(1990) मैं नौंवीं कक्षा में था। उसी साल हमारे घर में पहली बार टेलीविजन आया था।
मुझे खाडी युद्ध अच्छे से याद है मगर उससे छ महीने पहले हुई काश्मीर की विभीषिका जरा सी भी ध्यान नहीं है। क्यूँ कि मेरे शहर में इसका कोई जिक्र ही नहीं था। हालांकि मुस्लिमों में अमेरिका को गाली देने और अपने बच्चों का नाम सद्दाम रखने की जैसे होड सी लगी थी मगर उन्हें काश्मीरी पीडितों के लिये कोई गम न था।
चाय की दुकानों पर अमेरिका और ईराक युद्ध की चर्चा खूब होती थीं। मगर देश में पहली बार मजहबी जुनून ने हिंदुओं की सर्वधर्म समभाव विचारधारा का जो जनाजा निकाला था उसका जिक्र कहीं नहीं था।
भले देश के हिंदुओं में काश्मीरी क्रिया की कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई मगर इसने भविष्य के लिए जमीन जरूर तैयार कर दी। शायद ये ही वो समय था जब मैंने पहली बार अटल बिहारी बाजपायी जी और उनकी भारतीय जनता पार्टी का नाम सुना था।
समाज में क्रिया की प्रतिक्रिया नहीं हुई मगर राजनीति में उस वक्त एक ऐसी शक्ति को पैदा हो गयी जो आने वाले समय में देश में सर्वधर्म समभाव विचारधारा वाले हिंदुत्व में भी एक इस्लाम खडा कर सकती थी।
इस घटना के महज दो साल बाद भारत में पहली बार कोई मस्जिद ढहा दी गई। उन हजारों हिंदुओं के द्वारा ये घृणित कार्य हुआ जिन्हौने कभी अपनी जान पर खेलकर 1947 में मुसलमानों को पाकिस्तान जाने से रोका था और उनकी जान की रक्षा की थी।
ऐसा क्या और क्यूं हुआ काश्मीर में कि उसने भारतीय राजनीति की दशा और दिशा ही पलट दी, जानने के लिए हमें इतिहास के पन्नों को पलटना पडेगा।
इंदिरा गांधी की हत्या की सहानुभूति लहर में अब तक के इतिहास की सर्वाधिक सीटें लेकर राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री बने मगर एक ही कार्यकाल में जनता ने उन्हें नकार दिया और 2 दिसंबर 1989 को भारत के गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री बने वीपी सिंह और काश्मीरी मुफ्ती सईद देश के पहले मुस्लिम गृहमंत्री बने।
सपथ लेने के महज पांच दिन बाद 8 दिसंबर, 1989 को पूर्व गृह मंत्री मुफ्ती सईद की बेटी रूबिया सईद का अपहरण कर लिया गया। अपहरण करने वालों की मांग पांच आंतकवादियों की रिहाई की थी, जिसमें हामिद शेख, मोहम्मद अल्ताफ बट, शेर खान आदि।
एनएसजी के पूर्व मेजर जनरल ओपी कौशिक ने रूबिया सईद अपहरण मामले में कहा कि रूबिया के पिता और तत्कालीन गृहमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद नहीं चाहते थे कि उनकी बेटी जल्द रिहा हो। उन्होंने बताया कि अपहरण की सूचना मिलने के पांच मिनट के भीतर ही एनएसजी की टीम ने पता लगा लिया था कि रूबिया को कहां रखा गया है। कौशिक ने खुद गृहमंत्री को बताया कि रूबिया को कुछ देर में ही सुरक्षित रिहा करा लिया जाएगा। लेकिन गृहमंत्री ने उनकी बात को अनसुना कर निर्देश दिए कि वे तत्काल मीटिंग से बाहर जाकर एनएसजी को पीछे हटाएं।
गृह मंत्री मुफ्ती सईद से लेकर एम के नारायणन तक उसी माथापच्ची में जुटे थे कि अपहरणकर्ताओं से कैसे रूबिया को छुड़ाया जाए। अपहरणकर्ताओं की मांग को देखते हुए दिल्ली के अकबर रोड स्थित गृहमंत्री के घर पर बैठक बुलाई गई। इस बैठक में उस समय के वाणिज्य मंत्री अरुण नेहरु, कैबिनेट सचिव टी एन शेषन, इंटेलिजेंस ब्यूरो के डायरेक्टर एम के नारायणन और एनएसजी के डायरेक्टर जनरल वेद मारवाह मौजूद थे। बैठक में हुए फैसले के बाद भारत सरकार पांच आतंकियों को छोड़ने के राजी हो गई।
