Saturday, September 9, 2017

उत्तराखंड चार धाम बाइक यात्रा: सत्य का सनातनी सफर

बाइक से निकलना मेरी मजबूरी थी जो अब मेरी जरूरत बन चुकी है। बस कार जैसी बंद गाडियों में दम घुटता है। अब तो बस ट्रैन या फिर बाइक। कभी यदि चार पहिया वाहन से जाना भी हुआ तो छत पर बैठकर ही जाऊंगा। यह मेरा सौभाग्य है कि भारत के हर छोटे बडे शहर में फेसबुक मित्र मिल जाते हैं जो मुझे बाइक उपलब्ध करा देते हैं हालांकि ज्यादातर तो मैं घर से ही बाइक लेकर निकलता हूं। एक मित्र अभी कह रहे थे कि मुझे भी अगला सत्यपाल बनना है। मैं ऐसी सलाह कभी नहीं दूंगा क्यूं कि सत्यपाल बनने के लिये पागल होना जरूरी शर्त है। घुमक्कडी के लिये पागल। न घर से लगाव और न सुख सुविधाओं से। चने खाकर भी घूम लेता हूं। जनरल डिब्बे में खचाखच भीड में एक पैर पर खडे होकर भी यात्रा कर लेता हूं। फुटपाथ पर सो लेता हूं। मैं वहां भी जाता हूं जहां अक्सर लोग जाना नहीं चाहते। मैं किसी क्षेत्र में रह रहे किसानों मजदूरों आदिवासियों के बच्चों से मिलने उनके घर पहुंच जाता हूं। मुझे मंदिर मस्जिदों गुरूद्वारों की पूजा पद्धति से ज्यादा वहां शामिल होने वाले लोगों से मिलने और उन्हें जानने में ज्यादा रुचि रहती है कि वे लोग यहां क्या पाने आये हैं। मैं देशभर के मंदिरों की खाक छानते फिरता हूं पर भगवान कभी नहीं मिलते।लोग जरूर मिलते हैं जिनके दिल में भगवान का वास होता है। आस्था स्थल तो लोगों के मिलने का एक बहाना भर है जहां सारे लोग अपने अपने दुख दर्द लेकर आते हैं। एक दूसरे के साथ शेयर करते हैं और फिर थोडा हल्का होकर चले जाते हैं।मुझे मालुम है इस पत्थर की मूरत में भगवान नहीं है। एकलव्य को भी मालुम था कि वो मूरत द्रोणाचार्य नहीं है बस एक बेजान पुतला है फिर भी उसने उसमें पूरी निष्ठा रखी और ऐसी तीरंदाजी सीख ली कि कुत्ते का मुंह भर दिया। बात निष्ठा की है। निष्ठा नहीं है तो मां बाप में भी भगवान नहीं है फिर तो हम केवल उनके यौनांनद का प्रतिफल हैं बस। अपने स्वार्थ के लिये पैदा किया है उन्हौने हमें। लेकिन अगर निष्ठा है तो हमें ये भी दिखेगा कि कैसे मां ने खुद गीले में सोकर मुझे सूखे में सुलाया था। ये भी दिखेगा कि जब जब मैं हताश या निराश होकर मरने की सोचने लगा तो पिता की मजबूत बांहों ने मुझे भर लिया जिनमें कैद होकर मैं जी भर कर रोया था और बाबूजी ने बस इतना ही कहा ," चिंता क्यूं करता है तेरा बाप अभी जिंदा है।" बस इसी एक शब्द ने जैसे मुझे नया जीवन दे दिया था तो क्यूं न मैं उनको भगवान मानूं ? तो क्यूं न पत्थर की उस मूरत को भगवान मानूं जिसकी बजह से बस टैक्सी वालों फूल पत्ती प्रसाद बेचने वालों के घर चूल्हा जल रहा है। घोडे टट्टू पर यात्रियों को ढोने वाले मजदूरों के बच्चे पल रहे हैं। जिंदगी की जद्दोजहद से मुक्त होने को वैवाहिक जोडे कुछ वक्त एक दूसरे को समझ कर नया जीवन पा रहे हैं। बुजुर्गों को कुछ वक्त मिल रहा है यह सोचने को कि उन्होने क्या खोया और क्या पाया ? और अब शेष जीवन का लक्ष्य क्या हो ? भगवान और है क्या ? यही तो भगवान है। यदि इस सृष्टि का वाकई कोई रचियता है और हम सब को चला रहा है वह भी यही सब करेगा जो इस मूरत के बहाने हो रहा है।
