Saturday, December 15, 2018

उत्तराखंड चार धाम बाइक यात्रा से बापसी ।।

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इस यात्रा में पंजाबियों ने दिल जीत लिया मेरा। पिंडारी नदी ने जैसे ही कर्णप्रयाग में अलकनंदा से मेल मिलाप किया और मैं बद्रीनाथ की राह पर दौडने लगा तो देखा कि खालसा झंडा लगाये पचास पंजाबी बाइकर्स मेरे आगे और पीछे भी पचास बाइकर्स दौडे जा रहे थे। जगह जगह लंगर चल रहे । पकड पकड कर खिलाये जा रहे। पेट ओवरफुल होता। मैं हाथ जोडकर वाहे गुरू बोल देता तो वह भी हाथ जोडकर बोल देते कि पुत्तर जी चाह ही पी लै और कुछ नहीं तो एक कटोरी खीर ही खा लै। ऐसी प्रेम की विनती कौन ठुकरा सकता है ? भले ही कुछ न खाता । वर्तन साफ करने की सेवा करके ही संतुष्टि पा लेता पर रुकता जरूर। पूरी यात्रा में अब तक गुरुद्वारों में ही तो रुका था मैं। हेमकुंड साहिब एवं फूलों की घाटी भी बद्रीनाथ जी के बगल ही हैं। शायद ही कोई पंजाबी हो जो बद्रीनाथ में मुझे न मिला हो। चार पहिया वाहनों की भी लाईन लगी पडी थी। गुरू के बताये मार्गों पर चलने की चाह बहुत प्रबल थी। मैं बीस किमी पैदल चलने के डर से हेमकुंड साहब को दूर से ही नमन कर आया था पर अगली बार मैं केवल हेमकुंड साहिब ही जाऊंगा और परिवार सहित जाऊंगा। गुरूनानक साहब ने एक ईश्वर और गुरूओं की पवित्र वाणी का मार्ग दिखाया था और पंजाबियों ने उसे बखूवी निभाया भी लेकिन उनके मन में किसी अन्य के प्रति कोई हीन भावना नहीं आयी। भले ही पांडित्य कर्मकांड और तमाम तरह की धार्मिक औपचारिकताओं से अलग शुद्ध एकेश्वरवाद का उन्हौने रास्ता बताया हो लेकिन कभी किसी को नफरत करने को नहीं बोला। जो भी जैसे भी जिस रुप में भी उस परमपिता परमेश्वर को माने उसका सम्मान करो।  भारतीय संस्कृति और प्रकृति के उपहारों के प्रति प्रेम बना ही रहा। नाचना गाना मौज मस्ती संगीत घुमना फिरना तीर्थ यात्रायें करना लंगर लगाकर भूखे लोगों का पेट भरना, बेसहारा लोगों को रात में ठहराना आदि कार्यों ने उन्हें मानव धर्म के उच्चतम पायदान पर लाकर बिठा दिया। लौटते समय ऋषिकेश में दो बेटे अपने पिता के साथ प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद लेते और पारिवारिक बातें करते नजर आये। उनकी खुली जीप मुझे पंसद थी। मैं रुककर देखने लगा। उत्सुकतापूर्वक सरदारजी ने मुझसे कहा," ओये पुत्तर राजस्थान से ?" 