नेशनल सिक्युरिटी गार्ड के डायरेक्टर जनरल वेद मारवाह को श्रीनगर भेजा गया। 13 दिसंबर को केन्द्र के दो मंत्री इंद्र कुमार गुजराल और आरिफ मोहम्मद खान भी श्रीनगर पहुंचे। देश के गृहमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद ने उस समय के प्रधानमंत्री वीपी सिंह के साथ मिलकर आतंकवादियों के सामने घुटने टेकते हुए अपनी बेटी को छुड़ाने के लिए पांच खूंखार आतंकियों को छोड़ दिया।
13 दिसंबर, 1989 को रूबिया रिहा हुईं और लगा कि श्रीनगर में जैसे आज़ादी की खुशबू घुल गई थी। वहां के गलियारे खुशी के जश्न में डूबे हुए थे। बहुत से बाहर वाले भी सड़कों पर निकलकर जश्न मना रहे थे।
20 दिसंबर 1989 को रेजिडेन्सी रोड जैसी सुरक्षित जगह पर यूनियन बैक ऑफ इंडिया लूट लिया गया। 21 दिसंबर को इलाहबाद बैक के सुरक्षाकर्मी की हत्या कर दी गयी। 20 से 25 दिसंबर के बीच श्रीनगर समेत छह जगहो पर पुलिस को आंतकवादियों ने निशाना बनाया। दर्जनों मारे गये।
कश्मीर घाटी के हालात पूरी तरह बिगड़ चुके थे।पाकिस्तान परस्त दर्जनों आतंकी संगठन घाटी में समानांतर सरकार चलाना शुरू कर दिये। इन संगठनों में जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट मुख्य था।
14 सितंबर 1989- पंडित टीकालाल टपलू की हत्या, टीकालाल कश्मीर घाटी के प्रमुख राष्ट्रवादी नेता थे। लेकिन आतंकियों ने सबसे पहले उन्हें निशाना बनाकर अपने इरादे साफ कर दिये।
4 नवंबर 1989, टपलू की हत्या के मात्र सात सप्ताह बाद जस्टिस नीलकंठ गंजू की हत्या कर दी गयी।
1989 तक पं० नीलकंठ गंजू- जिन्होंने मकबूल बट को फांसी की सजा सुनाई थी- हाई कोर्ट के जज बन चुके थे। वे 4 नवंबर 1989 को दिल्ली से लौटे थे और उसी दिन श्रीनगर के हरि सिंह हाई स्ट्रीट मार्केट के समीप स्थित उच्च न्यायालय के पास ही आतंकियों ने उन्हें गोली मार दी थी। इस वारदात से डर कर आसपास के दूकानदार और पुलिसकर्मी भाग खड़े हुए और खून से लथपथ जस्टिस गंजू के पास दो घंटे तक कोई नहीं आया।
4 जनवरी सन 1990 को स्थानीय उर्दू अखबार में हिज्बुल मुजाहिद्दीन ने बड़े बड़े अक्षरों में प्रेस विज्ञप्ति दी कि - "या तो इस्लाम क़ुबूल करो या फिर घर छोड़कर चले जाओ."
5 जनवरी सन 1990 की सुबह गिरिजा पण्डित और उनके परिवार के लिए एक काली सुबह बनकर आयी। गिरजा की 60 वर्षीय माँ का शव जंगल में मिला उनके साथ बलात्कार किया गया था, उनकी आंखों को फोड़ दिया गया था, पोस्टमार्टम रिपोर्ट में उनके साथ गैंगरेप के बाद हत्या की बात सामने आई. उसके अगली सुबह गिरजा की बेटी गायब हो गयी जिसका आजतक कुछ पता नहीं चला।
7 जनवरी सन 1990 को गिरजा पण्डित ने सपरिवार घर छोड़ दिया और कहीं चले गये, ये था घाटी से किसी पण्डित का पहला पलायन, घाटी में पाकिस्तान के पाँव जमना, घाटी में हिज्बुल मुजाहिद्दीन का राज और भारत सरकार की असफलता और जिन्ना प्रेम ने कश्मीर को एक ऐसे गृहयुद्ध में धकेल दिया था, जिसका अंजाम बर्बादी और केवल बर्बादी थी।
19 जनवरी सन 1990 को सभी कश्मीरी पण्डितों के घर के सामने नोट लिखकर चिपका दिया गया - "कश्मीर छोड़ो या अंजाम भुगतो या इस्लाम अपनाओ."
