अल्मोडा से थोडा आगे चितई गांव के गोलू देवता का मंदिर जिनके यहां लोग लिखित में प्रार्थना पत्र या अर्जियां देकर जाते हैं, घंटियों से भरा पडा है। लोग इतनी घंटियां चढाते हैं कि मंदिर में दीवार तो नजर ही नहीं आती सिर्फ घंटियां ही नजर आती हैं। दरअसल गोलू देवता यहां के लोग देवता हैं।पहाडी लोगों की अपनी एक अलग संस्कृति और अपने लोक देवी देवता होते हैं। पहाडी लोग मुख्यता प्रकृति पूजक होते हैं। पशु पक्षी पेड पानी और प्रकृति ही इनका परम पिता परमेश्वर है। बाकी जितने भी पहाडों में मंदिर दिखाई पडते हैं, सारे के सारे गुप्तकालीन या राजपूत कालीन राजाओं द्वारा बनवाये गये हैं। पहाडों में रहने वाले आदिवासियों की आस्था शिव जी या पशुपतिनाथ में मैंने खूब देखी है क्यूं कि शिव आदि देव हैं और वह प्रकृति के प्रतीक भी हैं। महात्मा बुद्ध भी यहां विराजमान हैं। छठवीं शताब्दी तक बुद्ध और शिव ही पूरे देश में छाये रहे।अतिंम बौद्ध सम्राट हर्षवर्धन के बाद जैसे ही राजपूत काल आया, पूरे देश में बौद्ध संस्कृति विलुप्त होने लगी और शिव एवं बौद्ध मंदिरों के स्थान पर वैष्णव मंदिर बनने लगे।हालांकि पहाडों में आज भी शैव मत एवं बुद्ध मत का अच्छा खासा प्रभाव है।
उत्तराखण्ड को मुख्यतया दो मण्डलों में विभाजित किया जा सकता है। कुमाऊँ और गढ़वाल।
अल्मोड़ा बागेश्वर चंपावत नैनीताल पिथौरागढ़ उधमसिंह नगर। कुमाऊँ के उत्तर में तिब्बत, पूर्व में नेपाल, दक्षिण में उत्तर प्रदेश तथा पश्चिम में गढ़वाल मंडल हैं।रानीखेत में भारतीय सेना की प्रसिद्ध कुमाऊँ रेजिमेंट का केन्द्र स्थित है I कुमाऊँ के मुख्य नगर हल्द्वानी, नैनीताल, अल्मोड़ा, रानीखेत, पिथौरागढ़, रुद्रपुर, काशीपुर, पंतनगर तथा मुक्तेश्वर हैं I कुमाऊँ मण्डल का शासनिक केंद्र नैनीताल है और यहीं उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय भी स्थित है I
गोलू देवता के मंदिर से थोडा आगे बढा ही था कि बूंदाबांदी शुरू हो गयी। टेंशन नहीं था रेनकोट था मेरे पास। कोई आधे घंटे में ही जागेश्वर पहुंच गया। जागेश्वर से थोडा पहले ही एक वृद्ध जागेश्वर भी हैं। मंदिर एकदम एकांत स्थान पर बने हैं। ना तो कोई भक्तों की भीड और न घंटों की कानफोडू आवाज। दूर दूर तक हरे भरे पेड और सुंदर पहाड।नदी का कलकल करता जल तो पहाडों में पशु चराते सीधे साधे पहाडी लोग। मैंने तो हमेशा मंदिर से बाहर इन्ही प्राकृतिक तत्वों में ही शिव को देखा है, मंदिर तो बस समाज को इक्ट्ठा करने का एक स्थान है। शिवलिंग या शिवमूरत को मैं बाहर फैली कुदरत की अपार खूबसूरती का एक प्रतीक मात्र ही मानता आया हूं। चमत्कारों में मैंने आज तक विश्वास नहीं किया। चमत्कार जैसे शब्द पंडों के गढे हुये शब्द हैं जो उनकी दुकानदारी के हिसाब से जरूरी भी हैं।जितना बडा चमत्कार उतना बडा धंधा। जहां तक इन मंदिरों की बात है पहाडों में बना शायद ही कोई मंदिर हजार साल से पुराना होगा।