" हंज्जी सरदार जी, मुझे ऐसी ही गाडी चाहिये घुमक्कडी के लिये। सच पूछो तो मुझे पंजाब की हर चीज पंसद है। पंजाब की मिट्टी नदियों खानापीना से लेकर गुरूओं तक। पंजाब के लोग मेरे दिल में बसते हैं।" बस इतना कहने की देर थी कि ऋषिकेश स्थित अपने घर ले जाने की जिद करने लगे। बोले ," चल घर चल चाह पीते हैं। मैं बोला," नहीं जी मुझे चाय नहीं लस्सी पंसद है।"  कोई बात नहीं तुझे चाय नहीं लस्सी पंसद है तो चल तुझे लस्सी ही पिलाऊंगा। आज मेरे घर रुक । सुवह निकल जाना। धौलपुर बहुत दूर है। मैं रुका तो नहीं लेकिन उनकी भावनाओं ने मुझे मालामाल कर दिया । मैं रास्ते भर बस यही कहता रहा " सिंह इज किंग "


इस सृष्टि को चलाने वाली एक परम सत्ता है, ऐसा मेरा अटूट विश्वास है। मेरा भरोषा है उस पर इसलिये मेरी अक्सर उससे बात और मुलाकात होती ही रहती है। बद्रीनाथ जी से चमोली तुंगनाथ होते हुये गुप्तकाशी केदारनाथ जी की तरफ बढ रहा था कि रोड पर एक गरम शाल दिखाई दी। आसपास कोई न दिखा तो उठाकर गाडी पर रख ली। आगे जा रही बस की खिडकी पर बैठी सवारियों से भी पूछा लेकिन उत्तर ना में ही मिला। चूंकि मेरे पास पहले से ही गरम जैकेट और शाल आदि कपडे थे तो ये तो तय था कि ईश्वर ने वह शाल मेरे लिये नहीं बल्कि मेरे माध्यम से किसी अन्य जरूरतमंद के लिये ही भेजी थी। अत: मेरी निगाहें केदारनाथ मंदिर तक उस जरूरतमंद इंसान को ढूंडती रहीं, सैकडों गरीब फकीर संत आदि मिले भी लेकिन मैंने भी सोच रखा था जब तक मेरे दिल की गहराईयों से आवाज न आयेगी , मैं यह शाल किसी को न दूंगा। मौसम खराब होने के कारण एक दिन मुझे नीचे सोनप्रयाग में ही रुकना पडा तो दूसरे दिन ऊपर मंदिर के बगल सरकारी टैंट में। दोनों ही रात उस शाल ने मेरी जान बचायी। लौटते समय आधा रास्ता कटने के बाद एक टीनसेड के नीचे रिलैक्स ले रहा था कि अचानक से घनघोर वर्षा शुरू हो गयी। तेज हवाएं चलना शुरू। भयंकर सर्दी । ठंड में कांपने लगा। रेनकोट की बजह से भीगा तो नहीं ठंड खूब लग रही थी। धीरे धीरे भीड हो चली थी इसलिये काफी लोग खडे हुये ही थे कि तभी एक टोकरी में एक अस्सी वर्षीय बुजुर्ग को बिठाकर लाने बाला पिट्ठू बहां रुका। बुजुर्ग ठंड से कांप रहे थे। खडा भी नहीं हुआ जा रहा। मैं तुरंत अपनी कुर्सी से खडा हो गया और उन्हें बिठा दिया। थोडी ही देर की बातों में पता चल गया कि कृष्णामूर्ति नाम के वो सज्जन विशाखापट्टनम के जाने माने बकील हैं, हिंदी बोलने में कठिनाई मेहसूस कर रहे थे तो हमारा वार्तालाप अंग्रेजी में ही हुआ। पत्नी स्वर्गवासी हो चुकी थी। बेटा बेटी कनाडा में किसी कंपनी में हैं। विशाखापट्टनम के एक बडे बंगले में अकेले रहने बाले कृष्णमूर्ति हैं। गुप्तकाशी के होटल में रुके थे । अन्य साथियों के साथ हैलीकौप्टर से ही आये थे लेकिन मौसम खराब होने से उडान रद्द हो गयी और मजबूरन टोकरी पिट्ठू लेना पडा। एक तो उम्र का तकाजा और दूसरे उनके गरम कपडे भी रूम पर छूट गये थे, ठंड में बुरी तरह कांप रहे थे कि तभी मेरे दिल से आवाज आयी कि यही है वो आदमी जिसको