19 जनवरी सन 1990, इन सब बढ़ते हुए विवादों के बीच तत्कालीन मुख्यमंत्री फ़ारुख अब्दुल्ला ने इस्तीफा दे दिया और प्रदेश में राज्यपाल शासन लग गया। तत्कालीन राज्यपाल को हटा कर जगमोहन को नया राज्यपाल बनाया गया। जगमोहन की तैनाती राज्यपाल के तौर पर 19 जनवरी 1990 को हुई लेकिन इससे पहले ही हालात काबू से बाहर जा चुके थे।
तत्कालीन राज्यपाल ने केंद्र सरकार से सेना भेजने की संस्तुति भेजी, लेकिन तब तक लाखों कश्मीरी मुसलमान सड़कों पर आ गये, बेनजीर भुट्टो ने पाकिस्तान से रेडियो के माध्यम से भड़काना शुरू कर दिया, स्थानीय नागरिकों को पाकिस्तान की घड़ी से समय मिलाने को कहा गया, सभी महिलाओं और पुरुषों को शरियत के हिसाब से पहनावा और रहना अनिवार्य कर दिया गया।बलात्कार और लूटपाट के कारण जन्नत-ए-हिन्द, जहन्नुम-ए-हिन्द बनता जा रहा था. सैकड़ों कश्मीरी हिंदुओं की बहन बेटियों के साथ सरेआम बलात्कार किया गया फिर उनके नग्न बदन को पेड़ों से लटका दिया गया।
केंद्र में राजीव गांधी की सरकार के दौरान ही जेकेएलएफ के आतंकियों ने कश्मीरी हिंदूओं पर हमले शुरू कर दिये थे।
"19 और 20 जनवरी 1990 की कश्मीर घाटी की सर्द रातों में मस्जिदों से एलान किये गए कि सभी कश्मीरी पंडित कश्मीर छोड़ कर चले जायें, अपनी पत्नी और बेटियों को भी यहीं छोड़े । हम अपने छह माह पहले अपने खून पसीने से बनाये मकान, दुकान और खेत, बगीचे छोड़कर मुश्किल से जान बचाकर भागे। करीब 1500 मन्दिर नष्ट कर दिए गए। लगभग 5000 कश्मीरी हिन्दुओ की हत्या कर दी गई।
23 जनवरी 1990 को 235 से भी ज्यादा कश्मीरी पण्डितों की अधजली हुई लाश घाटी की सड़कों पर मिली। छोटे छोटे बच्चों के शव कश्मीर के सड़कों पर मिलने शुरू हो गये, बच्चों के गले तार से घोंटे गये और कुल्हाड़ी से काट दिया गया। महिलाओं को बंधक बना कर उनके परिवार के सामने ही सामूहिक बलात्कार किया गया। आँखों में राड घुसेड़ दिया गया। स्तन काट कर फेंक दिया। हाथ पैर काट कर उनके टुकड़े कर कर फेंके गये, मन्दिरों को पुजारियों की हत्या करके उनके खून से रंग दिया इष्ट देवताओं और भगवान के मूर्तियों को तोड़ दिया गया।
24 जनवरी सन 1990 को तत्कालीन राज्यपाल ने कश्मीर बिगड़ते हालात देखकर फिर से केंद्र सरकार को रिमाइंडर भेजा लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री कार्यालय से कोई जवाब नहीं आया उसके बाद राज्यपाल ने विपक्ष के नेता राजीव गाँधी को एक पत्र लिखा जिसमें कश्मीर की बढ़ती समस्याओं का जिक्र था, उस पत्र के जवाब में भी कुछ नहीं आया।
26 जनवरी सन 1990 को भारत अपना 38 वाँ गणतंत्र दिवस मना रहा था उस समय कश्मीर के मूलनिवासी कश्मीरी पण्डित अपने खून एवम् मेहनत से सींचा हुआ कश्मीर छोड़ने को विवश हो गये थे, वो कश्मीर जहाँ की मिट्टी में पले बढ़े थे उस मिट्टी में दफन होने का ख्वाब उनकी आँखों से टूटता जा रहा था।
26 जनवरी की रात कम से कम 35 हजार कश्मीरी पण्डित, ये सिर्फ एक रात का पलायन है। इससे पहले 9 जनवरी, 16 जनवरी, 19 जनवरी को हज़ारों लोग अपना घर बार धंधा पानी छोड़कर कश्मीर छोड़कर जा चुके थे।पलायन करने को विवश हो गये। 29 जनवरी तक घाटी एकदम से कश्मीरी पण्डितों से विहीन हो चुकी थी लेकिन लाशों के मिलने का सिलसिला रुक नहीं रहा था।
2 फरवरी सन 1990 को राज्यपाल ने साफ साफ शब्दों में लिखा - "अगर केंद्र ने अब कोई कदम ना उठाये तो हम कश्मीर गवाँ देंगे."
