बच्चों की जानने की लालसा बडी तीव्र होती है और वे अक्सर अपने पिता से ढेरों सवाल पूछा करते हैं।
“पापा, ईश्वर कौन होता है ? कहां रहता है ? हमें दिखता क्यूं नहीं है ? इस धरती को किसने बनाया ? ये नदियां और ये आसमान क्या हैं ? आदमी को किसने बनाया ? पापा बताओ क्या वाकई ईश्वर हमारे पास फरिस्ते भेजता है ? क्या वाकई वो अवतार लेकर धरती पर आते हैं ?
लगभग हर पिता अपने बच्चों को अपनी बुद्धि विवेक और अपनी धार्मिक आस्था के हिसाब से अपने बच्चों को समझा भी देता है और बच्चे वही मान भी लेते हैं क्यूं कि उन्हें अपने पिता पर भरोषा है।
अब जिम्मेवारी पिता की है कि वह अपने बच्चों को अपनी धार्मिक किताबों से रटी हुई कहानियां सुनाकर शांत करता है या वाकई तर्कों द्वारा ईश्वर और उनके भेजे गये पैगम्बरों की हकीकत बताता है। एक बार बस एक बार हम यह दुनिया कितनी बडी है इस विषय पर सोचें। आदमी एक छोटी सी इकाई मात्र है। हमारी पृथ्वी हमारे गृह सूरज का अन्य उपग्रहो के साथ एक उपगृह मात्र है। सूरज हमारी आकाशगंगा का एक छोटा सा गृह मात्र है। हमारी आकाश गंगा में कितने तारे है यह कोई परिकल्पना नही कर पाया। फिर हमारे खगोल में कितनी आकाश गंगा है यह भी कल्पना से परे हैं। जो इन्सान इस बृम्हान्ड के आकार की परिकल्पना नही कर सकता वह इसके बनने की या बिगडने की परिकल्पना करे तो मूर्खता को सिवाय कुछ नही है। सोचो जब हम इस खगोल की तुच्छतम इकाई सूरज को करोडो किमी की दूरी से भी आंखभर नही देख सकते। जब हम इन छोटा सी आंखो से पूरी धरती को भी नही देख सकते। तो क्या इतने बडे बृम्हांड के बनाने वाले निर्माता को इन तुच्छ आंखो से देख सकते हैं ? सोचो जब जिसकी बनायी चीजे इतनी बडी है कि उनको देखने की बात तो छोडो उनके आकार की भी परिकल्पना हम नही कर सकते तो उन चीजो के निर्माता को देखने का दम्भ कैसे भर सकते है ? जिसके बनाये खिलौने इतने बडे है वह खुद कितना बडा होगा यह कल्पना से भी परे की चीज है। कोई व्यक्ति या कोई किताब इस असीमित अनन्त अकथनीय मिथक को कैसे जान सकती है, जिसकी कल्पना भी नही कर पा रहे उसे नापने की ?
आदिमानव को बस भोजन और शरण चाहिये थी जो इन जंगलों और गुफाओं ने प्रदान कर दी थी। ना तो उसे किसी भगवान पर फूलमाला चडाने की जरूरत थी और ना ही किसी शैतान पर पत्थर फेंकने की। उसके लिये तो ये पत्थर ही था बस। ना तो ये पत्थर भगवान था और ना शैतान। इस पत्थर को भगवान या शैतान बनाने की जरूरत उन बुद्धिजीवियों को पढी जो अपनी बल और बुद्धि की शक्ति के बल पर अन्य पर राज करना चाहते थे। और ये सब संभव हुआ उस भय के कारण जिसे कम बुद्धि का मानव समझ न सका। बादल का गरजना, बिजली का कडकना और आंधी तूफान वर्षा ने डराया तो उसे खुश करने के लिये उसे ही पूजने लगे। हजारों साल तक यही सब चलता रहा तब तक कि कोई नयी थ्यौरी न लेकर आ गया। खुद को ईश्वर का भेजा हुआ दूत बताकर उन पत्थरों को भगवान मानने की वजाय शैतान मानने पर जोर देने लगा मानो कि पत्थर को शैतान मानने से ही सारी समस्याएं हल हो जायेंगी।
लोगों ने मान भी लिया। मूर्ति पूजक सभ्यताएं समाप्त हुईं और मूर्ति विनाशक सभ्यता का उदय हुआ। फिर क्या सब कुछ ठीक हो गया ?