तू ढूंड रहा था। मैंने तुरंत शाल निकाली और उन्हें उढा दिया। तब भी उनका कांपना बंद न हुआ। मैंने तुरंत अपने रेनकोट के नीचे पहनी हुई गरम जैकेट उतारी जो मैंने मनाली से अपनी रोहतांग यात्रा में खरीदी थी और वह भी उन्हें पहना दिया। गरमा गरम चाय पिलाई । अब धीरे धीरे वर्षा भी कम होने लगी। वर्फीली हवाएं भी थम गयीं। वह सज्जन भी अब नौर्मल स्थिति में आने लगे। अब चूंकि शाम होने लगी थी और मुझे पैदल ही उतरना था। सोनप्रयाग पहुंचने में कम से कम चार घंटे तो लगने ही थे। हल्की हल्की वर्षा में भी चलने का मूड बना चुका था। गरम शाल तो भोले बाबा ने मेरे माध्यम से उनके लिये ही भेजी थी पर अब ठंड में कांपते बुजुर्ग से अपनी जैकेट कैसे मांगू ? बडी अनिश्चय की स्थिति थी । मैं बिना जैकेट लिये चलने लगा तो वे तुरंत मुझे शाल और जैकट देने लगे। मेरे दिल ने स्वीकार नहीं किया। बार बार दिल में बस यही खयाल आये कि इस बुजुर्ग की जगह आज मेरे बाबूजी होते तो क्या मैं उनसे ये कपडे बापस लेता ? क्या मैं उन्हें ठिठुरता छोड देता ? लेकिन वह भी लौटाने की जिद पर अड गये। काफी देर की जद्दोजहद के बाद उन्हौने जैकट रखना स्वीकार कर लिया और गरम शाल लौटा दी। 
अरे ये क्या ! शाल तो फिर बापस आ गयी मेरे पास ! तो फिर भोले ने ये किसके लिये भेजी थी ? बस यही सोचता हुआ नीचे सोनप्रयाग आ पहुंचा। रात को जैकेट के बिना ठिठुरता हुआ सोया। ठंड में नींद किसे आती है। जैसे तैसे सुवह के पांच बजाये। पांच बजते ही बाइक लेकर घर की तरफ निकल पडा। गुप्तकाशी में ही नहाना धोना हुआ और साथ में उन सज्जन से मिलने की कोशिष भी हुई पर एक बार बात होने के बाद दूसरी बार नेटवर्क प्रोब्लम की बजह से बात न हो पायी। काशी विश्वनाथ में मत्था टेक कर सीधे घर की तरफ रवाना हो लिया लेकिन एक प्रश्न अब भी दिमाग में था कि आखिर ये शाल किसके लिये भिजवाई है भोले ने ? खैर जल्द ही वो इंसान भी मिल गया। नदी के किनारे अर्धनग्न अवस्था में पैदल चला आ रहा एक भक्त अपनी धुन में खोया ऊपर चढा आ रहा था कि मेरे दिल से आवाज आयी कि यही है वो आदमी। मैंने उससे पूछा ,
" बाबा किसके पास जा रहे हो ?"
बडा सा छोटा जवाब मिला ," भोले के पास " और यह कर वह अर्ध नग्न फकीर चलता बना। तभी मेरा हाथ गरम शाल पर गया और एक मिनट में वह शाल मैंने उसके नंगे ठिठुरते शरीर पर डाल दिया। सामान्यत: कोई भी आदमी मेरी इस प्रतिक्रिया पर आश्चर्य व्यक्त करता पर उसने कोई प्रतिक्रिया न दी मानो कि वह मानसिक तौर पर इसके लिये तैयार था। मानो वह मेरा ही इंतजार कर रहा था। उसने एक बार भी मुडकर मेरी और न देखा । बस अपनी धुन में आगे बढता ही रहा। इधर मैं भी अब गियर पर गियर डाले जा रही थी और मेरी गाडी अब जोश में दौडे जा रही थी अब मुझे लग रहा था कि मैं भोले का डाकिया बन कर लौट रहा हूं। विशाखापट्टनम बाले सज्जन का अब तक दस बार फोन आ चुका है। पहले वो मुझे Mr. Chahar कह कर संबोधन कर रहे थे लेकिन अब मुझे सत्यपाल बेटा बोलते हैं।

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