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Wednesday, February 1, 2017

बनारस की सैर सज्जाद भाई के साथ ।

मुगलसराय के सज्जाद अली भाई मेरे बनारस आने की सूचना पाते ही सुवह ही गंगा घाट पर आ गये। तब तक मैं स्नान करके बापस घाट पर आ चुका था। सज्जाद अली भाई के बारे में बताना चाहूंगा कि ये मेरे फेसबुक जीवन के शुरूआती मित्रों में से हैं। मैं इनकी शुद्ध और सात्विक हिंदी का बहुत कायल हूं। इनके बराबर क्लिष्ट हिंदी का प्रयोग अभी तक नहीं देखी थी। धर्म और अध्यात्म पर गहन पकड रखते हैं। चर्चा करते समय इनकी अधिकांश बातें मेरे ऊपर होकर निकल जातीं थीं। बहुत अनुरोध किया तब जाकर कुछ सरल हिंदी पर आये हैं। सनातन हो या इस्लाम धर्म पर यदि ज्ञान विमर्श करने के इच्छुक हों तो सज्जाद अली भाई को जरूर पढें। पूरे धैर्य के साथ अपने ज्ञान से आपको संतुष्ट करेंगे।
स्नान करने के बाद हम लोग पूरा घाट एवं मंदिर की गलियां घूमते घुमाते हुये बाजार पहुंचे जहां मैंने भोजन किया। सज्जाद भाई ने मुझे पैसे भी न देने दिये। पाठक बंधु सोचते होंगे कि ये दोस्तों की मुफ्त रोटी तोडने ही दोस्ती करता है। अब कैसे बताऊं कि एक बार जब दिल मिल जाय तो ये सब चीजें बहुत छोटी नजर आतीं हैं। मुझे अब भी याद है कि उस भोजनालय का बिल चुकाने के लिये भी मुझे सज्जाद भाई से कुस्ती सी लडनी पडी थी पर भाई ने मुझे पैसे नहीं देने दिये जबकि खाना मैंने अकेले ने ही खाया था। खाने के बाद हम लोग सीधे कमरे की तरफ बढ लिये क्यूं कि सज्जाद भाई के साथ मुझे गुफ्तगू जो करनी थी। कमरे पर बैठ कर काफी देर तक धर्म एवं आध्यात्म पर बार्तालाप हुआ। मैं उनकी बातें सुनकर आश्चर्यचकित रह गया कि सनातन की इतनी गहरी जानकारी भाई को कैसे हुई ? शायद यह बनारस जैसी पवित्र नगरी का ही असर था। दो तीन घंटे रुम पर बतियाने के बाद शाम को हम लोग एक बार फिर गंगा घाट की तरफ बढ लिये। इस बार हमने रास्ता दूसरा चुना। मुस्लिम बाहुल्य गलियां थीं। इसी बाजार में बनारस की कुछ फेमस लस्सी एवं मिठाईयों की दुकान थीं। सज्जाद भाई मुझे उन मिठाईयों से परिचित कराना चाहते थे। पहले तो हम दोनों ने एक एक लस्सी खींची। और फिर लोंगलत्ता के अलावा एक और मिठाई खायी और फिर बनारसी पान। सज्जाद भाई जैसे गंभीर भाई भी मुहब्बत में इतने भावुक हो जायेंगे पता नहीं था। जैसे ही मिठाई की दो प्लैट सामने आयीं भाई ने एक प्लैट साईड में सरका दी और अपनी चम्मच से ही मुझे ऐसे खिलाने लगे मानो मैं कोई दूध पीता मासूम बच्चा हूं। फिर क्या मैं भी शुरू हो गया। मुहब्बत ऐसी ही होती है। सब कुछ भुला देती है। जाति धर्म ऊंच नीच अमीरी गरीबी कुछ भी याद नहीं रहता। मुहब्बत का नशा बहुत ही तगडा होता है पर ये बात नफरत में आकंठ डूबे हुये लोगों को कभी समझ न आयेगी। 
घाट पहुंच कर गंगा आरती में भी शामिल हुये। बडा ही शानदार दृश्य था। एक तरफ सजे घाट, दीप लिये पंडितों की कतार और हजारों लोगों का जमघट तो दूसरी तरफ गंगा मैया में तैरती नावों पर बैठे हुये लोग। दूर दूर से लोग आये हुये थे। गंगा को मैं बार बार मैया इसलिये पुकारता हूं क्यूं कि मैंने इसकी पूरी यात्रा कर ली है। हरिद्वार से लेकर कलकत्ता तक मैंने इसका हर रूप देखा है। इसके किनारे बसे हुये शहरों और गावों को भी देखा है। जीवनदायनी है गंगा। लाखों लोगों को रोटी देती है ये मैया। हम दोनों घाट पर आरती में मुग्ध ही थे कि हम लोगों को ढूंढते ढांडते मेरे मित्र Nishakant Tiwari भी आ पहुंचे ।