अन्याय अत्याचार अशिक्षा भूख गरीबी दूर हो गयी ? शांति बहाल हुई ?
नहीं खून खराबा हुआ ? तरक्की के नाम पर हथियार बने इस खूबसूरत दुनियां को खत्म करने के लिये। स्वंय घोषित ईश्वर के दूतों का मकसद सुकून पहुंचाना नहीं बल्कि स्वयं की सत्ता की स्थापना करना था। हजारों लाखों अनुयायी पैदा करना था जो हो गये लेकिन दुनियां और ज्यादा बदसूरत हो गयी।
जो एकदम धार्मिक अंधा होगा वही भले न इन बातों पर सोचे पर जिसने थोडा बहुत भी इतिहास पढा होगा, समझ जायेगा कि पंथ विचारधारा और ईश्वर द्वारा पैगम्बर और अवतार उतारे जाने की कहानियां जनसामान्य को राहत देने हेतु नहीं बल्कि उनका खून चूसने के लिये बनायीं गयीं थीं।
कितने बडे आश्चर्य की बात है कि सेमेटिक रिलीजन्स यहूदी ईसाई और इस्लाम के पैगम्बर सिर्फ जेरूसलेम के इर्द गिर्द ही जन्मे और सत्ता प्राप्ति हेतु खूब खून खरावा किये और उधर भारतीय पंथों के सभी अवतार देवी देवता सिर्फ भारत में ही दानवों का नाश करते रहे।
यही कहानी हर सभ्यता की है। सेमेटिक रिलीजन्स की सच्चाई जाननी है तो यूनान, मिश्र और रोम की सभ्यता के उत्थान और पतन का इतिहास पढ लें सारे पैगम्बरों की पोल खुलती नजर आयेगी।
अब्राहम/ इब्राहिम इन तीनों ही रिलीजन्स का गौड फादर है और तीनों के लिये ही पूज्य है। मूलत: यहूदी कबीला सरदार जिसने सर्वप्रथम मूर्तिपूजा का विरोध किया।
यहीं से होती है ईश्वर के नाम पर सिंधु के उस पार सत्ता की खूनी शुरूआत।
जबकि सिंधु के इस पार जातीय सर्वश्रेष्ठता और जमीन की लडाई में एक जाति को देवता और दूसरी को दानव बना कर खूब खून की होलियां खेली गयीं तथाकथित धर्म के नाम पर।
सच कडबा होता है। धर्मों का नंगा नाच जानना और पहचानना चाहते हो तो उठाओ इतिहास और देखो कि किसी प्रकार खुद को ईश्वर का दूत बताकर राजाओं ने मासूमों का खून बहाया है इस जमीन की खातिर ।
मुझे हंसी तो उन मूर्खों पर आती है जो पढ लिख कर भी इस जुल्म को ईश्वर की इच्छा कहते हैं। सिंधु के उस पार और इस पार के ईश्वर भी अलग अलग थे क्या ?
सभ्यता के आरंभ से ही God fearing people रहे हैं God Loving नहीं। सामान्यत: माना जाता है कि मरने के बाद जीव की आत्मा परमात्मा में विलीन हो जाती है। अर्थात मानव मरने के बाद ईश्वर के पास पहुंच जाता है। यदि मनुष्य ईश्वर प्रेमी होता तो आज स्वेच्छा से मरने बालों की लाईन लग रही होती और मनुष्य मृत्यु से घवरा रहा नहीं होता।
ईसा से मात्र तीन हजार साल पहले तक विश्व के प्रत्येक कौने में मनुष्य आकाशीय शक्तियों से डरता रहा और उसी डर और लालच में उन्हें अपना देवता बना बैठा। यूनान रोम मिश्र सुमेरिया असीरिया हों या एशियाई सभ्यता , सिर्फ प्राकृतिक देवता ही मनुष्यों को डराते रहे और उसी डर में उन्ही देवताओं की स्तुति शुरू हो गयी।
साहित्य में उनका मानवीयकरण हुआ। शादियां हुईं । बच्चे भी हुये। उन्होने व्यभिचार भी किया। बलात्कार भी किये। लूटखसोट भी की और इन्ही देवताओं का डर दिखा कर तत्कालीन कबीले के सरदारों ने जनसाधारण का खूब शोषण किया। हिन्दू धर्म में जिसे देवता कहा जाता है, इस्लाम में उन्हें फरिश्ता कहा गया है। ईसाई धर्म में ऐन्जल कहते हैं।