इस पत्र को सारे राज्यों के मुख्यमंत्री, भारत के प्रधानमंत्री और विपक्ष के नेता राजीव गांधी के साथ साथ बीजेपी के नेता अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी को भी भेजा गया, पत्र मिलते ही बीजेपी का खेमा चौकन्न्ना हो गया और हज़ारों कार्यकर्ता प्रधानमंत्री कार्यालय पहुँच कर आमरण अनशन पर बैठ गये।
समस्त विपक्ष ने प्रधानमंत्री से दरख्वास्त की जल्द से जल्द इस मुद्दे पर कोई कार्यवाही की जाये। 6 फरवरी सन 1990 को केंद्रीय सुरक्षा बल के दो दस्ते अशांत घाटी में जा पहुँचे लेकिन उद्रवियों ने उनके ऊपर पत्थर और हथियारों से हमला कर दिया। सीआरपीएफ ने कश्मीर के पूरे हालात की समीक्षा करते हुए एक रिपोर्ट गृह मंत्रालय को भेज दी।
तत्कालीन राष्ट्रपति रामास्वामी वेंकटरमन ने तुरन्त कार्रवाई करते हुए AFSPA लगाने का निर्देश दे दिया।
मुझे खाडी युद्ध अच्छे से याद है मगर उससे छ महीने पहले हुई काश्मीर की विभीषिका जरा सी भी ध्यान नहीं है। क्यूँ कि मेरे शहर में इसका कोई जिक्र ही नहीं था। हालांकि मुस्लिमों में अमेरिका को गाली देने और अपने बच्चों का नाम सद्दाम रखने की जैसे होड सी लगी थी मगर उन्हें काश्मीरी पीडितों के लिये कोई गम न था।
चाय की दुकानों पर अमेरिका और ईराक युद्ध की चर्चा खूब होती थीं। मगर देश में पहली बार मजहबी जुनून ने हिंदुओं की सर्वधर्म समभाव विचारधारा का जो जनाजा निकाला था उसका जिक्र कहीं नहीं था।
भले देश के हिंदुओं में काश्मीरी क्रिया की कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई मगर इसने भविष्य के लिए जमीन जरूर तैयार कर दी। शायद ये ही वो समय था जब मैंने पहली बार अटल बिहारी बाजपायी जी और उनकी भारतीय जनता पार्टी का नाम सुना था।
समाज में क्रिया की प्रतिक्रिया नहीं हुई मगर राजनीति में उस वक्त एक ऐसी शक्ति को पैदा हो गयी जो आने वाले समय में देश में सर्वधर्म समभाव विचारधारा वाले हिंदुत्व में भी एक इस्लाम खडा कर सकती थी।
इस घटना के महज दो साल बाद भारत में पहली बार कोई मस्जिद ढहा दी गई। उन हजारों हिंदुओं के द्वारा ये घृणित कार्य हुआ जिन्हौने कभी अपनी जान पर खेलकर 1947 में मुसलमानों को पाकिस्तान जाने से रोका था और उनकी जान की रक्षा की थी।
ऐसा क्या और क्यूं हुआ काश्मीर में कि उसने भारतीय राजनीति की दशा और दिशा ही पलट दी, जानने के लिए हमें इतिहास के पन्नों को पलटना पडेगा।
इंदिरा गांधी की हत्या की सहानुभूति लहर में अब तक के इतिहास की सर्वाधिक सीटें लेकर राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री बने मगर एक ही कार्यकाल में जनता ने उन्हें नकार दिया और 2 दिसंबर 1989 को भारत के गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री बने वीपी सिंह और काश्मीरी मुफ्ती सईद देश के पहले मुस्लिम गृहमंत्री बने।
सपथ लेने के महज पांच दिन बाद 8 दिसंबर, 1989 को पूर्व गृह मंत्री मुफ्ती सईद की बेटी रूबिया सईद का अपहरण कर लिया गया। अपहरण करने वालों की मांग पांच आंतकवादियों की रिहाई की थी, जिसमें हामिद शेख, मोहम्मद अल्ताफ बट, शेर खान आदि।
