के पीछे दबी दम घुटती मूर्ति के दूर से ही हाथ जोडने के बाद हम निकल पडे सीधे पावन भूमि अमरकंटक की ओर ।
अमरकंटक नर्मदा नदी, सोन नदी और जोहिला नदी का उदगम स्थान है। यह मध्य प्रदेश के अनूपपुर जिले में स्थित है। यह हिंदुओं का पवित्र स्थल है। मैकाल की पहाडियों में स्थित अमरकंटक मध्‍य प्रदेश के अनूपपुर जिले का लोकप्रिय हिन्‍दू तीर्थस्‍थल है। समुद्र तल से 1065 मीटर ऊंचे इस स्‍थान पर ही मध्‍य भारत के विंध्य और सतपुड़ा की पहाडियों का मेल होता है। चारों ओर से टीक और महुआ के पेड़ो से घिरे अमरकंटक से ही नर्मदा और सोन नदी की उत्‍पत्ति होती है। नर्मदा नदी यहां से पश्चिम की तरफ और सोन नदी पूर्व दिशा में बहती है। यहां के खूबसूरत झरने, पवित्र तालाब, ऊंची पहाडियों और शांत वातावरण सैलानियों को मंत्रमुग्‍ध कर देते हैं। प्रकृति प्रेमी और धार्मिक प्रवृत्ति के लोगों को यह स्‍थान काफी पसंद आता है।