Wednesday, March 1, 2017

शिरडी के सांई बाबा के दर्शन ।।

खैर कुल मिलाकर पैकिगं भी हो गयी और हम अगले ही दिन सुवह पांच बजे ग्वालियर के लिये रवाना हो गये जहां से हमें वास्को एक्सप्रेस पकडनी थी। गोवा के लिये धौलपुर से कोई डायरैक्ट ट्रैन नहीं है इसलिये हमें ग्वालियर से वास्को पकडनी पडी। हाल ही हाल में योजना बनी थी अत: जनरल में ही जाना पडा था। मैं तो पैदाईसी घुमक्कड हूं इसलिये मुझे तो जनरल में भी कोई प्रौब्लम नही होती और बल्कि आनंद आता है क्यूं असली भारत दर्शन तो जनरल में ही है। लेकिन शिरडी बाले सांई बाले बाबा से मिलने की प्रबल इच्छा के वशीभूत होकर मेरे दोनों दोस्तों ने भी भेड बकरियों बाले जनरल डिब्बे में जाना भी स्वीकार कर लिया।एज यूज्वल  ट्रैन छकाछक मिली। हालत ये हुई कि ग्वालियर से पकडी वास्को में मनमाड तक टंगे टंगे ही जाना पडा। पहली बार मनमाड स्टेशन पर उतरकर खुली हवा मिली। उतरते ही देखा कि  टैम्पो बाले 18-20 किमी दूर सांई मंदिर के लिये जोर से पुकार रहे थे। टैम्पो को भरने में मुस्किल से पांच मिनट लगी होंगी। वो हमें लेकर शहर के चौराहे पर पहुंचा ही था कि पुलिस जीप उसके पीछे लग गयी। हजारों की भीड को देखकर पुलिस बाले भी टैम्पो बालों से जमकर कमाई करते हैं। जब धर्म के नाम पर लाखों कमा रहे हैं तो वो ही क्यूं चूकें ? हहहह खैर दस मिनट के लिये थानेदार ड्राईवर को एक कौने में ले गया और उधर से मुस्कुराता हुआ आया। हम भी समझ गये कि सांई बाबा की कृपा दृष्टि इस पर भी पड गयी।
हम दस किमी ही चले थे कि दक्षिण की गंगा गोदावरी नदी को पहली बार देख कर मन प्रशन्न हो गया। हरे भरे पेडों से घिरी लेकिन सिमटी सी शरमाई सी गोदावरी भी मुझे सांवली नजर आयी। भले ही सांवली थी पर सलोनी थी। थोडी ही दूर नासिक शहर में इसकी भव्यता देखी जा सकती है जब कुंभ के मेले में लाखों लोगों की भीड टूट पडती है।
आधे घंटे की टैम्पो यात्रा के बाद हम शिरडी के सांई बाबा की नगरी में दस्तक दे दिये। सोचा पहले तो रुकने का इंतजाम किया जाय ताकि नहाधोकर यात्रा की थकान मिट सके। सांई धर्मशाला में पैर रखने को जगह नहीं, रूम कहीं मिले नहीं। बिना पूर्व की तैयारी के इस प्रकार की परेशानियों का सामना करना ही पडता है। और फिर उन दिनों हमारे पास गूगल गुरु भी नहीं थे। साधा फौन था एकदम ठोका नोकिया बाला। धर्मशाला के बगल से ही सार्वजनिक स्नानागार है, स्त्री पुरुषों के लिये सबके लिये व्यवस्था है।
शाम को नहा धोकर दर्शन करने पहुंचे। धर्मशाला से मुश्किल से दस मिनट पैदल चल कर ही सांईबाबा का मंदिर है। एक किमी लंबी लाइन पार करने में दो घंटे लग गये जबकि ये तो वो समय था जब बहुत कम लोग थे बहां। आखिरकार स्टील की रैलिग्सं में आगे बढते हुये सफेद संगमरमर की बाबा की मूर्ती के दर्शन हुये, मन प्रशन्न हो गया सुदंर संगमरमर का मंदिर देखकर। चडावा इतना कि बस पूछो मत। बाबा जब जीवित थे और लोगों को एकेश्वरवाद की शिक्षा दे रहे थे तब उन्हौने खुद भी नहीं सोचा होगा कि मेरे मरने के बाद लोग उनके नाम पर इतना बडा व्यापार खडा कर लेंगे। ससनातनी कहूं या भारतीय परम्परा में एकेश्वरवाद की मूल अवधारणा में लचीलापन का ही परिणाम है कि लोगों ने व्यक्ति पत्थर पेड यहां तक कि जानवर को भी अवतार बनाकर मूर्ति खडी कर उगाही करना शुरू कर दिया और वो उस व्यक्ति की मूल विचारधारा सिक्कों की खनखनाहट के शोर में दब कर रह गयी। बाबा जिन्दा होते और अपने नाम पर धंधा करते देखते तो निश्चित ही उन्हें दुख होता। बाबा तो एक फकीर थे और फकीर का पैसे से क्या रिश्ता ?
नयी दुनियां है साब। धर्म बिना लागत का धंधा बन चुका है। जहां तक बाबा के बारे में जानकारी ये है कि शिरडी साईं बाबा ( 28 सितम्बर 1836 - 15 अक्टूबर,1918) एक भारतीय आध्यात्मिक गुरु, योगी ,फ़कीर  और सूफी संत थे। बाबा एक ब्राह्मण परिवार में जन्मे और बाद में एक सूफ़ी फ़क़ीर द्वारा गोद ले लिए गए थे। साईं बाबा मुस्लिम टोपी पहनते थे और जीवन में अधिंकाश समय तक वह शिरडी की एक निर्जन मस्जिद में ही रहे, जहाँ कुछ सूफ़ी परंपराओं के पुराने रिवाज़ों के अनुसार वह धूनी रमाते थे। मस्जिद का नाम उन्होंने 'द्वारकामाई' रखा था। उन्हें पुराणों, भगवदगीता और हिन्दू दर्शन की विभिन्न शाखाओं का अच्छा ज्ञानथा। सबका मालिक एक है के उद्घोषक वाक्य से शिरडी के साईं बाबा ने संपूर्ण जगत को सर्वशक्तिमान ईश्वर के स्वरूप का साक्षात्कार कराया। उन्होंने मानवता को सबसे बड़ा धर्म बताया। खैर चलो इस बहाने कुछ गरीबों के बच्चे भी पल रहे हैं। मंदिर परिसर में घूमते घामते दूसरी ओर से बाहर निकल आये और धर्मशाला में सोने को रूम न मिला तो बरामदे में ही पसर गये। सुवह जल्दी ही जगे। नहा धोकर जल्दी से निकल लिये शनि शिगणापुर के लिये जिसके बारे में कहा जाता है कि आज भी घरों में ताले नहीं होते। 

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