एनएसजी के पूर्व मेजर जनरल ओपी कौशिक ने रूबिया सईद अपहरण मामले में कहा कि रूबिया के पिता और तत्कालीन गृहमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद नहीं चाहते थे कि उनकी बेटी जल्द रिहा हो। उन्होंने बताया कि अपहरण की सूचना मिलने के पांच मिनट के भीतर ही एनएसजी की टीम ने पता लगा लिया था कि रूबिया को कहां रखा गया है। कौशिक ने खुद गृहमंत्री को बताया कि रूबिया को कुछ देर में ही सुरक्षित रिहा करा लिया जाएगा। लेकिन गृहमंत्री ने उनकी बात को अनसुना कर निर्देश दिए कि वे तत्काल मीटिंग से बाहर जाकर एनएसजी को पीछे हटाएं।
गृह मंत्री मुफ्ती सईद से लेकर एम के नारायणन तक उसी माथापच्ची में जुटे थे कि अपहरणकर्ताओं से कैसे रूबिया को छुड़ाया जाए। अपहरणकर्ताओं की मांग को देखते हुए दिल्ली के अकबर रोड स्थित गृहमंत्री के घर पर बैठक बुलाई गई। इस बैठक में उस समय के वाणिज्य मंत्री अरुण नेहरु, कैबिनेट सचिव टी एन शेषन, इंटेलिजेंस ब्यूरो के डायरेक्टर एम के नारायणन और एनएसजी के डायरेक्टर जनरल वेद मारवाह मौजूद थे। बैठक में हुए फैसले के बाद भारत सरकार पांच आतंकियों को छोड़ने के राजी हो गई।
नेशनल सिक्युरिटी गार्ड के डायरेक्टर जनरल वेद मारवाह को श्रीनगर भेजा गया। 13 दिसंबर को केन्द्र के दो मंत्री इंद्र कुमार गुजराल और आरिफ मोहम्मद खान भी श्रीनगर पहुंचे। देश के गृहमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद ने उस समय के प्रधानमंत्री वीपी सिंह के साथ मिलकर आतंकवादियों के सामने घुटने टेकते हुए अपनी बेटी को छुड़ाने के लिए पांच खूंखार आतंकियों को छोड़ दिया।
13 दिसंबर, 1989 को रूबिया रिहा हुईं और लगा कि श्रीनगर में जैसे आज़ादी की खुशबू घुल गई थी। वहां के गलियारे खुशी के जश्न में डूबे हुए थे। बहुत से बाहर वाले भी सड़कों पर निकलकर जश्न मना रहे थे।
20 दिसंबर 1989 को रेजिडेन्सी रोड जैसी सुरक्षित जगह पर यूनियन बैक ऑफ इंडिया लूट लिया गया। 21 दिसंबर को इलाहबाद बैक के सुरक्षाकर्मी की हत्या कर दी गयी। 20 से 25 दिसंबर के बीच श्रीनगर समेत छह जगहो पर पुलिस को आंतकवादियों ने निशाना बनाया। दर्जनों मारे गये।
कश्मीर घाटी के हालात पूरी तरह बिगड़ चुके थे।पाकिस्तान परस्त दर्जनों आतंकी संगठन घाटी में समानांतर सरकार चलाना शुरू कर दिये। इन संगठनों में जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट मुख्य था।
14 सितंबर 1989- पंडित टीकालाल टपलू की हत्या, टीकालाल कश्मीर घाटी के प्रमुख राष्ट्रवादी नेता थे। लेकिन आतंकियों ने सबसे पहले उन्हें निशाना बनाकर अपने इरादे साफ कर दिये।
4 नवंबर 1989, टपलू की हत्या के मात्र सात सप्ताह बाद जस्टिस नीलकंठ गंजू की हत्या कर दी गयी।
1989 तक पं० नीलकंठ गंजू- जिन्होंने मकबूल बट को फांसी की सजा सुनाई थी- हाई कोर्ट के जज बन चुके थे। वे 4 नवंबर 1989 को दिल्ली से लौटे थे और उसी दिन श्रीनगर के हरि सिंह हाई स्ट्रीट मार्केट के समीप स्थित उच्च न्यायालय के पास ही आतंकियों ने उन्हें गोली मार दी थी। इस वारदात से डर कर आसपास के दूकानदार और पुलिसकर्मी भाग खड़े हुए और खून से लथपथ जस्टिस गंजू के पास दो घंटे तक कोई नहीं आया।
4 जनवरी सन 1990 को स्थानीय उर्दू अखबार में हिज्बुल मुजाहिद्दीन ने बड़े बड़े अक्षरों में प्रेस विज्ञप्ति दी कि - "या तो इस्लाम क़ुबूल करो या फिर घर छोड़कर चले जाओ."