हंसी के ठहाकों के बीच विचारात्मक विरोधियों का मिलना लाजबाब था। घाट पर फेमस गंगा आरती करके हम लोग लौट ही रहे थे कि थाल सजाये एक मोटे पेट बाले तिलकधारी पुजारी ने पकड लिया। जैसे ही तिलक लगाने को आगे बढा, मैंने उसे तिवारी की तरफ सरका दिया। मैं इन कार्यों में ना तो बहुत ज्यादा रूचि रखता हूं और ना ही बहुत ज्यादा बेरूखी। कोई लगा दे तो कोई फर्क नहीं पडता और ना लगाऊं तब भी मेरा ईश्वर नहीं रूठता मुझ से। पर चूंकि मेरे पास खुले पैसे नहीं थे और मुझे पता है कि वो पुजारी कम लागत की दुकान चला रहा था, इसलिये हंसी मजाक करते हुये अपने मित्र Nishakant Tiwari की तरफ इशारा कर दिया कि ये ही पैसे देगा। पर बातों ही बातों में उस पुजारी ने ऐसी बात कह दी कि मुझे शूल की तरह लगी। कहने लगा कि पूजा करना, तिलक लगाना और धर्म कार्य तो ब्राह्मणों की जागीर है, हमारा एकाधिकार है इस पर, हमारे अलावा किसी अन्य की आरती भगवान स्वीकार ही नहीं करते।बस इसी बजह से मैं इन चोंचलों से एलर्जी से रखने लगा हूं। कमबख्तों ने दुकानदारी बना कर रख दी है। सनातन का बेडा गर्क करके रख दिया है। इन पंडों की इसी स्वार्थी मानसिकता के चलते हिन्दूधर्म के इतने विघटन हुये हैं और उन्हें इस बात की कोई चितां तक नहीं है कि हमने अपने समाज का कितना अहित कर दिया है। महात्मा वुद्ध के समय में ये मानसिकता अपने चरम पर थी , शायद यही कारण था कि महात्मा वुद्ध ने पांडित्यवाद का सख्त विरोध करते हुये हिन्दू धर्म छोड कर नया धर्म बना लिया था। वेद व्यास द्वारा रचित श्री मद भागवत और गीता भी पांडित्यवाद, अवतारबाद और वहुदेवबाद के सख्त विरोधी हैं और कर्म पर जोर देते हैं । श्री क्रष्ण ने कर्म को ही असली धर्म बताया है। उन्हौने इन्द्र समेत सभी देवी देवताओं के होने पर सवालिया निशान खडे किये हैं और उनका मजाक भी उडाया है। वो अलग बात है कि इन पंडों से जो भी टकराया है और उनकी दुकानदारी को खतरे में डाला है, उन्हौने उसी को अवतारवाद में लपेट कर उसके मूल उद्देश्य को दबा दिया है और कांजी भाई की तरह उसी की पूजा प्रारंभ कर दी है। और कर बेटा हमारा विरोध। तू हमारी दुकान बंद करेगा हम तुझे ही अपनी दुकान बना लेंगे। भले ही पांडित्यवर्ग कितना ही हिन्दू धर्म पर हावी हो पर अभी ये नौवत नहीं आयी कि कोई मुझे धार्मिक होने को वाध्य करे या किसी दलित से पूजा हवन कथा करवाने पर मेरा सर फोड दे। मुझे खुशी है कि आज तक किसी पंडे ने मुझे वाध्य नहीं किया कि हर रोज मंदिर आओ, और फिर कोई वाध्य करता भी तो मानता कौन उन मौटे मौटे पेट बाले लुटेरों की ?
मैं ऐसे पंडे पुजारियों को पैसा देने की अपेक्षा ट्रैन के डिब्बे में झाडू लगाकर पैसे मांगने बाले को देना अधिक पंसद करता हूं। कम से कम उसने कोई कर्म तो किया है। मेहनत करके मांगा है,इन निठल्ले पंडों की तरह कोई भीख तो नहीं मांगी। बनारस के घाट पर फैले हुये कुडे करकट कचरे को साफ करते हुये मैंने इन पंडो को यदि देखा होता तो मैं खुद ही इनकी थाली में खुशी खुशी भेंट चडा रहा होता।
मैं और तिवारी ने सज्जाद भाई को यहीं से विदा कर दिया और हम दोनों रुम पर चले आये थे। रात भर अपने कालेज लाईफ की यादों को ताजा करते रहे। सही कहूं तो मैं आज टीचर हूं तो इसी तिवारी की बजह से हूं वरना मैंने तो अपनी बी एड की डिग्री  नेतागीरी में गंवा दी होती।
अगले ही दिन तिवारी तो जौनपुर निकल गया और मैं सारनाथ की तरफ।