Monday, October 31, 2016

My Nepal bike tour part 4

नेपाल बाइक टूर : चौथा दिन (23 October)
भालुबांग से लुम्बिनी कपिलवस्तु बुटवल और लुमांग ।।

नेपाल यात्रा का तीसरा दिन काफी उत्साहवर्धक एवं रोमांचक रहा। कुछ नया देखने की जिज्ञासा में दो सौ पचास किमी ही बाइक चलाया। राप्ती नदी के किनारे भालुबांग नामक स्थान पर रात बिताने के बाद सुवह चार बजे ही जग गया लेकिन उजाला होने का इंतजार करने लगा। बैसे भी लुम्बिनी कपिलवस्तु बस भालुबांग से सौ किमी दूर है। दो घंटे में कवर कर लूंगा, सोच कर पडा रहा। भारत की तैवीस अक्टवर थी जबकि नेपाल की सात तारीख पर सर्दी बिल्कुल भी नहीं। सुवह चार बजे से नहा धोकर बनियान में लेटा था पर सर्दी का नामोनिशां नहीं।
राप्ती नदी के किनारे भालुबांग नामक गांव में रात गुजारने के बाद लुम्बिनी के लिये सुवह जल्दी ही निकलने का विचार था। लुम्बिनी अभी करीब सौ किमी दूर था। सोचा था कि सुवह चार बजे ही निकल लुंगा कितुं राप्ती नदी के बाद एक बडा पहाड और जंगल पार करना था। अंधेरे में निकलना खतरनाक हो सकता था। सुवह चार बजे ही नहा धोकर उजाले का इंतजार करने लगा। जैसे बौर्डर फिल्म में एअर फोर्स औफीसर जैकी श्राफ के लिये एक एक मिनट भारी पड रही थी और रात के अंधकार की बजह से उडान भरने में दिक्कत मेहसूस कर रहा था, उसी प्रकार मैं भी बार बार बाहर निकल कर उजाले का इंतजार कर रहा था। इंतजार करते करते आखिरकार करीब छ बजे थोडा सा उजाला हुआ और मैं निकल पडा। जैसे ही राप्ती नदी पार कर घने जंगल भरे पहाड पर चडना शुरू किया कि सर्दी लगने लगी। मुझे वाईक रोक कर गर्म इनर निकालना पडा और बजाय अंदर के उसे कुर्ते के ऊपर ही पहन लिया। करीब एक घंटे बाद चौनुटा नामक जगह पर जाकर पहली बार भाष्कर भगवान के दर्शन हुये। शरीर में थोडी गर्माहट आयी तो जान में जान आयी। करीब चालीस किमी के बाद पहाड खत्म हुआ। उसके बाद करीब चालीस किमी और चलने के बाद बुढ्ढी नामक जगह से थोडा और चलकर गौरूसिंहे से आगे सीधे हाथ पर तिलोरांकोट होते हुये कपिलवस्तु और लुम्बिनी के लिये रास्ता कट जाता है कितुं यह रास्ता थोडा खराब है। पूरे रास्ते पर गिट्टी और कंकड भरे पडे हैं लेकिन तिलारांकोट नामक जगह पर जाना जरूरी था क्यूं कि यही वो जगह है जहां शाक्य मुनि गौतम बुद्ध का दरवार चला करता था जहां उन्होने अपना बचपन बिताया था। हालांकि उनका जन्म करीब पच्चीस किमी दूर लुम्बिनी में हुआ था पर यहां उनके पिता की राजधानी हुआ करती थी। गौरुसिंहे तौलीहंवा रोड पर आगे बढते हुये जैसे ही बाणगंगा नदी का पुल पार किया एक तिराहा सा मिला। लोकल लोगों से पूछा तो बताया कि यहां दरवार है महाराज का। आज भी दो शताब्दी पहले की ईंटों के अवशेष यहां मौजूद हैं। वो तालाब भी मौजूद है जिसमें वो स्नान किया करते थे। हालांकि इस पर विवाद है। इसी से सटा हुआ पिपरहंवा नामक स्थान है जो भारतीय सीमा के कपिलवस्तु में आता है। भारत सरकार का दावा है कि शाक्य गणराज्य का असली दरवार वही है।