उत्तर भारत में गुप्त साम्राज्य के दौरान हिमालय की पहाडियों के कुमाऊं क्षेत्र में कत्यूरीराजा थे। जागेश्वर मंदिरों का निर्माण भी उसी काल में हुआ। इसी कारण मंदिरों में गुप्त साम्राज्य की झलक भी दिखलाई पडती है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अनुसार इन मंदिरों के निर्माण की अवधि को तीन कालों में बांटा गया है। कत्यरीकाल, उत्तर कत्यूरीकाल एवं चंद्र काल। बर्फानी आंचल पर बसे हुए कुमाऊं के इन साहसी राजाओं ने अपनी अनूठी कृतियों से देवदार के घने जंगल के मध्य बसे जागेश्वर में ही नहीं वरन् पूरे अल्मोडा जिले में चार सौ से अधिक मंदिरों का निर्माण किया जिसमें से जागेश्वर में ही लगभग 250 छोटे-बडे मंदिर हैं। मंदिरों का निर्माण लकडी तथा सीमेंट की जगह पत्थर की बडी-बडी शिलाओं से किया गया है। दरवाजों की चौखटें देवी देवताओं की प्रतिमाओं से अलंकृत हैं। मंदिरों के निर्माण में तांबे की चादरों और देवदार की लकडी का भी प्रयोग किया गया है।
जागेश्वर को पुराणों में हाटकेश्वर और भू-राजस्व लेखा में पट्टी पारूण के नाम से जाना जाता है। पतित पावन जटागंगा के तट पर समुद्रतल से लगभग पांच हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित पवित्र जागेश्वर की नैसर्गिक सुंदरता अतुलनीय है। कुदरत ने इस स्थल पर अपने अनमोल खजाने से खूबसूरती जी भर कर लुटाई है।
जागेश्वर मंदिर समूह वाला रास्ता घने पेडों से घिरा इतना एकांत है कि अकेले आदमी को डर भी लग आता है। काफी दूर तक कोई घनी रिहाइस बस्ती नहीं है। हालांकि मंदिर के ठीक सामने एक दो लौज हैं जहां आप रात को रुक सकते हैं। लेकिन मैंने तो अल्मोडा में रुकने का विचार पहले ही बना लिया था।मात्र पैंतीस किमी था।भले हल्की हल्की बूंदाबांदी हो रही थी लेकिन रात होने से पहले अल्मोडा पहुंच कर रुकने का ठिकाना ढूंड सकता था। मैं सामान्यत: गुरूद्वारों में ही रुकता हूं। यह भी एक विडंबना ही है कि मंदिर घूमने वाले इंसान को शरण गुरु के घर में लेनी पडती है क्यूं कि भगवान का घर तो पंडो ने घेर रखा है और सिर्फ कमाई का साधन बना रखा है। जिस भक्त की बजह से कमाई हो रही है उसके रुकने खाने पीने के लिये कोई इंतजाम नहीं है। धर्मशालाओं वाले भी बहुत नालायक होते हैं जानबूझ कर धर्मशाला को भरा हुआ बतायेंगे ताकि भक्तों को होटल में रुकना पडे। इस तरह की लूट मुझे अंदर तक चोट पहुंचाती है। खैर हम तो बारिस में भीगते ठिठुरते अल्मोडा चले आये, रास्ते में गुरूद्वारा मिला नहीं, हमने ढूंडा नहीं,बस चलते रहे और शहर पार कर कौसानी वाले रोड पर कटारमल मंदिर के नजदीक नदी के किनारे एक सस्ते से लौज में मात्र तीन सौ रुपये में टिक गये। सुवह चार बजे यात्रा पुन: प्रारंभ करनी थी , कौसानी ग्वालदम थराली कर्णप्रयाग होते हुये बद्रीनाथ पहुंचना था, इसलिये जल्दी ही सो गये।