इस प्रश्न का अभी सटीक जबाब कोई भी गृंथ नहीं दे पाया है कि ये देवता/फरिस्ते/एंजल शरीरधारी थे या बिना देह के। कुछ अति बौद्धिक तर्क देते हैं कि 12 हजार ईपू धरती पर देवता या दूसरे ग्रहों के लोग उतरे और उन्होंने पहले इंसानी कबीले के सरदारों को ज्ञान दिया और फिर बाद में उन्होंने राजाओं को अपना संदेशवाहक बनाया और अंतत: उन्होंने इस धरती पर कई प्रॉफेट/ पैगंबर पैदा कर दिए।
प्रश्न खडा होता है कि पिछले इन चौदह हजार वर्षों में फिर कोई एलियन धरती पर क्यूं नहीं उतरे और किसी पीएम को पैगम्बर बना कर क्यूं नहीं गये। इन्हौने सिर्फ राजाओं को ही पैगम्वर या अवतार क्यूं चुना किसी आम आदमी को क्यूं नहीं ? इन स्वर्गदूत ने यहां की स्त्रियों के प्रति आकर्षित होकर उनके साथ संभोग करना भी शुरू किया और यहां के उन्ही राजाओं से युद्ध भी करने शुरू कर दिये । बस यही नहीं इन्ही देवताओं की बजह से इंसानों में झगड़े चलते रहे। इंसानों में भी दो गुट बन गये। पहले वे जो इन देवताओं के साथ थे और दूसरे वे जो उन्हें शैतान मानते थे। विरोधी लोग रक्त की शुद्धता बनाए रखने के लिए उनका विरोध करते थे।
जबकि आज तत्कालीन साहित्य का अध्ययन करने के बाद हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि प्राकृतिक शक्तियों आंधी तूफान बिजली वर्षा बाढ सूखा गर्मी सर्दी से डर कर ही समाज ने काल्पनिक देवताओं का निर्माण कर दिया जिसे साहित्यकारों ने मानवीयकरण कर अपनी कथाओं के माध्यम से जनसाधारण के बीच स्थायी कर दिया।
“पापा, ईश्वर कौन होता है ? कहां रहता है ? हमें दिखता क्यूं नहीं है ? इस धरती को किसने बनाया ? ये नदियां और ये आसमान क्या हैं ? आदमी को किसने बनाया ? पापा बताओ क्या वाकई ईश्वर हमारे पास फरिस्ते भेजता है ? क्या वाकई वो अवतार लेकर धरती पर आते हैं ?
लगभग हर पिता अपने बच्चों को अपनी बुद्धि विवेक और अपनी धार्मिक आस्था के हिसाब से अपने बच्चों को समझा भी देता है और बच्चे वही मान भी लेते हैं क्यूं कि उन्हें अपने पिता पर भरोषा है।
अब जिम्मेवारी पिता की है कि वह अपने बच्चों को अपनी धार्मिक किताबों से रटी हुई कहानियां सुनाकर शांत करता है या वाकई तर्कों द्वारा ईश्वर और उनके भेजे गये पैगम्बरों की हकीकत बताता है। एक बार बस एक बार हम यह दुनिया कितनी बडी है इस विषय पर सोचें। आदमी एक छोटी सी इकाई मात्र है। हमारी पृथ्वी हमारे गृह सूरज का अन्य उपग्रहो के साथ एक उपगृह मात्र है। सूरज हमारी आकाशगंगा का एक छोटा सा गृह मात्र है। हमारी आकाश गंगा में कितने तारे है यह कोई परिकल्पना नही कर पाया। फिर हमारे खगोल में कितनी आकाश गंगा है यह भी कल्पना से परे हैं। जो इन्सान इस बृम्हान्ड के आकार की परिकल्पना नही कर सकता वह इसके बनने की या बिगडने की परिकल्पना करे तो मूर्खता को सिवाय कुछ नही है। सोचो जब हम इस खगोल की तुच्छतम इकाई सूरज को करोडो किमी की दूरी से भी आंखभर नही देख सकते। जब हम इन छोटा सी आंखो से पूरी धरती को भी नही देख सकते। तो क्या इतने बडे बृम्हांड के बनाने वाले निर्माता को इन तुच्छ आंखो से देख सकते हैं ? सोचो जब जिसकी बनायी चीजे इतनी बडी है कि उनको देखने की बात तो छोडो उनके आकार की भी परिकल्पना हम नही कर सकते तो उन चीजो के निर्माता को देखने का दम्भ कैसे भर सकते है ? जिसके बनाये खिलौने इतने बडे है वह खुद कितना बडा होगा यह कल्पना से भी परे की चीज है। कोई व्यक्ति या कोई किताब इस असीमित अनन्त अकथनीय मिथक को कैसे जान सकती है, जिसकी कल्पना भी नही कर पा रहे उसे नापने की ?