भले ही भारत और नेपाल के लोग बहां अधिक न आते हों कितुं थाईलैंड चीन जैसे बौद्धिष्ट देशों से बहुत पर्यटक यहां आते हैं। पार्क में घुसते ही मेरी मुलाकात दो छोटे से दोस्तों से हुयी। कैलाश शाहनी और घनश्याम चौहान नाम था उनका। कैलाश की उम्र भले ही कम थी पर उसे उस जगह की पूरी नौलिज थी। बिना किसी स्वार्थ के मुझे जानकारी देने लगा तो मैंने उसे अपने साथ ले लिया और फिर उसने मुझे पूरा परिसर घुमाया। परिसर में करीब दो हजार साल पुराना देवी का मंदिर भी था जिसमें बहुत सारे हाथी ही हाथी बने हुये थे। देवी का मंदिर पीपल के वृक्ष के तने के सहारे ही बना था। करीब एक घंटे में पूरा परिसर घूमने और उन नन्हे नन्हे दोस्तों को उनकी मेहनत का कुछ फल देकर मैं लुम्बिनी वन के लिये आगे बढ गया। थोडा ही आगे चलकर तौलिहंवा कपिलवस्तु शहर आ गया जहां से रोड एकदम मस्त आ गयी थी और गाडी दौडने लगी थी पर कपिलवस्तु में ऐसा कुछ भी नहीं था जिसे देखने के लिये गाडी रोकी जाय।
पूरे नेपाल में मैंने एक चीज नोट की कि लोग बेहिचक गाडी पार्क कर हैलमेट उसी पर रख चले जाते हैं और उसे कोई छूता तक नहीं है। बहुत ईमानदार लोग हैं नेपाली। भारत में तो न तो हैलमेट मिलेगा और न गाडी।
कपिलवस्तु से सीधे लुम्बिनी वन के लिये निकल पडा जो बहां से करीब पैंतीस किमी दूर था। सुवह के नौ बजे थे और हल्की हल्की सर्दी का एहसास भी हो रहा था। रास्ते में ढेरों स्कूल जाते बच्चे भी मिले तो खेतों में हल चलाते किसान भी। यहां अब भी लोग बैलों की जोडी से खेत जोतते हैं हालांकि कुछ जगह ट्रैक्टर भी चल रहे थे। सडक के दोनों ओर धान के खेत । कुछ हरे भरे तो कुछ पके हुये। किसान फसल काटते हुये भी मिले। ये इलाका पूरी तरह मैदानी है। बुटवल तक ऐसा ही है। बुटवल से पहाडों की शुरूआत होती है। यहां के लोगों के चेहरों की बनाबट भी भारतीय ही है। भाषा तो नेपाली ही है पर पहाडी नेपाली से थोडी अलग। भारतीय सीमा का पूरा असर है यहां पर। कपडे, रहन सहन और खानपान सब कुछ भारतीय ही है और सबसे बडी बात ये थी कि मुझे हर दस कदम पर पान की दुकान मिल रही थी जिसके लिये कि मैं पोखरा काठमांडू जैसे पहाडी क्षेत्रों में तरष गया था।
लुम्बिनी पहुंचने में मुश्किल से एक घंटा लगा होगा। लुम्बिनी भगवान बुद्ध की जन्मस्थली है। यह जगह गोरखपुर के उत्तर-पश्चिम से 124 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहीं पर प्रसिद्ध अशोक स्तम्भ स्थित है। इसके अलावा यहां भगवान बुद्ध की माता महामाया का मंदिर भी स्थित है। लुम्बिनी नेपाल की तराई में पूर्वोत्तर रेलवे की गोरखपुर-नौतनवाँ लाइन के नौतनवाँ स्टेशन से 20 मील और गोरखपुर-गोंडा लाइन के नौगढ़ स्टेशन से 10 मील दूर है। यहाँ के प्राचीन विहार नष्ट हो चुके हैं। केवल अशोक का एक स्तम्भ है, जिस पर खुदा है- 'भगवान्‌ बुद्ध का जन्म यहाँ हुआ था।' इस स्तम्भ के अतिरिक्त एक समाधि स्तूप भी है, जिसमें बुद्ध की एक मूर्ति है। नेपाल सरकार द्वारा निर्मित दो स्तूप और हैं।