मित्र लोग कहते हैं कि नास्तिकों जैसी बातें करता है तो फिर सनातन छोड क्यूं नहीं देता ? दोस्त पागल हो गया है तू ! सनातन को भी कोई छोड पाया है भला आज तक ? सनातन का मतलब प्राचीन नहीं होता जो पुराना छोड नया पकड लो। सनातन का मतलब जो सदा से है और हमेशा रहेगा। जिसका न कोई आदि और न कोई अंत। जिसका कोई प्रवर्तक नहीं हुआ। जिसमें बंधन नहीं हैं। सीमायें नहीं हैं। प्रकृति का दूसरा नाम सनातन है। ऊर्जा का दूसरा नाम सनातन है। सनातन तो विशाल सागर है जिसमें न जाने कितनें धारायें आकर मिलती हैं। ईश्वरवादी अनीश्वरवादी, एकेश्वरवाद बहुदेववाद, द्वैत अद्वैत , साकार निराकार सब कुछ तो है इसमें। दुनियां का कौनसा ऐसा पंथ है जिसकी विचारधारा इसमें नहीं है। अगर अन्य से कुछ अलग है तो यह है कि इसमें किसी की आस्था को लात नहीं मारी जाती। किसी के इस्ट को गाली नहीं दी जाती। बसुधैव कुटुम्बकम की बात करते समय यह अपने पंथ की शर्त नहीं रखता।
बस यही कारण है कि मैं सनातन हूं और सत्य का सफर जारी रखता हूं। 
आसाम मेघालय की यात्रा से लौटने के बाद भी मेरी छुट्टियां बाकी थीं। मेघालय में ईसाईयों से मिला था। ये आदिवासी लोग भले ही ईसाई धर्म अपना लिये थे लेकिन अपनी मूल जडों को इन्होने नहीं छोडा है। प्रकृति और जंगल आज भी उनके लिये पूज्य है। अपनी मातृभूमि अपनी मिट्टी अपनी संस्कृति से बढकर कुछ भी नहीं। यह सेमेटिक नहीं सनातन है।सनातन में बहुत सारे पंथ हैं । बहुत सारी पूजा पद्धति है लेकिन प्रकृति मुख्य है जो सबको जोडे रखती है। 
बच्चे अपने ननिहाल गये थे। सोचा उत्तराखंड की चारधाम यात्रा कर आता हूं। आगरा मथुरा हाथरस अलीगढ होता हूआ नरौरा डैम पहुंचा और गंगा मैया में डुबकी लगाकर सारी थकान दूर कर दी। गंगा मैया में पापों का धुलना एक अलंकारिक कहावत है। जब भी व्यक्ति अपने घर से निकल कर नदियों जंगलों और पहाडों की ओर रुख करता है और एकांत में बैठकर मनन करता है कि मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है और मैं कर क्या रहा हूं। यही प्रायश्चित उसके पाप धो डालता है। मन को साफ कर डालता है। एकदम तरोताजा होकर घर लौटता है। 
चंदौसी में मित्र रानू गुप्ता जी के घर पर दोपहर का भोजन लिया और विश्राम कर शाम को तीन बजे नैनीताल के लिये निकल लिया। रानू गुप्ताजी का परिवार आर्य समाजी है। एकेश्वरवादी है।मूर्तिपूजा नहीं करता। निराकार ईश्वर की उपासना करता है लेकिन परिवार के कुछ सदस्य बैष्णव भी हैं तो कुछ सदस्य शैव भी है। मूर्तिपूजा करने वाले। विभिन्न विचारधाराओं वाले लोग एक ही परिवार में एक ही थाली में खाना खाते हैं। निरंकारी रानू भाई अपने भाई को काफिर कर दुत्कारता नहीं है और न ही उसके कमरे में घुसकर उसके मंदिर की मूर्तियों को लात मारता है। यही सनातन है। विभिन्न धाराओं का विशाल समुद्र में मिलना ही सनातन है।