5 जनवरी सन 1990 की सुबह गिरिजा पण्डित और उनके परिवार के लिए एक काली सुबह बनकर आयी। गिरजा की 60 वर्षीय माँ का शव जंगल में मिला उनके साथ बलात्कार किया गया था, उनकी आंखों को फोड़ दिया गया था, पोस्टमार्टम रिपोर्ट में उनके साथ गैंगरेप के बाद हत्या की बात सामने आई. उसके अगली सुबह गिरजा की बेटी गायब हो गयी जिसका आजतक कुछ पता नहीं चला।
7 जनवरी सन 1990 को गिरजा पण्डित ने सपरिवार घर छोड़ दिया और कहीं चले गये, ये था घाटी से किसी पण्डित का पहला पलायन, घाटी में पाकिस्तान के पाँव जमना, घाटी में हिज्बुल मुजाहिद्दीन का राज और भारत सरकार की असफलता और जिन्ना प्रेम ने कश्मीर को एक ऐसे गृहयुद्ध में धकेल दिया था, जिसका अंजाम बर्बादी और केवल बर्बादी थी।
19 जनवरी सन 1990 को सभी कश्मीरी पण्डितों के घर के सामने नोट लिखकर चिपका दिया गया - "कश्मीर छोड़ो या अंजाम भुगतो या इस्लाम अपनाओ."
19 जनवरी सन 1990, इन सब बढ़ते हुए विवादों के बीच तत्कालीन मुख्यमंत्री फ़ारुख अब्दुल्ला ने इस्तीफा दे दिया और प्रदेश में राज्यपाल शासन लग गया। तत्कालीन राज्यपाल को हटा कर जगमोहन को नया राज्यपाल बनाया गया। जगमोहन की तैनाती राज्यपाल के तौर पर 19 जनवरी 1990 को हुई लेकिन इससे पहले ही हालात काबू से बाहर जा चुके थे।
तत्कालीन राज्यपाल ने केंद्र सरकार से सेना भेजने की संस्तुति भेजी, लेकिन तब तक लाखों कश्मीरी मुसलमान सड़कों पर आ गये, बेनजीर भुट्टो ने पाकिस्तान से रेडियो के माध्यम से भड़काना शुरू कर दिया, स्थानीय नागरिकों को पाकिस्तान की घड़ी से समय मिलाने को कहा गया, सभी महिलाओं और पुरुषों को शरियत के हिसाब से पहनावा और रहना अनिवार्य कर दिया गया।बलात्कार और लूटपाट के कारण जन्नत-ए-हिन्द, जहन्नुम-ए-हिन्द बनता जा रहा था. सैकड़ों कश्मीरी हिंदुओं की बहन बेटियों के साथ सरेआम बलात्कार किया गया फिर उनके नग्न बदन को पेड़ों से लटका दिया गया।
केंद्र में राजीव गांधी की सरकार के दौरान ही जेकेएलएफ के आतंकियों ने कश्मीरी हिंदूओं पर हमले शुरू कर दिये थे।
"19 और 20 जनवरी 1990 की कश्मीर घाटी की सर्द रातों में मस्जिदों से एलान किये गए कि सभी कश्मीरी पंडित कश्मीर छोड़ कर चले जायें, अपनी पत्नी और बेटियों को भी यहीं छोड़े । हम अपने छह माह पहले अपने खून पसीने से बनाये मकान, दुकान और खेत, बगीचे छोड़कर मुश्किल से जान बचाकर भागे। करीब 1500 मन्दिर नष्ट कर दिए गए। लगभग 5000 कश्मीरी हिन्दुओ की हत्या कर दी गई।
23 जनवरी 1990 को 235 से भी ज्यादा कश्मीरी पण्डितों की अधजली हुई लाश घाटी की सड़कों पर मिली। छोटे छोटे बच्चों के शव कश्मीर के सड़कों पर मिलने शुरू हो गये, बच्चों के गले तार से घोंटे गये और कुल्हाड़ी से काट दिया गया। महिलाओं को बंधक बना कर उनके परिवार के सामने ही सामूहिक बलात्कार किया गया। आँखों में राड घुसेड़ दिया गया। स्तन काट कर फेंक दिया। हाथ पैर काट कर उनके टुकड़े कर कर फेंके गये, मन्दिरों को पुजारियों की हत्या करके उनके खून से रंग दिया इष्ट देवताओं और भगवान के मूर्तियों को तोड़ दिया गया।