आज लुम्बिनी न केवल ऐतिहासिक बल्कि सांस्कृतिक धरोधर है। यूनेस्को ने बहुत सारे देशों के बौद्ध स्तूप यहां बनाये हैं। पूरे क्षेत्र को एक बाउन्ड्री वाल से पैक भी कर रखा है जिसके नौ गेट हैं और हर गेट पर सुरक्षा अधिकारी तैनात हैं। मैंने नौ नंबर गेट से प्रवेश किया और एक के बाद एक बौद्ध शांति स्तूपों में भ्रमण करते हुये अंत में बहां जा पहुंचा जहां महात्मा बुद्ध का जन्म हुआ था। काफी बडे क्षेत्र में फैला हुआ यह परिसर हरे भरे पेड पौधों से और सुंदर जान पडता है। बहुत सारे देशों के सुंदर सुंदर स्तूप हैं जहां आपको उन देशों की पूरी सांस्कृतिक झलक देखने को मिलेगी।
मायादेवी मंदिर मुख्य स्थल है। जन्म स्थान को एक बडे हाल में बंद कर रखा है जिसमें प्रवेश का दस रुपया टिकट लगता है। अदंर प्रवेश करने के बाद प्राचीन ईंटों के बहुत सारे गोल स्तूप , सम्राट अशोक का लिपि लिखा स्तंभ और पीपल का बौधि वृक्ष नजर आये। माया देवी मंदिर के अंदर दूसरी शताब्दी पहले की ईंटो का बना एक खंडहर है जिसे संरक्षित रखा हुआ है।
विचार देने बाला तो चला जाता है पर लोग वही काम करने लग जाते हैं जिसमें उनका स्वार्थ छिपा होता है। खंडहर पर लाखों रुपयों का ढेर लगा था। फोटो खींचने की मनाही थी। वही पंडित और वही पूजा पाठ और वही चडावा। बस थोडा रुप बदल गया था पूजा पाठ का। जिस बात का बुद्ध ने विरोध किया था वही कार्य आज उनके नाम पर हो रहा था। विचार देने बाला तो चला गया पर दुनियां बैसे ही चलती रही। इस परिसर में चीन थाईलेंड कम्बोडिया कोरिया जैसे बहुत सारे देशों के बहुत भव्य स्तूप हैं। एकदम शानदार। चारों तरफ घने पेड। बीच में बहती एक बडी और चौडी नहर जिसमें वोटिगं भी होती है। मात्र पच्चीस रुपये में।इस पूरे परिसर में वाईक या रिक्शा का होना बहुत जरूरी है वरना पैदल तो थक जाओगे। बहुत लंबा चौडा परिसर है ये। वाईक से घूमने में भी करीब दो घंटे लगे मुझे।
इस परिसर को बहुत अच्छे से जानने एवं सभी संस्कृतियों को जीने के लिये आपको यहां कुछ दिन रुकना होगा। सुकून और शांति प्राप्त करने के लिये इससे वेहतर और कोई स्थान हो ही नहीं सकता। जब भी मन उदास हो, व्याकुल हो अशांत हो तो बस एक ही शब्द गूंजता है," बुद्धम शरणम गच्छामि "
कपिलवस्तु हैडक्वार्टर तौलिहंवा है जो यूनेस्को बर्ल्ड हैरीटेज साईट और बुद्ध की जन्म स्थली लुम्बिनी से मात्र पच्चीस किमी दूर है।
महात्मा बुद्ध के पिता शुद्धोधन के प्राचीन शाक्य गणराज्य को भारत नेपाल सीमा ने विभाजित कर दिया है। सिद्धार्थनगर और कपिलवस्तु सीमा के इस पार भी हैं तो उस पार भी।