चंदौसी से मुरादाबाद और रामपुर होते हुये रुद्रपुर की ओर आगे बढा। भारत विविधताओं का देश है।गंगा घाट पर हिंदुओं की नदी पूजा देखी थी तो चंदौसी में हवन करके प्रकृति का आह्वान आर्यसमाजी । रामपुर में जालीदार टोपी, मिले तो ऊधमसिंह नगर में सनातनी परंपरा में पवित्र गुरू शिष्य परंपरा को अमर बना देने वाले सनातन के सबसे बडे बेटे सिख भी मिले। हाथ में गुरूओं की पुस्तक लेने वाले इन शिष्यों ने उस वक्त कृपाण थाम ली थी जब निराकार ईश्वर के नाम पर कुछ जेहादियों ने देश और सनातन की इज्जत लूटना प्रारंभ कर दिया था।
रामपुर में मिलने वाले मौमिनों और रुद्रपुर में मिलने वाले सिखों की जीवन शैली को भी बडे गौर से आबजर्ब किया था मैंने। दोंनों ही ड्रैस कोड के मामले में समान हैं। एक अलग समुदाय के रूप में पहचान बनाते हैं। ड्रैस देखकर आसानी से लोग पहचान जाते हैं। जालीदार टोपी और पगडी पूरे विश्व में मिलेगी आपको। खानपान भी लगभग समान ही है। धार्मिक मान्यता गुरूओं और पैगंबरों की भी समान है। धार्मिक पुस्तक को भी दोनों ही अपनी जान से ज्यादा सम्मान देते हैं। भाषा के मामले में भी अपनी अलग अलग पहचान रखते हैं। विश्व के किसी कौने में रहें धार्मिक पुस्तक वाली भाषा को प्राथमिकता दी जाती है। दोनों पंथों में बहुत सारी समानतायें होने के बावजूद एक बहुत बडा अतंर है और वह है मानसिक सकारात्मकता एवं नकारात्मकता का। 
रुद्रपुर में गुरुद्वारे में ही रुका था मैं। गुरु के दरवाजे पर चाहे कोई आ जाय खाली हाथ नहीं लौटता। कभी आपका पंथ आपकी जाति आपका फिरका आपका रंग नहीं देखा जायेगा। बस अपनी आईडी की एक कौपी दो और लंगर में खाना खाकर कमरे में आराम करो। गुरूद्वारे में मैं श्रद्धा से मत्था टेकता हूं। मुझसे कभी किसी ने मत्था टेकने को बाध्य नहीं किया। गुरुओं की इतनी पवित्र वाणी के सामने कौन ऐसा होगा जो शीष न झुकायेगा। जिन गुरूओं ने इस देश की बहन बेटियों की इज्जत बचाने को शीष कटा दिये तो उनके आगे शीष स्वत: ही झुक जाता है। गुरुगृंथ साहिब और एक ऊंकार को मानने वाले गुरूओं के इन शिष्यों ( शिक्षों / सिखों/ learned) ने कभी देवी मां का अपमान नहीं किया। आज भी सारा हिंदुस्तान " जय माता दी " का जयघोष करता है जो कि पंजाबियों द्वारा ही दिया गया है। पंजाबी में "क" को "द" बोला जाता है। गुरूनानक तो हज करने मक्का मदीना तक पहुंच गये थे। देश विदेश में रहने वाले सिखी भाई चर्च भी जाते हैं। सभी पंथों का सम्मान करना इन्हें इनके गुरूओं ने सिखाया है और दूसरी ओर कुछ बताने की आवश्यकता नहीं है।
रुद्रपुर से आगे हल्द्वानी नैनीताल अल्मोडा बद्रीनाथ हेमकुंडसाहिब केदारनाथ की यात्रा अभी जारी है।











5 comments:

  1. अति सुन्दर वर्णन मास्टर साहब

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  2. रामपुर में आप बडे खुश हुए होंगे, आखिरकार आपकी पसंदीदा बिरादरी जो मिल गयी थी।
    गुरुदेव आपसे घुमक्कड़ी के बहुत गुण सीखने है बताते रहिये,
    मैं आपसे फेसबुक पर नहीं जुडा हूँ।

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  3. ऐसा लगा ही नही कि आपका लिखा पढ़ रहा हूँ, लगा बस मैं ही लिख रहा हूँ और मैं ही पढ़ भी रहा हूँ।
    दार्शनिकता से भरपुर, बहुत ही सुदंर यात्रा विवेचना। ����

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  4. शुक्रिया आप सभी का

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