आदिमानव को बस भोजन और शरण चाहिये थी जो इन जंगलों और गुफाओं ने प्रदान कर दी थी। ना तो उसे किसी भगवान पर फूलमाला चडाने की जरूरत थी और ना ही किसी शैतान पर पत्थर फेंकने की। उसके लिये तो ये पत्थर ही था बस। ना तो ये पत्थर भगवान था और ना शैतान। इस पत्थर को भगवान या शैतान बनाने की जरूरत उन बुद्धिजीवियों को पढी जो अपनी बल और बुद्धि की शक्ति के बल पर अन्य पर राज करना चाहते थे। और ये सब संभव हुआ उस भय के कारण जिसे कम बुद्धि का मानव समझ न सका। बादल का गरजना, बिजली का कडकना और आंधी तूफान वर्षा ने डराया तो उसे खुश करने के लिये उसे ही पूजने लगे। हजारों साल तक यही सब चलता रहा तब तक कि कोई नयी थ्यौरी न लेकर आ गया। खुद को ईश्वर का भेजा हुआ दूत बताकर उन पत्थरों को भगवान मानने की वजाय शैतान मानने पर जोर देने लगा मानो कि पत्थर को शैतान मानने से ही सारी समस्याएं हल हो जायेंगी।
लोगों ने मान भी लिया। मूर्ति पूजक सभ्यताएं समाप्त हुईं और मूर्ति विनाशक सभ्यता का उदय हुआ। फिर क्या सब कुछ ठीक हो गया ?
अन्याय अत्याचार अशिक्षा भूख गरीबी दूर हो गयी ? शांति बहाल हुई ?
नहीं खून खराबा हुआ ? तरक्की के नाम पर हथियार बने इस खूबसूरत दुनियां को खत्म करने के लिये। स्वंय घोषित ईश्वर के दूतों का मकसद सुकून पहुंचाना नहीं बल्कि स्वयं की सत्ता की स्थापना करना था। हजारों लाखों अनुयायी पैदा करना था जो हो गये लेकिन दुनियां और ज्यादा बदसूरत हो गयी।
जो एकदम धार्मिक अंधा होगा वही भले न इन बातों पर सोचे पर जिसने थोडा बहुत भी इतिहास पढा होगा, समझ जायेगा कि पंथ विचारधारा और ईश्वर द्वारा पैगम्बर और अवतार उतारे जाने की कहानियां जनसामान्य को राहत देने हेतु नहीं बल्कि उनका खून चूसने के लिये बनायीं गयीं थीं।
कितने बडे आश्चर्य की बात है कि सेमेटिक रिलीजन्स यहूदी ईसाई और इस्लाम के पैगम्बर सिर्फ जेरूसलेम के इर्द गिर्द ही जन्मे और सत्ता प्राप्ति हेतु खूब खून खरावा किये और उधर भारतीय पंथों के सभी अवतार देवी देवता सिर्फ भारत में ही दानवों का नाश करते रहे।
यही कहानी हर सभ्यता की है। सेमेटिक रिलीजन्स की सच्चाई जाननी है तो यूनान, मिश्र और रोम की सभ्यता के उत्थान और पतन का इतिहास पढ लें सारे पैगम्बरों की पोल खुलती नजर आयेगी।
अब्राहम/ इब्राहिम इन तीनों ही रिलीजन्स का गौड फादर है और तीनों के लिये ही पूज्य है। मूलत: यहूदी कबीला सरदार जिसने सर्वप्रथम मूर्तिपूजा का विरोध किया।
यहीं से होती है ईश्वर के नाम पर सिंधु के उस पार सत्ता की खूनी शुरूआत।
जबकि सिंधु के इस पार जातीय सर्वश्रेष्ठता और जमीन की लडाई में एक जाति को देवता और दूसरी को दानव बना कर खूब खून की होलियां खेली गयीं तथाकथित धर्म के नाम पर।
सच कडबा होता है। धर्मों का नंगा नाच जानना और पहचानना चाहते हो तो उठाओ इतिहास और देखो कि किसी प्रकार खुद को ईश्वर का दूत बताकर राजाओं ने मासूमों का खून बहाया है इस जमीन की खातिर ।
मुझे हंसी तो उन मूर्खों पर आती है जो पढ लिख कर भी इस जुल्म को ईश्वर की इच्छा कहते हैं। सिंधु के उस पार और इस पार के ईश्वर भी अलग अलग थे क्या ?