24 जनवरी सन 1990 को तत्कालीन राज्यपाल ने कश्मीर बिगड़ते हालात देखकर फिर से केंद्र सरकार को रिमाइंडर भेजा लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री कार्यालय से कोई जवाब नहीं आया उसके बाद राज्यपाल ने विपक्ष के नेता राजीव गाँधी को एक पत्र लिखा जिसमें कश्मीर की बढ़ती समस्याओं का जिक्र था, उस पत्र के जवाब में भी कुछ नहीं आया।
26 जनवरी सन 1990 को भारत अपना 38 वाँ गणतंत्र दिवस मना रहा था उस समय कश्मीर के मूलनिवासी कश्मीरी पण्डित अपने खून एवम् मेहनत से सींचा हुआ कश्मीर छोड़ने को विवश हो गये थे, वो कश्मीर जहाँ की मिट्टी में पले बढ़े थे उस मिट्टी में दफन होने का ख्वाब उनकी आँखों से टूटता जा रहा था।
26 जनवरी की रात कम से कम 35 हजार कश्मीरी पण्डित, ये सिर्फ एक रात का पलायन है। इससे पहले 9 जनवरी, 16 जनवरी, 19 जनवरी को हज़ारों लोग अपना घर बार धंधा पानी छोड़कर कश्मीर छोड़कर जा चुके थे।पलायन करने को विवश हो गये। 29 जनवरी तक घाटी एकदम से कश्मीरी पण्डितों से विहीन हो चुकी थी लेकिन लाशों के मिलने का सिलसिला रुक नहीं रहा था।
2 फरवरी सन 1990 को राज्यपाल ने साफ साफ शब्दों में लिखा - "अगर केंद्र ने अब कोई कदम ना उठाये तो हम कश्मीर गवाँ देंगे."
इस पत्र को सारे राज्यों के मुख्यमंत्री, भारत के प्रधानमंत्री और विपक्ष के नेता राजीव गांधी के साथ साथ बीजेपी के नेता अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी को भी भेजा गया, पत्र मिलते ही बीजेपी का खेमा चौकन्न्ना हो गया और हज़ारों कार्यकर्ता प्रधानमंत्री कार्यालय पहुँच कर आमरण अनशन पर बैठ गये।
समस्त विपक्ष ने प्रधानमंत्री से दरख्वास्त की जल्द से जल्द इस मुद्दे पर कोई कार्यवाही की जाये। 6 फरवरी सन 1990 को केंद्रीय सुरक्षा बल के दो दस्ते अशांत घाटी में जा पहुँचे लेकिन उद्रवियों ने उनके ऊपर पत्थर और हथियारों से हमला कर दिया। सीआरपीएफ ने कश्मीर के पूरे हालात की समीक्षा करते हुए एक रिपोर्ट गृह मंत्रालय को भेज दी।
तत्कालीन राष्ट्रपति रामास्वामी वेंकटरमन ने तुरन्त कार्रवाई करते हुए AFSPA लगाने का निर्देश दे दिया।
देश के पहले मुस्लिम गृहमंत्री बने सईद मुफ्ती, पद पर बैठने के महज पांच दिन बाद ही खुद की बेटी को अगवा कर पांच आतंकियों को रिहा करते हैं और घाटी से चुन चुन कर हिंदुओं को बाहर करते हैं।
सैकड़ों को मौत के घाट उतार दिया गया और हजारों माताओं बहनों की इज्जत आबरू लूट ली गयी। आज उस काले दिन को तीस वर्ष पूरे हो गए हैं।
काश कभी कोई मानवतावादी इनके दर्द को भी समझ पाता। 😢😢😢