Faxian और Xuanzan जैसे बौद्धिस्ट इतिहासकारों ने इस पर लिखा तो लोगों तक बात पहुंची। भारतीय सिद्धार्थनगर के पिपरहवा को भी शुद्धोधन की राजधानी होने की मान्यता प्राप्त है। यह पूरा क्षेत्र कालानमक नामक बढिया चावल के लिये भी जाना जाता है।
दोपहर के बारह बजे थे और लुम्बिनी परिसर पूरा घुमा जा चुका था तो सोचा क्यूं न बुटवल होते हुये पोखरा के लिये निकल लिया जाय। लुम्बिनी से बुटवल की तरफ आगे बढते हुये बहेरंवा नामक जगह पर सौनोली बौर्डर से आती हुई सडक पर मिल जाते हैं और वहीं से खराब रोड शुरू हो जाता है। इतना खराब कि बस पूछो मत। पूरा धूल और गिट्टी बस। करीब दस किमी तक ऐसे ही धूल दूषरित होता रहा। बुटवल से थोडी स्पीड बढी ही थी कि सामने एक बडा और ऊंचा पहाड नजर आया। पता चला कि यहां से आगे अब बस पहाड ही पहाड हैं। करीब एक सौ पचास किमी चलना था अभी। वाईक रोक कर एक क्विक सर्विस करायी और निकल पडा पोखरा की ओर। पहाडों में वाईक तो मैंने अपनी रोहतांग यात्रा में भी चलायी थी पर ऐसा अनुभव बहां नहीं हुआ। बहां डबल रोड था और रोड भी नया था। गाडी भी एक सौ पचास सीसी की थी पर यहां तो सब उल्टा पुल्टा था। सिंगल रोड और वो भी पूरा टूटा फूटा। गाडी भी सौ सीसी की। पहाडों के मोड भी वहुत खतरनाक। एक सेंकड भी नजर इधर उधर चली जाय तो समझो गये भगवान के पास। रोड के सहारे सहारे एक तरफ गहरी खाई और उसमें बहती हुई नदी और दूजी तरफ ऊंचा पहाड। सिंगल रोड पर दोनों तरफ से आती जाती गाडियों का काफिला। यहां लोग वाईक्स बहुत रखते हैं। रोड पर बाईक्स की लाईन लगी थी। पर थीं जानदार । कोई भी दो सौ तीन सौ सीसी से कम न होगी। मेरी गाडी और उसका नंबर देखकर सैकडों की निगाहें ठहर गयीं थी। सबकी जुबां पर बस एक ही प्रश्न ,
" इतनी दूर से और  इस बाईक पर ?"
फिर भी मैंने तीस की ऐवरेज तो निकाल ही ली। करीब साठ किमी चलने के बाद अंधेरा हो चला था। सुवह से वाईक चला रहा था। थकान भी बहुत थी। रात में इस खतरनाक रोड पर आगे बढना खतरे से खाली न था। रुकना ही वेहतर होगा। मालुंग नामक स्थान पर एक लौज देखकर पडाव डाल दिया। अभी यहां से करीब सौ किमी और चलना था जिसे पार करने में करीब तीन घंटे और लगेंगे।

6 comments:

  1. सत्यपाल जी आपकी लेखनी दमदार है। विवरण भी जबरदस्त है।पढ़ने वाला कहीं बोरियत महसूस नही करता।

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  2. मुझे एक बात समझ नही आई आप ब के स्थान पर व का प्रयोग क्यों कर रहे हैं।जैसे: वाइक,वेहतर,सुवह आदि।

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    1. मैं खुद परेशान हूं इस गलती से । समझ नहीं आ रहा कैसे सुधारें

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  3. भाई साहब थोडा सा ध्यान देने पर सुधार हो जाएगा।आदत भी सुधर जाएगी

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  4. मजा आ रहा है पढने मे साथ ही पढते पढते प्लान भी बन रहा है जाने का

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