सभ्यता के आरंभ से ही God fearing people रहे हैं God Loving नहीं। सामान्यत: माना जाता है कि मरने के बाद जीव की आत्मा परमात्मा में विलीन हो जाती है। अर्थात मानव मरने के बाद ईश्वर के पास पहुंच जाता है। यदि मनुष्य ईश्वर प्रेमी होता तो आज स्वेच्छा से मरने बालों की लाईन लग रही होती और मनुष्य मृत्यु से घवरा रहा नहीं होता।
ईसा से मात्र तीन हजार साल पहले तक विश्व के प्रत्येक कौने में मनुष्य आकाशीय शक्तियों से डरता रहा और उसी डर और लालच में उन्हें अपना देवता बना बैठा। यूनान रोम मिश्र सुमेरिया असीरिया हों या एशियाई सभ्यता , सिर्फ प्राकृतिक देवता ही मनुष्यों को डराते रहे और उसी डर में उन्ही देवताओं की स्तुति शुरू हो गयी।
साहित्य में उनका मानवीयकरण हुआ। शादियां हुईं । बच्चे भी हुये। उन्होने व्यभिचार भी किया। बलात्कार भी किये। लूटखसोट भी की और इन्ही देवताओं का डर दिखा कर तत्कालीन कबीले के सरदारों ने जनसाधारण का खूब शोषण किया। हिन्दू धर्म में जिसे देवता कहा जाता है, इस्लाम में उन्हें फरिश्ता कहा गया है। ईसाई धर्म में ऐन्जल कहते हैं।
इस प्रश्न का अभी सटीक जबाब कोई भी गृंथ नहीं दे पाया है कि ये देवता/फरिस्ते/एंजल शरीरधारी थे या बिना देह के। कुछ अति बौद्धिक तर्क देते हैं कि 12 हजार ईपू धरती पर देवता या दूसरे ग्रहों के लोग उतरे और उन्होंने पहले इंसानी कबीले के सरदारों को ज्ञान दिया और फिर बाद में उन्होंने राजाओं को अपना संदेशवाहक बनाया और अंतत: उन्होंने इस धरती पर कई प्रॉफेट/ पैगंबर पैदा कर दिए।
प्रश्न खडा होता है कि पिछले इन चौदह हजार वर्षों में फिर कोई एलियन धरती पर क्यूं नहीं उतरे और किसी पीएम को पैगम्बर बना कर क्यूं नहीं गये। इन्हौने सिर्फ राजाओं को ही पैगम्वर या अवतार क्यूं चुना किसी आम आदमी को क्यूं नहीं ? इन स्वर्गदूत ने यहां की स्त्रियों के प्रति आकर्षित होकर उनके साथ संभोग करना भी शुरू किया और यहां के उन्ही राजाओं से युद्ध भी करने शुरू कर दिये । बस यही नहीं इन्ही देवताओं की बजह से इंसानों में झगड़े चलते रहे। इंसानों में भी दो गुट बन गये। पहले वे जो इन देवताओं के साथ थे और दूसरे वे जो उन्हें शैतान मानते थे। विरोधी लोग रक्त की शुद्धता बनाए रखने के लिए उनका विरोध करते थे।
जबकि आज तत्कालीन साहित्य का अध्ययन करने के बाद हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि प्राकृतिक शक्तियों आंधी तूफान बिजली वर्षा बाढ सूखा गर्मी सर्दी से डर कर ही समाज ने काल्पनिक देवताओं का निर्माण कर दिया जिसे साहित्यकारों ने मानवीयकरण कर अपनी कथाओं के माध्यम से जनसाधारण के बीच स्थायी कर दिया।